Read this article in Hindi to learn about the two important committees of public administration. The committees are:- 1. सार्वजनिक लेखा समिति (Public Accounts Committee) 2. अधीनस्थ विधान समिति (Committee or Subordinate Legislation).

1. सार्वजनिक लेखा समिति (Public Accounts Committee):

सार्वजनिक धन के नियंत्रण का मसला सर्वाधिक महत्व का होता है क्योंकि यह धन जनता की मेहनत की कमाई होती है, जो वह अपने शासन प्रबन्ध के लिए सरकार को सौंपती है । लोकतन्त्र में संसदीय नियन्त्रण जनता के प्रति इस उत्तरदायित्व को पूरा करने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू होता है संसद अपने इस दायित्व को लोक लेखा समिति के माध्यम से अधिक सजगतापूर्वक और प्रभावशाली ढंग से पूरा कर पता है ।

भारत में लोक सेवा समिति की सिफारिश सर्वप्रथम बेल्बी आयोग (1896) ने की थी । लेकिन इसकी स्थापना हुई 1919 के मांटेग्यू-चम्सफोड सुधार अधिनियम के द्वारा । इस अधिनियम के अंतर्गत 1920 में विधायी नियम बनाये गये जिसमें संख्या 67(1) लोक लेखा समिति से संबंधित था और अंततः 1921 में भारत की प्रथम लोक लेखा समिति का गठन हुआ ।

कृष्ण मेनन समिति की अनुशंसा पर स्वतंत्र भारत की प्रथम लोक लेखा समिति 1950 में स्थापित हुई जिसमें प्रारंभ में मात्र लोकसभा के 15 सदस्य थे । नेहरूजी की राय से 1954 में राज्यसभा से 7 सदस्यों को लेकर 22 सदस्यीय संयुक्त समिति बना दिया गया ।

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22 सदस्यों में अध्यक्ष शामिल है । इसके चुनाव प्रतिवर्ष होते हैं । 1969 से इसका अध्यक्ष विपक्षी सदस्यों में से लेने की परंपरा शुरू हुई । द्विवार्षिक कार्यकाल वाली इस समिति चुनाव प्रतिवर्ष आनुपातिक आधार पर एकल संकमणीय पद्धति से होता है ।

कार्य:

समिति अपना कार्य महालेखा परीक्षक (केग) के प्रतिवेदन के प्रस्तुत होने पर शुरू करती है, क्योंकि उसकी जांच का आधार ”केग” का प्रतिवेदन ही होता है । समिति की पहली बैठक में ”केग” प्रतिवेदन के प्रमुख बिन्दुओं, अनियमितताओं पर प्रकाश डालता है ।

समिति इसके बाद संसदीय कार्यवाही नियम 143 के तहत निम्नलिखित कार्यों को करती है:

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i. सरकार के विनियोजन लेखों का पुन: सूक्ष्म परीक्षण, केग प्रतिवेदन के सन्दर्भ में करती है ।

ii. धन की प्राप्ति और उसका व्यय विनियोजन अधिनियम में दी गयी स्वीकृति अनुसार किया गया है ।

iii. क्या व्यय सक्षम अधिकारी द्वारा ही किया गया ? इसके अतिरिक्त समिति, निम्नलिखित कार्य भी करती है ।

iv. निगमों, संस्थाओं, सार्वजनिक उपक्रमों और योजनाओं के आय-व्यय पहलुओं से संबंधित केग की रिर्पोट पर विचार । लेकिन समिति उन उपक्रमों के संबंध में कार्य नहीं करती जिनको नियमों के अंतर्गत या स्पीकर द्वारा सार्वजनिक उपक्रम समिति के अधिकार में रखा गया है ।

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v. राष्ट्रपति या संसद द्वारा निर्देशित करने पर केग द्वारा किसी स्वतन्त्र निकाय या निगम के लेखों की जांच से संबंधित प्रतिवेदन पर विचार ।

vi. राष्ट्रपति के निर्देश पर किसी भण्डार की जांच से संबंधित केग-प्रतिवेदन पर विचार ।

vii. संसद द्वारा किसी उद्देश्य-विशेष के लिए स्वीकृत राशि से अधिक व्यय आ है तो उसकी जांच ।

उल्लेखनीय है कि समिति इनके अतिरिक्त हर उस लेखे की भी जांच कर सकती है, जो संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है । समिति विचार करते समय विभागीय अधिकारियों से स्पष्टीकरण मांग सकती है । वह किसी योजना या विभाग या निगम का स्थल निरीक्षण कर सकती है ।

वह राष्ट्रीय सुरक्षा को छोड़कर शेष किसी भी लेखे, प्रपत्र को जांच हेतु बुलवा सकती है । वह अपना प्रतिवेदन तैयार कर, केग से उसके तथ्यों की पुष्टि करवाकर संसद के विचारार्थ प्रस्तुत करती है । उसकी सिफारिशों पर सरकार को कार्यवाही करने, न करने का अधिकार है, लेकिन सामान्यतया वे स्वीकार कर ली जाती है ।

समिति ने अब तक अनेक महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं जिनमें वित्तीय प्रशासन में सुधार भी शामिल है । उसने परियोजनाओं के परिणामों के सन्दर्भ में मूल्यांकन भी किया है और सरकार के अति व्यय पर अप्रत्यक्ष नियन्त्रण लगाने में मदद की है । वित्तीय अनियमताओं के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को दण्डित करने की सिफारिशें भी समिति ने की है ।

समिति की यह कहकर आलोचना की जाती है कि यह:

(i) केग के प्रतिवेदन आने तक निष्क्रिय बनी रहती है ।

(ii) केग प्रतिवेदन में उठाए गए मुद्दों तक सीमित रहती है ।

(iii) यह राजनीतिक समिति है, विशेषज्ञ नहीं, अतः कार्यों में गुणवत्ता और निष्पक्षता दोनों का अभाव होता है ।

(iv) यह पोस्टमार्टम करती है, अर्थात अनियमितता तो हो चुकी होती है, खर्च धन वापस तो नहीं लाया जा सकता ।

(v) इसके कारण संसद अपने वित्तीय नियन्त्रण के कार्य से उदासीन हो जाती है ।

(vi) सरकार इसकी सिफारिशों को गम्भीरता से नहीं लेती है ।

लेकिन उपर्युक्त आलोचनाएं एकपक्षीय है । सिडनी वेब के शब्दों में, ”भले ही पोस्टमार्टम से मृत जीवित न हो सके, लेकिन हत्याएं तो रुकती है ।” वस्तुतः समिति एक ऐसा मंच है जहां राजनीतिज्ञ-अधिकारी निकट आते है । समिति जनता के सम्मुख प्रशासन की खामियों, अनियमितताओं को प्रकट करने में सफल होती है जिससे प्रशासन सदैव सचेत रहकर कार्य करता है ।

यही लोकतन्त्र में इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है । निष्कर्षतः समिति ने संसद के कार्यभार को कम कर, उसकी और से शासन के वित्त प्रयोग की परीक्षा के दायित्व को अधिक कुशलता, विश्लेषण और प्रभावशाली ढंग से पूरा किया है ।

2. अधीनस्थ विधान समिति (Committee or Subordinate Legislation):

1953 में गठित अधीनस्थ विधान समिति में अध्यक्ष सहित 15 सदस्य होते हैं । सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष का होता है । अध्यक्ष स्पीकर द्वारा मनोनीत किया जाता है, जो विपक्षी दल से होता है । कोई भी मंत्री इसका सदस्य नहीं हो सकता है ।

समिति का मुख्य उद्देश्य कार्यपालिका द्वारा निर्मित अधीनस्थ विधान (Delegated Legislation) की जांच कर यह पता लगाना है कि वह संसद की मंशानुरूप है या नहीं तथा उसका प्रयोग उचित ढंग से हो रहा है या नहीं ।

लोक सभा नियम संख्या 320 के तहत समिति अधीनस्थ विधान पर निम्न संदर्भों में विचार करती है कि:

i. क्या यह मूल संसदीय अधिनियम संविधान के सामान्य उद्देश्यों के अनुरूप है ।

ii. क्या इसकी विषय वस्तु ऐसी है जिस पर (समिति की राय में) अधीनस्थ विधान के बजाय संसदीय विधान के अंतर्गत चर्चा होनी चाहिये थी ।

iii. क्या इसमें कोई करारोपण का तत्व है ।

iv. क्या यह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से न्यायालयीन शक्तियों पर रोक लगाता है ।

v. क्या यह ऐसा कोई पूर्व प्रभावी प्रावधान करता है जिसकी अनुमति संविधान या मूल अधिनियम नहीं देता ।

vi. क्या इसमें भारत की संचित निधि या सार्वजनिक आय में से कोई राशि खर्च करने का प्रावधान है ।

vii. क्या यह संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का असाधारण या अवांछित प्रयोग करता है या उसके अनुसार काम करता है जिसके लिये अधिनियम बनाया गया है ।

viii. क्या यह उसके अनुसार काम करता है जिसके लिये अधिनियम बनाया गया है ।

ix. क्या ऐसा प्रतीत होता है कि इस विधान के प्रकाशन का संसद के प्रस्तुतीकरण में अनुचित विलंब किया गया ।

x. क्या किसी भी कारण से स्वरूप या अर्थ को स्पष्ट करने की जरूरत है ।