Read this article in Hindi to learn about:- 1. विभागीय स्थायी समितियां का अर्थ (Meaning of Departmental Standing Committees) 2. विभागीय स्थायी समितियां का कार्य (Principles of Departmental Standing Committees) 3. लाभ (Advantages) and Other Details.
विभागीय स्थायी समितियां का अर्थ (Meaning of Departmental Standing Committees):
लोकसभा की नियम समिति की अनुशंसा पर 8 अप्रैल 1993 को संसद की 17 स्थायी समितियां की स्थापना की गयी । इसके पीछे उद्देश्य था, ”मंत्रालयों पर नियंत्रण, विशेषकर वित्तीय नियंत्रण स्थापित करना ।”
प्रत्येक समिति में 45 सदस्य होते हैं जिनमें से 30 लोकसभा और 15 राज्यसभा क होते हैं । इस प्रकार ये सभी संयुक्त संसदीय समितियां हैं । इन सदस्यों का मनोननय सदन का पीठासीन अधिकारी एक वर्ष के लिये करता है । मंत्री सदस्य नहीं हो सकता है ।
11 समितियों के अध्यक्षों की नियुक्ति स्पीकर (लोकसभाध्यक्ष) द्वारा तथा 6 समितियों के अध्यक्षों की नियुक्ति राज्यसभा के सभापति द्वारा समिति के सदस्यों में से ही की जाती है । सदस्यों की नियुक्ति में आनुपातिक दलीय प्रतिनिधित्व का ध्यान रखा जाता है ।
विभागीय स्थायी समितियां का कार्य (Principles of Departmental Standing Committees):
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समितियों के अधिकार में केंद्र सरकार के समस्त मंत्रालय और विभाग आते हैं । लोकसभा नियम संख्या 331 के अंतर्गत समितियों के कार्य हैं:
1. मंत्रालयों, विभागों की अनुदान मांगों पर विचार करना और उसके बारे में सदन को सूचित करना ।
2. लोकसभा अध्यक्ष तथा राज्यसभा के सभापति द्वारा समिति को भेजे गए इस प्रकार के विधेयकों की जांच पड़ताल करना और जैसा भी मामला हो उसके बारे में रिपोर्ट तैयार करना ।
3. मंत्रालयों और विभागों की वार्षिक रिपोर्टों पर विचार करना और उसकी रिपोर्ट बनाना ।
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4. सदन में प्रस्तुत किए गए दस्तावेजों एवं लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति द्वारा समिति को भेजे गये विषयों पर विचार करना और जैसा भी हो उसके बारे में रिपोर्ट तैयार करना ।
विभागीय स्थायी समितियां के लाभ (Advantages of Departmental Standing Committees):
स्थायी समिति प्रणाली के निम्नलिखित लाभ हैं:
1. इनकी कार्यवाहियां दलीय पक्षपात से रहित होती ।
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2. इनके द्वारा अपनाई गई कार्यविधि लोकसभा की तुलना में अधिक लचीली है ।
3. यह प्रणाली कार्यपालिका पर संसदीय नियंत्रण को अधिक विस्तृत, सूक्ष्म, सतत, गहरी और व्यापक बनाती है ।
4. अपनी मांगों को करने में मंत्रालय चूंकि अब अधिक सावधान रहते हैं, अतः यह प्रणाली सार्वजनिक व्यय में मितव्ययता और कुशलता सुनिश्चित करती है ।
5. संसद के सभी सदस्यों को ये समितियां सरकारी कार्य संचालन में भाग लेने, उसे समझने और योगदान करने के अवसर प्रदान करती हैं ।
6. अपनी रिपोर्टें तैयार करने के लिये ये विशेषज्ञों और जनता की राय ले सकती है । अपने सामने गवाही देने के लिये वे विशेषज्ञों तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों को बुलाने तथा अपनी रिपोर्टों में उनकी राय को शामिल करने का अधिकार रखती है ।
7. कार्यपालिका पर वित्तीय नियंत्रण लागू करने में विरोधी पार्टियां और राज्यसभा अब प्रभावी भूमिका अदा कर सकती है ।
विभागीय स्थायी समितियां के सीमाएं (Limitation of Departmental Standing Committees):
समिति के कार्यों पर ये प्रतिबंध लगाये गये हैं:
1. समितियों को संबद्ध मंत्रालयों, विभागों के दिन-प्रतिदिन के प्रशासनिक मामलों पर विचार नहीं करना चाहिए ।
2. आमतौर पर इनको उन मामलों पर विचार नहीं करना चाहिए जिन पर अन्य संसदीय समितियों द्वारा विचार किया जा रहा हो ।
यह ध्यान देने योग्य है कि इन समितियों की सिफारिशों की प्रकृति परामर्शी है, अतः संसद इनसे बंधी नहीं है ।
अनुदान मांग पर कार्य प्रणाली:
अनुदानों की मांगों पर विचार करते समय प्रत्येक समिति निम्नलिखित कार्यविधि अपनाएगी और उस पर सदनों को रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी (नियम 331 जी):
(क) बजट पर सामान्य चर्चा की समाप्ति के बाद दोनों सदन एक निश्चित काल के लिये स्थगित कर दिये जाएंगे ।
(ख) संबंधित मंत्रालय की अनुदान-मांगों पर समितियों द्वारा विचार उपरोक्त स्थगन काल के दौरान ही किया जाएगा ।
(ग) समितियां अपनी रिपोर्ट अवधि के भीतर ही तैयार करेंगी और अधिक समय की माँग नहीं करेंगी ।
(घ) सदन में अनुदान की मांगों पर विचार समितियों की रिपोर्टो के प्रकाश में किया ।
(ड़) प्रत्येक मंत्रालय की अनुदान मांगों पर अलग से रिपोर्ट करेंगी ।
विधायी नियंत्रण की सीमाएं:
भारत की संसदीय शासन व्यवस्था में प्रशासन पर विधायी नियंत्रण सैद्धांतिक रूप से प्रभावी दिखायी देता है लेकिन व्यवहारिक रूप से इसकी अनेक सीमाएं है जो इसके प्रभाव को कम कर देती हैं:
1. प्रशासन का विशाल आकार जबकि संसद के पास समयाभाव ।
2. प्रशासन की जटिलता जबकि संसद के पास विशेषज्ञता का अभाव ।
3. अनुदान मांगों की तकनीकी प्रकृति प्रशासन के अन्य तकनीकी मामलों की जांच हेतु संसद के पास तकनीकी योग्यता का अभाव ।
4. संसद का विशाल आकार अतएव नियंत्रण अप्रभावी ।
5. कार्यपालिका का बहुमत संसदीय नियंत्रण को सीमांकित कर देता है ।
6. समितियों के माध्यम से वित्तीय नियंत्रण मात्र शव परीक्षा है क्योंकि व्यय तो हो चुका होता है ।
7. प्रदत्त व्यवस्थापन में अत्यधिक वृद्धि से संसद की भूमिका विपरित रूप से प्रभावित ।
8. गिलोटीन (बहस का समय कम कर या बिना बहस के अनुदान मांगे पास करवाना) की बढ़ती प्रवृत्ति ने संसद के वित्तीय नियंत्रण को अप्रभावी बनाया ।
9. अध्यादेश का बढ़ता प्रचलन भी संसदीय नियंत्रण को कुप्रभावित कर रहा है ।
10. हाल के वर्षों में संसदीय आचरण बेहुदा, हंगामा भरा और असंसदीय प्रकृति का रहा है जिससे नियंत्रण-प्रणाली प्रभाव खो रही है ।
11. त्रिशकु संसद में विपक्ष भी बंटा हुआ और कम प्रभावी है ।
12. संसदीय नियंत्रण ”राजनीतिक नियंत्रण” होकर दलीय भावना का रूप ले लेता है जिससे नियंत्रण का औचित्य और इसलिये प्रभाव कम हो जाता है ।
13. सांसद कम अनुभवी और विशेषज्ञताहिन होते है अतः जटिल और तकनीक प्रधान प्रशासनिक कार्यवाहियों पर नियन्त्रण नहीं रख पाते ।
14. प्रशासन की आलोचना एक पक्षीय होती है, क्योंकि संबंधित अधिकारियों को अपना पक्ष रखने का अवसर प्राप्त नहीं होता है । इससे प्रशासन की कार्यकुशलता, निष्पक्षता प्रदूषित होती है ।
15. संसद का अधिक नियन्त्रण और बिना आधार का ”मात्र विरोध” के लिए विरोध आधारित नियन्त्रण प्रशासन को अकर्मण्य, उत्साहीन कर देता है ।
संसदीय लोकतन्त्र में यह एक समस्यामूलक प्रश्न है कि प्रशासन पर संसदीय नियन्त्रण की सीमा और स्वरूप क्या हों?
वस्तुतः इसके दो पहलू हैं:
(1) जनता के प्रति उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए संसद का पर्याप्त नियन्त्रण प्रशासन पर हो और
(2) प्रशासन को अपना कार्य निष्पक्षता और उत्साहपूर्वक करने देने के लिए उस पर लचीला नियन्त्रण हो, तभी कार्यकुशलता भी प्राप्त होगी ।
पाल एच एपीलबी का मत:
एपीलबी ने संसदीय नियंत्रण को प्रशासनिक कार्यों में बाधक के रूप में देखा और उसकी निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की:
1. सांसद केग-रिपोर्ट को जरूरत से अधिक महत्व देते है और उसे बड़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं । इससे लोकसेवकों में अकर्मण्यता आती है और वे निर्णय के उत्तरदायित्व से बचने की कोशीश करते हैं और परिणामतः निर्णय या तो विलंब से लेते हैं या विचार विमर्श से लेते है या कोई संदर्भ ढूंढते है । इन सबसे निर्णय लेने में प्रत्येक की भागीदारी धुंधली, धीमी और अपर्याप्त होती है ।
2. सांसद इस बात से भयग्रस्त रहते है कि संसद के उत्तरदायित्व को सुरक्षित नहीं रखा जा रहा है । यहाँ ब्रिटेन की तुलना में सरकारी प्रस्तावों को संसद अनेक बार संशोधित करती है और इन प्रस्तावों की खासियत यह है कि वे संसद के एक छोटे वर्ग की भावनाओं तक सीमित रहते हैं ।
3. संसद अक्सर ही पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर काम करती है ।
4. संसद बहुधा ही छोटे प्रभावशाली व्यावसायिक हितों को अत्यधिक रियायत देने की प्रवृत्ति रखती है । वह तदनुरूप ही सरकारी निर्णयों को बदलने पर जोर देती है ।
5. संसद ने लोक सेवा आयोग की संकीर्ण और छोटी समझ को इस गलतफहमी में समर्थन दिया था कि आयोग योग्यता प्रणाली को मजबूत करेगा लेकिन हकीकत में इससे मंत्रियों के संसदीय उत्तरदायित्व की भावना ही कमजोर हुई ।
6. अधिकार-प्रत्यायोजन का सबसे अधिक विरोध संसद में होता है । यह भारतीय प्रशासन की सबसे बड़ी कमजोरी है । अपनी शक्तियों को महत्वपूर्ण और सकारात्मक बनाने के लिये संसद को उनका प्रत्यायोजन करना चाहिए लेकिन संसद ऐसा नहीं करके मंत्री, सचिव, निदेशक को भी अपने अधिकार-प्रत्यायोजन के लिये हतोत्साहित करती है ।
अध्यक्षात्मक प्रजातंत्र में विधायी नियंत्रण की प्रकृति (Nature of Departmental Standing Committee):
अमेरिका में अध्यक्षात्मक प्रजातंत्र है अर्थात राष्ट्रपति शासन प्रणाली है ।
यह संसदीय शासन प्रणाली से दो महत्वपूर्ण मामलों में भिन्न है:
1. सत्ता पृथक्करण का सिद्धांत:
इस प्रणाली में विधायिका और कार्यपालिका एक दूसरे से स्वतंत्र हैं अर्थात न तो कार्यपालिका का निर्माण विधायिका में से होता है, न ही वह विधायिका (कांग्रेस) के प्रति उत्तरदायी है । इसी प्रकार दोनों की अपनी-अपनी पृथक शक्तियां भी है जैसे विभाग (मंत्रालय) बनाने की शक्ति कांग्रेस में है जबकि वीटो का असीमित अधिकार राष्ट्रपति को है ।
2. बहुमत के शासन का अभाव:
इस प्रणाली में नाममात्र और वास्तविक, दोहरी कार्यपालिका नहीं होती अपितु एकमात्र ”राष्ट्रपति” ही वास्तविक कार्यपालिका है । वही मंत्रियों (सचिव) का नियुक्तिकर्ता, पदमुक्तिदाता होता है । राष्ट्रपति जनता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होता है और उसके लिये कांग्रेस में बहुमत रखना जरूरी नहीं होता । वह संविधान मात्र के प्रति उत्तरदायी होता है । लेकिन अध्यक्षात्मक शासन में कांग्रेस का प्रशासन पर नियंत्रण फिर भी एक सीमा में लागू होता है ।
जो इस प्रकार है:
1. कांग्रेस ही विभाग, आयोग, निकाय आदि का निर्माण करती है उनकी संरचना कार्य प्रक्रिया तय करती है और इस प्रकार से प्रशासन पर नियंत्रण लागू करती है ।
2. उक्त विभागों, आयोगों आदि की जांच अपनी समितियों के माध्यम से करा सकती है ।
3. लोक नीतियों, पद्धतियों, कार्य विधियों आदि से संबंधित कानूनों का निर्माण, संशोधन, निरसन कांग्रेसी करती है ।
4. वह बजट की स्वीकृति देती है और लेखा तथा लेखा-परीक्षण की जांच करती है ।
5. राष्ट्रपति द्वारा अन्य देशों से की गयी संधि, समझौते आदि को अनुमोदित करने का अधिकार सीनेट (उच्च सदन) को प्राप्त है ।
6. उच्च पदों पर राष्ट्रपति द्वारा की गयी नियुक्तियों के अनुमोदन का अधिकार भी सीनेट को है ।
7. भ्रष्टाचार या राजद्रोह के आधार पर कांग्रेस राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाकर और पारित कर उसे अपदस्थ कर सकती है ।
8. कांग्रेस को अधिकार है कि वह प्रशासनिक अभिकरणों से उनके पिछले कार्यों और भावी योजनाओं के बारे में प्रतिवेदन मांग सके । एफ.ए.निग्रो ने इस अधिकार को ”सहसंचालन का सिद्धांत” कहा । इस सिद्धांत के अनुसार कांग्रेस की प्रशासनिक निर्णय-निर्माण में प्रत्यक्ष भूमिका स्वीकारी जाती है ।
निष्कर्ष:
स्पष्ट है कि संसदीय की तुलना में अध्यक्षात्मक शासन में विधायिका का नियंत्रण क्षेत्र में सीमित एवं विशिष्ट और प्रकृति में प्रतिबंधित है ।