Read this article in Hindi to learn about:- 1. संचार का अर्थ और परिभाषा (Meaning and Definitions of Communication) 2. संचार के माध्यम (Medium of Communication) 3. कठिनाइयां या अवरोध (Difficulties or Constraints).

संचार का अर्थ और परिभाषा (Meaning and Definitions of Communication):

संचार प्रशासन का प्रथम सिद्धांत माना जाता है । अभिकरण के उद्देश्य की सफलता के लिए प्रभावशाली संचार व्यवस्था आवश्यक होती है । किसी संगठन के लिए कार्य करने वाले लोग यदि संगठन के उद्देश्यों, नीतियों तथा परिस्थितियों को समझते हैं, तो उनका उसके प्रति अधिक लगाव होगा, वे अपने कार्य में अधिक रुचि लेंगे तथा संगठन के साथ अधिक एकरूपता होगी । किसी व्यक्ति के उत्साहपूर्ण तथा क्रियात्मक सहयोग को प्राप्त करने का यही मार्ग है कि उस अभिकरण का प्रधान उसका विश्वास प्राप्त करे ।

यह संचार का युग है । आज औसत दर्जे का आदमी भी अपनी सरकार तथा पड़ोसियों के अधिक निकट है । वह अपने चारों ओर के जीवन से अधिक एकरूपता का अनुभव करता है । अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी जब हम ”एक विश्व” की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं । समूह प्राद्यौगिकी तथा मानव मनोविज्ञान में हुए अनुसंधानों ने सिद्ध कर दिया है कि किसी भी संगठन का सफल संचालन उसमें काम करने वाले व्यक्तियों के सहयोग पर निर्भर करता है ।

लोकतंत्र की यही प्रथम आवश्यकता है कि जनता प्रशासन से अधिकाधिक संबंद्ध होनी चाहिए । इसी कारण व्यापार तथा शासन, दोनों क्षेत्रों के संगठनों में अति उत्तम संचार-व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता को स्वीकार कर लिया गया है । मिलजुल कर कार्य करने में संचार द्वारा निभायी गयी भूमिका को प्रबंध स्वीकार करता है ।

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इसके पर्याप्त प्रमाण भी हैं । आज लगभग सभी सभ्य सरकारों ने सूचना, प्रकाशन तथा लोक संपर्क विभाग स्थापित कर लिये हैं । प्रबंध संबंधी साहित्य संचार से संबंधित लेखों से भरा है । संचार कौशल को विकसित करने के लिए विशेषतः सभाएँ, कार्यशालाएँ तथा अन्य प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका में यह विशेष रूप से हो रहा है ।

‘संचार’ शब्द का प्रयोग प्रायः ज्ञान के प्रसार या सूचना भेजने के अर्थ में किया जाता है । फिर भी यहाँ इस शब्द का कहीं अधिक विस्तृत विचारों का आदान-प्रदान, विचारों की साझेदारी तथा भाग लेने की भावना सम्मिलित है । इस प्रकार, संचार का मूल अर्थ सूचना नहीं, बल्कि समझ (Understanding) है ।

मिलेट ने इसकी परिभाषा – ”किसी साझे के प्रयोजन की साझी समझ” के रूप में दी है । टीड भी ऐसे ही विचार प्रकट करता है- ”संचार का मूल विषयों पर मस्तिष्कों में मेल स्थापित करना है ।”

किसी संगठन में संचार आंतरिक, बाह्य तथा अतिवैयक्तिक (Interpersonal) होता है । प्रथम, आंतरिक संचार का संबंध संगठन तथा कर्मचारियों के मध्य के संबंधों से होता है । द्वितीय, बाह्य संचार का संबंध जनता और संगठन के अभिकरणों के संबंधों से होता है, और इसे, ‘लोक संबंध’ कहते हैं । तृतीय, अंतरवैयक्तिक संचार का संबंध अभिकरणों के कर्मचारियों के अपने आपस के ही अंतःसंबंधों से होता है ।

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संचार को तीन वर्गों – ‘ऊर्ध्व’ (Up), ‘अधो’ (Down) तथा ‘अधो-पार्श्व’ (Across) में भी वर्गीकृत किया गया है । ‘उर्ध्व’ संचार कार्य करने तथा प्रगति के विषय में लिखित, मौलिक तथा व्यवस्थित प्रतिवेदन की रीतियों से प्राप्त होता है; कार्य के संबंध में सांख्यिकी तथा गणना प्रतिवेदन, मार्गदर्शन, सुझावों तथा चर्चाओं संबंधी लिखित तथा मौद्रिक निवेदन किये जाते है ।

इस प्रकार कार्य की समस्याओं के विषय में साक्ष्य प्राप्त करने के लिए उच्च स्तर के अधिकारियों को साधन प्राप्त हो जाते हैं । ‘अधो’ संचार निर्देश पुस्तिका, लिखित या मौखिक विशिष्ट आदेश या अनुदेश कर्मचारी वर्ग के सम्मेलन, बजट अनुमोदन तथा स्थापना प्राधिकरण जैसे साधनों से संभव होता है ।

उच्चतम तल पर नई युक्तियों का प्रयोग केवल समादेश तथा नियंत्रण के लिए ही नहीं किया जाता, बल्कि नीचे के सभी स्तरों एवं कर्मचारियों को अपने रुख तथा विचारों की सूचना देने तथा मौखिक सूचना तथा प्रतिवेदन के आदान-प्रदान, औपचारिक तथा अनौपचारिक व्यक्तिगत संपर्कों, कर्मचारी-वर्ग की बैठकों तथा समन्वय करने वाली समितियों द्वारा संभव होता है । संगठन के अलग-अलग किंतु संबंधित भागों को एक जगह लाना संचार का लक्ष्य होता है ।

संचार के माध्यम (Medium of Communication):

संचार अनेक माध्यमों द्वारा संभव है । इन्हें तीन मुख्य वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है- श्रव्य (Audio), दृश्य (Visual) तथा श्रव्य-दृश्य (Audio-Visuals) अर्थात् सुनना, देखना और सुनना-देखना दोनों । श्रव्य संचार माध्यम के उदाहरण सम्मेलन, समितियाँ, साक्षात्कार, टेलिफोन, रेडियो-प्रसार, जनसाधारण की सभाएं इत्यादि हैं ।

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दृश्य माध्यम के अंतर्गत लिखित संचार (परिपत्र, पुस्तिकाएँ, प्रतिवेदन, विवरणिका तथा हस्त-पुस्तक, तथा चित्रण (चित्र, फोटो, पोस्टर व्यंग्यचित्र, झंडे, अधिचिह्न, स्लाइड इत्यादि) आते हैं । सवाक चलचित्र, टेलीविजन तथा व्यक्तिगत प्रदर्शन श्रव्य-दृश्य संचार माध्यम के उदाहरण हैं । इनमें से प्रत्येक माध्यम के अपने अलग-अलग गुण तथा सीमाएँ हैं ।

व्यापारिक और शासकीय, दोनों ही प्रकार के संगठनों में सम्मेलन प्रणाली का संचार को प्रोत्साहित करने के साधन के रूप में अधिकाधिक प्रयोग किया जा रहा है, क्योंकि इससे विलंब नहीं होता, पत्र-व्यवहार भी कम होता है तथा लालफीताशाही में कमी आती है ।

मिलेट के अनुसार सम्मेलन प्रणाली के महत्वपूर्ण उपयोग निम्न हैं:

1. समस्या संबंधी जानकारी प्राप्त होती है;

2. समस्या के समाधान में सहायता होती है;

3. निर्णय की स्वीकृति तथा निष्पादन संभव होता है;

4. संगठन में काम करने वाले अधिकारियों में एकता की भावना उत्पन्न करने में सहायता होती है;

5. कर्मचारी वर्ग के मूल्यांकन में सहायता होती है, तथा

6. प्रशासकीय कर्मचारियों को सूचना का आदान-प्रदान संबंधी प्रोत्साहन मिलता है ।

सम्मेलन के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:

1. व्यक्तियों को उनके वर्तमान उत्तरदायित्वों को अधिक सफलता के साथ निभाने में सहायता देना;

2. उनके कार्य-संबंधों में समन्वय करना;

3. दूसरों के अनुभव से लाभ उठाना;

4. निजी अनुभव को एकीकृत करना;

5. दूसरों के सामने आने वाली समस्याओं को समझना,

6. अपने दृष्टिकोण का विस्तार करना; और

7. संगठनात्मक संचार को औपचारिक रूप प्रदान करना ।

सम्मेलन प्रणाली का एक लाभ यह है कि इससे लोगों की रुचि बहुत बढ़ जाती है । समूह के सदस्य इसमें पूरी तरह तथा समान रूप से भाग ले सकते हैं और पारस्परिक सफलता द्वारा उन्हें संतोष होता है, संगठन के सभी सदस्य परिणामों को स्वीकार कर लेते हैं, विश्लेषण तथा एकीकरण की आदतें उत्पन्न होती हैं, सामूहिक हौसले का विकास होता है तथा अनौपचारिकता आती है ।

लेकिन सम्मेलन की रीति की अपनी सीमाएं हैं । प्राक्कलन समिति (नवां प्रतिवेदन) के मतानुसार सम्मेलनों में काफी वृद्धि हुई है । कभी-कभी तो वे इतने दुरूह हो जाते हैं कि उनमें भाग लेने वाले अधिकारियों के लिए संबंधित विषयवस्तु के साथ न्याय करना असंभव हो जाता है, और व्यवहार में चर्चाओं तथा टिप्पणी लिखने के कार्यों में कमी होने के स्थान पर कभी-कभी तो पत्र-व्यवहार काफी लंबे समय तक चलते रहते हैं, क्योंकि संबंधित विषय पर प्रकट किये गये विभिन्न दृष्टिकोणों की टिप्पणी करनी पड़ती है, उन्हें सुधारना पड़ता है तथा उनका समाधान करना पड़ता है ।

इसीलिए सर्वसम्मत विवरण तैयार करने में विलंब हो जाता है, तथा कभी-कभी तो चर्चाएँ अधूरी रह जाने के फलस्वरूप आगे फिर सम्मेलन बुलाना आवश्यक हो जाता है । कभी-कभी एक ही अधिकारी को एक ही दिन में एक से अधिक सम्मेलनों में भाग लेना पड़ता है, और ऐसी दशा में वह प्रत्येक सभा के लिए पूरी तैयारी नहीं कर पाता । परिणाम यह होता है कि वह चर्चाओं में पूरा योगदान नहीं दे पाता ।

अतः सम्मेलनों के लाभदायक सिद्ध होने के लिए उनका प्रबंध सावधानी से किया जाना चाहिए । किसी प्रारंभिक योजना, विशेषज्ञों की सेवा, किन्हीं नियमों के तथा प्रभावपूर्ण कार्य के लिए समुचित संगठन के बिना सम्मेलन प्रारंभ नहीं करने चाहिए । किसी भी सम्मेलन के लिए प्रारंभिक योजना अत्यावश्यक है । सम्मेलन के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों को चाहिए कि वे अपना पूरा समय योजना में लगाये, और सम्मेलन का संगठन भी समान रूप से महत्वपूर्ण है ।

ठीक आकार का कमरा, घूम सकने वाली आरामदेह कुर्सियों, अच्छे प्रकाश एवं वायु-संचार की व्यवस्था, उपयुक्त साज-सज्जा, श्यामपट्‌ट, अभिलेखन, प्रोजेक्टर तथा स्लाइड जैसी वस्तुओं दमा प्रबंध, बैठने के स्थान का प्रबंध, समय इत्यादि बातें यद्यपि छोटी दिख पड़ती है, किंतु ये सब सम्मेलन को सफल बनाने में सहायक होती हैं । इसी प्रकार, कार्रवाई की प्रणाली तथा सभापति का व्यक्तित्व भी सम्मेलन को सफल या असफल कर सकते हैं ।

संचार के कठिनाइयां या अवरोध (Difficulties or Constraints of Communication):

संचार में प्रथम कठिनाई भाषा की जटिलता होती है । संचार का कार्य ‘शब्दों’ के अत्याचार से कठिन हो जाता है जो सर्वोत्तम होने पर भी विचारों की समुचित अभिव्यक्ति में असफल सिद्ध होते हैं । पारस्परिक समझ के लिए शब्दों का भेद एक बड़ी बाधा है । यह बात निश्चित संदर्भ संबंधी शब्दों के विषय में विशेष रूप से सत्य है ।

टेरी के अनुसार – शब्दों के दो वर्ग हो सकते हैं- विस्तारमूलक और अभिप्रायमूलक । विस्तारमूलक शब्द उन बातों को प्रकट करते हैं जो निश्चित होती है, जैसे व्यक्ति, स्थान तथा सामग्री, और उन्हें सरलता से समझा जा सकता है । इसके विपरीत, अभिप्रायमूलक शब्द किसी ऐसी वस्तु को प्रकट नहीं करते जिसकी ओर संकेत किया जा सके और न वे सदा विभिन्न व्यक्तियों के लिए एक जैसा अर्थ ही रखते हैं; और न इन शब्दों का सभी समयों पर एक ही व्यक्ति के लिए एक जैसा अर्थ ही रखते हैं; उदाहरण के लिए, ‘सरल’ शब्द विभिन्न अर्थ रखता है ।

एक ही भाषा के शब्दों, वाक्यांशों तथा कहावतों के विभिन्न देशों में विभिन्न अर्थ होते हैं । उदाहरण के लिए अंग्रेजी भाषा का इंग्लैंड में, संयुक्त राज्य अमेरिका में, भारत में भिन्न प्रकार से प्रयोग होता है । यही बात, भारत के विभिन्न भागों में हिंदी भाषा के विषय में है । भारत जैसे देश में, जहाँ शासकीय मान्यता प्राप्त बाईस भाषाएँ तथा अनेक बोलियाँ हैं, यह समस्या और अधिक जटिल हो जाती है ।

इसके अतिरिक्त, विभिन्न सम्प्रदायों की अनर्गल शब्दावली इस जटिलता को और अधिक बढा देती है । विशेषज्ञों द्वारा एक ऐसी भाषा का विकास किया जाता है जो साधारण नागरिक की समझ के बाहर होती है । विशिष्टीकरण, जो आधुनिक प्रशासन की विशेषता है, ने अपनी एक पृथक परंतु निरर्थक शब्दावली विकसित कर ली है जो स्वयं संचार में एक अवरोध है ।

दूसरे, पिफनर के शब्दों में, संचार में सैद्धांतिक बाधाएँ होती हैं- ”पृष्ठभूमि, शिक्षा तथा प्रत्याशा में अंतर होने से सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों में भी अंतर आ जाता है । संभवतः प्रभावशाली संचार में ये सबसे बड़ी बाधाएँ हैं, और इन्हें पार करना भी कठिन है ।” सामान्य अनुभव तथा सामान्य पृष्ठभूमि की कमी भी ऐसी ही बाधाएँ होती हैं । ये सभी मिलकर किसी भी समस्या को समझने में मतवैभिन्य उत्पन्न कर देती हैं ।

तीसरे, संचार की इच्छा का अभाव भी किसी से छिपा नहीं है । कुछ प्रबंधक तो इसमें विश्वास ही नहीं करते कि प्रशासन भी कोई शासकीय प्रयत्न तथा सामूहिक प्रयास है । वे अपने अधीनस्थों के साथ विचार-विनिमय करना आवश्यक नहीं समझते ।

अधीनस्थों के कार्यों के विषय में उनकी अवधारणा, एक कवि के शब्दों में, यह है कि उन्हें ”क्यों का प्रश्न करके आश्चर्य प्रकट नहीं करना चाहिए बल्कि ‘Do or Die’ चाहिए । ऐसे निष्पादकों के लिए तो संचार नीचे वालों को अनुदेश देने की एकमार्गी प्रक्रिया होता है ।

वे नीचे से संचार को न तो पसंद करते हैं, और न प्रोत्साहित करते हैं । भागीदारी प्रबंध उनके अनुकूल नहीं होता । इस प्रवृत्ति का परिणाम यह होता है कि अधीनस्थों में चापलूसी करने की प्रवृत्ति हो जाती है । अधीनस्थों की सामान्य दुर्बलता यह होती है कि वे अपने वरिष्ठ अधिकारी को केवल वही सूचना देते हैं जो उसके लिए रुचिकर होती है । इससे अधिकारियों में आयोग्यता बढ़ती है ।

संचार की चौथी बाधा आकार तथा दूरी मानी जाती है । संगठन जितना बड़ा होगा तथा उसके कर्मचारियों की संख्या जितनी अधिक होगी, संचार की कठिनाई भी उतनी ही अधिक होगी । इसके पश्चात विभिन्न स्तरों पर पद-परम्परा की समस्या आती है ।

”इन स्तरों में से ही होकर सूचना आनी चाहिए लेकिन इनमें प्रत्येक में साम्राज्य निर्माता हो सकते हैं । वे जानबूझकर उच्चाधिकारियों के निर्णयों में संशोधन कर देते हैं या उनका अर्थ बदल देते है- इसके अतिरिक्त, प्रत्येक व्यक्ति तथ्यों की भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या करता है, और उन्हें अग्रसारित करते समय अनजाने ही उनको रंग दे डालता है ।”

पंचम:

संचार के निश्चित तथा मान्य साधनों का अभाव बाधक हो सकता है । संचार औपचारिक या अनौपचारिक होता है । औपचारिक मार्ग से तात्पर्य उन स्थापित कार्यप्रणालियों से है जिनके द्वारा किसी अभिकरण से होकर सूचना जाती है । पद-परम्परा इस प्रक्रिया में सहायक होती है । मिसिलों पर टिप्पणी लिखना और सूत्र अभिकरणों में ऊपर मिसिलों का आना-जाना संचार का प्रमुख साधन है ।

समुचित मार्गों में होकर जाने वाली प्रक्रिया” इस अवधारणा का मूलमंत्र है । इन सभी प्रक्रियाओं का उद्देश्य केवल सूचना का विस्तार ही नहीं है बल्कि अभिकरण में समझ तथा मत के पक्ष में बहुमत तैयार करना भी है । औपचारिक मार्ग कितने ही व्यापक तथा विस्तृत क्यों न हों, अनौपचारिक मार्गों के निर्माण की प्रवृति बनी रहती है ।

एपलबी के अनुसार – ”औपचारिक प्रक्रियाओं का जाल कार्य के सम्पादन को संभव बनाने के लिए आवश्यक होता है ।” पिफनर और प्रस्थस भी लगभग यही कहते हैं । अतः औपचारिक मार्गों को कम घुमाव का बनाने की योग्यता मूल्यवान तथा आवश्यक कला है ।

संचार के लिए आवश्यक बातें:

मिलेट के अनुसार संचार को प्रभावशाली बनाने में सात तत्व सहायक होते हैं- संचार स्पष्ट, प्राप्तकर्ता की प्रत्याशी के अनुरूप, समुचित समयानुसार, एक समान, लोचदार तथा स्वीकार्य होनी चाहिए ।

टेरी ने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निम्न आठ बातों की सिफारिश की है:

1. पूरी जानकारी स्वयं हासिल की जानी चाहिए;

2. परस्पर विश्वास उत्पन्न करना चाहिए;

3. अनुभव के समान आधार की खोज की जानी चाहिए;

4. ऐसे शब्दों का प्रयोग करना जो आपस में सभी को ज्ञात हों;

5. प्रसंग ध्यान में रखने चाहिए;

6. प्राप्तकर्ता का ध्यान आकर्षित करना तथा उसे बनाये रखना चाहिए;

7. उदाहरणों तथा दृश्य साधनों को काम में लाना चाहिए; तथा

8. विलंबकारी प्रतिक्रियाओं का व्यवहार करना चाहिए ।