Read this article in Hindi to learn about the internal and external control over pubic administration.
1. आन्तरिक नियन्त्रण (Internal Control):
प्रशासन की संरचना में ही नियन्त्रण अन्तर्निहित होता है ।
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जैसे:
(i) पदसोपानिक नियन्त्रण:
प्रत्येक उच्च अधिकारी का अपने अधीनस्थ पर नियन्त्रण होता है । प्रत्येक स्तर पर वित्तीय व्यय की सीमा निश्चित होती है, जिसके अनुपालन के लिए अधीनस्थ उच्च के प्रति उत्तरदायी होता है । उच्च अपने अधीनस्थ के इस वित्तीय सीमा का उल्लंघन करने से रोकता है ।
(ii) बजटरी नियन्त्रण:
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बजट प्रशासन पर वित्तीय नियन्त्रण का प्रभावशाली साधन है । इसके द्वारा प्रशासनिक अभिकरणों और अधिकारियों के वित्तीय लक्ष्य निर्धारित किये जाते है । बजट द्वारा ही इनके वित्तीय व्यय को भी निर्धारित किया जाता है । विभागीय बजट विभाग पर नियन्त्रण रखता है, इसका अधीनस्थ स्तरों पर विभाजन उन स्तरों की वित्तीय सीमा तय करके नियन्त्रण स्थापित कर देता है । इसका परीक्षण परीक्षक द्वारा किया जाता है ।
(iii) आन्तरिक लेखा-परीक्षण:
व्यय कारक विभागों में आन्तरिक लेखा परीक्षण पद्धति अपनायी जाती हैं, जो व्यय के औचित्य का परीक्षण करने के बाद ही उसके भुगतान की अनुमति देती है । इससे वित्तीय नियन्त्रण सुनिश्चित होता है ।
(iv) व्यावसायिक मानदण्ड या आचार संहिता:
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लोक सेवा की एक आदर्श आचार संहिता होती है, इसके अनुरूप ही उन्हें अपने सभी कार्य करना होते हैं । वे बेईमानी, भ्रष्टाचार, रिश्वत, गबन जैसे कार्य नहीं कर सकते अन्यथा उनके विरूद्ध अनुशासनिक कार्यवाही होती है ।
(v) व्यावसायिक दुरदर्क्षिता का सर्वेक्षण:
उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थों का आंकलन इस आधार पर करते हैं कि उन्होंने अपने वित्तीय अधिकारों का उपयोग मितव्ययिता की दृष्टि से किया या नहीं । इसी आधार पर उनकी भावी उन्नति निर्भर करती है । अतएव कार्मिक अपने कार्यों को सही रखने का प्रयास करते हैं ।
2. बाह्य नियन्त्रण (External Control):
वस्तुत: आन्तरिक नियन्त्रण की अपनी अनेक सीमाएं होती हैं, अतएव बाहरी वित्तीय नियन्त्रण अधिक प्रभावशाली साधन माना जाता है, यद्यपि इसकी भी कुछ सीमाएं हैं ।
(i) व्यवस्थापिका का नियन्त्रण:
संसदीय लोकतन्त्र में व्यवस्थापिका का नियन्त्रण सर्वाधिक प्रभावशाली और महत्वपूर्ण माना जाता है । प्रशासन पर वित्तीय नियन्त्रण व्यवस्थापिका कार्यपालिका के माध्यम से और CAG की सहायता से अपनी समितियों के द्वारा करती है ।
जो इस प्रकार है:
(a) कार्यपालिका से प्रशासन संबंधी मामलों पर प्रश्न करके, बहस करके, प्रस्ताव लाकर ।
(b) किसी वित्तीय मामले की जांच हेतु विभागीय जांच समिति का गठन करके ।
(c) CAG के प्रतिवेदन पर अपनी वित्तीय समितियों यथा लोक लेखा समिति, सार्वजनिक उपक्रम समिति आदि के माध्यम से विचार करके ।
(d) अनुमान समिति के माध्यम से अनुदान-प्राक्कलनों के स्वरूप को अधिक लोकतान्त्रिक, मितव्ययी बनाने के सुझाव देकर । उल्लेखनीय है कि बजट बहस के समय लोकसभा में कटौती प्रस्ताव भी लाए जा सकते है, जो नीति संबंधी, प्रतीकात्मक विरोध संबंधी और मितव्ययिता संबंधी होते हैं ।
(ii) कार्यपालिका द्वारा:
कार्यपालिका भी अपने प्रशासन पर वित्तीय नियन्त्रण रखती है । विभागाध्यक्ष अपने प्रशासनिक अधिकारी के वेतन, भत्ते, अवकाश, यात्रा भत्ते आदि निर्धारित करने की पहल करता है । आर्थिक समिति की सहायता से कैबिनेट प्रशासन संबंधी वित्तीय मामलों की छानबीन कर उन पर निर्णय हैं ।
(iii) वित्त मंत्रालय द्वारा:
वित्त मंत्रालय सभी प्रशासनिक विभागों के ऊपर मितव्ययिता के दृष्टिकोण से नियन्त्रण रखता है । वह व्ययकारी विभागों से नियतकालिक रिर्पोट लेता है ।
(iv) लेखा परीक्षक:
प्रशासन पर वित्तीय नियन्त्रण रखने के लिए संवैधानिक व्यवस्था के तहत ”नियन्त्रक एवं महालेख परीक्षक” का पद है । यह सभी विभागों (केन्द्र और राज्य) के विनियोजन लेखों की जांच कर यह पता लगाता है कि इनमें कोई वित्तीय अनियमितता तो नहीं हुई है । वस्तुत: उसकी जांच प्रतिवेदन ही लोक लेखा समिति की कार्यवाही का आधार बनता है ।
(v) संसदीय समितियां:
अनुमान समिति जहां बजट अनुमानों में मितव्ययिता सुनिश्चित करने संबंधी सुझाव देती है, वही लोक लेखा समिति “CAG” प्रतिवेदन पर विचार कर वित्तीय निष्पादन में हुए दोषों पर सरकार से कार्यवाही की सिफारिश करती हैं ।
उपर्युक्त नियन्त्रण के साधनों और तरीकों से प्रथम दृष्ट्रया यह लगता है कि प्रशासन पर प्रभावशाली वित्तीय नियन्त्रण मौजूद है । लेकिन इन सबकी अपनी सीमाएं है । यही कारण है कि प्रतिवर्ष विभिन्न वित्तीय अनियमिताओं की संख्या और स्तर में वृद्धि हो जाती है ।
वस्तुत: लोकतान्त्रिक प्रणाली में वित्त पर नियन्त्रण का अधिकार मुख्य रूप से संसद का होता है लेकिन अपने विशाल आकार, पर्याप्त तकनीकी योग्यता का अभाव तथा प्रशासन से प्रत्यक्ष संपर्क का अभाव आदि कारणों से उसका वित्तीय नियन्त्रण भी कमजोर ही रहता है ।
बजट पारित करते समय भी कार्यपालिका के बहुमत की इच्छा ही प्रभावी होती है । इस दृष्टिकोण से देखे तो प्रशासन पर वित्त नियन्त्रण लेखा परीक्षक अधिक प्रभावी ढंग से सुनिश्चित करता है । उसने अनेक गंभीर मामलों को प्रकट भी किया है ।
CAG प्रतिवेदन से संबंधित लोक लेखा समिति की यह आलोचना कि उससे मृत जीवित नहीं हो सकते अर्थात् गया धन वापस नहीं आता, उचित नहीं है, क्योंकि उसके कारण ही हत्याएं रुकती है अर्थात् प्रशासन सचेत होता हैं ।
जहां तक कार्यपालिका का सवाल है, वह सदैव अपने प्रशासन के बचाव की मुद्रा में रहती है । अन्यथा नियुक्ति, पदमुक्ति, आनुशासनिक कार्यवाहियां आदि उसके हाथों में प्रभावशाली अस्त्र होते है, राजनीति प्रशासन का तालमेल ही कई मर्तबा वित्तीय अनियमिताओं का मूल कारण होता है ।
इस नियन्त्रण का दूसरा पहलू यह है कि आवश्यकता से अधिक नियन्त्रण प्रशासन की कार्यकुशलता और गतिशीलता को प्रतिबंधित कर देता है । एपीलबी ने ”CAG” के सन्दर्भ में तो इसकी आलोचना की ही, संसदीय प्रश्नों तक के औचित्य पर सवाल खड़े किये ।
निष्कर्षत:
सार्वजनिक धन के दुरुपयोग को रोकने की जरूरत उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी यह कि प्रशासन की गतिशीलता पर प्रतिकूल प्रभावों को भी न्यून रखा जाए ।
संसदीय वित्तीय समितियां:
CAG एक विशेषज्ञ स्वायत्त एजेंसी है, जो लेखों की जांच करती है । इस पर पुन: विचार का काम लोक लेखा समिति का है । एक दूसरी समिति अनुमान समिति है, जो विभिन्न विभागों द्वारा प्रस्तुत अनुमानों में सुधार के सुझाव देती है ।
सार्वजनिक लेखा समिति:
सार्वजनिक वित्त पर संसदीय नियन्त्रण लोकतान्त्रिक शासन पद्धति का अनिवार्य लक्षण होता है । संसद अपने इस दायित्व की पूर्ति समितियों के माध्यम से करती है, उनमें लोक लेखा समिति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ।
यह CAG की मदद से सरकार के वित्तीय क्रियाकलापों की परीक्षा कर उसे सतर्क ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ट बनाए रखने के लिए मजबूर करती हैं । सार्वजनिक धन के नियन्त्रण का मामला सर्वाधिक महत्व का होता है क्योंकि यह धन जनता की मेहनत की कमाई होती है, जो वह अपने शासन प्रबन्ध के लिए सरकार को सौंपती है ।
लोकतन्त्र में संसदीय नियन्त्रण जनता के प्रति इस उत्तरदायित्व को पूरा करने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू होता है । संसद अपने इस दायित्व को लोक लेखा समिति के माध्यम से अधिक सजगतापूर्वक और प्रभावशाली ढंग से पूरा कर पाती है ।
अनुमान समिति:
I. सन् 1937 में एस. सत्यमूर्ति ने भारत में एक अल्पकालीन सूचना के माध्यम से इस समिति की स्थापना की मांग की थी ।
II. 10 अप्रैल, 1950 को स्वतंत्र भारत में अनुमान समिति की स्थापना की गयी ।
III. इस समिति के सदस्यों की संख्या 30 होती है जो सभी लोकसभा के होते हैं । इनका चुनाव एकल संक्रमणीय मत पद्धति के आधार पर प्रतिवर्ष होता है ।
IV. इस समिति के एक तिहाई सदस्य प्रतिवर्ष रिटायर्ड हो तथा बाकी दो तिहाई अगले वर्ष के लिए पुन: चुन लिये जाते हैं । समिति का अध्यक्ष लोकसभा अध्यक्ष मनोनीत करता है ।
कार्य:
अनुमानों में निहित नीति के अनुकूल मितव्ययिता, संगठन की कार्यकुशलता और प्रशासकीय सुधारों में प्रभावशीलता के संबंध में प्रतिवेदन प्रस्तुत करना । प्रशासन में कार्य कुशलता तथा मितव्ययिता लाने के लिए वैकल्पिक नीतियों का सुझाव देना ।
आलोचना:
यह मूल दायित्व के स्थान पर सरकार की नीतिगत आलोचना में लग जाती हैं । यह मितव्ययिता पर इतना जोर देती हैं कि सरकार का कार्य करना मुश्किल हो जाता है ।
लोक उपक्रम समिति:
a. इस समिति की स्थापना 1 मई, 1964 को की गयी । लोक उपक्रम समिति में 22 सदस्य होते हैं, इनमें से 15 लोक सभा से तथा 7 राज्य सभा से चुने जाते हैं ।
b. अन्य दो समितियों की तरह इस समिति के सदस्यों का चुनाव एक संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर होता है ।
c. इसका कार्यकाल पाँच वर्ष का होता है । इसके सदस्यों का पाँचवां भाग प्रत्येक वर्ष चक्रीय रूप से सेवा निवृत्त कर दिया जाता है ।
कार्य:
इसका कार्य लोक उपक्रम अंकेक्षण मण्डल के प्रतिवेदन पर विचार कर कार्यवाही की सिफारिश करना है । अंकेक्षण मण्डल की स्थापना 1969 को की गयी थी । जो CAG के स्थान पर लोक उपक्रमों का अंकेक्षण करता है ।