प्रशासन पर नियंत्रण: विधान, कार्यकारी और न्यायिक | Control over Administration: Legislative, Executive and Judicial | Public Administration.

प्रशासनिक उत्तरदायित्व को नियंत्रण के विभिन्न साधनों द्वारा लागू किया जाता है । दूसरे शब्दों में, इसके अंतर्गत नियंत्रण के ऐसे कार्यतंत्र विकसित किये जाते हैं जिनसे प्रशासन को गहरी निगरानी और नियंत्रण में रखा जा सके ।

इस प्रकार सरकारी कर्मचारियों को उन पर नियंत्रण रखने वाली एजेंसियों के प्रति उत्तरदायी बनाया जाता है । नियंत्रण का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी कर्मचारी अपने अधिकारों तथा विवेक का प्रयोग कानूनों, औपचारिक नियमों, विनियमों, स्थापित प्रक्रियाओं तथा परंपराओं के अनुसार करते हैं ।

प्रशासन पर नियंत्रण की आवश्यकताओं को निम्न दो कथनों में भली भांति स्पष्ट किया गया है:

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i. एल.डी. व्हाइट:

“जनतांत्रिक समाज में सत्ता को नियंत्रण की आवश्यकता होती है । जितनी व्यापकतर सत्ता होगी उतनी ही अधिक नियंत्रण की आवश्यकता होगी । लोकप्रिय सरकार की एक ऐतिहासिक दुविधा यह है कि सत्ता को पंगु किए बिना उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पर्याप्त अधिकार किस प्रकार दिए जाएँ और समुचित नियंत्रण कैसे बनाए रखा जाए ।”

ii. लॉर्ड एक्टन:

सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूरे तौर पर भ्रष्ट करती है । अत: नौकरशाही सत्ता के खतरों को रोकने और लोकसेवकों द्वारा सत्ता के निरंकुश प्रयोग के विरुद्ध उपायों का मार्गप्रशस्त करने के लिए प्रशासन पर नियंत्रण आवश्यक है ।

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प्रशासन पर नियंत्रण के उपकरण ऐसे हैं जिनसे लोक सेवकों की सत्ता और विवेक को प्रतिबंधित किए बिना लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा होती है । मोटे तौर पर प्रशासनिक नियंत्रण दो प्रकार के होते हैं- आंतरिक नियंत्रण और बाह्य नियंत्रण ।

अंतरिक नियंत्रण प्रशासन तंत्र के भीतर से काम करता है और यह इस तंत्र का ही भाग होता है । यह अपने आप स्वत:स्कूर्त ढंग से और तंत्र के संचरण के साथ लगातार कार्यरत रहता है । दूसरी ओर, बाह्य नियंत्रण प्रशासन तंत्र के बाहर से काम करता और इसका निर्धारण देश के संविधान द्वारा किया जाता है ।

प्रशासन पर आंतरिक नियंत्रण के उपाय इस प्रकार हैं:

(i) बजट व्यवस्था,

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(ii) कार्मिक प्रबंधन,

(iii) कार्यकुशलता सर्वेक्षण,

(iv) व्यावसायिक मानक,

(v) प्रशासनिक नेतृत्व,

(vi) पदानुक्रमिक व्यवस्था,

(vii) पूछताछ और जांच,

(viii) वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट ।

प्रशासन पर बाह्य नियंत्रण चार एजेंसियों द्वारा लागू किया जाता है:

(i) विधायिका,

(ii) कार्यपालिका,

(iii) न्यायपालिका,

(iv) नागरिक ।

विधायी नियंत्रण (Legislative Control):

प्रत्येक प्रतिनिधि सरकार में, चाहे वो संसदीय हो अथवा अध्यक्षात्मक, सरकार का सर्वोच्च अंग विधायिका होती है क्योंकि इसका गठन जन प्रतिनिधियों द्वारा होता है । यह जनता की इच्छा को प्रतिबिंबित करती है और जनता के संरक्षक के रूप में काम करती है ।

अत: यह प्रशासन को उत्तरदायी और दायित्वपूर्ण बनाने के लिए उस पर नियंत्रण रखती है । परंतु, प्रशासन पर विधायी नियंत्रण की प्रणाली भारत और ग्रेट ब्रिटेन जैसी संसदीय सरकारों में उन सरकारों से भिन्न होती है जिनमें राष्ट्रपति प्रणाली होती है जैसे कि संयुक्त राज्य अमेरिका ।

कार्यपालिका का नियंत्रण (Executive Control):

प्रशासन पर कार्यपालिका के नियंत्रण का अर्थ है- नौकरशाही की कार्यप्रणाली पर मुख्य कार्यकारी अर्थात राजनीतिक कार्यकारी का नियंत्रण । संयुक्त राज्य अमेरिका में यह नियंत्रण राष्ट्रपति तथा उसके सचिवों द्वारा किया जाता है और भारत तथा ब्रिटेन में मंत्रिमंडल तथा अलग-अलग विभागों के मंत्रियों द्वारा ।

संसदीय सरकार में मंत्रिमंडल अपनी नीतियों एवं कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होता है । अपने मंत्रालय/विभाग में सही-गलत कार्यों के लिए प्रत्येक मंत्री की व्यक्तिगत जवाबदेही होती है । दूसरे शब्दों में, मंत्रीपदीय उत्तरदायित्व संसदीय सरकार की मूलभूत विशेषता है ।

इसी कारण से राजनीतिक कार्यपालिका प्रशासन पर नियंत्रण लागू करती है । सामान्य, नियम कालिक और प्रतिवेदात्मक विधायी नियंत्रण के विपरीत कार्यकारी नियंत्रण अपनी विषयवस्तु में अधिक परिपूर्ण, स्थायी, निरंतर, प्रेरक, दोषनिवारक और निदेशात्मक होता है ।

कार्यपालिका प्रशासन अपना नियंत्रण निम्नलिखित उपायों से लागू करती है:

i. राजनीतिक निदेशन (नीति निर्माण):

भारत में प्रशासनिक नीतियों का निर्माण मंत्रिमंडल करता है । उसके पास उनको लागू करने के संबंध में निर्देशन, निरीक्षण और समन्वय का अधिकार होता है । एक या अधिक विभागों का प्रभारी मंत्री विभागीय नीतियों को तय करता है, प्रशासकों द्वारा उनके कार्यान्वयन को निर्देशित करता है और लेखा, निरीक्षण तथा समन्वय करता है ।

इस प्रकार राजनीतिक दिशा-निर्देश के द्वारा मंत्री अपने मंत्रालय/मंत्रालयों अथवा विभाग/विभागों के अधीन काम करने वाली प्रशासनिक एजेंसियों के कार्यों को नियंत्रित करता है । विभागीय अधिकारी सीधे और पूरे तौर पर मंत्री के प्रति जवाबदेह होते हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका में यही कार्य राष्ट्रपति तथा उसके सचिवों द्वारा किए जाते हैं ।

ii. बजट प्रणाली:

कार्यपालिका बजट के द्वारा प्रशासन पर अपना नियंत्रण लागू करती है । यह बजट तैयार करती है, उसे संसद में पारित कराती है और उसके खर्चों को पूरा करने के लिए प्रशासनिक एजेंसियों को आवश्यक धन आबंटित करती है । इस प्रकार की तमाम गतिविधियों में वित्त मंत्रालय, जो भारत सरकार का केन्द्रीय वित्तीय अभिकरण है, एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है ।

यह प्रशासन पर वित्तीय नियंत्रण निम्न उपायों से लागू करता है:

(i) नीतियों और कार्यक्रमों का सिद्धांततया अनुमोदन,

(ii) बजट अनुमानों की पूर्वयोजना की स्वीकृति,

(iii) प्रदत्त अधिकारों के अधीन खर्चे की स्वीकृति,

(iv) एकीकृत वित्त सलाहकार के माध्यम से वित्तीय परामर्श उपलब्ध कराना,

(v) अनुदानों का पुनर्विनियोग (एक उपशीर्ष से दूसरे में कोष का अंतरण),

(vi) अंतरिक लेखा-परीक्षा प्रणाली,

(vii) व्यय करने वाले प्राधिकारियों द्वारा पालन की जाने वाली वित्त संहिता निर्धारित करना ।

iii. नियुक्तियाँ एवं निष्कासन (कार्मिक प्रबंधन और नियंत्रण):

प्रशासन पर कार्यपालिका के नियंत्रण का यह सबसे प्रभावी उपाय है । कार्मिक प्रबंधन और नियंत्रण में कार्यपालिका सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । इसको सर्वोच्च प्रशासकों की नियुक्ति एवं निष्कासन का अधिकार प्राप्त होता है । इस काम में भारतीय कार्यपालिका का कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग, वित्त मंत्रालय और केंद्रीय लोक सेवा आयोग से सहायता मिलती है ।

भारत में कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग प्रमुख कार्मिक एजेंसी है । विभागाध्यक्षों के चयन और नियुक्ति में सर्वोच्च स्तर पर मंत्रीगण महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं । अत: इस प्रकार की नियुक्तियों के द्वारा वे अपने विभागों के प्रशासन पर पूरा नियंत्रण रखते हैं ।

संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सर्वोच्च पदों पर नियुक्तियाँ करने के लिए राष्ट्रपति को सीनेट की स्वीकृति लेनी पड़ती है, लेकिन उनको उनके पदों से हटाने का पूरा अधिकार उसे ही होता है । कार्मिक प्रबंधन एवं नियंत्रण के मामले में अमरीका के कार्मिक प्रबंधन कार्यालय (OPM) की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है ।

iv. प्रदत्त विधि निर्माण:

इसको कार्यकारी विधि निर्माण भी कहते हैं । प्रशासन पर नियंत्रण लागू करने के लिए कार्यपालिका के हाथों में यह एक महत्त्वपूर्ण अस्त्र है । संसद कानूनों की रूपरेखा तैयार करती है और छोटे मोटे विवरण भरने का अधिकार कार्यपालिका को दे देती है । अत: उन नियमों, विनियमों तथा उप नियमों को कार्यपालिका बनाती है जिनका पालन प्रशासकों द्वारा संबंधित कानून को लागू करने में करना होता है ।

v. अध्यादेश:

भारतीय संविधान संसद की मध्यावधि के दौरान मुख्य कार्यकारी अर्थात राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का अधिकार देता है । इसका उद्देश्य उस परिस्थिति से निपटना है जो तत्काल कार्यवाही की माँग करती है । संसद के अधिनियम की तरह अध्यादेश भी उतने ही आधिकारिक और प्रभावशाली होते हैं और इसलिए ये प्रशासन के कार्यों को नियंत्रित करते हैं ।

vi. लोक सेवा संहिता:

कार्यपालिका ने एक लोकसेवा संहिता को तय किया है । अपनी सरकारी शक्तियों का प्रयोग करने में प्रशासकों के लिए इनका ध्यान रखना और पालन करना आवश्यक है । इसमें आचरण संबंधी नियम होते हैं जो प्रशासकों को अपने निजी स्वार्थों को पूरा करने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करने से रोकते हैं ।

भारत में ऐसे महत्त्वपूर्ण नियम निम्न हैं:

(क) अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम, 1954 ।

(ख) केंद्रीय लोक सेवा (आचरण) नियम, 1955 ।

(ग) रेलवे सेवा (आचरण) नियम, 1956 ।

इन नियमों का सरोकार राज्य के प्रति निष्ठा, वरिष्ठ अधिकारियों के सरकारी आदेशों के पालन, लोक सेवकों की राजनीतिक गतिविधियों, लोक सेवकों के वित्तीय लेन-देन, वैवाहिक प्रतिबंधों इत्यादि से है ।

vii. कर्मचारी एजेंसियाँ:

कार्यपालिका प्रशासन पर अपना नियंत्रण कर्मचारी एजेंसियों के माध्यम से भी लागू करती है । भारत में महत्त्वपूर्ण कर्मचारी एजेंसियाँ हैं- प्रशासनिक सुधार विभाग, योजना आयोग, मंत्रिमंडल सचिवालय और प्रधानमंत्री कार्यालय ।

मूनी का कथन है कि कर्मचारी एजेंसी ”कार्यपालिका के व्यक्तित्व का विस्तार है । इसका अर्थ है-अधिक आँखें, अधिक कान और अधिक हाथ । ये सब उसकी व्यवस्थाओं को बनाने और लागू करने में उसकी सहायता करते हैं ।”

अत: कर्मचारी एजेंसियाँ प्रशासनिक एजेंसियों को प्रभावित करतीं हैं, उन पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण बनाए रखती हैं और उनकी नीतियों तथा कार्यक्रमों में तालमेल बिठाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं ।

viii. जनमत को अपील:

प्रशासन प्रणाली (अर्थात लोकसेवा या नौकरशाही) चाहे वो अमरीकी हो, ब्रिटिश अथवा भारतीय, उसका रुझान यथास्थिति बनाए रखने वाला होता है; अत: वह परिवर्तन का विरोध करती है । यह कार्यपालिका द्वारा बनाई गई नीतियों, योजनाओं, कार्यक्रमों तथा परियोजनाओं को सकारात्मक मस्तिष्क से नहीं लेतीं ।

वास्तव में, प्रशासनतंत्र के विभिन्न अंग फ़िफ़नर और प्रेस्थस के शब्दों में- विधायिका और प्रभावी समूहों से गठजोड़ करके और सामान्यजन के विरुद्ध अभियानों को सोचा-समझा नपा-तुला समर्थन देकर दूसरी एजेंसियों के मुकाबले अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने की कोशिश करते हैं ।

न केवल कार्यक्रम के क्षेत्र में, बल्कि समान रूप से काम करने की उन स्थापित पद्धतियों में निहित स्वार्थ विकसित कर लेते हैं जो नौकरशाही की आत्मकेंद्रित और महत्त्वपूर्ण स्थिति में बढ़ोतरी करती है । अत: नौकरशाही नए कार्यक्रमों तथा पद्धतियों का प्रतिरोध करती है क्योंकि इनसे उसकी मजबूत स्थिति को खतरा पैदा होता है ।

न्यायिक नियंत्रण (Judicial Control):

प्रशासन पर न्यायालयों के नियंत्रण को न्यायिक नियंत्रण कहते हैं । दूसरे शब्दों में, प्रशासनिक कार्यों को कानून की सीमाओं में रखने का अधिकार न्यायालय को है । इसका अर्थ यह भी है कि प्रशासकों के गलत कार्य को, कोई भी पीड़ित नागरिक न्यायालय में चुनौती देने का अधिकार रखता है । प्रशासन पर न्यायिक नियंत्रण का मुख्य उद्देश्य प्रशासनिक कार्य की वैधानिकता को सुनिश्चित करके नागरिकों के अधिकारों एवं उनकी स्वतंत्रताओं की रक्षा करना है ।

एल.डी. व्हाइट के शब्दों में- ”विधायी देखरेख का उद्देश्य सिद्धांत: कार्यकारी शाखा की नीति और खर्च को नियंत्रित करना है । प्रशासनिक कार्यों पर न्यायिक नियंत्रण इन कार्यों की वैधानिकता को सुनिश्चित करने का प्रयास करता है और इस प्रकार नागरिकों के संवैधानिक तथा अन्य अधिकारों के गैर कानूनी अतिक्रमण के विरुद्ध उनकी रक्षा करता है ।”

एम.पी. शर्मा (भारत में लोक प्रशासन के प्रथम अध्यापक) ने सही ही कहा था- न्यायालयों का काम नागरिकों की स्वतंत्रताओं और उनके अधिकारों की रक्षा करना है; अत: उनके दृष्टिकोण से न्यायालयों द्वारा लागू नियंत्रण ‘न्यायिक उपचार’ कहलाते हैं । वास्तविकता यह है कि न्यायालयों के समक्ष सरकारी जवाबदेही और सरकारी ज्यादतियों या सत्ता के दुरुपयोग के विरुद्ध नागरिकों के लिए ‘न्यायिक उपचार’ ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।

आधार (Basis):

प्रशासन पर न्यायिक नियंत्रण ‘कानून का शासन’ की अवधारणा से निकलता है जो ब्रिटिश और भारतीय, दोनों संविधानों की आधारभूत विशेषता है । ब्रिटिश संवैधानिक वकील ए.वी. डायसी अपनी विख्यात पुस्तक ‘इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ द लॉ ऑफ द कॉन्सटीट्‌यूशन’ में इस अवधारणा की शास्त्रीय व्याख्या प्रस्तुत करते हैं ।

”कोई भी व्यक्ति दंडनीय नहीं है या किसी से भी कानूनी तौर पर जान या माल का नुकसान उठवाया नहीं जा सकता है, सिवा इसके कि उसने देश के आम न्यायालय के सम्मुख आम कानूनी ढंग से स्थापित कानून को साफ-साफ तोड़ा हो…… कोई व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं लेकिन…. प्रत्येक व्यक्ति चाहे उसका पद या स्थिति कुछ भी हो, सामान्य कानून के क्षेत्र के अधीन है और सामान्य न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र के प्रति उत्तरदायी है…. कानूनी औचित्य के बिना किए गए प्रत्येक कार्य के लिए प्रधानमंत्री से लेकर एक सिपाही या कर संग्राहक उसी उत्तरदायित्व के अंतर्गत हैं जिसके कोई अन्य नागरिक…. हमारे संविधान के सामान्य सिद्धांत….. उन न्यायिक निर्णयों की देन है जो न्यायालयों के सामने लाए गए किन्हीं वादों में गैर-सरकारी लोगों के अधिकारों का निर्धारण करते हैं ।”

संक्षेप में ‘कानून के शासन’ के तीन तत्व ये हैं:

(i) स्वैच्छिक सत्ता की अनुपस्थिति अर्थात किसी भी व्यक्ति को कानून तोड़ने के आरोप के बिना दंडित नहीं किया जा सकता है ।

(ii) कानून के समक्ष समानता अर्थात सामान्य न्यायालयों द्वारा लागू देश के सामान्य कानून के प्रति सभी नागरिकों (गरीब या अमीर, ऊँचा या नीचा, सरकारी अधिकारी या सामान्य जन) की समान अधीनता ।

(iii) व्यक्ति के अधिकारों की प्रमुखता अर्थात संविधान व्यक्ति के अधिकारों का स्रोत नहीं, बल्कि यह व्यक्ति के उन अधिकारों का परिणाम है जिनको न्यायालयों द्वारा परिभाषित और लागू किया गया है ।

अत: ग्रेट ब्रिटेन में नागरिकों के अधिकार संविधान से नहीं, बल्कि न्यायिक निर्णयों से प्रवाहित होते हैं ।

क्षेत्र विस्तार [Scope (Grounds)]:

प्रशासनिक कार्यों में न्यायपालिका निम्नलिखित परिस्थितियों में हस्तक्षेप कर सकती है:

(i) अधिकार क्षेत्र का अभाव- प्रशासक जब अधिकार के बिना या उसके अपने अधिकार क्षेत्र से परे या अपने अधिकार क्षेत्र की भौगोलिक सीमाओं के बाहर काम करता है । तकनीकी तौर पर इसे ‘प्राधिकार की अति’ (Overfeasance) कहते हैं ।

(ii) कानून की त्रुटि- प्रशासक जब कानून की गलत व्याख्या करता और इस प्रकार नागरिक पर वे बाध्यताएं थोपता है जो कानून की विषयवस्तु द्वारा अपेक्षित नहीं है, तो तकनीकी तौर पर इसे ‘प्राधिकार की भ्रांति’ (Misfeasance) कहते हैं ।

(iii) तथ्यों का पता लगाने में गलती- प्रशासक जब तथ्यों की खोज करने में भूल करता है और गलत पूर्व धारणाओं के आधार पर काम करता है ।

(iv) प्राधिकार का दुरुपयोग- प्रशासक बदले की भावना से किसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए जब अपने प्राधिकार (शक्ति या विवेक) का दुरुपयोग करता है । तकनीकी तौर पर इसे ‘कुप्राधिकार’ (Malfeasance) कहा जाता है ।

(v) प्रक्रिया की त्रुटि- प्रशासक जब निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं करता । उपरोक्त प्रकार के मामलों से प्रभावित नागरिक प्रशासनिक कार्यों में न्यायपालिका के हस्तक्षेप की माँग कर सकते हैं ।

भारत में समादेश (Writs in India):

इस संदर्भ में निम्नलिखित बिंदुओं को उल्लिखित किया जा सकता है:

1. न्यायालय उपरोक्त सभी समादेश जारी कर सकते हैं परंतु संविधान में केवल पहले पाँच का उल्लेख है ।

2. संविधान के अनुच्छेद 32 ने सर्वोच्च न्यायालय को नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को लागू करने के लिए समादेश जारी करने का अधिकार दिया है । ये मूलभूत अधिकार संविधान द्वारा स्वीकृत हैं ।

3. संविधान की धारा 226 उच्च न्यायालयों को यह अधिकार देती है कि वे समादेशों को न केवल संविधान द्वारा आश्वासित नागरिकों के मूल अधिकारों को लागू करने बल्कि अन्य उद्देश्यों के लिए भी जारी कर सकते हैं । इस प्रकार समादेश जारी करने के संबंध में उच्च न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय की तुलना में अधिक व्यापक है ।

4. न्यायालय समादेशों को न केवल व्यक्तियों के बल्कि भारत सरकार के विरुद्ध भी जारी कर सकते हैं । दूसरी ओर ब्रिटेन में न्यायालय समादेश केवल व्यक्तियों के विरुद्ध जारी कर सकते हैं सरकार के विरुद्ध नहीं । भारत में समादेश विधायिका के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता है ।

5. अनुच्छेद 32 के अधीन संसद किसी अन्य न्यायालय को भी समादेश जारी करने की शक्ति प्रदान कर सकती है किंतु अभी तक उस प्रकार कोई भी प्रावधान संशय द्वारा निर्मित नहीं किया गया है ।

सीमाएँ (Limitations):

निम्नलिखित कारक प्रशासन पर न्यायिक नियंत्रण की प्रभावशीलता को सीमित करते हैं:

(i) न्यायपालिका प्रशासनिक कार्यों में स्वयं हस्तक्षेप नहीं कर सकती । न्यायालय तभी हस्तक्षेप करती है जब कोई पीड़ित नागरिक मामले को उनके सामने लाता है; अत: न्यायपालिका के पास अपनी ओर से कार्यवाही (Suo Moto) करने का अधिकार नहीं होता ।

(ii) न्यायालयों द्वारा लागू किया गया नियंत्रण अपनी प्रकृति में शवपरीक्षण नियंत्रण होता है अर्थात यह तभी हस्तक्षेप करते हैं जब प्रशासनिक कार्यों से नागरिक को नुकसान हो चुका होता है ।

(iii) प्रशासन के सारे कार्य न्यायिक नियंत्रण के अधीन नहीं है क्योंकि संसद कुछ मामलों को न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर सकती है ।

(iv) स्व-व्यक्त अध्यादेश अर्थात कुछ मामले न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र से खुद बाहर कर देती है । कुछ विशुद्ध प्रशासनिक मामलों में न्यायालय अपनी ओर से हस्तक्षेप करने से इनकार कर देते हैं ।

(v) न्यायिक प्रक्रिया बहुत धीमी और बोझिल होने के साथ-साथ महँगी है ।

(vi) न्यायाधीश विधि विशेषज्ञ होते हैं; अत: वे प्रशासनिक खर्चो की अत्यंत तकनीकी प्रकृति को पूरे और समुचित तौर पर समझ नहीं पाते ।

(vii) राज्य के कल्याणकारी रुझान के चलते प्रशासन का आकार, उसकी विविधता तथा जटिलता बढ़ गई है ।

अत: न्यायालय प्रशासन के उस प्रत्येक कार्य की समीक्षा नहीं कर सकते, जो नागरिक को प्रभावित करता है ।