भारत में प्रशासन पर न्यायिक नियंत्रण | Judicial Control over Administration in India.

प्रशासन पर अपना नियंत्रण न्यायपालिका निम्नलिखित पद्धतियों से लागू करती है:

i. न्यायिक पुनरावलोकन:

यह न्यायालयों का अधिकार है । वे प्रशासनिक कार्यों की वैधानिकता तथा संवैधानिकता पर पुनर्विचार कर सकते हैं । ऐसी जाँच के बाद अगर वे पाते हैं कि ये कार्य संविधान का उल्लंघन करते हैं, तो न्यायालयों द्वारा उनको गैर कानूनी, असंवैधानिक और असामान्य घोषित किया जा सकता है ।

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न्यायिक पुनर्विचार का कार्यक्षेत्र ब्रिटेन की तुलना में संयुक्त राज्य अमेरिका में कहीं अधिक व्यापक है । संवैधानिक एवं वैधानिक सीमाओं, (न्यायिक पुनर्विचार के कार्यक्षेत्र के मामले में) के कारण भारत की स्थिति इन दोनों के बीच में है ।

ii. वैधानिक अपील:

संसदीय विधान (अर्थात कोई कानून या अधिनियम) में ही यह प्रावधान हो सकता है कि विशेष प्रकार के प्रशासनिक कृत्य से, पीड़ित नागरिक को न्यायालयों में अपील करने का अधिकार होगा । ऐसी स्थिति में वैधानिक अपील की जा सकती है ।

iii. सरकार के विरुद्ध दावे:

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राज्य की ऐसी स्थिति योग्यता का निर्धारण भारतीय संविधान की धारा 300 करती है । इसमें कहा गया है कि क्रमश: संसद तथा राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानूनों के प्रावधानों के अधीन केंद्र तथा राज्य सरकारों पर दावा किया जा सकता है ।

राज्य अनुबंध या संविदाओं के मामले में दावा किए जाने योग्य हैं । इसका अर्थ है कि अनुबंध के मामले में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी उतनी ही है जितनी कि अनुबंध के सामान्य कानून के अधीन किसी व्यक्ति की ।

परंतु क्षति (Tort) के मामले में स्थिति भिन्न है । इसमें राज्य के राजकीय और अराजकीय कार्यों में अंतर किया जाता है । अपने कर्मचारियों के क्षति पहुँचाने वाले कार्यों के लिए सरकार पर केवल अराजकीय कार्यों के मामलों में दावा किया जा सकता है ।

ब्रिटेन में राज्य (अर्थात् क्राउन) को अपने किसी भी कृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराये जाने के संबंध में परम्परागत प्रतिरोधकता प्राप्त है । 1947 के क्राउन प्रोसीडिंगस एक्ट के द्वारा राज्य की उन्मुक्तता में कुछ कटौती की गयी ।

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वर्तमान में कुछ अपवादों के राज्य को उसके अधिकारियों के गलत कार्यों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है । संयुक्त राज्य अमरीका में, कुछ अपवादों को छोड़, क्षति (Torts) संबंधी मामलों में राज्य पर दावा नहीं किया जा सकता । अन्य शब्दों में राज्य (चाहे वो संघीय सरकार हो अथवा राज्य सरकार) कुछ मामलों के अलावा, अपने कर्मचारियों के क्षति कारक (Tortcoees) उतरदायित्व से मुक्त है । फ्रांस में ‘Droit Administrate’ की प्रणाली लागू है ।

वहाँ राज्य अपने कर्मचारियों के सरकारी कामों की जिम्मेदारी लेता है और नागरिकों द्वारा उठाए गए नुकसान की भरपाई करता है । पीड़ित नागरिक राज्य पर ‘प्रशासनिक न्यायालयों’ में सीधे दावा कर सकते हैं और क्षतिपूर्ण पा सकते हैं ।

iv. सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध दावे:

भारत में अपने सरकारी कामों के लिए राष्ट्रपति तथा राज्यपाल वैधानिक उत्तरादायित्व से मुक्त हैं । उनके कार्यकाल के दौरान, उनके निजी कार्यों तक के मामले में उनको आपराधिक कार्यवाहियों से मुक्ति मिली हुई है ।

उनको न तो गिरफ्तार किया जा सकता है, न ही जेल में बंद; परंतु उनके निजी कृत्यों के मामले में कार्यकाल के दौरान दो महीने का नोटिस देकर उनके विरुद्ध दीवानी में मुकदमा दायर किया जा सकता है । इस प्रकार की मुक्ति मंत्रियों को प्राप्त नहीं है ।

अत: अपराधों तथा क्षतियों के लिए भी सामान्य न्यायालयों में आम नागरिकों की तरह उन पर भी दावा दायर किया जा सकता है । 1850 के न्यायिक अधिकारी सुरक्षा अधिनियम के अधीन अपने कार्यों के संबंध में न्यायिक अधिकारी प्रत्येक जवाबदेही से मुक्त हैं इसलिए उन पर दावा नहीं किया जा सकता है । भारतीय संविधान की धारा 294 के द्वारा सरकारी अनुबंधों के लिए लोक सेवकों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है । अन्य मामलों में अधिकारियों का उत्तरदायित्व आम नागरिक जैसा ही है ।

उनके द्वारा सरकारी हैसियत से किए गए कामों के लिए उन पर दीवानी कार्यवाही दो महीने का नोटिस देकर की जा सकती है । जहाँ तक आपराधिक उत्तरदायित्वों का संबंध है, उनके द्वारा सरकारी हैसियत से किए गए कार्यों के लिए उनके विरुद्ध कार्यवाही सरकार से पूर्व अनुमति लेकर की जा सकती है ।

ब्रिटेन में सम्राट और अमेरिका में राष्ट्रपति भी वैधानिक उत्तरदायित्व से मुक्त रखे गए हैं । ब्रिटेन में इस मुहावरे को कानूनी मान्यता प्राप्त है, ‘राजा कुछ गलत नहीं कर सकता ।’ अत: किसी न्यायालय में उस पर दावा नहीं ठोका जा सकता है ।

v. असाधारण उपचार:

ये न्यायालयों द्वारा जारी 6 प्रकार के समादेश (Writs) होते हैं:

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus):

इसका शाब्दिक अर्थ होता है- ‘सशरीर हाजिर करना’ । न्यायालय द्वारा यह आदेश उस व्यक्ति को जारी किया जाता है जिसने किसी को रोक रखा या बंदी बना रखा हो ताकि पहले वाला व्यक्ति दूसरे को न्यायालय में सशरीर प्रस्तुत करें । अगर नजरबंदी को गैरकानूनी पाया जाता है, तो न्यायालय उस बंदी व्यक्ति को रिहा कर देगा । यह समादेश मनमानी नजरबंदी के विरुद्ध व्यक्तिगत स्वतंत्रता का बचाव है ।

2. परमादेश (Mandamus):

इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘हमारा आदेश’ । यह आदेश न्यायालय द्वारा सरकारी अधिकारी को ऐसे सरकारी कार्यों को निभाने के लिए दिया जाता है जिनको निभाने में वह विफल रहा है ।

3. निषेध (Prohibition):

उसका शाब्दिक अर्थ है ‘रोकना’ । यह उच्चतर न्यायालय द्वारा निचले न्यायालय को तब जारी किया जाता है जब निचला न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाता है । यह केवल न्यायिक तथा अर्धन्यायिक अधिकारियों के विरुद्ध ही जारी किया जाता है, प्रशासनिक अधिकारियों के लिए नहीं ।

4. उत्प्रेषण लेख (Certiorari):

इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘प्रमाणित होना’ । यह उच्चतर न्यायालय द्वारा किसी निचले न्यायालय को उसके पास लंबित पड़े किसी वाद की कार्यवाही के अभिलेखों को स्थानांतरित करने के लिए जारी किया जाता है ताकि उसकी कार्यवाही की वैधानिकता का निर्धारण किया जा सके या ऐसे वाद को उससे अधिक परिपूर्ण एवं संतोषजनक ढंग से पूरा किया जा सके जितना निचले न्यायालय में किया जा सकता था ।

अत: जहाँ निषेध केवल निवारक है; यह निवारक और उपचारात्मक दोनों है । निषेध की तरह इससे भी केवल न्यायिक और अर्ध न्यायिक अधिकारियों के विरुद्ध जारी किया जा सकता है, प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं ।

5. अधिकार-पृच्छा (Quo-Warranto):

इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘किस अधिकार अथवा वारंट से’ । न्यायालयों द्वारा इसे किसी व्यक्ति के सरकारी पदाधिकार के दावे की वैधानिकता को जानने के लिए जारी किया जाता है । अत: यह किसी व्यक्ति द्वारा सरकारी पद के गैरकानूनी अभिधारण को रोकता है ।

6. निषेधाज्ञा (Injunction):

यह न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति से कोई काम करने या किसी काम को करने से मना करने हेतु जारी की जाती है । यह दो प्रकार की होती है- आदेशात्मक और निरोधक । आदेशात्मक निषेधाज्ञा परमादेश जैसी सी लगती है पर यह भिन्न होती है ।

एम.पी. शर्मा के अनुसार- ”परमादेश को किसी गैर-सरकारी व्यक्ति के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता है जबकि निषेधाज्ञा मुख्यतया गैर-सरकारी कानून की प्रक्रिया है और प्रशासनिक कानून में यदा-कदा ही उपचार के रूप में प्रयुक्त होती है । परमादेश सामान्य कानून का उपचार है जबकि निषेधाज्ञा समानता की मजबूत भुजा है ।”