Read this article in Hindi to learn about the legislative control over public administration.
संसदीय लोकतंत्र में मंत्रियों के सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत पाया जाता है जो अध्यक्षीय लोकतंत्र में नहीं पाया जाता । इसके अंतर्गत मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से जनप्रतिनिधि सदन के प्रति उत्तरदायी होती है जैसे भारत और ब्रिटेन में ।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75(3) में इसका उल्लेख है । इसका एक आशय यह है कि प्रशासन (अधीनस्थ कार्यपालिका) पर विधायिका का सीधा नियंत्रण नहीं होता अपितु मंत्रिपरिषद (राजनीतिक कार्यपालिका) के माध्यम से होता है । प्रत्येक मंत्री अपने मंत्रालय और उसके कार्मिक-अधिकारियों के कार्यों के लिये संसद के प्रति उत्तरदायी होता है ।
गौर कीजिए कि 75(3) द्वारा मंत्रिपरिषद मात्र लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है लेकिन कुछ प्रस्तावों (जैसे विश्वास, अविश्वास, कटौती आदि) को छोड़कर हम देखते है कि मंत्रियों को दोनों सदनों में प्रश्नों के जवाब देने होते है, बहस में भाग लेना होता है ।
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वस्तुतः संविधान के अन्य उपबंधों में चर्चा, प्रस्ताव आदि के लिये संसद शब्द प्रयुक्त हुआ है । अनुच्छेद 118 में संसद की कार्यवाहियों के लिये नियम बनाने की शक्ति सदनों को दी गयी है । इसी के तहत सदन की कार्यवाहियों के लिये नियम बनाये जाते रहे हैं ।
संसद का प्रशासन पर नियंत्रण कार्यपालिका के माध्यम से जिसके निम्नलिखित स्वरूप हैं:
1. विधि और नीति निर्माण ।
2. अभिकरणों और विभागों की रचना ।
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3. पदों का निर्धारण ।
4. प्रश्न, बहस, प्रस्ताव ।
5. बजटरी नियंत्रण और लेखा परीक्षण द्वारा नियंत्रण ।
6. समिति प्रणाली द्वारा नियंत्रण ।
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1. विधि और नीति निर्माण:
भारत सरकार के लिये नीतियों और कानूनों का निर्माण विधायिका का प्रमुख कार्य है ।
(i) विधायिका कानून और नीतियों को अंतिम रूप से पारित करती है, उनमें समय-समय पर संशोधन करती है या उनको समाप्त करती है । इसके माध्यम से वह प्रशासन के संगठन, कार्य, व्यवहार, प्रक्रिया, अधिकार-दायित्व आदि का निर्धारण और नियमन करती है ।
(ii) लेकिन तथ्य यह है कि संसद उक्त गतिविधियों को सामान्य और मोटे रूप से करती है तथा उसके अंतर्गत अन्य प्रावधानों के विनिश्चय का अधिकार कार्यपालिका को सौंप देती है (प्रदत्त व्यवस्थापन) । प्रदत्त व्यवस्थापन के अंतर्गत इस तरह निर्मित नियमों को संसद के समक्ष अवश्य रखा जाता है ताकि वह उनका परीक्षण अपनी नीतियों के संदर्भ में कर सके ।
2. अभिकरणों और विभागों की रचना:
विधायिका द्वारा उन एजेन्सीयों की स्थापना की जाती है जो प्रशासनिक कार्यों को अंजाम देते हैं । इन एजेन्सियों, विभागों की स्थापना के समय इनके उद्देश्यों और कार्यों का भी उल्लेख कर दिया जाता है ।
3. पदों का निर्धारण:
यद्यपि अनेक पदों का उल्लेख संविधान में किया गया है, विधायिका भी नये अभिकरणों की स्थापना के समय इसके अंतर्गत कार्मिक पदों का निर्धारण करती है । इस प्रकार ये पदधारी अधिकारीगण अपनी जन्मदात्री संस्था के प्रति उत्तरदायी होते हैं ।
4. संसद की कार्यवाहियां – (प्रश्न, बहस, प्रस्ताव)
(1) प्रश्नकाल:
यह संसद की कार्य वही का पहला घण्टा है । इनमें उन प्रश्नों का उत्तर दिया जाता है, जिसको दस से तीस दिन के मध्य सूचना देकर पूछा जाता है । दोनों सदनों में हरेक बैठक के पहले घण्टे के समय को प्रश्नकाल कहा जाता है जिसमें उन विषयों से सम्बन्धित मंत्रियों या सरकारी सदस्यों से प्रश्नोत्तर किए जाते हैं । सामान्यतया ये प्रश्न मंत्रियों अर्थात सरकारी सदस्यों से ही किए जाते है, परन्तु ऐसा भी देखा गया है कि गैर सरकारी सदस्यों से भी प्रश्न किए गये हैं ।
प्रश्न के प्रकार:
(i) तारांकित प्रश्न:
इन प्रश्नों पर तारा लगा हुआ होता है । इन पर तारांक लगाकर विभेद किया जाता है । सर्वाधिक महत्व के प्रश्न यही माने जाते है, क्योंकि इनका उत्तर मौखिक रूप में सदन को देना होता है और इन पर पूरक प्रश्न भी उत्पन्न होते हैं ।
(ii) अतारांकित प्रश्न:
ये प्रश्न संबंधित सदस्य को लिखित रूप में उत्तर देने से संबंधित है । इसमें तारांकित प्रश्न की भांति मौखिक रूप से सदन में उत्तर नहीं दिया जाता हैं और न ही इस पर कोई अनुपूरक प्रश्न किया जा सकता है ।
(iii) अल्पसूचना प्रश्न:
अल्प सूचना प्रश्न वह प्रश्न होता है, जो अविलम्बनीय लोक महत्व के मामले से संबंधित हो और 10 दिनों से कम अवधि की सूचना देकर पूछे गये हो । वैसे तो प्रत्येक प्रश्न के लिए न्यूनतम 10 दिन की सूचना देना अनिवार्य है, लेकिन सभापति इससे भी अल्प सूचना समय में पूछे गये प्रश्नों के उत्तर देने के लिए मंत्री को कह सकता है ।
(2) शून्यकाल:
ये 12 बजे शुरू होता है, जिसे 00:00 माना जाता है, अतः इस काल को शून्यकाल कहा जाता है, जो एक घण्टे का होता है । इसमें अविलम्ब महत्व के प्रश्नों को पूछा जाता है और मंत्री को जवाब देना पड़ता है या वह समय ले सकता है । आजकल सामान्य रुप से यह 5 मिनट से 15 मिनट तक चलता है । इसके तहत उठाये गये मामलों के संदर्भ में नियमों का कोई उपबंध भी नहीं है ।
महत्व:
ब्रिटिश संसदीय कार्यवाही से अहित प्रश्नकाल प्रशासन पर संसदीय नियंत्रण का प्रभावशाली साधन है । अर्ल एटली- ”मेरा सदैव से दावा रहा है कि प्रश्नकाल वास्तविक लोकतंत्र का एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है । मंत्री से पूछे गये विशेषकर सार्वजनिक रूप से सदन में उठाये गये प्रश्न लोक सेवकों को चौकन्ना रखते हैं ।”
हघ गेटस्केल- ”लोक सेवा में काम करने वाला प्रत्येक व्यक्ति मुझसे सहमत होगा कि संसद में पूछे जाने वाले प्रश्नों का डर ही वह प्रमुख चीज है जो लोक सेवकों को सतर्क और सावधान रखने के साथ उन्हें रिकार्ड रखने के लिये प्रेरित करती है ।”
(3) आधे घण्टे की चर्चा:
उक्त प्रश्नकालों में किसी प्रश्न के उत्तर से असंतुष्ट सदस्य सभापति से उस पर विस्तृत चर्चा की मांग करता है और सभापति चाहे तो उसकी अनुमति उस दिन के अंतिम आधे घण्टे के लिए दे सकता है । यदि सदन का कोई सदस्य अपने प्रश्न के मौखिक या लिखित उत्तर से संतुष्ट न हो या प्रश्न से संबंधित किसी तथ्य में स्पष्टीकरण की अनिवार्यता महसूस करता हो तो उस विषय पर वह सदस्य 30 दिन पूर्व सूचना देकर लोकसभा में आधे घण्टे की चर्चा की मांग कर सकता है । यह लोकसभा में सप्ताह में 3 दिन की जाती है और किसी भी बैठक के अंतिम अधि घण्टे में की जा सकती है ।
(4) अल्पकालिन चर्चा:
इसका उद्देश्य सदस्यों द्वारा लोक महत्व के ऐसे विषय पर सरकार का ध्यान आकृष्ट करवाना है जो अत्यावश्यक है, जिसे किसी भी परिस्थिति में टाला नहीं जा सकता है । लोक महत्व से संबंधित अल्पकालीन चर्चा के लिए अध्यक्ष सप्ताह में दो बैठकें निर्धारित कर सकता है । इस चर्चा के लिए विषय का चुनाव सामान्यतया कार्यमंत्रणा समिति करती है और यही समय भी तय करती है । ये चर्चाएं प्रायः मंगलवार और वृहस्पतिवार के दिन ही की जाती है ।
(5) अन्य बहसें:
उक्त चर्चाओं के अतिरिक्त भी संसद को प्रशासन पर नियंत्रण हेतु अन्य अवसर मिलते हैं:
राष्ट्रपति का अभिभाषण और धन्यवाद प्रस्ताव:
राष्ट्रपति संसद के संयुक्त अधिवेशन को दो अवसरों पर संबोधित करता है:
1. नयी लोक सभा का गठन होने पर तथा
2. प्रत्येक वर्ष के प्रारंभ में संसद का पहला अधिवेशन ।
इस अवसर पर राष्ट्रपति सरकार की उपलब्धियों और नीतियों को संसद के समक्ष प्रस्तुत करता है । अभिभाषण के पश्चात सरकार धन्यवाद प्रस्ताव रखती है जिस पर सामान्यतया 4 दिन वाद-विवाद के लिये तय होते हैं । इस दौरान विपक्ष को सरकारी नीतियों की कमियों पर आलोचना का अवसर मिलता है और प्रशासन की लापरवाहीं पर भी वे प्रश्न उठाते हैं ।
(i) कानूनी विधेयकों पर चर्चा:
सरकार व्यवस्थापन के लिये अनेक कानूनों का निर्माण संशोधन, निरसन संसद से करवाती है । संसद को इनके माध्यम से भी प्रशासन पर नियंत्रण का अवसर मिलता है ।
(ii) सामान्य सार्वजनिक मुद्दों पर प्रस्ताव:
नियमित प्रस्तावों के अलावा भी संसद में सामान्य रूप से सार्वजनिक हित के प्रस्ताव लाये जाते है । इन पर बहस और मतदान के द्वारा भी संसदीय नियंत्रण सुनिश्चित होता है ।
(iii) विश्वास प्रस्ताव:
यह सरकार द्वारा लोक सभा में प्रस्तुत किया जाता है । यह प्रायः नयी गठन के बाद उसमें सरकार के बहुमत की जांच के लिये रखा जाता है ।
(iv) बजटरी नियंत्रण:
बजट के द्वारा नियंत्रण महत्वपूर्ण संसदीय साधन है । वस्तुतः बजट भी एक अधिनियम होता है और संसद ही इसको स्वीकृति देती है । इसमें सरकार के समस्त भावी आय-व्यय का उल्लेख होता है । संसद इसे अनुमति देते समय सरकारी नीतियों, उनके क्रियान्वयन आदि का परीक्षण करती है और प्रशासन की खामियों और असफलता से संबंधित सवाल-जवाब करती है । बिना संसद की स्वीकृति के कार्यपालिका न तो एक भी पैसा उगाह सकती है, न ही खर्च कर सकती है ।
(v) ध्यानाकर्षण प्रस्ताव:
यह संसदीय नियम 197 के तहत लाया जाता है । इसके तहत किसी ज्वलंत मुद्दे को आधार बनाकर एक प्रस्ताव के माध्यम से सदन का ध्यान उस और आकर्षित किया जाता है, जिस पर संबंधित मंत्री को वक्तव्य देने को कहा जाता है । इस पर बहस होती है, मतदान नहीं होता ।
ध्यानाकर्षण सूचनाओं के लिए उपबंध वर्ष 1954 में किया गया । इसमें अध्यक्ष या सभापति की स्वीकृति से कोई सदस्य अविलम्बनीय सार्वजनिक महत्व के किसी मामले की ओर किसी मंत्री का ध्यान दिलाता है या उस संबंध में प्रश्न करता है । मंत्री उस पर शीघ्र ही संक्षिप्त वक्तव्य दे सकता है या बाद में वक्तव्य देने के लिए समय माँग सकता है ।
(6) कामरोको प्रस्ताव या स्थगन-प्रस्ताव:
इसका उल्लेख नियम 56 में है । यह प्रस्ताव प्रश्नकाल के समाप्त होने के बाद सदन के किसी भी सदस्य द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है । कामरोको या स्थगन प्रस्ताव किसी सदस्य द्वारा ऐसे गम्भीर सार्वजनिक महत्व के विषयों पर सदन का ध्यान आकर्षित करने के लिए रखा जाता है, जिस पर तत्काल विचार न किया जाये तो परिणाम घातक हो सकते है ।
इसके तहत सदन की कार्यवाही को रोककर लोक महत्व के मुद्दे पर चर्चा करने का प्रस्ताव रखा जाता है । इस प्रकार के प्रस्ताव को केन्द्र सरकार की असफलता का सूचक भी माना जा सकता है । स्थगन प्रस्ताव पर विचार के लिए शाम को 4 बजे से 6.30 बजे का समय निर्धारित किया जाता है । इस प्रस्ताव पर चर्चा शुरू हो जाने के बाद बिना समाधान के लोकसभाध्यक्ष सभा को भंग नहीं कर सकता । इस पर बहस और मतदान दोनों हो सकता है । मतदान में हार जाने पर सरकार को इस्तीफा देना अनिवार्य नहीं होता ।
(7) निन्दा प्रस्ताव:
इसमें सरकार के किसी आचरण या नीति की निन्दा या आलोचना की जाती है । ये भी एक प्रस्ताव के रूप में लाया जाता है । इस प्रस्ताव में उन कारणों या आरोपों का उल्लेख करना आवश्यक होता है जिस पर वह आधारित हो । इस पर बहस और मतदान हो सकता है । इसके पारित होने पर सरकार को इस्तीफा देना जरूरी नहीं होता, लेकिन उस पर हटने की नैतिक ज़िम्मेदारी अवश्य आ जाती है ।
अविश्वास प्रस्ताव के बाद सरकार के विरुद्ध दूसरा बड़ा हथियार यही है । निन्दा प्रस्ताव को संसद में विरोधी दल के नेता या अन्य सदस्यों द्वारा सरकार की नीतियों की आलोचना या उन्हें अमान्य करने के लिए प्रस्तुत किया जाता है । इससे संबंधित सूचना कम से कम 10 दिन पूर्व और अधिक से अधिक 21 दिन पूर्व दी जानी चाहिए ।
किसी एक दिन की प्रश्न सूचि में केवल एक ही ऐसा प्रश्न रखा जा सकता है । प्रस्ताव नियमानुसार है या नहीं, इस बारे में अध्यक्ष का फैसला अंतिम होता है । निन्दा प्रस्ताव पर चर्चा के लिए तिथि निर्धारित करवाना सरकार के विवेक पर निर्भर है ।
(8) अविश्वास प्रस्ताव:
यह नियम 198 के तहत लाया जाता है । यह सरकार के विरूद्ध लाया जाता है और 1 वर्ष में एक बार ही लाया जा सकता है । इसमें किसी मुद्दे का होना जरूरी नहीं होता, मात्र सरकार से अविश्वास करना पर्याप्त होता है । इसकी तिथि लोकसभाध्यक्ष तय करता है, तब इस पर सत्ता पक्ष एवं प्रतिपक्ष वक्तव्य देते है ।
विपक्ष द्वारा बल देने पर मत विभाजन किया जाता है । विश्वास प्रस्ताव के उल्लेख यही एकमात्र प्रस्ताव है, जो सिर्फ लोकसभा (राज्य में विधानसभा) में ही लाया जा सकता है और जिसके पारित होने पर सरकार को त्यागपत्र देना अनिवार्य है । अविश्वास का प्रस्ताव रखने से पूर्व सूचना दी जानी आवश्यक है ।
लोकसभाध्यक्ष यह फैसला करता हैं कि कोई प्रस्ताव नियमानुकूल है या नहीं । यदि अध्यक्ष की यह राय हो कि प्रस्ताव नियमानुसार है, तो वह प्रश्नकाल समाप्त हो जाने पर, सदस्य से कहेगा कि वह सदन की अनुमति मांगे या अध्यक्ष स्वयं सदन को प्रस्ताव पढ़कर सुनाता है ।
यदि कम से कम 50 सदस्य अपने स्थानों से खडे हो जायें तो अध्यक्ष यह घोषणा करता है कि अनुमति दी जाती है । अविश्वास का प्रस्ताव जब एक बार गृहीत हो जाता है, तब अनुमति दिए जाने के 10 दिन के भीतर उसे बहस के लिए तैयार होना पड़ता है । यदि सरकार की इच्छा हो तो प्रस्ताव पर चर्चा के लिए समय कार्य मंत्रणा समिति की सिफारिश पर निधार्रित किया जाता है ।
जब वाद-विवाद समाप्त हो जाता तब अध्यक्ष शीघ्र ही मतदान करवाता है और इस विषय पर सदन का फैसला मौखिक मतों द्वारा होता है कि वे मतदान करवाना चाहते हैं अथवा नहीं । अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है तो सरकार को त्याग-पत्र देना पड़ता हैं । राज्य सभा को अविश्वास प्रस्ताव पर विचार करने का अधिकार नहीं है ।
(9) विशेषाधिकार प्रस्ताव:
यदि किसी मंत्री द्वारा सही तथ्यों को न प्रकट कर या गलत बताकर संसद के सदस्यों के विशेषाधिकार को तोड़ा जाता है, तो कोई भी सदस्य इस विशेषाधिकार प्रस्ताव को संसद में प्रस्तुत कर सकता हैं ।
(10) स्थानापन्न-प्रस्ताव:
स्थानापन्न प्रस्ताव उसे कहते हैं जो किसी प्रस्ताव के स्थान पर और उसके विकल्प के रूप में पेश किया जाए ।
(11) नियम 184:
इस पर चर्चा के उपरान्त मत विभाजन किया जाता है । अतः सरकार इसके ऊपर चर्चा करवाने से बचती है ।
(12) नियम 193:
नियम 193 के अंतर्गत तात्कालिक तथा सार्वजनिक महत्व के प्रश्न संसद में किए जाते हैं किंतु इसमें मतदान नहीं कराया जाता है ।
(13) नियम 377:
इसके तहत सरकार के विरूद्ध कोई प्रस्ताव चर्चा के लिए लाया जाता है तो लोकसभा में इसे नियम 377 के तहत प्रस्ताव की संज्ञा दी जाती है, जबकि राज्यसभा में विशेष उल्लेख 377 की संज्ञा दी जाती है । इसके तहत पहला मामला 1966 में उठाया गया था ।
(14) कटौती प्रस्ताव:
ये प्रस्ताव बजट की मांगों में कटौती करने के उद्देश्य से प्रस्तुत किये जाते हैं इनकी अनुमति अध्यक्ष अपने स्वविवेक से देता है ।
ये प्रस्ताव तीन तरह के होते हैं:
(a) प्रतिकात्मक कटौती:
ये सरकारी नीति से असमहती व्यक्त करने के लिये रखा जाता है । इसका प्रारूप इस प्रकार होता है – ”खर्च में Rs.100 की कटौती की जाये” ।
(b) व्यय कटौती:
यह खर्च में मितव्ययीता लाने के उद्देश्य से रखा जाता है । इसका प्रारूप इस प्रकार होता है, ”खर्च में इतनी राशि की कटौती की जाये ।”
(c) नीतिगत कटौती:
यह सबसे गम्भीर कटौती प्रस्ताव है क्योंकि इसके पारित होने पर सरकार को त्याग पत्र देना पड़ता है । यह शासन के उत्तरदायित्व से संबंधित विषय पर असंतोष व्यक्त करने के लिये लाया जाता है । इसका प्रारूप इस प्रकार होता है, ”व्यय की राशि घटाकर Rs.1 कर दी जाये ।”
(15) विश्वास प्रस्ताव:
यह सरकार द्वारा लोकसभा में प्रस्तुत किया जाता है । यह प्रायः नयी लोक सभा में गठन के बाद उसमें सरकार के बहुमत की जांच के लिये रखा जाता है ।
(16) जांच समितियाँ:
प्रशासन द्वारा किसी प्रकार की अनियमितता या लापरवाही करने पर संसद उसकी जांच अपनी समितियों के माध्यम से करवा सकती है ।
(17) बजटरी नियंत्रण:
”बजट के द्वारा नियंत्रण” महत्वपूर्ण संसदीय साधन है । वस्तुतः बजट भी एक अधिनियम होता है और संसद ही इसको स्वीकृति देती है । इसमें सरकार के समस्त भावी आय-व्यय का उल्लेख होता है । बिना संसद की स्वीकृति के कार्यपालिका न तो एक भी पैसा उगाह सकती है, न ही खर्च कर सकती है ।
(18) लेखा परीक्षण:
वित्त के संदर्भ में प्रशासन पर संसदीय नियंत्रण को सरल प्रभावी और स्पष्ट बनाने में लेखा परीक्षण महत्वपूर्ण आधार है । वस्तुतः भारत का नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (CAG) संसद की तरफ से ही भारत सरकार के लेखों का परीक्षण करता है और तत्संबंधी प्रतिवेदन राष्ट्रपति को प्रस्तुत करता है ।
केग-प्रतिवेदन सरकार के अवैधानिक, अनुचित, अनियमित और औचत्यहीन खर्चों को प्रकट करता है । अपने कार्यों के लिये मात्र संसद के प्रति उत्तरदायी केग को कार्यपालिका से स्वतंत्र रखा गया है ताकि वह बिना दबाव के अपने काम कर सके ।