Read this article in Hindi to learn about the judicial control over public administration.
प्रशासन पर बाह्य नियंत्रण विधायी और न्यायिक साधनों द्वारा होता है । विधायी नियंत्रण कार्यपालिका शाखा की नीति तथा व्यय को नियन्त्रित करता है और न्यायिक नियन्त्रण प्रशासकीय कार्यों की वैधानिकता निश्चित करता है ।
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किसी भी सरकारी अधिकारी द्वारा नागरिकों के संवैधानिक या मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण होने पर न्यायपालिका उनकी रक्षा करती है और दोषी लोगों को दण्डित करती है । एम.पी. शर्मा के शब्दों में – ”न्यायालयों का काम नागरिकों की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों की रक्षा करना है ।” उन्होंने इस दृष्टि से लागू न्यायिक नियंत्रण को ”न्यायिक चिकित्सा” (Judicial Remedy) की संज्ञा दी ।
वस्तुतः प्रशासन पर न्यायिक नियंत्रण ”विधि के शासन” की प्राकृतिक व्यवस्था से निकलता है । इससे आशय यह है कि प्रशासन भी आम जनता की भांति अपने कार्यों के लिये न्यायालय के प्रति जवाबदेह है । भारत और ब्रिटेन में यह इसी अर्थ में लागू है । ब्रिटिश विधि-विशेषज्ञ ए.वी. डिके ने ”इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ द लॉ ऑफ द कांस्टीट्यूशन” में कहा है कि ”कानूनी औचित्य को छोड़कर अपने कार्यों के लिये प्रधानमंत्री से लेकर एक सिपाही तक उस जवाबदेही से बंधा है जिससे कि अन्य नागरिक ।”
फ्रांस में प्रशासनिक विधि प्रशासन को उसके कार्यों के लिये विशेष संरक्षण प्रदान करती है और इसलिये भारत-ब्रिटेन की तुलना में वहाँ प्रशासन पर न्यायिक नियंत्रण लचिला, सीमित और प्रतिबंधित है ।
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हस्तक्षेप के आधार या परिस्थितियां:
न्यायालय प्रशासन पर तभी नियंत्रण लागू करता है जब निम्न परिस्थितियाँ पैदा हों:
1. अधिकार बाह्यता – जब प्रशासक बिना अधिकार के या प्राप्त अधिकार से अधिक या अपने क्षेत्र से बाहर जाकर काम करे ।
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2. अधिकार-भ्रांति – जब प्रशासक कानून या नीति की गलत व्याख्या करे या उसमें चूक करे ।
3. दूराधिकार – जब प्रशासक जानबूझकर किसी का अहित करने के उद्देश्य से अधिकारों का दुरूपयोग करे ।
4. प्रक्रियागत त्रुटि – जब प्रशासक निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं करे ।
5. तथ्यगत त्रुटि – जब प्रशासक तथ्यों की प्राप्ति में भूल कर गलत तथ्यों के आधार पर कार्य करता है ।
साधन और पद्धतियां:
न्यायपालिका द्वारा लोक प्रशासन पर नियन्त्रण कुछ परिस्थितियों में, सीमाओं में और निर्धारित अवसरों पर ही किया जाता है ।
जो इस प्रकार हैं:
1. सरकार के विरूद्ध अभियोग:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 300 के अनुसार भारत सरकार के विरूद्ध या उसके द्वारा भारतीय संघ के नाम से अभियोग प्रस्तुत किये जाते हैं । किसी राज्य की सरकार के विरूद्ध या उसके द्वारा उस राज्य के नाम से भी अभियोग प्रस्तुत किये जाते हैं ।
अर्थात् संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत स्वतंत्रता और अधिकार की रक्षा के लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के विरूद्ध भी न्यायालय में अभियोग लगाया जा सकता है । प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा अपने अधिकार के दुरुपयोग करने पर और भ्रष्टाचार संबंधी मामलों में व्यक्तिगत तौर पर मुकदमा चलाया जाता है ।
2. सरकारी अधिकारियों के विरूद्ध अभियोग:
सरकारी पदाधिकारी अपने कार्यों के लिए न्यायालय के प्रति उत्तरदायी होते है परंतु उनके विरूद्ध भी न्यायालय में अभियोग प्रस्तुत किया जा सकता है या मुकदमा चलाया जाता है । लेकिन भारतीय संविधान में राष्ट्रपति और राज्यपालों को न्यायिक कारवाई से मुक्त रखने की व्यवस्था की गयी है । राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने का अधिकार केवल संसद को है । भारत में न्यायाधीश और मुख्य चुनाव आयुक्त भी कानूनी कारवाई से मुक्ता है ।
3. प्रशासनिक कार्यों तथा निर्णयों का न्यायिक पुनरावलोकन:
संयुक्त राज्य अमेरिका के समान भारतीय न्यायपालिका को यह अधिकार है कि वह समय-समय पर प्रशासनिक कार्यों की देखभाल करती रहे, अगर कोई प्रशासनिक निर्णय संविधान के विरूद्ध है तो वह उसे असवैधानिक घोषित कर सकती है ।
4. कानूनी अपील:
न्यायालय को प्रशासकीय आज्ञाओं और निर्णयों के विरूद्ध अपीलें सुनने का अधिकार है ।
5. संवैधानिक उपचारों का अधिकार:
सरकारी अभिकरणों द्वारा किये गये शक्ति के दुरुपयोग के विरूद्ध न्यायपालिका को कुछ विशेष अधिकार प्राप्त है जिसे सवैधानिक उपचार का अधिकार कहते हैं ।
इनकी व्याख्या निम्नांकित है:
(अ) बन्दी प्रत्यक्षीकरण:
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये यह लेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है, जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बन्दी बनाया गया है । इसके द्वारा न्यायालय बन्दीकरण करने वाले अधिकारी को यह आदेश देता है कि वह बन्दी बनाये गये व्यक्ति को निश्चित समय पर और स्थान पर उपस्थित करे ।
जिससे न्यायालय बन्दी बनाये जाने के कारणों पर विचार कर सके नजरबन्दी वैध है या अवैध । यदि नजरबंदी अवैध होती है तो न्यायालय बन्दी को फौरन मुक्त करने की आज्ञा दे देता है ।
(ब) परमादेश:
परमादेश का लेख उस समय जारी किया जाता है, जब कोई पदाधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं करता । इस प्रकार के आज्ञा-पत्र के आधार पर पदाधिकारी को उसके कर्तव्य का पालन करने का आदेश जारी किया जाता है ।
(स) प्रतिषेध:
यह आज्ञापत्र सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च-न्यायालयों द्वारा निम्न न्यायालयों तथा अर्ध-न्यायिक न्यायाधिकरणों को जारी करते हुये आदेश दिया जाता है कि इस मामले में अपने यहां कार्यवाही न करें, क्योंकि यह मामला उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है ।
(द) उत्प्रेषण:
यह आज्ञापत्र अधिकांशतः किसी विवाद को निम्न न्यायालय से उच्च न्यायालय में भेजने के लिये जारी किया जाता है, जिससे वह अपनी शक्ति से अधिक अधिकारों का उपभोग न करे या अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हुये न्याय के प्राकृतिक सिद्धांन्तों को भंग न करे । इस आज्ञापत्र के आधार पर उच्च न्यायालय निम्न न्यायाधीशों से किन्हीं विवादों के सम्बन्ध में सूचना भी प्राप्त कर सकता है ।
(य) अधिकार पृच्छा:
जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है, जिस रूप में कोई कार्य करने का उसे वैधानिक रूप से अधिकार नहीं है तो न्यायालय अधिकार-पृच्छा के आदेश द्वारा उस व्यक्ति से पूछता है कि वह किस आधार पर इस पद पर कार्य कर रहा है और जब तक वह इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर नहीं देता, वह कार्य नहीं कर सकता ।
व्यक्तियों के द्वारा साधारण परिस्थितियों में ही न्यायालयों की शरण लेकर अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा की जा सकती है, लेकिन युद्ध बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह जैसी परिस्थितियों में जबकि राष्ट्रपति के द्वारा संकटकाल की घोषणा कर दी गई हो, मौलिक अधिकारों (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को छोड़कर) को स्थगित किया जा सकता है ।
निषेधाज्ञा (Injunction):
उपर्युक्त याचिकाएं तो मात्र सरकार (कार्यपालिका और न्यायालय) के विरूद्ध ही लायी जा सकती हैं लेकिन निषधाज्ञा (Injunction) याचिका का उपयोग आम नागरिक या निजी संस्थान के विरूद्ध मुख्यतया किया जाता है । वस्तुतः यह गैर सरकारी पक्ष के विरूद्ध लायी जाने वाली ”परमादेश याचिका” ही है ।
इसके दो प्रकार है – आदेशात्मक और प्रतिबंधात्मक । परमादेश को सामान्य कानून का उपचार कहा जाता है तो निषेधाज्ञा को समानता की शक्तिशाली भुजा कहा जाता है ।
सरकारी अधिकारियों के विरूद्ध वाद:
राष्ट्रपति और राज्यपाल को उनके कार्यकाल के दौरान आपराधिक मामलों में न तो गिरफ्तार किया जा सकता है, न ही मुकदमा चलाया जा सकता है लेकिन उनके निजी दिवानी मामलों में उनको 2 माह का नोटिस देकर मुकदमा चलाया जा सकता है ।
परंतु अन्य पदाधिकारियों जैसे प्रधानमंत्री, मंत्री, सचिव, अन्य कार्मिक आदि सभी पर किसी भी मामले में मुकदमा चलाया जा सकता है । सरकारी अधिकारियों पर दिवानी मामलों में 2 माह का नोटिस देकर तथा आपराधिक मामलों में सरकार से पूर्वानुमति लेकर मुकदमा चलाया जा सकता है ।
लेकिन अनुच्छेद 294 के अंतर्गत सरकारी अनुबंधों के लिये अधिकारियों को विधिक उत्तरदायित्व से मुक्त किया गया है । इसी प्रकार न्यायिक अधिकारी सुरक्षा एक्ट, 1850 के तहत न्यायिक अधिकारी अपने कार्यों के लिये किसी भी जवाबदेही से मुक्त रखे गये है ।
उधर ब्रिटेन में कहावत है कि ”राजा कभी गलती नहीं करता” (King Never Makes Mistakes) अतः अमेरिकी राष्ट्रपति की भांति ब्रिटेन में राजा (या रानी) भी विधिक उत्तरदायित्व से मुक्त है ।
उल्लेखनीय बिंदू:
1. संविधान में मात्र प्रथम 5 याचिकाओं का उल्लेख है ।
2. अनु. 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को उक्त 5 याचिकाओं को जारी करने का अधिकार है । वह मूलाधिकारों की रक्षार्थ ही इन्हें लागू करता है ।
3. अनु. 226 के तहत उच्च उच्च न्यायालयों को उक्त पांचों याचिकाओं को जारी करने का अधिकार है । लेकिन उच्च न्यायालय इन्हें मुलाधिकारों को लागू करने के साथ अन्य उद्देश्यों से भी जारी कर सकता है । दूसरे शब्दों में उक्त याचिकाओं को लेकर उच्च न्यायालय सुप्रीम कोर्ट की तुलना में व्यापक क्षेत्राधिकार (भौगोलिक नहीं, उद्देश्यात्मक) रखता है ।
4. लेकिन जनहित के मुद्दे पर जनहित याचिकाओं के प्रचलन ने सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय दोनों के क्षेत्राधिकार को विस्तृत कर दिया है ।
5. भारत में उक्त पांचों याचिकाएं मात्र सरकार (प्रथम तीन कार्यपालिका और शेष 2 न्यायपालिका) के विरूद्ध लायी जा सकती है, व्यक्ति या निजी संस्था के विरूद्ध नहीं । ब्रिटेन में स्थिति दूसरी है ।
6. उक्त याचिकाएं विधायिका के विरूद्ध नहीं लायी जा सकती हैं ।
न्यायिक नियंत्रण की सीमाएं:
1. न्यायपालिका में पहलपन का अभाव । पीड़ित पक्ष को स्वयं न्यायपालिका के पास जाना पड़ता है ।
2. न्यायिक प्रक्रिया अत्यंत दुरूह, जटिल और समय तथा धन साक्ष्य होती है ।
3. न्यायिक नियंत्रण प्रकृति में शव परीक्षण के समान है अर्थात यह नुकसान या दुरुपयोग हो जाने के बाद शुरू होता है, उसके पहले नहीं ।
4. संसद द्वारा अनेक कार्यों को न्यायिक परीक्षण के दायरे से बाहर रखा गया है ।
5. कुछ मामले स्वयं न्यायपालिका ही अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर रखती है और कुछ मामलों में इसलिये हस्तक्षेप नहीं करती क्योंकि वे पूर्णतः प्रशासनिक स्वरूप के होते हैं ।
6. प्रशासन का स्वरूप इतना विशाल जटिल और विविध है कि उसके प्रत्येक कार्य से संबंधित नागरिक-शिकायतों को निराकरण न्यायालय द्वारा संभव नहीं होता ।
7. न्यायाधिशों में प्रशासन की तकनीकी जानकारी, प्रक्रियागत जानकारी आदि का अभाव होता है अतः उसके बारे में न्याय-निर्णय कठिन हो जाता है ।