संगठनात्मक नियंत्रण: परिभाषा, प्रक्रिया और तकनीकें | Read this article in Hindi to learn about:- 1. नियंत्रण कि परिभाषा (Definition of Control) 2. नियंत्रण कि प्रक्रिया (Process of Control) 3. तकनीकों (Techniques) 4. सैद्धांतिक योगदान (Theoretical Contributions).

नियंत्रण कि परिभाषा (Definition of Control):

हर संगठन में पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति को सुनिश्चित करने के लिए नियंत्रण अनिवार्य है । यह संतुलन की स्थिति कायम रखने में संगठन की मदद करता है । यह सांगठनिक कार्यों में भटकाव को सही कर देता है । इस प्रकार, यह संगठन की सफलता को सुनिश्चित करता है ।

हेनरी फेयॉल- ”नियंत्रण का तात्पर्य इस बात की पुष्टि करने से है कि हर चीज अपनाई गई योजना, दिए गए निर्देशों और तय सिद्धांतों के अनुरूप हो रही है या नहीं ।” न्यूमैन एंड समर- ”नियंत्रण का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि कार्यों के परिणाम निश्चित किए गए लक्ष्यों से अधिकतम संभव नजदीकी से मिलते हों ।”

पीटर ड्रकर- ”नियंत्रण साध्य और साधनों, परिणाम और प्रयास के बीच संतुलन कायम रखता है ।” जी.आर.टेरी- ”नियंत्रित करना यह तय करना है कि क्या लक्ष्य प्राप्त किया जा रहा है । यानी, कार्य निष्पादन का मूल्यांकन करना है और अगर जरूरी हो तो इसे सही करने के लिए कदम उठाना है ताकि निष्पादन योजना के मुताबिक हो ।”

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कृंटज व ओ डॉनेल- ”नियंत्रित करने का अर्थ उपलब्धियों का मानकों के सम्मुख मापन और योजना के अनुसार उद्देश्यों की पूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए विचलनों को सही करना है ।” जे.एल.मैसी- “नियंत्रण वह प्रक्रिया है जो मौजूदा प्रदर्शन को मापती है और कुछ पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उसे निर्देशित करती है ।” संक्षेप में, नियंत्रण का अर्थ है- पर्याप्त प्रगति और संतोषजनक परिणामों को सुनिश्चित करने के लिए तय मानकों के सम्मुख वास्तविक प्रदर्शन की जाँच और पुष्टि ।

नियंत्रण कि प्रक्रिया (Process of Control):

नियंत्रण की प्रक्रिया के चार चरण या बुनियादी तत्त्व होते हैं ।

क्रमिक रूप में ये इस प्रकार हैं:

1. मानकों की स्थापना:

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नियंत्रण प्रक्रिया प्रदर्शन के मानकों को तय करने के साथ शुरू होती है । इसमें स्पष्ट शब्दों में अपेक्षित परिणाम को स्पष्ट करना और उसे सांगठनिक सदस्यों को बताना शामिल है । प्रदर्शन मानकों को परिमाण, गुण, धन और समय के पदों में अभिव्यक्त किया जाता है । उन्हें निश्चित, सटीक, लचीला और स्वीकार्य होना चाहिए ।

2. प्रदर्शन की माप:

प्रदर्शन के मानकों के निर्धारण के बाद नियंत्रण प्रक्रिया में अगला कदम होता है प्रदर्शन या कार्य निष्पापदन का मूल्यांकन । इसमें व्यक्तियों या समूहों के वास्तविक प्रदर्शन की माप उस इकाई में होती है जिसमें मानक निर्धारित होते हैं । यह समझने योग्य, सटीक, भरोसेमंद और वस्तुपरक होना चाहिए । यह उस आवश्यक सूचना पर आधारित होता है जो प्रदर्शन के संबंध में जुटाई जाती है ।

3. तुलना:

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नियंत्रण प्रक्रिया का तीसरा कदम है । वास्तविक प्रदर्शन की स्थापित मानकों के साथ तुलना । यह विचलनों की सीमा, प्रकृति, कारण और परिणाम जानने के लिए जरूरी होता है । विचलनों के कारण प्रक्रियात्मक, व्यक्तिगत, संरचनात्मक, वित्तीय और बाह्य इत्यादि हो सकते हैं ।

4. सुधारात्मक कार्यवाही:

नियंत्रण प्रक्रिया में आखिरी चरण है- प्रबंधन द्वारा उपयुक्त कार्यवाही किया जाना । इसके द्वारा प्रबंधन यह सुनिश्चित करता है कि विचलन फिर से न हों और वास्तविक कार्य स्थापित मानकों के अनुरूप हों । नियंत्रण के प्रभावी होने के लिए इसे वस्तुपरक, समयबद्ध, लचीला, सरल, व्यवहार, उपयुक्त, तत्पर, दूरगामी, समझने योग्य, किफायती और चयनात्मक होना चाहिए ।

नियंत्रण कि तकनीकों (Techniques of Control):

नियंत्रण की विभिन्न तकनीकों (पद्धतियों या युक्तियों) की व्याख्या नीचे की गयी हैं:

1. व्यक्तिगत अवलोकन:

यह नियंत्रण की प्राचीनतम तकनीक है । इसके तहत पर्यवेक्षक व्यक्तिगत रूप से कार्यस्थल के कामों की देखरेख करता है और जहाँ जरूरी हो उन्हें दुरुस्त करता है किंतु, यह एक समय खर्च करने वाली युक्ति है ।

2. नियंत्रण रिपोर्टें:

संख्यात्मक नियंत्रण रिपोर्टें परिमाणात्मक पदों में मानकों से भटकाव नापने के लिए तैयार की जाती है । इसके अतिरिक्त, विशेष नियंत्रण रिपोर्टें किसी विशेष उद्देश्य के लिए विशेष कार्य की जांच के लिए प्रयोग में लाई जाती हैं ।

3. अपवादों द्वारा प्रबंधन (MBE):

इस तकनीक के तहत केवल अपवादस्वरूप होने वाले विचलनों की रिपोर्ट शीर्ष प्रबंधन को सुधारात्मक कार्यवाही करने के लिए दी जाती है । इसे अपवाद द्वारा नियंत्रण के नाम से भी जाना जाता है । यह समय की बचत करने वाली युक्ति है और साथ ही यह संक्रांतिक समस्याओं की पहचान भी करती है । टेलर न वैज्ञानिक प्रबंधन के अधीन इस नियंत्रण तकनीक को सुझावित किया था ।

4. उद्देश्यों द्वारा प्रबंधन (MBO):

यह तकनीक पीटर ड्रकर द्वारा उनकी प्रसिद्ध पुस्तक दि प्रैक्टिस ऑफ मैनेमेंट (1954) में खोजी की गई थी । जॉर्ज ऑडीनॉर्न के शब्दों में- ”उद्देश्यों द्वारा प्रबंधन की व्यवस्था की व्याख्या एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में की जा सकती है जहाँ किसी संगठन के श्रेष्ठ और अधीनस्थ प्रबंधक साथ मिलकर इसके समान लक्ष्यों की पहचान करते हैं, प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी के मुख्य क्षेत्रों को उससे अपेक्षित परिणामों की शब्दावली में परिभाषित करते हैं और इन मानकों का प्रयोग इकाई को चलाने और इसके प्रत्येक सदस्य के योगदान का मूल्यांकन करने के मार्गदर्शकों के रूप में करते हैं ।”

5. प्रबंधन सूचना तंत्र (MIS):

यह तकनीक समस्या-समाधान, निर्णय-निर्माण और रणनीतिक नियोजन में प्रबंधकों की मदद करती है । यह वास्तविक प्रदर्शन की समीक्षा करने और सुधार करने के रास्ते निकालने में सहायता करती है । इस प्रकार यह तंत्र प्रबंधक को कार्यों पर बेहतर नियंत्रण हासिल करने के योग्य बनाता है ।

6. प्रबंधन ऑडिट:

यह सभी स्तरों पर प्रबंधन की गतिविधियों की एक व्यवस्थित, स्वतंत्र और व्यापक जाँच है, जिसका उद्देश्य है- प्रबंधन कार्यों के प्रदर्शन में सुधारों के माध्यम से सांगठनिक उद्देश्यों की प्राप्ति को बढ़ाना । इसे कार्य-संबंधी संषशिक्षा भी कहते हैं ।

7. प्रदर्शन मूल्यांकन और समीक्षा तकनीक (PERT):

इस तकनीक का विकास 1950 के दशक में बूझ, एलेन व हैमिल्टन ने किया था । इसका प्रयोग डिजाइनिंग, योजना बनाने और प्रोजेक्टों को नियंत्रित करने में होता है । यह उन कार्यों के बीच क्रमिक संबंधों की चित्रात्मक प्रस्तुति है, जो प्रोजेक्ट के पूरा होने के लिए पूरे होने चाहिएँ ।

8. आलोचनात्मक पथ पद्धति (CPM):

PERT के समान इसका प्रयोग भी डिजाइनिंग, योजना बनाने और प्रोजेक्टों को नियंत्रित करने में होता है । किंतु इसमें उन गतिविधियों की पहचान होती है जो प्रोजेक्ट के पूरा होने के लिए सबसे मुख्य होती है । इसके अतिरिक्त इसका सरोकार प्रोजेक्ट पूर्णता के केवल लागत-संबंधी आयाम से होता है जबकि PERT समय संबंधी आयाम से अधिक सरोकार रखता है ।

9. प्रदर्शन मूल्यांकन:

इसके तहत, संगठन के किसी सदस्य द्वारा वास्तविक कार्य प्रदर्शन के बारे में नियमित सूचना जुटाई जाती है और विश्लेषित की जाती है ताकि यह पुष्ट किया जा सके कि प्रदर्शन स्थापित मानकों के अनुरूप जा रहा है या नहीं । दुरुस्त करने की कार्यवाहियों को अपनाने के अतिरिक्त, इसमें सदस्यों को प्रेरित करने के लिए अच्छे व्यक्तिगत व्यवहारों को बढ़ावा देना भी शामिल है ।

10. बजटीय नियंत्रण:

यह तकनीक बजट को सांगठनिक कार्यों में नियोजित और नियंत्रित करने के साधन के रूप में प्रयुक्त होती है । यह इस बात को खोजने की प्रक्रिया है कि क्या किया जा रहा है । यह इन परिणामों की तदनुरूप बजट सूचना के साथ तुलना करने की प्रक्रिया है । नियंत्रण के लिए इस्तेमाल होने वाले बजट विभिन्न प्रकार के होते हैं- शून्य-आधारित बजट प्रदर्शन बजट, योजना-कार्यक्रम बजट तंत्र (PPBS) इत्यादि ।

नियंत्रण कि सैद्धांतिक योगदान (Theoretical Contributions of Control):

1. क्लासिकीय चिंतक:

टेलर, फेयॉल, गुलिक, अरविक, वेबर इत्यादि जैसे क्लासिकीय चिंतकों ने दलील दी कि संगठन में नियंत्रण की शक्ति शीर्ष स्तर पर केंद्रित होनी चाहिए । इसके अलावा वे मानते थे कि संगठन के लोग काम से घृणा करते हैं और गैर-जिम्मेदार होते हैं ।

इसलिए, उन्होंने जोर देकर कहा कि ज्यादातर लोगों को नियंत्रित किए जाने की जरूरत होती है ताकि वे सांगठनिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए पर्याप्त प्रयास करें । उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि नियंत्रण को बलपूर्ण, निर्देशक, दंडात्मक, स्थिर और कठोर होना चाहिए । संक्षेप में, वे मानवीय-नियंत्रण, थोपे गए नियंत्रण, बाह्य नियंत्रण और केंद्रीय नियंत्रण में यकीन करते थे ।

2. एम.पी. फॉलेट:

क्लासिकीय चिंतकों से अलग, फॉलेट सांगठनिक व्यवहार में स्थितिगत कारकों को महत्व देती थीं । वे ‘मनुष्य-नियंत्रण’ की बजाय ‘तथ्य-नियंत्रण’ की वकालत करती हैं क्योंकि तथ्य एक स्थिति से दूसरी स्थिति में बदल जाते हैं । इसके अतिरिक्त, उन्होंने यह महसूस किया कि संगठन में नियंत्रण को बहुलतावादी और संचित होना चाहिए, क्योंकि जटिल परिस्थितियाँ केंद्रीय नियंत्रण के अनुकूल नहीं होती ।

3. व्यवहारवादी:

एल्टन मेयो, चेस्टर बर्नार्ड, हरबर्ट साइमन, डगलस मैकग्रेगर, रेंसिस लिकर्ट और क्रिस आर्गिरिस क्लासिकीय चिंतकों से सहमत नहीं हैं और नियंत्रण पर एम.पी. फॉलेट के विचारों का समर्थन करते हैं । उन्होंने सांगठनिक क्रम को एक स्थितिगत परिघटना के रूप में देखा न कि ऊपर से थोपी गई चीज के रूप में । इसके अतिरिक्त उन्होंने लोगों की कल्पना सकारात्मक अर्थों में की । दूसरे शब्दों में, लोग स्वभावत: काम से घृणा नहीं करते और जिम्मेदार होते हैं ।

इसलिए उन्होंने जोर देकर कहा कि नियंत्रण प्रयासों को सांगठनिक लक्ष्यों के करीब लाने का एकमात्र साधन नहीं है । लोग उन लक्ष्यों की पूर्ति में आत्म-निर्देशन और आत्म-नियंत्रण को लागू करते हैं, जिनके लिए वे प्रतिबद्ध होते हैं ।

वास्तव में, नियंत्रण को अबाध्यकारी, अनिर्देशात्मक, गैर पुरस्कार युक्त (दंडात्मक), परिवर्तनशील और लचीला होना चाहिए । संक्षेप में, वे तथ्य-नियंत्रण, आत्म-नियंत्रण, आंतरिक नियंत्रण और बहुलतावादी नियंत्रण में यकीन करते हैं ।

4. अमिताई एत्जिओनी:

उन्होंने किसी संगठन द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले नियंत्रण के साधनों को तीन विश्लेषणात्मक श्रेणियों में वर्गीकृत किया- भौतिक, सांसारिक और प्रतीकात्मक । भौतिक साधनों के प्रयोग (जैसे बंदूक, चाबुक, ताला और शारीरिक दंड की धमकी) पर आधारित नियंत्रण को पीड़क शक्ति कहा गया है ।

सांसारिक साधनों (उत्पादों और सेवाओं) का नियंत्रण के उद्देश्यों के लिए प्रयोग उपयोगितावादी शक्ति का निर्माण करता है । नियंत्रण के उद्देश्यों के लिए प्रतीकों के प्रयोग को आदर्श शक्ति कहा जाता है । प्रतीक दो प्रकार के होते हैं- प्रतिष्ठा और सम्मान जैसे आदर्श प्रतीक और प्यार और स्वीकार्यता जैसे सामाजिक प्रतीक ।

उनके मतानुसार- ”आदर्श शक्ति उपयोगितावादी शक्ति से ज्यादा और उपयोगितावादी शक्ति पीड़क शक्ति से ज्यादा प्रतिबद्धता पैदा करती है । दूसरे शब्दों में, नियंत्रण के प्रतीकात्मक साधनों का प्रयोग लोगों को इस बात पर सहमत करता है कि सांसारिक साधनों का प्रयोग उनके आत्म-निर्देशित हितों को सुनिश्चितता के साथ निर्मित करता है और भौतिक साधनों का प्रयोग उन्हें आज्ञाकारिता के लिए बाध्य करता है ।”