Read this article in Hindi to learn about:- 1. घाटे के वित्त का अर्थ (Meaning of Deficit Financing) 2. घाटे के प्रकार या स्वरूप या अवधारणा (Types of Deficit) 3. प्रयोग (Applications).
घाटे के वित्त का अर्थ (Meaning of Deficit Financing):
वस्तुत: घाटे का वित्त व्यापक अवधारणा है और घाटे का बजट (Deficit Budgeting) उसका एक भाग है । घाटे का वित्त भी वित्तीय कोष जुटाने का एक स्रोत है । इसकी सहायता तब ली जाती है जब सरकार के व्यय की पूर्ति कराधान और लोक ऋणों से पूरी नहीं हो पाती है । इस हीनार्थ प्रबंधन भी कहा जाता है ।
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घाटे के वित्त से अर्थ है, सार्वजनिक राजस्व पर सार्वजनिक व्यय का आधिक्य ।
जहाँ पश्चिमी देशों में घाटे के वित्त के अंतर्गत लोक ऋण (व्यक्ति, बैंक आदि से प्राप्त) को भी शामिल किया जाता है, वहीं भारत में इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बातें शामिल की जाती हैं:
1. पिछला संचित कोष (जो नगद है) सरकार द्वारा प्रयुक्त किया जाना ।
2. RBI से ऋण और
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3. नई मुद्रा छपवाना ।
स्पष्ट है कि इसमें जनता से प्राप्त उधारी और व्यावसायिक बैंकों से प्राप्त ऋणों को शामिल नहीं किया जाता । फिर RBI से ऋण के बदले सरकार उसे प्रतिभूतियां सौंपती है और इन प्रतिभूतियों के आधार पर RBI सरकार की ओर से नये नोट छापती और जारी करती है ।
निष्कर्षत:
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भारत में घाटे का वित्त ”नयी मुद्रा के प्रचलन” का अर्थ ग्रहण कर लेता है । इससे अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मांग निरंतर बढ़ती जाती है और इसके कुछ सकारात्मक प्रभाव है लेकिन अधिकांशतया नकारात्मक प्रभाव आते हैं ।
जैसे:
i. मुदा स्फीति बढ़ जाती हैं ।
ii. मुद्रा की क्रय शक्ति कम होती है ।
iii. उक्त दोनों से महंगाई बढ़ जाती है ।
iv. उत्पादन की तुलना में अधिक मुद्रा कालाबाजारी, जमाखोरी को भी बढ़ावा देती है,
v. अन्तत: यह निरंतर बढ़ता अतिरिक्त धन काले धन को प्रोत्साहित करता है; और
vi. अर्थव्यवस्था में सफेद (वैधानिक) और काली (अवैधानिक) दो उप-अर्थव्यवस्थाएं समांतर चलने लगती हैं ।
इसीलिये 1947-97 तक के 50 साल में मुद्रा प्रसार ने हमारे घाटे को कई गुना बड़ा दिया । आर्थिक वैश्वीकरण ने हमें इस व्यवस्था को बदलने के लिये प्रेरित किया और 1997 से भारत में घाटे को कम करने के प्रयास शुरू हो गये ।
उल्लेखनीय है कि सीमित मात्रा में घाटा उचित होता है । इससे अर्थव्यवस्था में पहुंचने वाली मुद्रा व्यापार को गति देती है और उत्पादन को प्रोत्साहन । अब रिजर्व बैंक नोट छापने के स्थान पर सरकार को सशर्त ऋण उपलब्ध कराती है ।
इसे ”वेज एंड मिल्स एडवांस” (Wage and Meals Advance) नीति कहा जाता है । इससे घाटे के वित्त का उपयोग उत्पादक क्षेत्रों में होने की संभावना बढ़ जाती है क्योंकि RBI की शर्तें कठोर होती हैं । इससे राजकोषीय अनुशासन की दिशा में सरकार प्रेरित होती है ।
घाटे के प्रकार या स्वरूप या अवधारणा (Types of Deficit):
भारतीय शासन व्यवस्था में घाटे संबंधी पाँच अवधारणाएं प्रचलित हैं:
1. राजस्व घाटा (Revenue Deficit):
यह आकार में सबसे न्यूनतम होता है । यह सरकार के राजस्व व्यय और राजस्व प्राप्तियों का वह अंतर है जो ऋणात्मक होता है । अर्थात् जब राजस्व प्राप्ति से अधिक राजस्व व्यय होता है ।
राजस्व घाटा = राजस्व व्यय – राजस्व आय
राजस्व व्यय में शामिल है- नागरिक प्रशासन पर व्यय, प्रतिरक्षा पर व्यय, कानून व्यवस्था पर व्यय, न्यायिक खर्च, ब्याज भुगतान, अनुदान आदि । यह संपत्ति निर्माण (पूंजीगत व्यय) पर नहीं अपितु उक्त मदों पर गैर संपत्ति प्रकार का व्यय होता है । राजस्व आय में करों से प्राप्त आय और गैर कर आय जैसे- ब्याज प्राप्ति, जुर्माने से आय आदि शामिल है ।
2. बजट घाटा (Budget Deficit):
यह सरकार की कुल प्राप्तियों और कुल व्यय का ऋणात्मक अंतर है । अर्थात् यह सरकार की कुल आय से अधिक उसके कुल व्यय का घोतक है ।
बजट घाटा = कुल व्यय – कुल प्राप्तियां
सरकार के कुल व्यय में दोनों मुद्दे आती हैं- राजस्व व्यय और पूंजीगत व्यय । इसी प्रकार कुल प्राप्तियों में उक्त दोनों मंदों से प्राप्त आय शामिल है । स्पष्ट है कि बजट घाटा राजस्व घाटे से अधिक व्यापक अवधारणा है । 1997-98 के वित्तीय वर्ष से बजट घाटे की अवधारणा को छोड़ दिया गया है ।
3. राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit):
1950 से 1985 तक सरकार ने उक्त दो घाटों की अवधारणाओं को अपनाया था । मुद्रा प्रणाली पर सुखमोय चक्रवर्ती समिति (1982-85) की अनुशंसा पर 1986 के वित्तीय वर्ष से राजकोषीय घाटे की संकल्पना अपनायी जाने लगी । राजकोषीय घाटा सबसे अधिक व्यापक घाटा है ।
1997 से यह वित्तीय प्रशासन का केन्द्र बिंदु बन गया है । इसके अंतर्गत बजट घाटे के साथ सरकार पर बाजार के ऋण और अन्य वित्तीय देयताओं को भी शामिल किया जाता है, जैसे- बाजार ऋण, लघु बचत, भविष्य निधि तथा बजटीय घाटे । इसके माध्यम से सरकार की आंतरिक और बाह्य दोनों स्रोतों से उधार लेने की आवश्यकता की माप होती है ।
राजकोषीय घाटा = बजटघाटा + बाजारऋण + अन्य देयताएं
4. प्राथमिक घाटा या गैर ब्याज घाटा (Primary Deficit):
प्राथमिक घाटे की अवधारणा विगत वर्षों में ही अपनायी जाने लगी है । यह ब्याज भुगतान रहित राजकोषीय घाटा है ।
प्राथमिक घाटा = राजकोषीय घाटा – ब्याज भुगतान
5. मौद्रिक घाटा (Monetized Deficit):
सरकार अपने घाटे की पूर्ति दो तरह से उधार लेकर करती है या कर सकती है:
i. सार्वजनिक ऋण अर्थात् जनता से उधार और
ii. रिजर्व बैंक आफ इंडिया से उधार ।
जब रिजर्व बैंक से उधार लेकर घाटे की पूर्ति की जाती है तो इसे मौद्रिक घाटा कहते हैं क्योंकि इसका मतलब होता है रिजर्व बैंक द्वारा नयी मुद्रा जारी करना ।
घाटे के वित्त का प्रयोग (Applications of Deficit Financing):
आधुनिक राज्यों ने घाटे की वित्त व्यवस्था प्रमुख रूप से 4 कारणों से अपनायी है:
1. आर्थिक मंदी से निपटने के लिये । सर्वप्रथम जे.एम. कीन्स ने मंदी के निपटने के लिये घाटे के वित्त का सुझाव दिया था । कीन्स का कथन था कि- ”बेरोजगारी को समाप्त करने के लिये भी इसका उपयोग किया जाए तथा मंदी के समय काम नहीं होने पर भी सरकार लोगों से कुएं खोदने और उन्हें भरने का ही काम ले ।”
2. लोक कल्याणकारी अवधारणा ने राज्य के ऊपर अनेक सामाजिक कार्यों का बोझ डाल दिया है जिसके लिये वित्तीय स्रोतों की भारी कमी है अत: घाटे के वित्त का सहारा लिया जाता है ।
3. विकासशील देशों ने अपने आर्थिक विकास के लिये धन जुटाने के लिये घाटे के वित्त का बहुत अधिक इस्तेमाल किया है ।
4. युद्ध, आतंकवाद, आदि से निपटने के लिये सरकारों के वित्तीय स्रोत कम पड़ जाते हैं जिसे घाटे के वित्त से ही पाटा जा सकता है ।