Read this article in Hindi to article about:- 1. प्रत्यायोजित विधान के अर्थ और अवधारणा (Meaning and Concept of Delegated Legislation) 2. प्रत्यायोजित विधान के विशेषताएं (Features of Delegated Legislation) 3. प्रत्यायोजित विधान के आवश्यकता (Needs of Delegated Legislation) and Other Details.

प्रत्यायोजित विधान के अर्थ और अवधारणा (Meaning and Concept of Delegated Legislation):

आधुनिक राज्यों के बढ़ते दायित्वों ने विधि के क्षेत्र में जिस अवधारणा को विकसित होने का अवसर दिया है, उनमें प्रदत्त व्यवस्थापन सर्वप्रमुख है । इससे आशय है- विधि बनाने की अपनी सत्ता का व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका एजेन्सी को हस्तान्तरण ।

इसके कारण भले ही कार्यपालिका का कुछ मिश्रण हो जाता है और नागरिकों की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगते हैं फिर भी आवश्यकता इस निरन्तर कर रही है । किसी देश में विधान निर्माण शक्ति व्यवस्थापिका के पास होती है और जब व्यवस्थापिका अपनी इस शक्ति के एक अंश को कार्यपालिका को सौंप देती है तो यह विधि निर्माण के उसके अधिकार का प्रत्यायोजन कहलाता है ।

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इसके तहत कार्यपालिका द्वारा निर्मित विधि, प्रत्यायोजित विधान, प्रदत्त व्यवस्थापन या प्रतिनिहित विधान कहलाता है । कार्यपालिका द्वारा निर्मित होने के कारण इसे ”कार्यकारिणी कानून” भी कहते हैं । चूंकि ऐसी विधि का संसदीय के अनुकूल होना आवश्यक होता है अतः इसे अधीनस्थ विधान भी कहते हैं ।

लोकतंत्र में सरकार के कार्यों का विधिवत विभाजन होता है । इसके अनुरूप व्यवस्थापिका को विधान निर्माण की अंतिम सस्ता प्राप्त होती है । जब व्यवस्थापिका अपनी इस सत्ता का हस्तांतरण कार्यपालिका को कर देती है, तो इसे प्रदत्त हस्तांतरण कहा जाता है ।

इसके तहत कार्यपालिका द्वारा निर्मित विधि ”प्रत्यायोजित विधि” या ”प्रदत्त व्यवस्थापन” कहलाती है । चूंकि इसका व्यवस्थापिका के मूल अधिनियम से संगती रखना आवश्यक है अतः इसे अधीनस्थ विधान भी कहा जाता है ।

सेसिलकार- ”वैधानिक सत्ता द्वारा उद्देश्य प्राप्ति हेतु अधीनस्थ निकाय को सौंपी गयी ”विधि निर्माण” की विधि सम्मत व्यवस्था प्रत्यायोजित विधि है ।

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भारद्वाज- ”व्यवस्थापिका के अधिनियमों के अंतर्गत कार्यपालिका या उसके अंग द्वारा निर्मित उपविधि ही प्रत्यायोजित विधि है । यह शक्ति स्वयं व्यवस्थापिका प्रदान करती है ।”

डोनोमोर समिति के अनुसार- ”प्रदत्त व्यवस्थापन का अभिप्राय एक अधीनस्थ अधिकारी, यथा मंत्री, द्वारा उसे संसद द्वारा दी गयी कानून निर्माण की शक्ति का प्रयोग हो सकता है ।”

डा. एम.पी. शर्मा के अनुसार- ”प्रदत्त व्यवस्थापन का अभिप्राय (1) कार्यपालिका द्वारा उपविधायन का कार्य और (2) ऐसी प्रक्रिया का परिणाम है ।”

प्रत्यायोजित विधान के विशेषताएं (Features of Delegated Legislation):

उपयुक्त आवश्यकता की पूर्ति के लिए निर्मित प्रत्यायोजित विधान की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं:

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1. यह वैधानिक सत्ता की समस्त शक्ति का नहीं, अपितु उसके एक अंश का प्रदत्तीकरण होता हैं ।

2. व्यवस्थापिका द्वारा प्रदत्त ”व्यवस्थापन सत्ता” से अधिक का उपयोग नहीं किया जा सकता है ।

3. जिस निकाय या अधिकारी को व्यवस्थापन का प्रदत्तीकरण किया जाता है वह स्वयं ही इसका उपयोग कर सकता है, अर्थात वह इसका प्रत्यायोजन किसी अन्य को नहीं कर सकता ।

4. प्रत्यायोजित विधि को अपनी मूल संसदीय विधि के अनुसंगत होना आवश्यक है अन्यथा वह अवैध होगा ।

5. प्रत्यायोजित विधि का न्यायिक पुनरीक्षण किया जा सकता है ।

6. प्रत्यायोजित विधि में उसके प्रदत्तीकरण के उद्देश्य, उसकी सीमाएँ आदि का स्पष्टीकरण होता है ।

7. प्रत्यायोजित विधान के तहत निर्मित विधि का उसकी मूल संसदीय विधि के अनुरूप होना आवश्यक है ।

8. इसकी वही शक्ति होती है जो मूल संसदीय विधि की होती है ।

9. इसका न्यायिक पुनरीक्षण किया जा सकता है और न्यायालय इसे अवैध घोषित कर सकता है । सामान्यतया उपयुक्त विशेषताएं प्रत्येक प्रत्यायोजित विधि में पायी जाती है, जिससे उसके अनेक लाभ सुनिश्चित हो पाते हैं ।

प्रत्यायोजित विधान के आवश्यकता (Need of Delegated Legislation):

वर्तमान युग में राज्य के कार्य जिस तीव्रता से बढ रहे है उसके कारण व्यवस्थापिका के सामने उनके नियमन जैसे अनेक कानून बनाने का दायित्व भी बढता जा रहा है । लेकिन संसद के पास न तो पर्याप्त समय है, और न ही विधान की जटिलताओं की यथेष्ट जानकारी ।

अतएव वह यह दायित्व भी कतिपय शर्तों के अधीन कार्यपालिका को हस्तांतरित कर देती है । वस्तुतः व्यवस्थापिका किसी अधिनियम का निर्माण कर देती है और उसके शेष प्रावधानों की पूर्ति या व्याख्या का अधिकार कार्यपालिका को सौंप देती हैं ।

सर्वप्रथम ब्रिटेन में 1848 में इसका ”स्वास्थ्य मण्डल” के रूप में जन्म हुआ । स्वतंत्रता के पूर्व भारत में व्यवस्थापिका स्वयं पंगु थी । फिर भी 1878 के ”बुरा विवाद” प्रकरण ने विधायिका की विधि हस्तांतरण की शक्ति को उजागर किया था । 1914 के डिटेक्टिव कनसेन्टस अधिनियम से भारत में इसकी वास्तविक शुरुआत हुई । प्रदत्त व्यवस्थापन के तहत सर्वप्रथम आपात-नियामिकीय अधिनियम 1947 बनाया गया । अब इसका प्रयोग अधिकाधिक हो रहा है ।

प्रत्यायोजित विधि की आवश्यकता के निम्नलिखित पहलू विचारणीय हैं:

1. व्यवस्थापिका के ऊपर समय के अनुपात से अधिक विधि निर्माण का बोझ ।

2. जटिल होती आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों के नियमन के लिए आवश्यक तकनीकी ज्ञान का व्यवस्थापिका के पास अभाव ।

3. विधियों में बदलती परिस्थिति के अनुरूप बारम्बार संशोधन की जरूरत ।

4. व्यवस्थापिका की आपात व्यवस्था से निपटने में संरचनात्मक असमर्थता-अर्थात बैठक बुलाने, विचार कर निर्णय लेने में देरी की संभावना ।

5. परिस्थितियों से अवगत होकर व्यावहारिक विधि को निर्मित करने की आवश्यकता । उपयुक्त कारणों से प्रतिनिहित विधान की आवश्यकता दिनोदिन अधिकाधिक महसूस होती जा रही है ।

प्रत्यायोजित विधि के प्रकार या स्वरूप (Types or Methods of Delegated Legislation):

प्रत्यायोजित विधि के स्वरूप या प्रकार को दो आधारों पर विवेचित किया जा सकता है:

(1) शक्ति के स्वरूप के आधार पर:

व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका को कौन सी शक्तियां किस सीमा तक सौंपी गयी हैं ।

इस आधार पर प्रत्यायोजित विधि के दो प्रकार सामने आते हैं:

1. साधारण स्वरूप:

इसके तहत निर्मित विधि की स्पष्ट सीमाएं होती हैं जिन्हें व्यवस्थापिका ही निर्धारित कर देती है । दूसरे इसमें कोई विधि निर्माण या कर लगाने की शक्ति का हस्तांतरण नहीं किया जाता ।

2. असाधारण स्वरूप:

इसके तहत व्यवस्थापिका विधान निर्माण करने, कर लगाने, अधिनियम में ही संशोधन करने और स्वविवेकीय शक्तियों का उपयोग करने का प्रत्यायोजन कर देती है । कभी-कभी तो न्यायिक हस्तक्षेप का भी निषेध कर दिया जाता है ।

(2) उपयोग के आधार पर:

प्रत्यायोजित विधि का उपयोग किस तरह और कब करना, इस आधार पर इसके तीन प्रकार है:

1. आपातित प्रकार या सशर्त व्यवस्थापन व्यवस्थापिका शर्त लगा देती है कि किन परिस्थितियों में प्रत्यायोजित विधि निर्मित की जाएगी ।

2. पूरक प्रत्याधिक विधान व्यवस्थापिका द्वारा पारित अधिनियम को पूरा करने या उसका विस्तार करने के लिए इसको प्रदत्त किया जाता हैं ।

3. व्याख्यात्मक प्रकार व्यवस्थापिका के अधिनियम की धाराओं की व्याख्या करने का कार्य कार्यपालिका को सौंप दिया जाता है ।

लाभ:

1. संसद के कार्य भार को हल्का करना ।

2. विशेषज्ञों की सेवाएं प्राप्त ।

3. परिस्थितियों के अनुसार लोचशीलता ।

4. आपातकाल में उपयोगी ।

5. प्रभावितों से परामर्श संभव ।

6. कार्यपालिका की आवश्यकता की पूर्ति ।

7. तात्कालिक परिस्थितियों के निपटने हेतु तुरंत परिवर्तनशील ।

लाभ:

प्रत्यायोजित विधि का बढ़ता प्रचलन उसके महत्व को स्वयं रेखांकित करता है ।

इसके प्रमुख लाभ हैं:

1. व्यवस्थापिका के ऊपर से विधि निर्माण के दायित्व या बोझ को हल्का करता है ।

2. विधि निर्माण में विशेषज्ञों की सहायता और योग्यता का उपयोग संभव होता है ।

3. इसमें लचीलापन पाया जाता है । प्रत्यायोजित विधि को परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप बदलना जहां संसद के लिए समय व श्रम साध्य है, वहीं कार्यपालिका के लिए यह अधिक आसान है ।

4. आपात या आकस्मिक अवस्थाओं जैसे युद्ध, बाढ़ आदि के समय तत्काल निर्णय प्रत्यायोजित विधि के माध्यम से कार्यपालिका ले पाती है ।

सेसिलकार- ”आपातकाल में इसे अधिकाधिक प्रदत्त किया जाना चाहिए ।”

5. प्रभावित व्यक्तियों से परामर्श करके विधि निर्माण जहां व्यवस्थापिका के लिए संभव नहीं है, वही कार्यपालिका के लिए यह आसान है और इससे ”विधि” अधिक लोकतांत्रिक हो जाती है ।

6. कार्यपालिका अपनी कार्य, आवश्यकताओं के अनुरूप विधियों का निर्माण कर प्रशासन को अधिक प्रभावशाली बनाने में सफल हो पाती है ।

प्रत्यायोजित विधि के खतरें/दोष/आलोचना (Dangers / Criticism of Delegated Legislation):

उपयुक्त लाभों के बावजूद प्रत्यायोजित विधि की कड़ी आलोचना की जाती है । विधि का कार्यपालिका को हस्तांतरण, हेवार्ट की दृष्टि में नवीन निरंकुशता को जन्म दे रहा हैं । डोनोमर समिति ने लिखा कि ”भय यह है कि सेवक स्वामी न बन जाए ।”

इसके निम्नलिखित दोष या खतरे बताए जाते हैं:

1. नागरिकों की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है । कार्यपालिका प्रत्यायोजित विधि की आड़ में नागरिक स्वतंत्रता पर अनेकानेक प्रतिबन्ध आरोपित करती है ।

2. कभी-कभी संसद आवश्यकता से अधिक प्रत्यायोजन कर देती है, जैसे कर लगाने या स्वविवेकीय शक्तियों का हस्तांतरण । इससे कार्यपालिका निरंकुश बन जाती है और लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है ।

3. अभिकरण प्रत्यायोजित विधि के तहत प्राप्त अधिकारों का स्वहित में प्रयोग करने लगते हैं ।

4. कभी-कभी संसद संबंधित अधिनियम द्वारा प्रत्यायोजित विधि को न्यायिक से भी मुक्त कर देती हैं ।

5. बारम्बार विधि में परिवर्तन से कानून की अराजकता का राज्य खडा हो जाता है, और अव्यवस्था फैल जाती है ।

6. जनता को भी प्रत्यायोजित विधि की सही समय पर जानकारी न होने से एक ओर तो वे इसका लाभ नहीं ले पाते, दूसरी ओर इससे होने वाली हानि का प्रतिकार भी नहीं कर पाते ।

प्रत्यायोजित विधि के संरक्षक उपाय या नियंत्रण के उपाय (Control Measures of Delegated Legislation):

सेसिलकार के अनुसार उपयुक्त दोषों के बावजूद प्रत्यायोजित विधि एक आवश्यक बुराई है ।

अतः इस पर नियंत्रण के उपाय किये जाने चाहिये, इसके उन्मूलन के नहीं, जो इस प्रकार हो सकते हैं:

1. निश्चित सीमा में प्रत्यायोजन हो । जितने से काम चल सकता है उससे अधिक प्रत्यायोजन नहीं किया जाये ।

2. प्रत्यायोजित विधि में उसके उद्देश्य और कारणों का स्पष्टीकरण होना चाहिये ।

3. प्रत्यायोजित विधि को संसद में अनुमोदन हेतु प्रस्तुत करना अनिवार्य हो ।

4. प्रत्यायोजित विधि से संबंधित संसदीय अधिनियमो की समीक्षा संसद अपनी समिति के माध्यम से समय पर करें ।

5. प्रत्यायोजित विधि को न्यायिक समीक्षा के योग्य बनाया जाये ।

6. इसका उपयोग साधारण और सीमित उद्देश्यों के लिए होना चाहिये, करारोपण जैसे अतिमहत्व के विषय का नहीं ।

7. जहां तक संभव हो प्रदत्त व्यवस्थापन मंत्री जैसी संसद के प्रति उत्तरदायी एजेन्सी को हो, निम्न स्तर पर नहीं ।

8. प्रभावितों से परामर्श करके प्रत्यायोजित विधि का निर्माण हो ।

9. प्रत्यायोजित विधि का व्यापक प्रचार प्रसार हो ।

10. सामान्यतया सभी प्रत्यायोजित विधि निर्माण की एक समान प्रक्रिया हो । उल्लेखनीय है कि भारत में भी प्रदत्त व्यवस्थापन की समीक्षा हेतु संसदीय समिति होती है, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग इंग्लैंड में किया गया था ।

निष्कर्षत:

प्रदत्त व्यवस्थापन आज के समाज की एक अनिवार्यता है जिससे छूट नहीं पायी जा सकती । वस्तुतः जटिल होती परिस्थितियों और निरन्तर उद्‌भूत होने वाली भिन्न-भिन्न स्वरूप की समस्याओं के परिपेक्ष्य में प्रत्यायोजित विधि के विकास की आवश्यकता अधिक है ।

यह अनिवार्य है क्योंकि उपयुक्त समस्याओं से निपटने के लिए संसद के पास समय नहीं है और बुराई इसलिए है कि यह शासक को वह सत्ता देती है जो मूलतः लोकतन्त्र में उसकी नहीं होनी चाहिए, अन्यथा उसका दुरुपयोग होता है । इस अनिवार्य बुराई को विवेच्च संरक्षक उपायों का सुरक्षा कवच पहनाकर उद्देश्योन्मुख बनाए रखने की प्रणाली विकसित करना ही सर्वप्रमुख आवश्यकता है ।