Read this article in Hindi to learn about:- 1. विभागीय उपक्रम का अर्थ (Meaning of Departmental Enterprises) 2. विभागीय उपक्रम का लाभ (Merits of Departmental Enterprises) 3. दोष (Demerits).

विभागीय उपक्रम का अर्थ (Meaning of Departmental Enterprises):

सरकार अन्य क्रियाओं की भांति उद्योग के लिये भी विभाग का प्रबंध करती है । जब किसी उद्योग तथा वाणिज्य प्रबंध सरकार के किसी विभाग को सौंप दिया है तब यह व्यवस्था विभागीय प्रबंध की व्यवस्था कहलाती है ।

यह सार्वजनिक उपक्रमों का पारंपरिक और सबसे पुराना रूप है । रेलवे और डाक एवं तार विभाग दो प्रमुख सार्वजनिक उपक्रम है । इनके अतिरिक्त भारत में ये विभागीय उद्यम है- केन्द्रीय स्तर पर डाक, तार, रेलवे, सुरक्षा उत्पादन, बंदरगाह, संचार, मुद्रानिर्माण, सरकारी छापाखाना, आणविक ऊर्जा परियोजनाएं इत्यादि । राज्य स्तर पर डेरी योजनाओं, बिजली सड़क यातायात, सिंचाई इत्यादि का विभागीय संस्थान द्वारा प्रबंध किया जाता है ।

विभागीय संस्थान के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं:

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1. संसदीय सरकार में विभाग का निर्माण कार्यपालिका के प्रस्ताव द्वारा ही किया जा सकता है । इसके निर्माण के लिए संसदीय स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती ।

2. उद्यम विभागीय अध्यक्ष के प्रत्यक्ष नियंत्रण में होता है और संबंधित मंत्री के माध्यम से ही अपनी गतिविधियों के लिए उत्तरदायी होता है ।

3. विभागीय संस्थान के वित्त का प्रबंध राजकोष में से वार्षिक अनुमानों के आधार पर किया जाता है एवं उससे प्राप्त होने वाला अधिकांश राजस्व राजकोष में ही जमा किया जाता है ।

4. विभागीय उद्यम के संबंध में अन्य शासकीय कार्यों की भांति बजट, लेखांकन और लेखा परीक्षण नियंत्रण संबंधी नियम लागू होते हैं ।

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5. विभागीय उद्यमों के स्थायी कर्मचारी लोक-सेवा के सदस्य होते हैं । उनकी भर्ती तथा सेवा शर्तें लोक सेवा के कर्मचारियों के समान होती है अर्थात् लोक सेवा नियम इन पर समान रूप से लागू होते हैं ।

6. देश की विधिक पद्धति के अनुसार यह राज्य को प्राप्त सर्वोच्च वैधानिक स्वायत्तता का उपभोग करते हैं । सरकार की सहमति के बिना इन पर मुकद्दमा नहीं चलाया जा सकता ।

विभागीय उपक्रम का लाभ (Merits of Departmental Enterprises):

विभागीय प्रबंध पद्धति के प्रमुख लाभ है- उत्तरदायित्व, समरसता, एकीकरण और समन्वय ।

इन्हें निम्न बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है:

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1. यह प्रत्यक्ष मंत्रीय नियंत्रण में रहता है और संसद के प्रति जवाबदेह होता है ।

2. इसमें संगठनात्मक और प्रक्रियात्मक समरूपता पायी जाती है जिसमें कार्य व्यवस्थित और प्रक्रिया एवं व्यवहार वस्तुपरक बन जाता है ।

3. यह उद्यमीय ढांचा संपूर्ण शासकीय ढांचे का अभिन्न भाग होता है जिससे प्रशासन एकीकृत और सुसंबद्ध बनता है ।

4. इससे प्रशासनिक सेवाओं और संस्थानों में समन्वय और सहयोग स्थापित होता है ।

5. सार्वजनिक धन के दुरुपयोग को रोकने का श्रेष्ठ उपाय है । क्योंकि सरकार का इसके कोष पर पूर्ण नियंत्रण रहता है ।

6. जनता का पूर्ण विश्वास प्राप्त होना ।

7. लोक-सेवकों में सुरक्षा की भावना का विकास ।

8. आवश्यकताओं की पूर्ति की अधिक संभावना ।

9. यह उन उद्यमों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है जिनकी स्थापना रक्षा, सामरिक महत्व, राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक नियंत्रण, वित्तीय नियंत्रण, जनहित की रक्षा आदि जैसे विशेष उद्देश्यों से हुई है ।

श्री. ए.डी. गोरवाला के अनुसार- यद्यपि ”विभागीय प्रणाली का उपयोग अपवादस्वरूप ही किया जाना चाहिए लेकिन इस प्रारूप के महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता क्योंकि ऐसे उद्योगों के लिए व्यवहार में विभागीय प्रणाली ही उचित रहती है, जिनको लगाना सरकार के लिए अत्यंत आवश्यक है लेकिन जिसमें पूंजी निवेश भारी मात्रा में होता है ।”

विभागीय उपक्रम का दोष (Demerits of Departmental Enterprises):

विभागीय प्रबंध पद्धति में लाभ के स्थान पर दोष अधिक दिखायी देते हैं ।

जो इस प्रकार हैं:

(1) उपक्रमों के संचालन में विभागीय ढांचे की पदसोपानिक कठोरता एक बड़ी बाधा बन जाती है । ”आदेश की एकता” और ”उचित माध्यम प्रक्रिया” उपक्रमों के कार्य निष्पादन से लचिलापन समाप्त कर देती है ।

(2) लचिलेपन का अभाव कठोरता को जन्म देता है और कठोरता कार्यकुशलता को हजम कर जाती है । नियम प्रक्रिया साधन के स्थान पर साध्य बन जाते हैं ।

(3) इससे कार्यों में विलंब होता है और विलंब को दूर करने के लिये जनता और संबंधित एजेंसियां रिश्वत आदि देने के लिए बाध्य होती है ।

(4) अति केंद्रीयकरण के कारण औद्योगिक सफलता के लिए जरूरी स्वायत्तता का अभाव पाया जाता है ।

(5) नवाचार हतोत्साहित होता है, परिणामस्वरूप परिवर्तनशीलता का अभाव पाया जाता है ।

(6) इससे उपक्रमों की वित्तीय स्वायत्तता भी सीमित हो जाती है जो कि कठोर वित्तीय और बजटीय नियंत्रण का परिणाम होती है ।

वस्तुत: विभागीय प्रणाली का सबसे बड़ा दोष कठोरता और अत्यधिक नियंत्रण है और इसीलिये डिमॉक कहते हैं कि यदि विभागीय पद्धति में नम्यता और स्वायत्तता लायी जा सके तो निगमों की जरूरत ही नहीं है ।