Read this article in Hindi to learn about the four main basis of departments. The basis are:- 1. कार्य अथवा लक्ष्य का आधार (Purpose) 2. प्रक्रिया का आधार (Process) 3. वैयक्तिक आधार (Person) 4. स्थान या क्षेत्रीय आधार (Place).
वैसे अधिकांश विभाग कार्य या उद्देश्य के आधार पर ही संगठित होते है । लूथर गुलिक ने चार आधार बताये; कार्य या उद्देश्य (Purpose), प्रक्रिया (Process), सेवित व्यक्ति (Person), क्षेत्र या स्थान (Place) । इस सिद्धांत को 4 पी का सिद्धांत कहा गया है ।
इन्हें निम्न आधार पर समझाया जा सकता है:
1. कार्य अथवा लक्ष्य का आधार (Purpose):
विभागीय व्यवस्था के अंग, उपांग निर्माण करने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार कार्य अथवा लक्ष्य है । हाल्डेन समिति (1919) के अनुसार ”कार्य” तथा उद्देश्य ही विभागीय संगठन का आधार होना चाहिये । क्योंकि इसमें कर्मचारियों को जानकारी प्राप्त करने तथा विशिष्ट क्षमता को विकसित करने में सुविधा रहती है तथा एक-दूसरे के कार्य क्षेत्र में कम से कम हस्तक्षेप की संभावना रहती है ।
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राज्य में शिक्षा के प्रसार के लिये शिक्षा विभाग, राज्य की सीमाओं के लिये रक्षा विभाग आदि की स्थापना की जाती है । कार्य के आधार पर उन सभी इकाइयों का संगठन भी किया जा सकता है, जो एक प्रकार की समस्याओं के समाधान में संलग्न है ।
लाभ:
1. जब किसी विशेष कार्य से संबंधित सभी प्रशासकीय इकाइयों का एक विभाग में एकीकरण कर लिया जाता है तो कार्य का अधिक अच्छा समन्यव हो जाता है तथा कार्यवाही में एकता आ जाती है । यदि सभी सैनिक इकाइयां एक प्रतिरक्षा विभाग के अंतर्गत न हो तो विभिन्न सैनिक इकाइयों में, जो कि सम्पूर्ण प्रशासन में बिखरी होती हैं, उचित सहयोग तथा समन्वय की कमी के कारण युद्ध नहीं लड़ा जा सकता ।
2. यदि बड़े उद्देश्य अथवा कार्य को विभागीय संगठन का आधार बनाया जाये तब कार्यों के संपादन में दोहराव नहीं हो सकता ।
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3. यदि विभाग का आधार कार्य हो तब एक साधारण व्यक्ति भी विभाग के उद्देश्यों को सरलतापूर्वक समझ सकता है ।
दोष:
(1) कार्य की भ्रमात्मक व्याख्या:
कार्य शब्द की व्याख्या व्यापक तथा संकुचित दो प्रकार से की जा सकती है । इसलिये यह कठिनाई सामने आती है कि विभाग का गठन कार्य की व्यापक या संकुचित किस व्याख्या के आधार पर किया जाये ।
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(2) विभागों में आत्म निर्भरता:
इस सिद्धांत के आधार पर विभागों का निर्माण करने से उनमें पृथकता की भावना उत्पन्न हो जाती है एवं उनमें आत्मनिर्भरता आ जाती है । इसमें उनमें परस्पर सहयोग की भावना समाप्त हो जाती है तथा प्रशासकीय कार्यों में बाधा उत्पन्न होती है ।
(3) साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति:
इस सिद्धांत के अनुसार संबंधित प्रशासकीय इकाइयां विभाग के अधीन कार्य करती है । प्रत्येक विभाग शक्तिशाली होकर अपना पृथक स्थायित्व स्थापित करना चाहता है जिससे साम्राज्यवादी भावना का प्रसार होता है ।
(4) कार्यों के पक्षों की उपेक्षा:
कभी-कभी बड़े कार्यों के आधार पर विभागों का संगठन किया जाता है, ऐसी दशा में कार्य के प्रत्येक पक्ष पर उचित ध्यान नहीं दिया जा सकता ।
2. प्रक्रिया का आधार (Process):
प्रक्रिया सिद्धांत के आधार पर विभाग के संगठन से तात्पर्य है कि विभाग का निर्माण कार्य-कुशलता के आधार पर किया जाये । इस आधार पर कुछ विभागों का संगठन किया जाता है जैसे भारत के महालेखाधिकारी का विभाग, कानून विभाग, सार्वजनिक हित विभाग, आदि ।
लाभ:
(i) मितव्ययिता:
प्रक्रिया के आधार पर निर्मित संगठन में व्यक्ति तथा उपकरणों का अनावश्यक दोहरापन समाप्त हो जायेगा तथा प्रशासन में मितव्ययिता आयेगी ।
(ii) श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण:
प्रक्रिया सिद्धांत के आधार पर विभाग का संगठन करने पर विशेषज्ञता को प्रोत्साहन मिलता है । यदि समस्त इंजीनियरों या टाइपिस्टों को इंजीनियरी या टाइपिंग के केन्द्रीय विभागों के अधीन संगठित कर दिया जाये तो आपसी संपर्क से एक-दूसरे से प्रेरणा तथा ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे ।
(iii) कार्य में एकरूपता तथा समन्वय:
कार्य में एकरूपता तथा समन्वय की स्थापना होती है क्योंकि इसके अनुसार एक व्यवसाय के कुशल व्यक्तियों को एक विभाग में कार्य करने की सुविधा दी जाती है ।
(iv) आँकडों की सरलता से उपलब्धि:
इस आधार पर संगठित विभागों से बजट, कर्मचारियों, लेखांकन आदि के लिये कड़े, सरलतापूर्वक मिल जायेंगे तथा उस पर व्यय भी कम होगा ।
(v) व्यावसायिक सेवा-भावना का विकास:
इस प्रक्रिया के आधार पर संगठन करने से योग्य कर्मचारियों को पदोन्नति के पर्याप्त अवसर मिलते है । उनमें व्यावसायिकता का विकास होता है ।
(vi) बजट निर्माण में आसानी:
बजट संबंधी सूचनायें, कम समय में कार्यपालिका के पास पहुँच जाती है तथा वह सरलता से बजट बना लेती है ।
दोष:
(i) जनता में भ्रम की स्थिति:
यह सिद्धांत जनता में यह भ्रांति उत्पन्न कर देता है कि राज्य का लक्ष्य जनहित न होकर बचत आदि है ।
(ii) संकुचित दृष्टिकोण:
विशेषज्ञों में दूरदर्शिता तथा व्यापकता का अभाव होता है । इससे प्रभावशाली नेतृत्व का अभाव होगा और अंतर्विभागीय समस्याओं का समाधान होने में कठिनाई होगी ।
(iii) व्यावसायिक दम्भ की उत्पन्ति:
विभागों के कुशलता के आधारु पर संगठित किये जाने के कारण जिस विभाग में अधिक कुशल व्यक्ति होते हैं, उनमें व्यावसायिक दम्भ की भावना उत्पन्न होती है ।
(iv) समन्वय का अभाव:
किसी भी कार्य के लिये अनेक विभागों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है । इन विभिन्न विभागों की क्रियाओं में समन्वय स्थापित करना अत्यधिक कठिन कार्य है ।
(v) मितव्ययिता की कमी:
इन विभागों के अध्यक्ष कर्मचारियों से अपने हितों के लिये अनावश्यक तथा अनुपयोगी कार्य भी कराते है । यंत्रों व कर्मचारियों के इधर-उधर जाने में भी अपव्यय होता है ।
3. वैयक्तिक आधार (Person):
सेवा किये जाने वाले व्यक्तियों के आधार पर किये जाने वाले विभागीयकरण का अर्थ है उन सब अधीनस्थ प्रशासकीय इकाइयों को एक विभाग में संगठित कर लेना जो समाज के किसी विशिष्ट वर्ग की सेवा के लिए बनी है । भारत में इसका सर्वोत्तम उदाहरण पुनर्वास मंत्रालय है ।
इस मंत्रालय का कार्य है- शरणार्थियों की सहायता तथा उनके पुनर्वास की व्यवस्थायें करना, निष्क्रांत सम्पत्ति की व्यवस्था करना, विस्थापित व्यक्तियों के दावों का निपटारा तथा उनके लिये क्षतिपूर्ति की धनराशि की व्यवस्था करना ।
लाभ:
(i) इस सिद्धांत के आधार पर गठित विभाग एक वर्ग-विशेष के लिये कार्य करता है, इसलिये उसकी सम्पादित सेवाओं में सरलतापूर्वक समन्वय रहता है ।
(ii) व्यक्ति तथा प्रशासन के बीच सीधा संबंध स्थापित हो जाता है ।
(iii) सेवा किये जाने वाले व्यक्ति संगठित होकर प्रेशर ग्रुप आदि बना सकते है ।
(iv) इसमें वर्ग-विशेष प्रशासन का सहयोगी भी बन सकता है । यह राजनैतिक दृष्टि से लाभप्रद है ।
(v) इस प्रकार संगठित विभाग अनेक सेवायें संपादित कर लेता है । इसलिये संबंधित कर्मचारी अपनी योग्यताओं का विकास करता है ।
दोष:
(i) हाल्डेन समिति ने इसका विरोध करते हुये कहा इससे बौना प्रशासन (लिलीपुटियन) स्थापित होगा ।
(ii) इसका उद्देश्य अति सीमित है ।
(iii) विशेष हितों को सुरक्षित रखकर सर्वसामान्य के हितों की उपेक्षा हो सकती है ।
(iv) अनुचित लाभ कमाने की प्रेरणा मिलती है ।
(v) प्रशासकीय विशेषीकरण का अभाव रहता है ।
(vi) प्रशासन पर छोटे समूहों का प्रभुत्व रहता है ।
(vii) इससे विभागीय कार्य-क्षेत्र को निर्धारित करना भी कठिन होगा, क्योंकि यह निर्णय नहीं हो सकेगा कि एक विभाग को संबंधित व्यक्तियों के लिये क्या कार्य करना है?
(viii) इस आधार पर विभाग का संगठन सार्वजनिक आधार पर नहीं हो सकता । इससे छोटे विभागों की उत्पत्ति होगी, जिससे प्रशासन पर अनावश्यक बोझ पड़ेगा तथा छोटे-छोटे प्रशासन की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जायेगी ।
4. स्थान या क्षेत्रीय आधार (Place):
जब विभाग के संगठन की रचना का आधार किसी विशेष क्षेत्र या प्रदेश का विकास होता है तब इसे क्षेत्रीय या भौगोलिक आधार पर आधारित विभाग कहा जाता है । विदेश मंत्रालय का संगठन इसी आधार पर किया जाता है । भारत में दामोदर घाटी निगम, विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण आदि इसी आधार पर संगठित है । भारत में नेफा (नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) रेलवे, क्षेत्रीय परिषदों का आधार भी ”क्षेत्र विकास” को बनाया गया है ।
लाभ:
(i) क्षेत्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था ।
(ii) स्थानीय समस्याओं का समाधान ।
(iii) सभी क्षेत्रों के समान विकास पर बल ।
(iv) मितव्ययता का स्वीकार्य संगठन ।
(v) जनता की आवश्यकतानुसार रीति-निर्धारण ।
(vi) जनता का अपरिमित सहयोग ।
(vii) समन्वय एवं नियंत्रण की सुविधा ।
दोष:
(i) स्थानीय प्रभावों में अनावश्यक वृद्धि ।
(ii) कार्यकुशलता का अभाव ।
(iii) प्रशासन की सामान्य एकता में बाधा ।
(iv) व्यापक राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा ।
(v) विशेषीकरण का अभाव ।
(vi) क्षेत्रीय भावनाओं को बल मिलना ।
उपरोक्त सिद्धांत के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि न तो किसी भी सिद्धांत को विभागीय संगठन का एकमात्र आधार नहीं बनाया जा सकता और नहीं कोई भी विभाग एक ही आधार पर संगठित किया जा सकता है । हाइमन थ्यू का मत है कि ”विभागीकरण के प्रत्येक आधार के गुण तथा दोष है ।”