Read this article in Hindi to learn about the five phases of development of public administration.

लोक प्रशासन एक अभिनव सामाजिक विज्ञान है जिसने अभी अपने 100 वर्ष भी पूरे नह किए हैं । एक युवा और विकासशील सामाजिक विज्ञान होने के बावजूद इसका जीवन उतार-चढ़ावों और उथल-पुथल से परिपूर्ण रहा है ।

लोक प्रशासन का इतिहास निम्नलिखित 5 चरणों में विभाज्य है:

1. प्रथम चरण : 1887-1926

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2. द्वितीय चरण : 1927-1937

3. तृतीय चरण : 1938-1947

4. चतुर्थ चरण : 1948-1970

5. पंचम चरण : 1971- Present

1. प्रथम चरण (1887-1926) [First Phase (1887-1926)]:

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एक विषय के रूप में लोक प्रशासन का जन्म 1887 में, अमेरिका के प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी में राजनीतिक के तत्कालीन प्राध्यापक बुडरो विल्सन को इस शास्त्र का जनक माना जाता है । उन्होंने 1887 में प्रकाशित अपने लेख ‘प्रशासन का अध्ययन’ (The Study of Administration) में राजनीति और प्रशासन को अलग-अलग बताते हुए कहा “एक संविधान का निर्माण सरल है पर इसे चलाना बड़ा कठिन है ।”

उन्होंने इस ‘चलाने’ क्षेत्र के अध्ययन पर बल दिया जो स्पष्ट ‘प्रशासन’ ही है । उन्होंने राजनीति और प्रशासन में भेद किया । सन् 1887 में विल्सन के लेख के प्रकाशन के साथ वास्तव में एक ऐसे नए युग का जन्म हुआ जिसमें धीरे-धीरे लोक प्रशासन के अध्ययन के एक नए क्षेत्र के रूप में विकसित हुआ ।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अन्य देशों की तुलना में संयुक्त राज्य अमेरिका में लोक प्रशासन के अध्ययन पर विशेष बल दिया जाने लगा । वही प्रशासन एक विज्ञान के रूप में विकसित हुआ है जिसके अध्ययन के लिए लोग प्रबंध अथवा व्यवस्था विद्यालयों में प्रवेश लेते हैं ।

इस विषय के एक अन्य महत्वपूर्ण प्रणेता फ्रैंक गुडनाउ हैं जिन्होंने 1900 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘राजनीति तथा प्रशासन’ में यह तर्क प्रस्तुत किया कि राजनीति और प्रशासन अलग-अलग हैं क्योंकि जहाँ राजनीति राज्य इच्छा को प्रतिपादित करती है वहाँ प्रशासन का संबंध इस इच्छा या राज्य-नीतियों के क्रियान्वयन से है ।

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वास्तव में यह वह समय था जब अमेरिका में सरकारी क्षेत्र में शिथिलता और भ्रष्टाचार का बोलबाला था और फलस्वरूप सरकार सुधार का आन्दोलन चला रही थी । इस सुधार आकांक्षी वातावरण में अनेक विद्यालयों में लोक-प्रशासन का अध्ययन अध्यापन शुरु हो गया ।

सन् 1926 में एल.डी. हाइट की पुस्तक ‘लोक-प्रशासन के अध्ययन की भूमिका’ प्रकाशित हुई । यह लोक-प्रशासन की प्रथम पाठ्‌य-पुस्तक थी जिसमें राजनीति-प्रशासन का मुख्य लक्ष्य दक्षता और मिव्ययता है । लोक-प्रशासन के विकास के इस प्रथम चरण की दो प्रमुख विशेषताएं रही-लोक प्रशासन का उदय और राजनीति एवं प्रशासन में अलगाव में विश्वास ।

2. द्वितीय चरण (1927-1937) [Second Phase (1927-1937)]:

लोक प्रशासन के इतिहास में द्वितीय चरण का प्रारंभ हम डब्ल्यू.एफ. विलोबी की पुस्तक ‘लोक-प्रशासन के सिद्धांत’ (Principle of Public Administration) से मान सकते हैं । विलोबी ने यह प्रतिपादित किया कि लोक प्रशासन में अनेक सिद्धांत हैं जिनको क्रियान्वित करने से लोक प्रशासन को सुधारा जा सकता है ।

वास्तव में यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि व्हाइट और विलोबी के दोनों प्रवर्तक ग्रन्थों ने लगभग एक पीढ़ी तक लोक प्रशासन संबंधी पाठ्‌य-पुसतकों के प्रणयन और उसके अध्ययन की पद्धति का निर्धारण किया । इन दोनों ही पुस्तकों का रूप तकनीकी है जिनमें उन सभी प्रकार की सामान्य समस्याओं का अध्ययन किया गया है, जिन्हें ‘पोस्डकार्ब’ शब्द में समाहित किया जा सकता है ।

इन पुस्तकों में प्रशासक्रिय अध्ययन के विशिष्ट क्षेत्र में उठने वाली विषय-वस्तु संबंधी समस्याओं का वर्णन नह मिलता है । ये दोनों ही प्रवर्तक य-थ इस मान्यता पर आधारित हैं कि लोक प्रशासन को राजनीति से पृथक् और स्वतंत्र होना चाहिए तथा इसके सिद्धांतों को मोटे तौर पर सहज ही पहचाना ओर परिभाषित किया जा सकता है ।

विलोबी की उपरोक्त पुस्तक के बाद अनेक विद्वानों ने लोक प्रशासन पर पुस्तकें लिखनी शुरु की, जिनमें कुछ उल्लेखनीय नाम हैं- मेरी पार्कर फोलेट, हेनरी फेयोल, मूने, रिएले आदि । 1937 में लूथर गुलिक तथा उर्विक ने मिलकर लोक प्रशासन पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक का सम्पादन किया जिसका नाम है ‘प्रशासन विज्ञान पर निबंध’ (Papers on the Science of Administration) ।

द्वितीय चरण के इन सभी विद्वानों की यह मान्यता रही कि प्रशासन में सिद्धांत होने के कारण यह एक विज्ञान है और इसीलिए इसके आगे ‘लोक’ शब्द लगाना उचित नहीं है । सिद्धांत तो सभी जगह लागू होते हैं, चाहे वह ‘लोक-क्षेत्र’ हो या ‘निजी-क्षेत्र’ हो ।

3. तृतीय चरण (1938-1947) [Third Phase (1938-1947)]:

अब प्रशासन में सिद्धांतों को चुनौती देने का युग प्रारंभ हुआ । सन् 1938 से 1947 तक का चरण लोक प्रशासन के क्षेत्र में विध्वंसकारी अधिक रहा । सन् 1938 में चेस्टर बर्नार्ड की ‘कार्यपालिका के कार्य’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमें प्रशासन के किसी भी सिद्धांत का वर्णन नहीं किया गया ।

सन् 1946 में हरबर्ट ने अपने एक लेख में लोक प्रशासन के तथाकथित सिद्धांतों को नकारते हुए उन्हें मुहावरों’ की संज्ञा दी । लगभग एक साल बाद ही साइमन की पुस्तक ‘प्रशासकीय व्यवहार’ (Administrative Behaviour) प्रकाशित हुई । यह सिद्ध किया गया कि प्रशासन में सिद्धांत नाम की कोई चीज नहीं है ।

इस तृतीय चरण की प्रधानता यही रही कि लोक प्रशासन का अध्ययन चुनौतियों और आलोचनाओं का शिकार बना, जिससे इस विषय के विकास की नई संभावनाएं उजागर हुईं ।

4. चतुर्थ चरण (1948 से 1970) [Fourth Phase (1948 to 1970)]:

यह चरण इस रूप के क्रांन्तिकारी अथवा ‘संकट का काल’ रहा कि लोक प्रकाशन जिन-जिन उपलब्धियों का गीत गा रहा था उन सभी को बेकार ठहरा दिया गया । हर्बर्ट साइमन ने जो युक्तिसंगत आलोचना की उसके फलस्वरूप ‘सिद्धांतवादी’ विचारधारा अविश्वसनीय प्रतीत होने लगी ।

इसीलिए 1948 से 1970 के चरण को लोक प्रशासन के ‘स्वरूप की संकटावस्था’ कहा गया है । इस युग में लोक प्रशासन ने मोटे तौर पर दो रास्ते अपनाए । प्रथम, कुछ विद्वान् राजनीतिशास्त्र के अंतर्गत आ गए ।

द्वितीय, लोक प्रशासन के विकल्प की खोज हुई । जो विद्वान् राजनीतिशास्त्र के अंतर्गत आए उनका तर्क था कि लोक प्रशासन राजनीति से निकला है और उसका अंग है । स्वाभाविक था कि इस स्थिति में लोक प्रशासन सौतेलेपन और अकेलेपन का अनुभव करने लगा । लोक प्रशासन के लिए विकल्प की खोज हुई, वह था- ‘प्रशासनिक विज्ञान’ ।

लोक-प्रशासन, व्यापार प्रबंध आदि ने मिलकर प्रशासनिक विज्ञान की नींव डाली । यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि प्रशासन तो प्रशासन ही है, चाहे वह निजी क्षेत्र में हो या सार्वजनिक क्षेत्र में । 1956 में ‘एडमिनिस्ट्रेटिव साइन्स क्वार्टरली’ नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ । वास्तव में यह बहुत अखरने वाली बात थी कि लोक प्रशासन के अपने ‘निजी स्वरूप’ को आघात पहुंचे ।

5. पंचम चरण (1971 से अब तक) [Fifth Phase (1971-Present)]:

चतुर्थ चरण की आलोचनाओं, प्रत्यालोचनाओं और चुनौतियों ने कुल मिलाकर लोक प्रशासन का भला किया । लोक प्रशासन का अध्ययन बहुचर्चित हो गया, नए-नए दृष्टिकोण विकसित हुए और फलस्वरूप लोक प्रशासन चहुँमुखी प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ा । अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विभिन्न शास्त्रों के विद्वान और अध्येता में रुचि ले रहे थे ।

इन विभिन्न अध्ययनों और प्रयत्नों के फलस्वरूप लोक प्रशासन के ‘अन्तर्विषयी’ बन गया और आज यह एक तथ्य है कि समाजशास्त्रों में यदि कोई विषय सबसे अधिक ‘अन्तर्विषयी’ है तो वह लोक प्रशासन ही है । इससे लोक प्रशासन के वैज्ञानिक स्वरूप का विकास हुआ । इतना ही नहीं इससे लोक प्रशासन के क्षेत्र का विस्तार होता गया और तुलनात्मक लोक प्रशासन तथा विकास प्रशासन का प्रादुर्भाव हुआ ।

परम्परागत दृष्टिकोण की अपर्याप्तता, अनुसंधान के नए उपकरणों और नवीन धारणाओं के उदय, नवीन सामाजिक संदर्भ, अन्तर्राष्ट्रीय निर्भरता आदि ने तुलनात्मक लोक प्रशासन को जन्म दिया और उसे आगे बढ़ाया । लोक प्रशासन के तुलनात्मक अध्ययन के परिणामों और प्रविधियों का समग्र लोक प्रशासन के स्वरूप पर गम्भीर प्रभाव पड़ा ।

यह तथ्य उत्साहवर्द्धक और हर्षवर्द्धक है कि लोक प्रशासन में आज पश्चिमी देशों का ही अध्ययन नहीं होता है, वरन् साम्यवादी तथा अफ्रीकी और एशिया के देश भी इसकी परिधि में आ गए हैं । लोक प्रशासन एक संस्कृति विशेष के घेरे से निकल अन्य संस्कृतियों की ओर भी उन्मुख हुआ है जिसने इसे अधिक गौरवशाली बनाया है और इसकी क्रांतिकारी प्रगति के द्वार खोल दिए हैं ।

वर्तमान में विश्व के अनेक महत्वपूर्ण और ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में इस विषय का अध्ययन किया जा रहा है । इस विषय पर अनेक शोध प्रबंध भी लिखे गए हैं । अनेक महत्वपूर्ण शोध पत्रिकाएं भी प्रकाशित हो रही हैं । इस प्रकार से वर्तमान में इस समय के प्रति जन आकर्षण बढ़ रहा है ।