Read this article in Hindi to learn about:- 1. कलेक्टर पद (Post of Collector) 2. स्वतंत्रता के बाद कलेक्टर की भूमिका में परिवर्तन (Changes in the Role of Collector after Independence) 3. नियुक्ति (Appointment) and Other Details.

भारत में कलेक्टर का पद मूलत: फ्रांसिसी “प्रिफेक्चर” व्यवस्था की नकल है । भारत में जिलाधीश का कार्यालय अपनी तरह का अद्वितीय कार्यालय है क्योंकि अन्य देशों की प्रशासनिक प्रणाली में इस तरह का कोई कार्यालय नहीं है ।

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केवल फ्रांस में प्रीफेक्ट का पद इसके समकक्ष है । वहां विभाग का प्रमुख प्रीफेक्ट होता है तथा यही केंद्र सरकार का आधिकारिक एजेंट भी होता है । फ्रांस में प्रीफेक्ट के कार्यालय को प्रीफेक्टोरेट कहते हैं । इसी तरह भारत में कलेक्टर के कार्यालय को क्लेक्ट्रेट कहते हैं ।

कलेक्टर पद (Post of Collector):

कलेक्टर अंग्रेजी शब्द है और आम बोलचाल की हिन्दी में भी इसे कलेक्टर कहा जाता है । यद्यपि इसके अन्य नाम भी प्रचलित हैं, जैसे- जिलाधीश, जिलाध्यक्ष आदि । इसे समाहर्ता भी कहा जाता है । कलेक्टर का अर्थ होता है- एकत्रित करने वाला । यह अर्थ इसकी ऐतिहासिकता से जुड़ा है । वारेन हेस्टिंगज ने भू-राजस्व संग्रहण की एजेन्सी के रूप में ही 1772 में कलेक्टर पद और उसके कार्यालय का सृजन बंगाल के लिये किया था । राल्फ शैल्डन पहले कलेक्टर बनाये गये थे ।

लेकिन अगले ही वर्ष 1773 में हेस्टिंगज ने इस पद को समाप्त कर दिया था, लेकिन उसे पुन: इस पद का महत्व समझ में आया और 1781 में कलेक्टर का पद पुन: सृजित हुआ । 1986 में कलेक्टर को राजस्व संग्रहण की मुख्य एजेन्सी मानते हुए उसे इस दिशा में अनेक शक्तियां सौंपी गयीं ।

1787 में गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस द्वारा कलेक्टर को शांति व्यवस्था की जिम्मेदारी सर्वप्रथम प्रदान की गयी थी । यही से कलेक्टर राजस्व संग्रहण के साथ जिला स्तर पर आपराधिक नियमन का भी प्रभारी हो गया । उसे “जिला कलेक्टर दण्डनायक” (District Collector Magistrate) भी कहा जाने लगा ।

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1793 में कार्नवालिस ने कलेक्टर को प्राप्त न्यायिक शक्तियां छीन ली ओर उन्हें न्यायिक अदालतों को सौंप दिया । अर्थात् दण्डाधिकारी की शक्तियां यथावत रहने दी गयी । 1812 में होल मेकेन्जी ने कलेक्टर को अत्यधिक शक्तियों से लैस कर दिया ।

तब से कलेक्टर का पद ब्रिटिश राज के दौरान सत्ता, सम्मान और गौरव का पद रहा । साइमन कमीशन ने तो उसे “ब्रिटिश राज के तत्व” की संज्ञा तक दी और कहा कि अधिकांश निवासियों की नजर में यही ”सरकार” होती है ।

उसकी स्थिति को देखते हुऐ अकाल आयोग (Famine Commission) ने अनुशंसा का थी कि जिला कलेक्टर को जिले की सर्वोच्च समन्वयकारी एजेन्सी के रूप में प्रभावशाली बनाने हेतु अधिक शक्तियां दी जानी चाहिए । बहरहाल ब्रिटिश शासन के दौरान कलेक्टर “लिटिल नेपोलियन” की अपनी संज्ञा को सार्थक करता रहा ।

हन्टर के शब्दों में- ”जिलाधिकारी को चाहे कलेक्टर कहे या दण्डाधिकारी या जिलाधीश, वह अपने क्षेत्र में जिम्मेदार मुखिया होता है । उसकी शक्ति तथा व्यक्तिगत चरित्र पर ही भारतीय प्रशासन की क्षमता निर्भर हैं ।”

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विभिन्न पद नाम (Different Post Names):

भारत के कुछ राज्यों में कलेक्टर को अलग पद नाम दिया गया है ।

जो इस प्रकार हैं:

कलेक्टर- मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, आन्ध्रप्रदेश, उड़ीसा आदि ।

डिप्टी कमिश्नर- बिहार, हरियाणा, पंजाब, असम, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, झारखण्ड आदि ।

जिला दण्डाधिकारी- उत्तरप्रदेश, पं. बंगाल, उत्तरांचल आदि ।

इसे अधिकांश राज्यों में ”कलेक्टर” कहा जाता है ।

स्वतंत्रता के बाद कलेक्टर की भूमिका में परिवर्तन (Changes in the Role of Collector after Independence):

ब्रिटिश राज से मुक्त भारत ने लोकतान्त्रिक समाजवादी स्वरूप को अपनाया और इस हेतु केन्द्र, राज्य और स्थानीय स्तर पर शासन प्रशासन में परिवर्तन किये गये । समय-समय पर हुऐ इन परिवर्तनों ने कलेक्टर की भूमिका, उसके अधिकारों और दायित्वों को काफी हद तक प्रभावित किया है ।

इसके लिये निम्नलिखित कारक जिम्मेदार रहे हैं:

1. औपनिवेशिक शासकों के स्थान पर स्वदेशी शासकों के साथ काम करना ।

2. राजस्व कार्य गौण, जबकि विकास कार्यों का निरीक्षण, पर्यवेक्षण और समन्वय महत्वपूर्ण ।

3. सामाजिक और जातिगत तनावों में वृद्धि । इससे शांति और सुरक्षा के लिये विशेष सतर्कता आवश्यक ।

4. राज्य की कल्याणकारी अवधारणा ने कार्यों का अतिशय विस्तार किया ।

5. स्थानीय शासन संस्थाओं का विकास और सशक्तीकरण ।

6. सभी जनप्रतिनिधि और सभी अधिकारी अब लोक सेवक न कि लोक स्वामी ।

7. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण ।

8. जनता में बढ़ती साक्षरता और जागरूकता ।

9. राजनीतिज्ञों की नीति-निर्णय हेतु लोक सेवकों पर कम होती निर्भरता ।

10. अनेक क्षेत्रीय दलों का प्रभावशाली ढंग से उदय ।

11. सिटीजन-चार्टर, ई-गवर्नेन्स आदि के कारण प्रशासन में बढ़ती पारदर्शिता ।

12. भारत में प्रेस का तीव्र गति से होता विकास ।

13. उदारीकरण और अन्य कारणों से प्रशासन में आ रहे परिवर्तनों का प्रभाव ।

14. पुलिस आयुक्त प्रणाली का विस्तार ।

कलेक्टर की नियुक्ति (Appointment of Collector):

कलेक्टर भारतीय प्रशासनिक सेवा (I.A.S.) का सदस्य होता है । कलेक्टर I.A.S. के रुप में प्राय: संघ लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित होते हैं और ”राज्य-काडर” पद्धति के आधार पर किसी राज्य की सेवा में नियोजित किये जाते हैं । फिर उसी राज्य से सेवानिवृत्ति तक जुड़े होते हैं ।

यद्यपि ”टेन्योर पद्धति” से ये कुछ समय के लिये केन्द्र की सेवा में प्रति नियुक्ति पर जा सकते हैं । बहरहाल राज्य शासन को इन्हें कलेक्टर नियुक्त करने, हटाने, स्थानान्तरित करने का अधिकार होता है । राज्य प्रशासनिक सेवा के सदस्य (डिप्टी कलेक्टर) को I.A.S. अवार्ड होने के बाद कलेक्टर पद पर नियुक्ति की पात्रता है ।

एक फ्रेशर (I.A.S.) की नियुक्ति असि. कलेक्टर के पद पर होती है । जबकि वह 4-6 वर्ष की अवधि के मध्य कलेक्टर बन जाता है । राज्यपाल ही इनकी नियुक्ति या स्थानान्तरण करता है । सामान्यता कलेक्टर राज्य शासन के उपसचिव के दर्जे का होता है ।

सेवा शर्तें (Terms of Service):

i. कलेक्टर की सेवा-शर्तें केन्द्र शासन निर्धारित करता है ।

ii. उसकी सेवाएं संबंधित राज्य के अधीन होती हैं, लेकिन राज्य शासन का उन पर सामान्य नियन्त्रण होता है, अंतिम नियन्त्रण नहीं ।

iii. राज्य सरकार उसकी नियुक्ति कर सकती है, उसे कोई प्रभार दे सकती है उसका स्थानान्तरण कर सकती है, लेकिन उसके खिलाफ अनुशासनिक कार्यवाही की वह अनुशंसा मात्र कर सकती है । राज्य शासन कलेक्टर के खिलाफ जांच कर सकती है । उसे निलम्बित भी कर सकती है, लेकिन ये सब केन्द्र के अंतिम निर्णय के अधीन होता है ।

iv. राष्ट्रपति I.A.S. को पदमुक्त कर सकता है । उसे अन्य लोकसेवकों की भाँति अनुच्छेद 311 का संवैधानिक संरक्षण हासिल है अर्थात् बिना समुचित सुनवाई के उसके खिलाफ कोई आनुशासनिक कार्यवाही नहीं की जा सकती है ।

v. उसकी वरिष्ठता, आचरण नियम, अनुशासन, यात्रा भत्ते और अन्य भत्ते केन्द्र निर्धारित करता है ।

वेतन-भत्ते (Pay Allowances):

A. कलेक्टर को I.A.S. के रूप में भर्ती होते समय 15600-39100 का वेतन मिलता है । वेतन के अलावा केन्द्रीय कर्मियों को देय महंगाई भत्ता और अन्य भत्ते भी उसे मिलते हैं । लेकिन सत्कार भत्ता आदि उसे राज्य शासन द्वारा निर्धारित दर पर मिलता है । निःशुल्क वाहन सुविधा मिलती है । उसके वेतन-भत्ते संचित निधि पर भारित नहीं है, ये राज्य की संचित निधि से दिये जाते हैं ।

पंचायती संस्थाओं के सन्दर्भ में कार्य और भूमिका (Work and Role in the Context of Panchayat Institutions):

पंचायती राज के निरन्तर सुदृढ़ीकरण ने कलेक्टर की भूमिका को नया आयाम दिया है । वह उनका मित्र, पथ प्रदर्शक, सहयोगी और कुछ सीमा तक नियन्त्रक भी हैं । वस्तुत: उसके कार्यों की फेहरिस्त बनाना संभव नही हैं क्योंकि शासन अपने सभी कार्यों के लिये इसी क्षेत्रीय एजेन्सी पर निर्भर हैं । इस प्रकार कलेक्टर जिले में अनेक कार्यों को पूरा करता है । वह अतिभारित अधिकारी है, अत: उस पर कार्य का बोझ कम किया जाना चाहिए ।

कलेक्टर की लाखीना पैटर्न (Lakhina Pattern of Collector):

यह जिलाधीश कार्यालय की कार्य प्रक्रिया को सुधार से संबन्धित है । इसे अहमदनगर जिला (महाराष्ट्र) में कलेक्टर अनिल लाखीना ने 1980 के दशक में लागू किया था, जिसके अच्छे परिणाम मिले थे । बाद में इसे राजस्थान में भीलवाड़ा, अजमेर, श्री गंगानगर जिलों में लागू किया गया ।

इस सुधार के तीन मुख्य आयाम हैं:

i. जनता-क्लर्क सम्बन्धों का नवीनीकरण (Renewal of Public-Clerk Relations):

इसके तहत दोनों के मध्य सहयोगपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना पर बल दिया गया । काम को लेकर नागरिक सीधे वरिष्ठ अधिकारियों से मिल सकता था ।

ii. कार्यालय प्रक्रिया का सरलीकरण (Simplification of Office Process):

इसके अन्तर्गत कार्यालय में कार्य प्रक्रिया को इतना सरल बनाया गया कि समय पर फाइलें, दस्तावेज उपलब्ध हो सके । साथ ही नियमों का सरलीकरण इस तरह किया गया कि आम आदमी उन्हें आसानी से समझ सके और सरकारी प्रक्रिया आसानी से पूरी हो सके । काम त्वरित गति से स्वयं आगे बढ़ सके ।

iii. काम की दशाओं में सुधार और जिम्मेदारी सुनिश्चित करना (To Improve the Conditions of Work and Ensure Responsibility):

तीसरा कदम यह था कि अनुभाग के समस्त कर्मिकों को एक हाल में इस तरह बैठाया गया कि वे व्यैक्तिक जवाबदारी से बंध गये । अनुभाग अधिकारी क्लर्कों पर हर समय नजर रख सकता था, ताकि समय फिजुल नष्ट नहीं हो । वहां पर्याप्त हवा, प्रकाश, शुद्ध पेयजल आदि की व्यवस्था भी की गयी ।