Read this article in Hindi to learn about:- 1. जिलाधीश का  पदस्थिति (Position of District Collector) 2. जिलाधीश का  विकासक्रम (Evolution of District Collector) 3. भूमिका और कार्य (Role and Functions) 4. जिलाधीश कार्यालय (The Collectorate) 5. जिला स्तर के अन्य अधिकारी/कर्मचारी (Other District Officials) 6. जिला स्तर के नीचे का प्रशासन (Administration below the District).

जिलाधीश का  पदस्थिति (Position of District Collector):

जिलाधीश को कर्नाटक, असम, पंजाब, जम्मू और कश्मीर में उपयुक्त, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में जिला मजिस्ट्रेट कहते हैं । जिलाधीश कार्यालय का कलेक्ट्रेट कहते हैं ।

जिलाधीश जिला प्रशासन का प्रमुख तथा जिले राज्य सरकार का आधिकारिक एजेंट होता हैं । जिलाधीश का अपनी तरह का अद्वितीय कार्यालय है क्योंकि अन्य देशों का प्रशासनिक प्रणाली में इस तरह का कार्यालय नहीं है । फ्रांस में, विभाग का प्रमुख प्रीफेक्ट होता है तथा यही केंद्र सरकार का आधिकारिक एजेंट भी होता है । फ्रांस में प्रीफेक्ट कार्यालय को प्रीफेक्टरेट कहते हैं । इसलिए फ्रांसीसी प्रीफेक्ट भारतीय जिलाधीश के समकक्ष है ।

जिलाधीश प्रशासन के राजस्व खार सामान्य प्रशासन भाग था पंजीकरण विभाग तथा पंजीकरण विभाग सीधे जिलाधीश के प्रभार होते हैं, किंतु जिला प्रशासन के अन्य सभी विभागों पर भी उसका नियंत्रण और प्रभाव होता हैं । वह बहु उद्देश्यीय पदाधिकारी होता है जिसका नियंत्रण पूरे जिले के प्रशासन पर होता है ।

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जिलाधीश सरकार (अर्थात् राज्य सचिवालय) के सामान्य प्रशासन विभाग के तहत आता है जिसके प्रमुख ‘मुख्यमंत्री’ और प्रशासनिक प्रमुख ‘मुख्यसचिव’ हैं । जिलाधीश पर संभागीय आयुक्त का नियंत्रण खार पर्यवेक्षण होता है ।

राज्य की प्रशासनिक प्रणाली में जिलाधीश के स्थान का निर्धारण निम्नलिखित सारणी द्वारा किया गया है:

जिलाधीश का  विकासक्रम (Evolution of District Collector):

जिला, भारतीय प्रशासन की भौगोलिक इकाई है । ऑक्सफोर्ड शब्दकोश में ‘जिला’ (डिस्ट्रिक) शब्द को ‘विशेष प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए सीमांकित क्षेत्र’ के रूप में परिभाषित किया गया है । मूलतः भारतीय संविधान में ‘जिला’ शब्द का उल्लेख अनुच्छेद 233 को छोड्‌कर अन्यत्र कहीं नहीं किया गया है । अनुच्छेद 233 में भी ‘जिला न्यायाधीश’ शब्द का प्रयोग हुआ है । किंतु संविधान के (73वें और 74वें संशोधन) अधिनियम 1992 के द्वारा भाग IX और IX A में कई जगह ‘जिला’ शब्द को शामिल किया गया है जो क्रमशः पंचायतों और नगरनिगमों के लिए है ।

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एस.एस.खेड़ा के शब्दों में ”जिला प्रशासन सरकारी कार्यों का पूर्ण प्रबंधन है……. जिला प्रशासन-लोक-प्रशासन का वह भाग है जो जिले के सीमाक्षेत्र में कार्य करता है ।” भारत में प्रशासन की क्षेत्रीय इकाई के रूप में ‘जिले’ का लंबा इतिहास है जो मौर्यकाल से शुरू होता है । मुगल शासनकाल के दौरान ‘जिले’ को ‘सरकार’ कहा जाता था और इसके प्रमुख को ‘करोड़ी-फौजदार’ कहते थे । सैन्य अधिकारी ‘सूबेदार’ के सीधे नियंत्रण में कार्य करते थे ।

आज का जिला प्रशासन और जिलाधीश के पद का विकास भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के समय हुआ था । इस पद का सृजन वर्ष 1772 में तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज ने किया था । वर्ष 1787 में जिलाधीश को राजस्व संग्रहण के अतिरिक्त नागरिक न्याय और मजिस्ट्रेट के कार्य की जिम्मेदारी भी सौंपी गई । उस समय जिलाधीश अतिशक्तिशाली पदाधिकारी था और उसे ‘लिटिल नेपोलियन’ कहा जाता था ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जिलाधीश कार्यालय को दर्जे और अधिकारों के संदर्भ में निम्नलिखित कारणों से कठिनाई का सामना करना पड़ा:

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(i) ‘पुलिस राज्य’ की जगह ‘कल्याणकारी राज्य’ लाए जाने के कारण सरकारी कार्यों और ‘गतिविधियों में विस्तार ।

(ii) केंद्र और राज्य स्तर पर संसदीय प्रणाली की सरकार अपनाए जाने के कारण सरकार के स्वरूप में परिवर्तन ।

(iii) सरकार के लक्ष्यों और उद्देश्यों में बदलाव अर्थात औपनिवेशिक शोषण की जगह कल्याण अभिमुखीकरण ।

(iv) स्थानीय प्रशासन की इकाई के रूप में पंचायती राज का आविर्भाव ।

(v) विधायिका को कार्यपालिका से अलग किया जाना ।

(vi) लोगों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ाना ।

(vii) जिलों में बड़ी संख्या में विभागों का आविर्भाव और विकास ।

(viii) आई.सी.एस की जगह आई.ए.एस का गठन ।

(ix) दबाव बनाने वाले ग्रुपों और राजनीतिक दलों की भूमिका और प्रभाव ।

(x) बडे शहरों में कानून और व्यवस्था संबंधी प्रशासन के लिए आयोग प्रणाली का प्रादुर्भाव ।

जिलाधीश का  भूमिका और कार्य (District Collector – Role and Functions):

जिला प्रशासन में जिलाधीश की भूमिका और निष्पादित किए जाने वाले कार्यों का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के तहत किया जा सकता है:

राजस्व प्रशासन:

विगत में, जिलाधीश का प्रथम कार्य राजस्व संग्रह करना था जैसाकि ‘कलेक्टर’ शब्द का आशय भी ‘संग्रहकर्ता’ ही है । जिलाधीश आज भी जिंले में राजस्व प्रशासन का प्रमुख है ।जिलाधीश महाराष्ट्र और गुजरात राज्य में राजस्व बोर्ड या राजस्व अधिकरण के माध्यम से तथा पंजाब हरियाणा व जम्मू और कश्मीर में वित्त आयुक्त के माध्यम से राजस्व संग्रहण के लिए राज्य सरकार के प्रति जिम्मेदार है ।

जिले में राजस्व प्रशासन के प्रमुख के रूप में जिलाधीश निम्नलिखित कार्यों के लिए जिम्मेदार है:

(i) भूमि राजस्व संग्रहण के लिए

(ii) अन्य सरकारी बकायों की वसूली के लिए

(iii) ऋणों के वितरण और वसूली के लिए

(iv) भूमि अभिलेखों के रख रखाव के लिए

(v) ग्रामीण कड़े एकत्र करने के लिए

(vi) आबादी के बसाव के प्रयोजन से भूमि अधिग्रहीत करने के लिए

(vii) भूमि सुधार से जुड़े कार्यक्रम लागू करने के लिए

(viii) कृषि कार्य से जुड़े लोगों के हित की देखभाल करने के लिए

(ix) बाढ़, सूखा और आग जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय राहत कार्यों की अनुशंसा करने और फसलों को हुई क्षति का आकलन करने के लिए

(x) कोषागार और कोषागार के पर्यवेक्षण के लिए

(xi) स्टांप अधिनियम लागू करने के लिए

(xii) पुनर्वास अनुदान के भुगतान के लिए

(xiii) सरकारी सम्पदाओं के प्रबंधन के लिए

(xiv) निचले प्राधिकरण के आदेशों के विरुद्ध राजस्व से जुड़ी अपीलों की सुनवाई के लिए

(xv) जमींदारी प्रथा के उन्मुलन के कारण क्षतिपूर्ति के भुगतान के लिए

कानून व्यवस्था से जुड़ा प्रशासन:

जिले में कानून और व्यवस्था की स्थिति को बनाए रखने की जिम्मेदारी ही जिलाधिकारी/जिलाधीश की सर्वप्रथम जिम्मेदारी है । स्वतंत्रता- प्राप्ति से पहले जिलाधीश को कार्यकारी मजिस्ट्रेट और न्यायिक मजिस्ट्रेट दोनों का कार्य करना होता था ।

कार्यकारी मजिस्ट्रेट के रूप में जिलाधीश कानून और व्यवस्था की स्थिति को बनाए रखने के लिए तथा न्यायिक मजिस्ट्रेट के रूप में वह आपराधिक और सिविल मामलों के लिए कानून सम्मत मुकदमा चलाने के लिए जिम्मेदार था ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान के अनुच्छेद 50 के तहत राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों के प्रावधानों के पालन में विधायिका को कार्यपालिका से पृथक कर दिया गया जिसके फलस्वरूप जिलाधीश की न्यायिक मजिस्ट्रेट की भूमिका समाप्त हो गई । न्यायिक मामलों को जिला न्यायाधीश नामक नए पदाधिकारी के सुपुर्द कर दिया गया जो अब राज्य के उच्च न्यायालय के सीधे नियंत्रण में कार्य करता है ।

जिलाधीश अपनी क्षमता में जिला मजिस्ट्रेट के रूप में जिले में कानून और व्यवस्था की स्थिति को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार है । इस उद्देश्य से जिला पुलिस अधीक्षक के नेतृत्व में जिला पुलिस बल को जिला मजिस्ट्रेट के नियंत्रण और निर्देशन में सदैव तैयार रखा जाता है ।

भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 के तहत जिले के पुलिस प्रशासन को पुलिस अधीक्षक के नेतृत्व में जिला मजिस्ट्रेट की सहायतार्थ सदैव तत्पर रखा जाता है । इस प्रकार जिले में कानून और व्यवस्था की स्थिति और प्रशासन पर दोहरा नियंत्रण और पुलिस महानिदेशक के मातहत अधिकारियों का नियंत्रण होता है ।

जिलाधीश जिला मजिस्ट्रेट के रूप में अपनी पदस्थिति में निम्नलिखित कार्य करता है:

(i) अपने अधीनस्थ मजिस्ट्रेटों पर नियंत्रण और उनका पर्यवेक्षण

(ii) शांति व्यवस्था भंग होने की आशंका में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत आदेश जारी करना

(iii) सरकार और दूसरों से प्राप्त सभी याचिकाओं का निपटान करना

(iv) कैदियों को पैरोल (प्रतिज्ञापत्र) पर मुक्त करना

(v) कारागारों का निरक्षण करना

(vi) सरकार को वार्षिक आपराधिक रिपोर्ट प्रस्तुत करना

(vii) शस्त्र, होटल, विस्फोटक, पेट्रोलियम और अन्य के लिए लाइसेंसों की मंजूरी निलंबन और निरस्तीकरण

(viii) कैदियों को बेहतर सुविधाओं की मंजूरी

(ix) स्थानीय निकायों पर नियंत्रण और उनका पर्यवेक्षण

(x) जिला पुलिस (के कार्यों) को निर्देशित और नियंत्रित करना

(xi) मनोरंजन कर अधिनियम और प्रेस अधिनियम के प्रावधानों को लागू करना

(xii) जिले में किसी असामान्य घटना घटित होने की स्थिति में नागरिक प्रशासन की सहायतार्थ सशस्त्र बल बुलाना

(xiii) अपराधियों को फैक्टरीज एक्ट और ट्रेडमार्क एक्ट के तहत दंड देना

(xiv) दावा रहित संपत्ति को निस्तारित करने के आदेश देना

(xv) वनों के विकास के लिए योजनाओं की अनुशंसा करना

विकासात्मक प्रशासन:

स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले जिलाधीश की बदलती भूमिका उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थी जितनी मुख्यतः विनियामक प्रशासन से संबद्ध ब्रिटिशकालीन भारत में ‘पुलिस राज्य’ की थी । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तथा योजना नीतियों की शुरूआत के साथ कलेक्टर की विकासात्मक भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गई । विकास से जुड़े कार्यक्रमों के कार्यान्वयन कार्य में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण हो गई ।

तथापि इस संदर्भ में सभी राज्यों में स्थिति एक जैसी नहीं है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जिलों में विकासात्मक प्रशासन के दो अलग-अलग रूप सामने आए हैं । पहला रूप तमिलनाडु राजस्थान और अन्य राज्यों का है और दूसरा महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों का ।

पहले रूप के तहत कलेक्टर को विनियामक और विकासात्मक प्रशासन-दोनों के लिए जिम्मेदार बनाया गया जो इन राज्यों में कलेक्टर राजस्व मजिस्ट्रेटी और विकासात्मक कार्यों की देखभाल करता है । विकास से जुड़े कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में लगे जिला स्तर के अधिकारी कलेक्टर के नेतृत्व मार्गनिर्देशन और पर्यवेक्षण में कार्य करते हैं ।

ये अधिकारी तकनीकी मामलों के संदर्भ में अपने संबद्ध विभागों के नियंत्रण और पर्यवेक्षण में कार्य करते हैं । विकास से जुड़े कार्यक्रमों को वास्तविक रूप से कार्यान्वित करते समय ये अधिकारी जिलाधीश के प्रशासनिक नियंत्रण में कर दिए जाते हैं । अधिकांश राज्यों में कलेक्टर को जिला विकास अधिकारी के रूप में पदनामित किया गया है जिसे विकासात्मक प्रशासन में लगे जिला स्तर के अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट के लिए प्राधिकृत किया गया है ।

महाराष्ट्र और गुजरात से संबंधित दूसरे रूप के अंतर्गत कलेक्टर को केवल विनियामक प्रशासन के लिए उत्तरदायी बनाया गया है । इन राज्यों में विकासात्मक प्रशासन की जिम्मेदारी जिला परिषद पर डाली गई है । विकास से जुड़े कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में लगे जिला स्तर के सभी अधिकारियों को जिला परिषद के प्रशासनिक नियंत्रण और पर्यवेक्षण में कार्य करना होता है ।

इस प्रयोजन से जिला परिषद ने जिला विकास अधिकारी (या मुख्य कार्यकारी अधिकारी) की नियुक्ति की है जो भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होता है । इस व्यवस्था के फलस्वरूप कलेक्टर विकास क्षेत्र से जुड़े उत्तरदायित्वों से मुक्त हो गया है ।

विकास के क्षेत्र में कलेक्टर की भूमिका का महत्त्वपूर्ण आयाम है उसका जिला ग्रामीण विकास एजेंसी (डी.आर.डी.ए) से जुड़ा होना । वह डी.आर.डी.ए. का पदेन अध्यक्ष होता है । डी.आर.डी.ए. की स्थापना प्रत्येक जिले में वर्ष 1980 में भारतीय सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम के अंतर्गत हुई थी । यह एजेंसी समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम (आई आर डी पी), मरुस्थल विकास कार्यक्रम (डी डी पी), सूखा प्रभावित क्षेत्र कार्यक्रम (डी पी ए), ग्रामीण युवा स्वरोजगार प्रशिक्षण (ट्राइसेम) ग्रामीण क्षेत्र महिला एवं बाल विकास (डी डब्ल्यू सी आर ए), कमांड क्षेत्र विकास कार्यक्रम (सी ए डी ए) और अन्य जैसे ग्रामीण विकास से जुड़े कार्यक्रमों की तैयारी, कार्यान्वयन, निगरानी और मूल्यांकन कार्य के लिए नोडल एजेंसी है ।

डी.आर.डी.ए. में जिला प्रशासन में विकास कार्य से जुड़े विभिन्न विभागों के जिला स्तरीय अधिकारी शामिल होते हैं । कलेक्टर, डी आर डी ए के अध्यक्ष के रूप में इस एजेंसी की बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा विभिन्न अधिकारियों के कार्यों के मध्य तालमेल बैठाए रखता है ।

यहां यह ध्यान देने योग्य है कि विकासात्मक प्रशासन के क्षेत्र में कलेक्टर की मुख्य भूमिका- विकास से जुड़े कार्यक्रमों के कार्यान्वयन कार्य में लगे जिला स्तर के अधिकारियों के कार्यों के मध्य समन्वय (तालमेल) बनाए रखने की है ।

इसके अतिरिक्त संविधान के (वे संशोधन) अधिनियम 1992 और इसके बाद विभिन्न राज्यों से संबद्ध पंचायती राज अधिनियम 1993 और 1994 के फलस्वरूप विकासात्मक प्रशासन में कलेक्टर की भूमिका में कमी आई है ।

अन्य शक्तियाँ और कार्य:

उपर्युक्त के अतिरिक्त कलेक्टर निम्नलिखित कार्य भी करता है:

(i) वह संसदीय और विधानसभा चुनाव क्षेत्रों में चुनाव के रिटर्निंग अधिकारी का कार्य करता है और इस प्रकार जिला स्तर पर चुनाव कार्यों में तालमेल बैठाए रखता है ।

(ii) वह जिला जनगणना अधिकारी के रूप में कार्य करता है, इसलिए कलेक्टर प्रति 10 वर्ष पर जनगणना कराता है ।

(iii) वह जिले में मुख्य प्रोटोकाल अधिकारी के रूप में भी कार्य करता है ।

(iv) वह जिला योजना कार्यान्वयन समिति की अध्यक्षता भी करता है ।

(v) वह जिले में आयोजित समारोहों में राज्य सरकार का आधिकारिक प्रतिनिधि होता है ।

(vi) वह जिले में नागरिकों और प्रशासन के बीच तालमेल का माध्यम भी होता है ।

(vii) वह जिले में नगर निगम प्रशासन के कार्यों की देखरेख भी करता है ।

(viii) वह सरकार के जनसंपर्क अधिकारी का कार्य भी देखता है ।

(ix) वह प्राकृतिक आपदाओं और आपातकाल के समय आपदा प्रशासक प्रमुख का कार्य भी देखता है ।

(x) जिला प्रशासन प्रमुख के रूप में कलेक्टर जिला स्तर के कार्मिकों से जुड़े कार्मिक मामलों को भी देखता है ।

(xi) वह नागरिक आपूर्ति अर्थात खाद्य और अन्य आवश्यक सामग्रियों की आपूर्ति के लिए भी जिम्मेदार होता है ।

(xii) कलेक्टर नागरिक सुरक्षा से जुड़ा कार्य भी देखता है ।

(xiii) वह सैन्य प्राधिकारियों से संपर्क बनाए रखता है तथा सैन्य बलों के सेवानिवृत्त और सेवारत कार्मिकों के हित और कल्याण का ध्यान रखता है ।

जिलाधीश कार्यालय (The Collectorate):

कलेक्टरट जिलाधीश/जिला कलेक्टर का कार्यालय होता है जो जिला मुख्यालय में स्थित होता है यह कार्यालय विभिन्न अनुभागों में विभक्त है । प्रत्येक अनुभाग कलेक्टर की सहायतार्थ है ताकि वह अपने कार्यों का निष्पादन और अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियों का निर्वहन कर सके ।

कलेक्टरेट में प्रायः ये अनुभाग होते हैं:

1. लेखा अनुभाग

2. नागरिक आपूर्ति अनुभाग

3. विकास कार्य अनुभाग

4. चुनाव अनुभाग

5. स्थापना/व्यवस्था अनुभाग

6. सामान्य अनुभाग

7. आवास अनुभाग

8. आसूचना अनुभाग

9. न्यायिक अनुभाग

10. परिवहन अनुभाग

11. भूमि अधिग्रहण अनुभाग

12. भूमि रिकॉर्ड अनुभाग

13. भूमि सुधार अनुभाग

14. पंचायत अनुभाग

15. प्रोटोकॉल अनुभाग

16. जन संपर्क अनुभाग

17. राजस्व अनुभाग

18. पुनर्वास अनुभाग

19. पंजीकरण अनुभाग

20. सांख्यिकीय (आँकड़ा) अनुभाग

जिला स्तर के अन्य अधिकारी/कर्मचारी (Other District Officials):

राज्य स्तर के अधिकांश विभागों का प्रतिनिधित्व जिला स्तर पर भी होता है । जिला स्तर के प्रत्येक विभाग का एक प्रमुख होता है । जिला स्तर के इन विभागों के प्रमुख तकनीकी कार्मिक अर्थात विशेषज्ञ वर्ग का लोकसेवक होता है । ये तकनीकी कार्मिक विभागीय आधारों पर सृजित विशेषज्ञतापूर्ण राज्य सेवा संवर्ग से जुड़े होते हैं ।

ये कार्मिक राज्य के विभाग के संबद्ध प्रमुखों निदेशालय का प्रमुख-निदेशक या आयुक्त के नियंत्रण और पर्यवेक्षण में कार्य करते हैं । इसके अतिरिक्त जिला प्रशासन प्रमुख जिलाधीश इन तकनीकी कार्मिकों के कार्यों का पर्यवेक्षण करके उनमें तालमेल बैठाता है । जिला स्तर के अन्य अधिकारियों से भिन्न कलेक्टर प्रबंधकुशल वर्ग का लोकसेवक भारतीय प्रशासनिक सेवा का सदस्य होता है ।

जिला स्तर के नीचे का प्रशासन (Administration below the District):

नीचे की सारणी में जिला स्तर के विभागों तथा उनके प्रमुखों के पदनाम दर्शाए गए हैं:

जिले में प्रशासन का प्रमुख जिलाधीश होता है ।

उसके विविध कार्यों में उसकी सहायता करने वाले अधिकारियों का पदक्रम इस प्रकार है:

उप-संभाग:

भूमि राजस्व संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत राजस्व प्रशासन और आपराधिक प्रशासन के लिए क्षेत्रीय दृष्टि से जिले को कई इकाईयों में बांटा गया है ।

इन इकाइयों के नाम तथा इनके प्रमुखों (प्रभारी) के नाम राज्यों में भिन्न-भिन्न हैं, जो इस प्रकार हैं:

उप-संभागीय आधिकारी या तो भारतीय प्रशासनिक सेवा का सदस्य होता है या राज्य लोकसेवा (कार्यकारी या प्रशासनिक) का । उसकी नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है और नियंत्रण भी राज्य सरकार का ही होता है । जिलाधीश की तरह उप-संभागीय अधिकारी भी प्रादेशिक अधिकारी, सामान्यज्ञ (Generalist) प्रशासक और बहुउद्‌देश्यीय पदाधिकारी होता है ।

उसे राजस्व मजिस्टेरटी और कार्यकारी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं । मुख्य कार्यकारी अधिकारी तथा राज्य सरकार के आधिकारिक प्रतिनिधि के रूप में उसे उप-संभाग में सरकार के सभी विभागों की गतिविधियों की जानकारी होती है । एक ओर वह राजस्व मामलों के संबंध में जिलाधीश और तहसीलदार के मध्य की कड़ी का कार्य करता है तो दूसरी ओर कानून और व्यवस्था से जुड़े मामलों में वह जिला मजिस्टेरट और स्टेशन पुलिस अधिकारी के बीच की कड़ी का कार्य भी करता है ।

इस प्रकार उप-संभागीय अधिकारी जिलाधीश का मुख्य सहायक तथा महत्वपूर्ण फील्ड सहायक होता है तथा उप-संभाग में प्रशासन के सभी पहलुओं के संदर्भ में जिलाधीश के प्रति जिम्मेदार होता है । उप-संभाग दो प्रकार के होते हैं- कार्यालय श्रेणी और भ्रमणकारी । अधिकांश राज्यों में प्रचलित कार्यालय प्रकार के अंतर्गत उप-संभागीय अधिकारी का स्थायी कार्यालय होता है जो उप-संभाग में ही स्थित होता है । भ्रमणकारी प्रकार के उप-संभाग कुछ राज्यों में ही प्रचलित हैं जैसे उत्तर प्रदेश में जिसमें उप-संभागीय अधिकारी का स्थायी कार्यालय नहीं होता है वह भ्रमणकारी अधिकारी (एक जगह से दूसरे जगह भ्रमण कर) के रूप में अपना कार्य करता है । उसका निवास जिला मुख्यालय में होता है ।

तहसील:

प्रत्येक उप-संभाग कई प्रशासनिक यूनिटों में बँटे हैं । इन यूनिटों (इकाइयों) के नाम और उनके प्रभारी का नाम अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न हैं, जैसे-

तहसील, प्रशासन के विभिन्न पहलुओं जैसे राजस्व, भूमि रिकॉर्ड इंजरी (सरकारी खजाना), मजिस्ट्रेटी मामलों आदि के लिए बुनियादी इकाई है । विभिन्न फील्ड विभागों के कार्यालय तहसील में ही होने के कारण इसे ‘लघु जिला’ भी कहा जाता है । बिहार और पश्चिम बंगाल राज्यों में तहसील का अस्तित्व नहीं है जहाँ जिला स्तर के नीचे की इकाई उप-संभाग ही है ।

तहसीलदार राज्य लोकसेवा का सदस्य और राजपत्रित अधिकारी होता है । कलेक्टर और उप-संभागीय अधिकारी की तरह ही तहसीलदार भी क्षेत्रीय/प्रांतीय अधिकारी, सामान्यज्ञ प्रशासक और बहुउद्‌देश्यीय पदाधिकारी होता है । उसे भी राजस्व, मजिस्ट्रेटी और कार्यकारी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं ।

तहसीलदार तहसील में राजस्व संग्रहण और कानून व्यवस्था की स्थिति को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार होता है । मुख्य कार्यकारी अधिकारी और राज्य सरकार के आधिकारिक प्रतिनिधि के रूप में उसे तहसील में सरकार के विभिन्न विभागों की गतिविधियों की जानकारी लेनी होती है और उनके मध्य तालमेल रखना होता है ।

सर्किल (हल्का):

प्रत्येक तहसील क्षेत्रीय रूप से राजस्व प्रशासन के उद्देश्य से कई इकाइयों में बँटा होता है ।

इन इकाईयों के नाम और प्रभारी के नाम अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न होते हैं, जैसे:

कानूनगो/सर्किल इंस्पेक्टर को राजस्व प्रशासन की कड़ी में प्रथम पंक्ति का पर्यवेक्षक माना जाता है । वह अपने प्रभार में आने वाले सभी गाँवों के भूमि रिकॉर्ड और राजस्व प्रशासन का कार्य देखता है । उसकी नियुक्ति सामान्यतः जिलाधीश द्वारा की जाती है ।

ग्राम:

सभी राज्यों में सभी प्रशासनिक और वित्तीय प्रयोजनों की दृष्टि से सबसे निचली इकाई ग्राम है । तमिलनाडु राज्य में गाँव के सबसे महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी को ग्राम प्रधान कहते है । वह राजस्व पुलिस और सामान्य प्रशासन से जुड़े कार्यभार पूरा करता है तथा ग्रामक्षेत्र में सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है ।

महाराष्ट्र राज्य में ग्राम प्रधान को पटेल कहते हैं । उत्तर प्रदेश में इस प्रकार का कोई पद नहीं है । पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और मध्य प्रदेश में ‘पटवारी’ गांव के राजस्व का हिसाब-किताब और भूमि का रिकॉर्ड रखता है । इस प्रकार पटवारी गांव का लेखाकार होता है । पटवारी को अन्य राज्यों में कई दूसरे नाम से भी जाना जाता है जैसे उत्तर प्रदेश में लेखपाल, तमिलनाडु में कर्णम (या कनक पिल्लै) और महाराष्ट्र में तलाती । एस.एस.खेरा ने पटवारी अथवा लेखपाल को ‘जिले के राजस्व प्रशासन का आधार’ बताया है ।