Read this article in Hindi to learn about:- 1. प्रशासनिक नैतिकता का अर्थ (Meaning of Administrative Ethics) 2. प्रशासनिक नैतिकता का जन्म विकास (Birth Development of Administrative Ethics) 3. तत्व (Elements) and Other Details.
प्रशासनिक नैतिकता का अर्थ (Meaning of Administrative Ethics):
प्रशासनिक नैतिकता से आशय है- कार्य पर लोक सेवा के आचरण को और निर्देशित करने वारी संहिता । जिस प्रकार समाज में प्रचलित नैतिक-मूल्य, परंपराएं आदि व्यक्ति के व्यवहार को सामाजिक दिशा देते है, उसी प्रकार प्रशासन में आचरण नियम लोक सेवकों के कर्त्तव्य-व्यवहार को नियमानुकूल दिशा में रखते हैं ।
एस.एल. गोयल कहते हैं- ”प्रशासनिक आचार नीति उन प्रशासनिक मानदंडों का अध्ययन है जिसके आधार पर किसी कार्य के बारे में यह निर्णय किया जाता है कि वह गलत है या नैतिक है या अनैतिक, अच्छा है अथवा बुरा ।” लोक सेवकों को आम नागरिकों से भिन्न एक विशेष व्यवहार करना होता है ताकि सरकार द्वारा प्रदत्त का दुरूपयोग नहीं हो, नागरिक स्वतंत्रता खतरे में नहीं पड़े और सरकार के समक्ष भी कोई संकट खड़ा नहीं हो । अत: एम.पी. शर्मा के अनुसार- सभी सरकारें आचार संहिता बनाती है और उसको कर्मचारियों पर लागू करती है ।
ऐसे आचार-नियम प्राय: निम्नांकित विषय से संबंधित होते है:
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1. सरकार के प्रति दृढ़ निष्ठा तथा अपने ऊपर के अधिकारियों के प्रति सद्-व्यवहार,
2. उनके निजी व्यापार और व्यवसाय पर प्रतिबंध, ताकि वे ईमानदार बने रहें । वैसा ही प्रतिबंध कर्मचारियों के ऋण लेने और संपत्ति के क्रय-विक्रय पर भी होना चाहिए ।
3. राज्यकर्म संबंधी, निजी तथा घरेलू जीवन में आचार-व्यवहार का ऊँचा स्तर, तथा
4. उनके राजनैतिक क्रिया-व्यापार, सार्वजनिक भाषण, समाचार-पत्रों में लेख, आदि के प्रकाशन से संबंधित विधान ।
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ये आचार-नियम देश के सामान्य नियमों और कानूनों के ऊपर होते है और लोक सेवकों के क्रिया व्यवहार को नियंत्रित करते है । लोक सेवकों को अपने आचरण का नैतिक स्तर इतना उच्च रखना चाहिए कि वह आम नागरिकों के लिए आदर्श और प्रेरणादायी बन सके क्योंकि ”यथा राजा, तथा प्रजा” ।
प्रशासनिक नैतिकता का जन्म विकास (Birth Development of Administrative Ethics):
लोक सेवकों के लिए नैतिकता संबंधी नियम प्राचीन कालीन राजतंत्र में भी हुआ करते थे । भारत में श्वनीति, कौटिल्य नीति में इस संबंध में अनेक दृष्टांत आए है । आधुनिक काल में यह जर्मनी था जिसने न सिर्फ सर्वप्रथम आधुनिक लोक सेवा को खड़ा किया, अपितु उसके लिए व्यावसायिक संहिता का भी विकास किया ।
लेकिन इस संहिता में लोकतांत्रिक तत्व कम थे, सर्वसत्तावादी तत्व अधिक। विश्व की ऐसी पहली लोकतांत्रिक लोक सेवा संहिता का विकास ग्रेट ब्रिटेन ने किया था । यह इतनी आदर्श थी कि ब्रिटिश लोक सेवा की पहचान बन गयी ।
भारत में स्थिति (Position in India):
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भारत में ब्रिटिश शासन के समय से ही लोक सेवा संबंधी आचरण नियम बनाए गए । इनका उद्देश्य जनता के समक्ष आदर्श पेश करना नहीं था, अपितु लोक सेवकों को उच्चाधिकारियों, कानूनी, ताज आदि के प्रति वफादार और उत्तरदायी बनाए रखना था । लेकिन स्वतंत्रता के पूर्व और बाद दोनों ही समय आचार संहिता के स्थान पर सेवा-नियमों पर जोर दिया गया जैसा कि पी.आर. देशमुख ने कहा है- ”भारत में सार्वजनिक प्रशासकों के लिए कोई आचार संहिता नहीं है, परंतु यहां सरकारी कर्मचारी सेवा नियम है । इनमें यह निर्धारित किया गया है कि लोकसेवक के दुराचरण के अंतर्गत कौन-कौनसी चीजें आती है । स्पष्टतया इसका अर्थ वे दुराचरण है जिनकी अनुमति नहीं है और जो अनैतिक भी है ।”
स्वतंत्रता के उपरांत भारत सरकार ने लोक सेवकों के लिए आचरण नियम समय-समय पर बनाए हैं । इनमें से महत्वपूर्ण ये है- अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम, 1954 केंद्रीय सेवा (आचरण) नियम, 1955 और रेलवे सेवा (आचरण) नियम, 1956 । इसके अतिरिक्त भी केंद्र और राज्य में मूलभूत नियम आदि प्रचलित हैं ।
प्रशासनिक नैतिकता को सुनिश्चित करने वाले तत्व (Elements that Ensure Administrative Ethics):
एन.वी. पीले और कैनेथ ब्लेनकार्ड ने अपनी पुस्तक “द पावर ऑफ इथिकल मैनेजमेंट” में निर्णयों की नैतिकता को सुनिश्चित करने के तीन आधार बताए:
1. निर्णय की वैधानिकता । यदि निर्णय वैधानिक नहीं है तो वह नैतिक भी नहीं है ।
2. निर्णय की निष्पक्षता । यदि निर्णय किसी एक दिशा या व्यक्ति की ओर उन्मुख है तो वह निष्पक्ष नहीं है ।
3. यदि निर्णय कर लिया गया तो क्या जनता के बीच लोक सेवकों को शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी ।
सामान्य रूप से लोक सेवकों के लिए आचार संहिता के निम्नांकित तत्व हो सकते है:
1. कर्तव्य परायणता
2. न्याय प्रियता
3. सच्चरित्रता एवं विनम्रता
4. राष्ट्रीय आदर्शों के प्रति प्रतिबद्धता
5. देशभक्ति
6. राजनीतिक तटस्थता
7. जनसेवा की भावना
8. कानून में अखण्ड विश्वास
9. अनामता
10. निष्पक्ष व्यवहार
11. जवाबदेहिता
12. गोपनियता कानून का पालन
13. मानवीय दृष्टिकोण
14. कार्यकुशलता
15. विश्वसनीयता
16. समय पालन आदि ।
प्रशासनिक नैतिकता का महत्व (Importance of Administrative Ethics):
प्रशासनिक नैतिकता की जरूरत निम्नांकित कारणों से महत्व रखती है:
(i) इससे लोक सेवकों को प्राप्त शक्तियों को सही दिशा में रखने में मदद मिलती है ।
(ii) यह शक्तियों के दुरूपयोग पर निबंर्धन लगाती है ।
(iii) यह लोक सेवकों में कर्त्तव्य परायणता और जवाबदेही सुनिश्चित करती है ।
(iv) इससे लोक सेवा के व्यवहार का आदर्शीकरण होता है जो जनता में शासन-प्रशासन की छवि को श्रेष्ठ बनाता है ।
(v) इससे प्रशासनिक कार्यकुशलता की प्राप्ति में भी मदद मिलती है ।
(vi) लोक सेवकों को कर्त्तव्य बोध होता है ।
(vii) नागरिक-प्रशासन तथा राजनीति-प्रशासन के मध्य संबंधों को सुदृढ़ करने में मदद मिलती है ।
(viii) प्रशासन को संवेदनशील बनाने के लिए भी नैतिकता जरूरी है जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा है- ”मैं तुम्हें एक जन्तर देता हूं । जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम् तुम पर हावी होने लगे, तो यह कसौटी आजमाओं-जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद को और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा ।”
प्रशासनिक नैतिकता के कारक (Causes and Limitation of Administrative Ethics):
प्रशासनिक नैतिकता को निर्धारित करने वाले कारक:
1. समाज का नैतिक स्तर और नैतिकता के स्थापित सामाजिक मानक प्रशासनिक नैतिकता के महत्वपूर्ण निर्धारक होते है ।
उदाहरण के लिए पश्चिमी विकसित देशों के लोक सेवकों में विकासशील देशों के लोक सेवकों की अपेक्षा नैतिकता का उच्च स्तर पाया जाता है ।
2. प्रशासन में स्थापित परंपराएं और पूर्व स्थापित दृष्टांत नैतिकता सुनिश्चित करने का दूसरा महत्वपूर्ण आधार होता है ।
3. प्रशासन में आनुशासनिक कार्यवाही का स्वरूप और उसकी प्रभावशीलता तीसरा प्रमुख आधार है ।
4. प्रशासन के प्रति राजनेताओं का दृष्टिकोण ।
5. राजनीतिक नैतिकता ।
6. लोक सेवकों की सेवा शर्तों का स्वरूप ।
7. प्रशासन में पाये जाने वाले औपचारिक-अनौपचारिक संबंधों का स्वरूप ।
8. संगठन में संवाद और संप्रेषण की स्थिति ।
9. व्यावसायिक चेतना विकास हेतु उपलब्ध अवसरों की स्थिति जैसे प्रशिक्षण कार्यक्रम आदि ।
10. जन जागरूकता का स्तर ।
11. प्रशासन के प्रति जन-दृष्टिकोण ।
बाधाएं:
1. राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव,
2. राजनीतिक का पथ भ्रष्ट होना,
3. समाज की उदासीनता,
4. भ्रष्टाचार,
5. पक्षपात और भाई भतिजावाद,
6. नौकरशाही प्रवृत्ति,
7. गलत परंपराएं,
8. ब्यूरों फिलासफी अर्थात् विभाग-वाद,
9. राजनीति-प्रशासन गठजोड़,
10. प्रशासन का अहमवाद,
11. बाहरी दबाव ।
अंतत: सरदार पटेल का यह कथन प्रासंगिक है कि- ”एक प्रशासन का हृदय उसके मस्तिष्क में होना चाहिए ।”
नियोक्ता-कर्मचारी सम्बन्ध (Employer-Employee Relationship):
नियोजक से तात्पर्य कार्मिकों को रोजगार और सेवा में रखकर उन्हें बदले में वेतन आदि देने वाली एजेन्सी से है । राज्य सदैव से कार्मिकों के लिए सबसे बड़ा नियोजक रहा है । आधुनिक राज्यों के विस्तृत कार्यभारों ने लोक सेवा का आकार इतना बढ़ा दिया है, कि एक नियोजक की भूमिका में राज्य अति महत्वपूर्ण बन गया है ।
यद्यपि निजी क्षेत्रों के संगठनों में कुल कार्मिकों की संख्या बहुत अधिक होती हैं, लेकिन एक अकेले संगठन के रूप में तो यह राज्य ही है, जो लाखों कार्मिकों की नियोजन अपनी सेवा की पूर्ति हेतु करता है । नियोजक और उसके कार्मिकों के महत्व उपयुक्त संबंधों की स्थापना दोनों के लिए बेहद आवश्यक हैं ।
यह द्विपक्षीय लेन-देन पर आधारित हैं । नियोजक कार्मिकों से बेहतर कार्य परिणाम की आशा रखता है, और कार्मिक नियोजक से अच्छा वेतन उपयुक्त कार्य दशाऐ, बोनस अन्य लाभ आदि की आशा करते हैं । राज्य और उसके कार्मिकों के मध्य होने वाले विवाद वस्तुत: इन आधारों पर बेहतर संबंधों की ही एक तलाश है ।
विद्वानों ने नियोक्ता- कार्मिकों के संबंधों को एक पक्षीय दृष्टि से ही देखता है । कार्मिक दृष्टिकोण से अर्थात् कार्मिकों के संघ बनाने, हड़ताल करने के अधिकार उनके अन्य दावों का निपटारा करने की व्यवस्था । वस्तुत: नियोक्ता के कार्मिकों पर नियंत्रण, अनुशासनिक कार्यवाहियों आदि के अधिकारों को भी इन संबंधों में स्थान दिया जाना चाहिए क्योंकि ये बाते भी दोनों के मध्य संबंधों को निर्धारित करती ही हैं । कार्मिकों के अधिकारों के साथ ही, नियोक्ता के अधिकारों का भी संगठन की कुशलता का और उसकी उद्देश्य प्राप्ति में उतना ही महत्व हैं ।
नियोक्ता-कर्मचारी सम्बन्धों से आशय इन संबंधों के स्वरुप-निर्धारण से है:
1. नियोक्ता के कर्मचारी के प्रति क्या दायित्व है ?
2. कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य विवादों को किस प्रकार निपटाया जाए ?
3. कार्मिकों को संघ बनाने एवं हड़ताल का अधिकार किस सीमा तक हो ?
4. कार्मिकों के राजनीतिक अधिकारों का निर्धारण ?
कार्मिक संघवाद (Civil Unionism):
निजी और सरकारी दोनों कार्मिकों द्वारा अपनी ”यूनियनें” निर्मित की जाती हैं । सरकारी कार्मिकों की यूनियनों की प्रक्रिया जटिल है और उस पर अधिक नियंत्रण लगाए गए है क्योंकि सरकारी सेवकों की सेवाएं समाज और राज्य की स्थिरता और व्यवस्था के लिए अत्यावश्यक श्रेणी की होती है ।
यहां सरकारी सेवकों के संघों की ही चर्चा करेंगे, जिन्हें उनकी प्रकृति, कार्य आदि के आधार पर दो भागों में बांटा जाता है- व्यावसायिक संघ और ट्रेड यूनियन्स ।
1. व्यावसायिक संघ और मण्डल (Business Association and Board):
यह वस्तुत: नीजि और व्यावसायियों द्वारा गठित किए जाते रहे हैं । लोक सेवकों ने भी अपने पेशेगत व्यवसाय के आधार पर इन्हें निर्मित करना किया जैसे- सरकारी डाक्टर्स एसोसिएशन, पी.डब्ल्यू.डी. इंजीनियर्स एसोसियन के संघ । इनका उद्देश्य समान पेशे से जुड़े सदस्यों के मध्य जीवंत संबंधों की स्थापना करना हैं, तथा अपने व्यवसाय के प्रति सरकारी दृष्टिकोण की समालोचना करते हैं, तथा सरकार को ज्ञापन, सुझाव मंत्रणा आदि देते हैं ।
लेकिन व्यावसायिक संघ और हड़ताल आदि नहीं करते हैं । इस तरीके नहीं अपनाते हैं । उनकी वेतन वृद्धि, पदोन्नति आदि जैसे बातों में इतना दिलचस्पी नहीं होती, जिनका ट्रेड यूनियन्स की होती हैं । व्यावसायिक संघों का ही गठन किया गया था और इनकी अनुसरण से ही आन्दोलन का जन्म हुआ ।
2. ट्रेड यूनियन्स (Trade Unions):
इनका जन्म ही इस भावना का परिणाम रहा है, कि नियोक्ता शोषक होता है, और बिना डर या दबाव के वह कार्मिकों हितों के लिए कुछ नहीं करता । उनका मुख्य उद्देश्य होता है- अपने वेतन, भत्तों, सेवा- शर्तो, कार्यदिशाओं और अन्य सुविधाओं में निरंतर वृद्धि प्राप्त करना ।
इस हेतु वे मांग करते हैं, और सरकार (या निजी प्रबंध) भी उन्हें नहीं मानती हैं, तो वे उग्र तरीके हड़ताल, तोड़फोड़ भी अपनाते हैं । वस्तुत: सरकारी, ट्रेड यूनियन्स, निजी क्षेत्रों के मजदूर यूनियन्स की कार्बन कापी होते हैं । यदि देखा जाए तो नियोक्ता, कार्मिक संबंधों को प्रभावित करने में ट्रेड यूनियन्स का ही अधिक योगदान रहता है । ट्रेड यूनियन्स सामान्यतया अधिनस्थ कार्मिकों (तृतीय, चतुर्थ श्रेणी) की होती हैं ।