Read this article in Hindi to learn about:- 1. स्थानीय शासन का अर्थ और अवधारणा (Meaning and Concepts of Local Governance) 2. स्थानीय शासन का परिभाषाएं (Definitions of Local Governance) 3. प्राचीन भारत में स्वशासन परंपरा (Autonomous Tradition in Ancient India) and Other Details.
स्थानीय शासन का अर्थ और अवधारणा (Meaning and Concepts of Local Governance):
प्राचीन भारत में केन्द्रीय सत्ताओं ने स्थानीय शासन में कभी हस्तक्षेप नहीं किया और ये संस्थाएं स्थानीय उत्तरदायित्व के आधार पर अपने क्षेत्रों का प्रबन्ध पूर्ण स्वायत्तता के साथ करती रहीं, जैसे- चोलो की वरियम प्रणाली । किंतु आधुनिक युग में अंग्रेजों द्वारा पंचायती भावना को नष्ट कर दिया गया ।
स्वतन्त्र भारत में प्रारंभिक असफल प्रयासों के बाद स्थानीय स्वाशासन संस्थाओं को संवैधानिक रूप से सशक्त बनाया गया है । विश्व के अन्य देशों में भी स्थानीय शासन मौजूद है । फ्रांस में इसे स्थानीय प्रशासन, अमेरिका में म्यूनिसिपल शासन और भारत में स्थानीय शासन कहा जाता है ।
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उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश काल में लिये ”स्थानीय स्वशासन” और ”स्वायत्त शासन” नामक दो शब्दों का प्रयोग किया जाता था । भारतीय संविधान में स्थानीय शासन शब्द का प्रयोग किया गया है ।
स्थानीय शासन जनता द्वारा अपने लिए किया जाना स्वयं निर्देशित शासन है । यह लोकतन्त्र की आधारभूत होती है, जिसकी मान्यता है कि सत्ता जनता में होती है । भारत में प्राचीनकाल से स्थानीय स्वशासन की नागरिक प्रबन्ध में महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जो अब स्वतन्त्र भारत में संवैधानिक रूप से लागू है ।
स्थानीय शासन का परिभाषाएं (Definitions of Local Governance):
शब्दकोष ब्रिटेनिका के अनुसार- ”स्थानीय शासन का अर्थ है- एसी सत्ता जो पूर्ण राज्य की अपेक्षा एक भीतरी प्रतिबंधित छोटे क्षेत्र के लिये निर्णय लेती और लागू करती है ।”
डॉ. आर्शीवादम- ”स्थानीय स्वशासन केन्द्रीय अधिनियम द्वारा निर्मित ऐसी ग्रामीण या नगरीय प्रशासन इकाई है, जिसमें चुने हुऐ प्रतिनिधि तय सीमा के अंतर्गत अधिकारों का प्रयोग लोक कल्याण हेतु करते हैं ।”
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जी.डी.एच. कोल- ”स्थानीय शासन अर्थात ऐसा शासन जो अपने सीमित क्षेत्र में प्राप्त अधिकारों का उपयोग करता है ।”
डा.एम.पी. शर्मा- ”स्थानीय शासन से आशय है, जनता द्वारा अपने निकट के केन्द्रों से अपने लिये किया जाने वाला शासन ।”
स्थानीय शासन का प्राचीन भारत में स्वशासन परंपरा (Local Governance of Autonomous Tradition in Ancient India):
a. भारत में स्वशासन की परंपरा अत्यंत प्राचीन है । वस्तुत: भारत सदैव से गांवों का देश रहा है और गांव स्थानीय शासन की धुरी ।
b. प्रो. अल्टेकर ”प्राचीन भारत के इतिहास” में लिखते हैं कि- ”अति प्राचीन काल से ही भारत में ग्राम ”शासन व्यवस्था” की धुरी रहे हैं ।”
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c. गांव और स्थानीय शासन का गहरा संबंध है । लेकिन जो गांव बाद में नगर हुऐ वहां भी यह संबंध बना रहा और इसीलिये भारतीय गांव और नगर दोनों में स्वशासन की परंपरा बनी रही ।
d. चार्ल्स मैटकाफ ने 1830 में भारतीय गांवों को ”लघु गणराज्य” कहा था । (मैटकाफ भारत के गवर्नर जनरल रह चुके हैं ।)
e. मेगस्थनीज के अनुसार- ”भारतीय ग्राम छोटे-छोटे आत्मनिर्भर गणराज्य थे ।”
f. उल्लेखनीय है कि सिकंदर के भारत पर आक्रमण के समय (326 बी सी) को उसके यूनानी लेखकों ने पंजाब में नगरीय शासन का उल्लेख किया है । नगर प्रमुख ”सर्वथा चिंतन” नामक अधिकारी होता था ।
g. चाणक्य ने अर्थशास्त्र में पाटलीपुत्र में नगरीय शासन की संस्था ”पौरा जनपद” का उल्लेख किया है । इसका प्रमुख ”नागरक” था ।
स्थानीय शासन का ब्रिटिश कालीन स्वशासन (Local Governance of British Time Autonomy):
ब्रिटिश काल में स्वशासन की कमर लगभग टूट चुकी थी । फिर भी इस दिशा में कुछ छूट-फुट प्रयास हुए ।
विद्वानों ने इन प्रयासों के आधार पर ब्रिटिश कालीन स्वशासन को चार चरणों में रखा है:
(1) प्रथम चरण (1687-1880) (First Round):
इस चरण से संबंधित प्रमुख घटनाएं और तथ्य इस प्रकार हैं:
i. 1687 में सम्राट जेम्स द्वितीय के आदेश से मद्रास नगर निगम की स्थापना । यह भारत में स्थापित पहला नगर निगम था ।
ii. 1720 में एक और आदेश द्वारा मद्रास, बंबई और कलकत्ता तीनों प्रेसीडेंसियों में ”मेयर कोर्ट” की स्थापना की गयी । अर्थात मेयर को न्यायिक अधिकार भी प्राप्त थे ।
iii. 1792 के अधिनियम के तहत 1793 में उक्त तीनों प्रेसीडेंसियों में महानगर निगम स्थापित हुऐ ।
iv. 1793 के चार्टर एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल (परिषद सहित) को उक्त तीनों प्रेसीडेंसियों में शांति न्यायधीश की नियुक्ति का अधिकार दिया गया । यह ब्रिटिश या राजनयिक सिविल अधिकारी होना था और इसे अधिकार था कि नगरों की स्वच्छता के लिये ग्रहकर या भूमिकर लगा सके ।
v. 1842 के अधिनियम से बंगाल में नगर सफाई समितियों का गठन हुआ । इसे 1850 में सभी प्रांतों में लागू कर दिया गया ।
vi. 1863 में प्रांतीय सरकारों को सफाई, प्रकाश, पेयजल हेतु नगर समितियों के गठन के अधिकार दिये गये ।
vii. 1870 में मेयो का विकेन्द्रीकरण प्रस्ताव आया । इसके द्वारा केन्द्र से सत्ता का प्रांतों को हस्तांतरण हुआ । भारतीयों को प्रशासन में भागीदार बनाने हेतु नगरीय स्वशासन को स्थापित करने की बात की गयी । इसका आधार निर्वाचन होना था । नगरपालिका अधिनियम, 1870-71 पारित हुआ जिसके अंतर्गत वित्त का भी विकेन्द्रीयकरण किया गया ।
(2) द्वितीय चरण (1882-1915) (Second Phase):
इस चरण की शुरूवात वायसराय लार्ड रिपन के सुधारों से होती है । रिपन ने ही सर्वप्रथम निर्वाचन को स्वशासन का आधार बनाया । उसे ठीक ही ”स्वशासन का पिता” कहा जाता है ।
रिपन प्रस्ताव, 1882 (Ripon Proposal, 1882):
लार्ड रिपन ने 1882 में स्वशासन अधिनियम पारित करवाया ।
जिसके प्रमुख प्रावधान थे:
1. स्थानीय प्रशासन के सदस्य तथा अध्यक्ष गैर-सरकारी तथा निर्वाचित होंगे ।
2. स्थानीय प्रशासन इकाईयों पर राज्य का नियंत्रण प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष होगा (अर्थात भीतर की अपेक्षा बाहर से हो) ।
3. अपने कार्यों को करने के लिये स्थानीय प्रशासन इकाईयों को आय के कुछ स्थानीय साधन तथा प्रांतीय सरकार द्वारा अनुदान देने की व्यवस्था होनी चाहिए ।
4. स्थानीय प्रशासन के अधीन कार्य करने वाले अधिकारियों तथा उनको दिये गये राज्य कर्मचारियों पर स्थानीय प्रशासन का नियंत्रण होगा ।
5. अपने-अपने क्षेत्रों की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रांतीय सरकारें उचित विधेयक पारित करेंगी ।
राजकीय आयोग 1997 (Government Commission):
1907 में ”विकेन्द्रीयकरण” की दशा पर विचारार्थ राजकीय आयोग का गठन हुआ जिसका उद्देश्य केन्द्र, प्रांत और स्थानीय संस्थाओं के परस्पर प्रशासनिक, वित्तीय संबंधों की जांच कर सुझाव देना था । 1911 में पंजाब ने आयोग की सिफारिश के आधार पर नया म्यूनिसिपल एक्ट पारित किया । बाद में अन्य प्रांतों ने भी ऐसा किया ।
(3) तृतीय चरण (1918-1974) (Third Phase):
1914 से शुरू विश्व युद्ध के साये में भारतीय राजनीति ने नयी करवट ली । एनीबेसेंट और लोकमान्य तिलक ने ”स्वशासन” आंदोलन छेड़ा जो स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक भारतीयों को स्वशासन देने की मांग कर रहा था ।
मांटेग्यू घोषणा, 1947 (Montage Announcement):
भारत मंत्री मांटेग्यू ने ऐसी परिस्थितियों में घोषणा की, कि- ”अंग्रेजों का उद्देश्य भारतीयों को उत्तरदायी शासन की दिशा में ले जाने का है । जहां तक संभव होगा स्थानीय शासन पर जनता को संपूर्ण नियंत्रण सौंपा जाएगा ।”
केन्द्रीय प्रस्ताव, 1918 (Central Proposal):
उक्त घोषणा को क्रियान्वित करने की दिशा में केन्द्रीय सरकार ने एक प्रस्ताव 16 मई 1918 को पारित किया ।
जिसके प्रमुख प्रावधान थे:
a. नगरीय निकायों में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत होगा ।
b. मताधिकार की योग्यता में कमी की जाएगी ।
c. जिला बोर्ड का अध्यक्ष गैर सरकारी होगा ।
d. बोर्डों को सीमा के भीतर रहते हुऐ स्थानीय कर लगाने की शक्ति होगी ।
e. बाहरी नियंत्रण कम होगा ।
f. बोर्डों में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति के पूर्व सरकारी स्वीकृति जरूरी होगी ।
लेकिन ये सुधार पर्याप्त रूप से लागू नहीं हो पाये ।
भारत शासन अधिनियम, 1919 (Government of India Act, 1919):
इस अधिनियम ने राज्यों में द्वैध शासन स्थापित किया । इसमें निर्वाचित मंत्रियों के अधीन स्थानीय प्रशासन रखा गया ।
i. इस एक्ट ने मात्र स्थानीय संस्थाओं के द्वारा लागू करने वाले करों की एक सूची निर्धारित कर दी ।
ii. स्थानीय संस्थाओं के कार्य क्षेत्र में वृद्धि हुई ।
iii. अनेक प्रांतों ने स्थानीय शासन को अधिक स्वायत्त और शक्तिशाली बनाया ।
iv. मताधिकार की योग्यता में कमी की गयी ।
v. अनेक रियासतों में भी स्थानीय शासन संस्थाएं पहली बार स्थापित हुईं यद्यपि उनका स्वरूप उतना लोकतांत्रिक नहीं था ।
vi. इस चरण में नगरीय संस्थाएं कमजोर हुईं ।
(4) चतुर्थ चरण (1937-1947) (Fourth Stage):
1935 के भारत शासन अधिनियम ने राज्यों में द्वेध शासन समाप्त किया । प्रांतों ने स्थानीय शासन को भी नियंत्रण मुक्त कर अधिक स्वायत्त बनाने के प्रयास किये ।
इस चरण के कदम हैं:
1. नामांकन व्यवस्था समाप्त कर मात्र निर्वाचन व्यवस्था ।
2. मताधिकार की योग्यता में कमी करना ।
3. नीति निर्माण और नीति क्रियान्वयन को पृथक करना ।
4. मध्य भारत में स्थानीय प्रशासन से संबंधित जनपद योजना लागू करने का प्रावधान जो 1948 में ही लागू हो पायी । इस चरण में सुधार के वास्तविक प्रयास हुऐ और संस्थाओं की प्रशासनिक क्षमता बड़ी ।
स्वतंत्र भारत में स्थानीय शासन (Local Government in Independent India):
प्रारंभ में भारतीय संविधान में स्थानीय शासन को संवैधानिक रुप से अनिवार्य नहीं बनाया गया । उसमें मात्र केन्द्र और राज्य दो अनिवार्य शासन-स्तरों का उल्लेख हुआ ।
”स्थानीय शासन” के बारे में मूल संविधान के अंतर्गत दो स्थानों पर उल्लेख आया था:
1. राज्य के नीति निदेशक तत्वों (भाग-4) के अंतर्गत अनुच्छेद 40 में कहा गया कि राज्य ग्राम पंचायतों के गठन की दिशा में कदम उठाएगा और उन्हें इतनी शक्ति प्रदान की जाएगी कि वे स्वशासन की सशक्त इकाईयां बन सकें ।
2. सातवीं अनुसूची में दर्ज 3 अनुसूचियों में से एक अर्थात् राज्य सूची में ”स्थानीय शासन” को रखा गया । अर्थात् यह राज्यों का विषय है ।
मध्यभारत की जनपद योजना 1948 (Central Scheme of Central India, 1948):
1937 में निर्मित इस योजना को कतिपय संशोधन के साथ 1948 में मध्य भारत (सेंट्रेल प्राविन्स) में लागू किया गया ।
जिसकी विशेषताएं थी:
a. जिला स्तर पर दोहरी प्रशासनिक व्यवस्था की समाप्ती । जिला प्रशासन और स्थानीय प्रशासन की दोहरी व्यवस्था को समाप्त कर ”जिला बोर्ड” को जिला स्तर पर प्रमुख एजेन्सी बनाया गया ।
b. जिला बोर्ड को जिले के समस्त नगरीय और ग्रामीण स्वशासन के लिये उत्तरदायी बनाया गया ।
c. कलेक्टर बोर्ड का मुख्य कार्यपालन अधिकारी बना और अन्य जिला कार्मिक बोर्ड के कार्मिक बना दिये गये ।
d. प्रशासन का केंद्र जिला के स्थान पर जनपद (जो तहसील को दिया गया नया नाम था) को बनाया गया । यह वस्तुत: गांवों का समूह था । इसकी निर्वाचित परिषद ”जनपद सभा” कहलाती थी । जनपद सभा ग्रामीण और नगरीय दोनों के स्थानीय प्रशासन पर नियंत्रण रखती थी ।
e. जिला स्तर के विषयों को 3 भागों में विभक्त किया गया- प्रथम वे विषय जिन पर मात्र बोर्ड ही विचार और निर्णय कर सकता था । द्वितीय वे विषय जिन पर मात्र जिला कलेक्टर विचार कर सकता था और तृतीय वे जिन पर बोर्ड और कलेक्टर संयुक्त रूप से निर्णय कर सकते थे ।