Read this article in Hindi to learn about the constitutional context of Indian administration.
संविधान किसी देश का सर्वोच्च कानून होता है । इसमें उन अभूत सिद्धांतों का वर्णन होता है जिन पर किसी देश की सरकार और प्रशासन की प्रणाली टिकी होती है ।
भारतीय प्रशासन के संवैधानिक संदर्भ का आशय भारतीय प्रशासन के उन विधिक और राजनीतिक ढाँचों से है जिनका निर्धारण भारतीय संविधान द्वारा किया गया है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि भारतीय प्रशासन की प्रकृति संरचना शक्ति और भूमिका भारतीय संविधान के सिद्धांतों और प्रावधानों द्वारा निर्धारित एवं प्रभावित है ।
भारतीय संविधान की रचना कैबिनेट मिशन योजना के प्रावधानों के तहत वर्ष 1946 में गठित संविधान सभा द्वारा की गई थी । इस संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद थे – डॉ. बी. आर. अंबेडकर उस सात सदस्यीय प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे जिसने संविधान का प्रारूप तैयार किया था । संविधान सभा ने संविधान के निर्माण में 2 वर्ष 11 माह और 18 दिन का समय लिया ।
ADVERTISEMENTS:
भारतीय संविधान 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया तथा 26 जनवरी, 1950 से प्रभावी हुआ था । इसी दिन से भारत एक गणतंत्र बन गया । भारतीय संविधान विश्व के लिखित एवं विस्तृत संविधानों में से एक है । मूलतः इस संविधान में 22 अध्याय, 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियाँ थीं । वर्तमान में इसमें 24 अध्याय लगभग 450 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ शामिल हैं ।
संविधान की प्रस्तावना द्वारा भारत को संप्रभुतासम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है । इसके अतिरिक्त संविधान के उद्देश्यों के रूप में न्याय स्वतंत्रता समानता और भाइचारे की भावना को प्रमुखता प्रदान की गई है । संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को 42वीं संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा जोड़ा गया ।
भारतीय प्रशासन के संवैधानिक संदर्भ के विभिन्न पहलुओं की व्याख्या निम्नलिखित शीर्षकों के तहत की गई है:
(i) मौलिक अधिकार
ADVERTISEMENTS:
(ii) राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत
(iii) मौलिक कर्तव्य
(iv) संघीय प्रणाली
(v) केंद्र-राज्य के बीच विधायी संबंध
ADVERTISEMENTS:
(vi) केंद्र-राज्य के बीच प्रशासनिक संबंध
(vii) केंद्र-राज्य के मध्य वित्तीय संबंध
(viii) संसदीय प्रणाली
(ix) संविधान-एक झलक
(x) संविधान की अनुसूचियां
मौलिक अधिकार (Fundamental Rights):
मौलिक अधिकारों का उल्लेख संविधान के भाग III में अनुच्छेद 12 से 35 में है । संविधान निर्माताओं को इस संदर्भ में संयुक्त राज्य अमरीका के संविधान (बिल ऑफ राइट्स) से प्रेरणा मिली थी । संविधान में भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी दी गई है । इसका आशय दो चीजों से है- पहला, संसद इन अधिकारों को निरस्त या कम केवल संविधान में संशोधन करके ही कर सकती है और यह संशोधन संविधान की धारा 368 में उल्लिखित क्रियाविधि के अनुसार ही किया जा सकता है ।
दूसरे, इन अधिकारों के संरक्षण का उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय पर है । अर्थात मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिए पीड़ित व्यक्ति सीधे सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है । ये अधिकार हालांकि औचित्यपूर्ण है, परंतु निरपेक्ष नहीं । सरकार इन पर न्यायोचित प्रतिबंध भी लगा सकती है परंतु इन प्रतिबंधों के औचित्य या अनौचित्य का निर्धारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया जाता है । ये अधिकार राज्य द्वारा अतिक्रमण किए जाने के विरुद्ध नागरिकों की स्वतंत्रताओं और अधिकारों की सुरक्षा करते हैं ।
संविधान के अनुच्छेद 12 के अनुसार ‘राज्य’ के अंतर्गत भार । सरकार संसद तथा राज्यों की सरकारें, विधान सभाएँ तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकरण शामिल हैं ।
सभी न्यायालय किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने वाले विधायिका के कानूनों और कार्यपालिका के आदेशों को असंवैधानिक और गैर कानूनी घोषित कर सकते हैं (अनुच्छेद 13) । मौलिक अधिकार राजनीतिक प्रजातंत्र के आदर्शों को बढ़ावा देने और देश में अधिनायकवादी शासन की प्रवृत्ति को रोकने के लिए हैं । संविधान में, मूलतया, सात मौलिक अधिकारों का प्रावधान था । संविधान के वे संशोधन अधिनियम 1978 के माध्यम से मौलिक अधिकारों की सूची से ‘संपत्ति के अधिकार’ को हटा दिया गया है ।
इसलिए अब केवल 6 मौलिक अधिकार हैं यथा:
समता का अधिकार:
(i) कानून (विधि) के समक्ष समानता अथवा समान कानूनी संरक्षण (अनुच्छेद 14)
(ii) धर्म मूल जाति लिंग और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध (अनुच्छेद 15)
(iii) लोक नियोजन के मामलों में अवसर की समानता (अनुच्छेद 16)
(iv) अस्पृश्यता (छुआछूत) का अंत तथा इस प्रकार के किसी भी आचरण पर रोक (अनुच्छेद 17)
(v) पदवियों का अंत (सैन्य और शैक्षिक उपाधियों को छोड़कर) (अनुच्छेद 18)
स्वतंत्रता का अधिकार:
(i) सभी नागरिकों को:
(क) वाक-स्वतंत्रता (बोलने की आजादी) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
(ख) शांतिपूर्ण और नि:शस्त्र सम्मेलन की स्वतंत्रता
(ग) संगठन या संघ बनाने की स्वतंत्रता
(घ) भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र स्वतंत्र रूप से घूमने-फिरने की स्वतंत्रता
(ड) भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में बसने और रहने की स्वतंत्रता
(च) कोई व्यवसाय, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त होगा ।
(ii) अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण (अनुच्छेद 20)
(iii) जीवन और स्वतंत्रता (व्यक्तिगत) का संरक्षण (अनुच्छेद 21)
(iv) कुछ स्थितियों में गिरफ्तारी और नजरबंदी से संरक्षण (अनुच्छेद 22)
शोषण के विरुद्ध अधिकार:
(i) मानव की तस्करी और बलातश्रम पर प्रतिबंध (अनुच्छेद 23)
(ii) कारखानों और खदानों में 14 वर्ष से कम आयु के बालकों के नियोजन पर निषेधात्मक प्रतिबंध (अनुच्छेद 24)
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार:
(i) अंत: करण और धर्म को मानने आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25)
(ii) धार्मिक आयोजनों की आजादी (अनुच्छेद 26)
(iii) किसी धर्म विशेष की अभिवृद्धि के लिए करों के भुगतान संबंधी स्वतंत्रता (अनुच्छेद 27)
(iv) शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा प्राप्ति या धार्मिक उपासना की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 28)
सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार:
(i) भाषा, लिपि और सांस्कृति के संबंध में अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण (अनुच्छेद 29)
(ii) शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और उन पर प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार (अनुच्छेद 30)
संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32):
(i) मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिए उच्चतम न्यायालय का आश्रय लेने के अधिकार की गारंटी है ।
(ii) उच्चतम न्यायालय को निर्देश या आदेश या रिट जिनमें बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट शामिल हैं, जारी करने की शक्ति प्राप्त होंगी ।
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy):
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का उल्लेख संविधान के भाग प में अनुच्छेद 36 से 51 में किया गया है । यह श्रेष्ठ विचार आयरलैंड के संविधान से प्रेरित है । देश पर प्रशासन के लिए ये सिद्धांत मौलिक हैं, इसलिए कानून बनाते समय इनके अनुपालन की जिम्मेदारी राज्य की है ।
ये सिद्धांत मौलिक अधिकारों से निम्नलिखित संदर्भ में अलग हैं:
(i) मौलिक अधिकारों का औचित्य सिद्ध किया जा सकता है जबकि निर्देशक सिद्धांतों का औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता इसलिए इन सिद्धांतों के उल्लंघन होने पर न्यायालय द्वारा उन्हें लागू नहीं करवाया जा सकता ।
(ii) मौलिक अधिकारों का उद्देश्य राज्य की कड़ी कार्यवाही से नागरिकों की रक्षा करके उन्हें राजनीतिक आजादी की गारंटी प्रदान करना है जबकि निर्देशक तत्त्वों का उद्देश्य राज्य द्वारा समुचित कार्यवाही के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक आजादी को सुनिश्चित करना है ।
निदेशक (निर्धारण) तत्त्वों को उनकी प्रकृति के आधार पर निम्नलिखित तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
(क) कल्याणकारी (समाजवादी) सिद्धांत
(ख) गांधीवादी सिद्धांत
(ग) उदारवादी-बौद्धिक सिद्धांत
कल्याणकारी (समाजवादी) सिद्धांत:
(i) लोगों में कल्याण की भावना को बढ़ावा देने के लिए समाज व्यवस्था को बनाए रखेगा (अनुच्छेद 38)
(ii) राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि:
(क) सभी नागरिकों को अपनी जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का समान अधिकार है,
(ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों पर स्वामित्व और नियंत्रण का विभाजन इस प्रकार का हो कि सर्वसाधारण का हित होता हो,
(ग) समाज के हित के लिए धनसंपदा का केंद्रीयकरण न हो ।
(घ) समान कार्य के लिए समान वेतन हो ।
(ड) श्रमिकों की शक्ति और स्वास्थ्य की सुरक्षा हो,
(च) बालकों और युवाओं को शोषण से सुरक्षा प्राप्त हो ।
(iii) रोजगार और शिक्षा पाने तथा बेरोजगारी वृद्धावस्था और ‘विकलांगता की स्थिति में सार्वजनिक सहायता पाने का अधिकार हो (अनुच्छेद 41)
(iv) कार्य की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं के अनुसार प्रसूति सहायता का प्रावधान हो (अनुच्छेद 42)
(v) सभी श्रमिकों के निर्वाह हेतु मजदूरी और कार्य की समुचित परिस्थितियों का प्रावधान हो (अनुच्छेद 43)
गांधीवादी सिद्धांत:
(i) ग्राम पंचायतों का गठन (अनुच्छेद 40)
(ii) कुटीर उद्योग को बढ़ावा (अनुच्छेद 43)
(iii) अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति और अन्य कमजोर वर्ग के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा (अनुच्छेद 46)
(iv) जीवन स्तर और पोषण की स्थिति में सुधार लाने की जिम्मेदारी तथा स्वास्थ्य के लिए हानिकर मादक द्रव्य पदार्थों के सेवन पर प्रतिबंध लगाकर जनस्वास्थ्य की स्थिति में सुधार लाने की जिम्मेदारी राज्य की (अनुच्छेद 47)
(v) कृषि और पशुपालन व्यवसाय को वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्थित किया जाना (अनुच्छेद 48)
(vi) राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण (अनुच्छेद 49)
उदार-बौद्धिक सिद्धांत:
(i) नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता (अनुच्छेद 44)
(ii) 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान (अनुच्छेद 50)
(iii) न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखा जाएगा (अनुच्छेद 50)
(iv) अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा दिया जाएगा (अनुच्छेद 51)
निदेशक सिद्धांत और 42वां संशोधन:
42वें संशोधन अधिनियम (1976) के माध्यम से उक्त सिद्धांतों में निम्नलिखित विषय भी शामिल किए गए:
(i) निर्धनों को समान न्याय और मुफ्त कानूनी सहायता
(ii) उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी (अनुच्छेद 43ए)
(iii) पर्यावरण संरक्षण तथा वन और वन्यजीव संरक्षण (अनुच्छेद 48ए)
(iv) बच्चों के विकास के अवसरों का सृजन (अनुच्छेद 39)
मौलिक कर्तव्य (Fundamental Duties):
मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख नहीं था । संविधान में मौलिक कर्तव्यों का समावेश स्वर्ण सिंह समिति की अनुशंसा पर यह, संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा किया गया । संविधान के भाग IVए के अनुच्छेद 51ए में 10 कर्तव्यों का उल्लेख है ।
ये कर्तव्य, निदेशक सिद्धांतों की तरह ही है जिनका औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता हैं – संविधान में इस प्रकार इन कर्तव्यों को प्रत्यक्ष लागू करने का कोई प्रावधान नहीं है । इसके अतिरिक्त इनके उल्लघंन पर सजा के तौर पर कानूनी कार्यवाही का प्रावधान भी नहीं है ।
संविधान के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह:
(i) संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करें;
(ii) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को संजोए रखे और उनका अनुपालन करें;
(iii) भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे;
(iv) देश की रक्षा करे और आह्वान पर राष्ट्र की तत्परता से सेवा करे;
(v) भारत के नागरिकों में समरसता-और भाइचारे की भावना का प्रसार करे जो धर्म भाषा और प्रदेश या वर्ग आधारित भेदभाव से परे हो तथा ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरूद्ध हैं;
(vi) भारत की मिली जुली संस्कृति की गौरवशाली-परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करे;
(vii) पर्यावरण अर्थात वन, झील, नदी और वन्यजीवन की रक्षा करे तथा प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव रखे;
(viii) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे;
(ix) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे;
(x) व्यक्तिगत एवं सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का निरंतर प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरंतर प्रगति करे और उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले ।
संघीय प्रणाली (Federal System):
भारतीय सविधान संघीय में सभी शक्तियों केंद्र सरकार में निहित होती हैं और राज्य सरकारें केंद्र सरकार से अपने प्राधिकार प्राप्त करती है । संघीय सरकार में संविधान के माध्यम से सभी शक्तियाँ केंद्र सरकार (राष्ट्रीय सरकार या संघीय सरकार) और राज्य सरकारों में बंटी होती हैं तथा दोनों सरकारें अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से कार्य करती है ।
भारतीय संविधान की संघीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
i. द्वैत नीति:
संविधान में द्वैत नीति का प्रावधान (दोहरी सरकार) है – जिसमें केंद्र स्तर पर संघ और क्षेत्र स्तर पर राज्य शामिल है ।
ii. शक्तियों का विभाजन:
संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार शक्तियों को केंद्र और राज्यों के मध्य संघ की सूची राज्य सूची और समवर्ती सूची के संदर्भ में बाँटा गया है ।
iii. लिखित संविधान:
भारत का संविधान एक लिखित संविधान है जो केंद्र तथा राज्य सरकारों दोनों के संगठन शक्तियों और सीमाओं को परिभाषित करता है ।
iv. सर्वोच्च संविधान:
संविधान देश का सर्वोच्च कानून है तथा केंद्र और राज्यों- के कानून संविधान के अनुरूप होना चाहिए ।
v. अनम्य संविधान:
भारतीय संविधान अनम्य संविधान है क्योंकि संघीय नीति (अर्थात केंद्र राज्य संबंध और न्यायिक संगठन) में केंद्र द्वारा कोई भी संशोधन अधिकांश राज्यों की स्वीकृति से किया जा सकता है ।
vi. स्वतंत्र न्यायपालिका:
भारतीय संविधान में उच्चतम न्यायालय को सर्वोपरि मानते हुए स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रावधान है । उच्चतम न्यायालय केंद्र और राज्यों अथवा राज्यों के मध्य विवाद का निपटान करता है । उच्चतम न्यायालय न्यायिक समीक्षा संबंधी अपनी शक्तियों का प्रयोग कर संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखता है अर्थात केंद्र और राज्य सरकारों के उन कानूनों और नियमों को अवैध करार दे सकता है जो संविधान के प्रावधान के विरुद्ध हो ।
vii. द्विसदनीय प्रणाली:
संघीय प्रणाली में दो सदन वाली विधायिका का प्रावधान है अर्थात उच्च सदन राज्यसभा और निचला सदन (लोकसभा) । राज्यसभा भारत संघ के राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है तथा लोकसभा पूरे भारतीय समाज का ।
उपर्युक्त संघीय विशेषताओं के अतिरिक्त संविधान की निम्नलिखित गैर-संघीय (या एकात्मक) विशेषताएँ भी हैं:
(i) केंद्र और राज्यों दोनों के लिए एक संविधान प्रणाली का प्रावधान (जम्मू और कश्मीर राज्य को छोड़कर जिसका अपना अलग संविधान है तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रावधानों के अनुसार इस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त है) है ।
(ii) संविधान द्वारा केंद्र को अधिक शक्तियाँ देकर केंद्र को पूरी-मजबूती प्रदान की गई है ।
(iii) संविधान में कठोरता की बजाय लचीलापन अधिक है क्योंकि इसके अधिकांश भाग को अकेले संसद द्वारा संशोधित किया जा सकता है ।
(iv) संसद साधारण बहुमत के माध्यम से भारतीय क्षेत्र तथा राज्यों की सीमाओं और नामों को बदल सकती है । (अनुच्छेद 3)
(v) राज्यसभा द्वारा राष्ट्र के हित में पारित प्रस्ताव पर संसद राज्यसूची के विषय से संबंधित कानून बना सकती है ।
(vi) संविधान के तहत एकल नागरिकता अर्थात सभी राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में सभी लोगों के लिए समान भारतीय नागरिकता का प्रावधान है ।
(vii) केंद्र और राज्य सरकारों के कानूनों को लागू करने के लिए उच्चतम न्यायालय की अध्यक्षता में एकीकृत एवं एकल न्यायिक प्रणाली का प्रावधान है ।
(viii) राज्यपाल को राज्य में सर्वोच्च दर्जा प्राप्त है जिसे राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय नियुक्त और पद से हटाया जा सकता है । राज्यपाल केंद्र के एजेंट के रूप में भी कार्य करता है । (अनुच्छेद 155 और 156)
(ix) भारतीय संघ के राज्यों का प्रतिनिधित्व राज्यसभा में असमान ढंग से अर्थात आबादी के आधार पर होता है ।
(x) संविधान में अखिल भारतीय स्तर की सेवाओं – भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा और भारतीय विदेश सेवा का प्रावधान है (अनुच्छेद 312) । इन सेवाओं के अधिकारी राज्य प्रशासन में उच्च पदों पर सेवाएँ प्रदान करते हैं तथा इनकी नियुक्ति और पदच्युति केंद्र द्वारा की जाती है ।
(xi) संविधान के माध्यम से राष्ट्रीय, प्रांतीय और वित्तीय आपातकाल के दौरान केंद्र को असाधारण शक्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं ।
(xii) संसदीय तथा विधानसभा चुनावों के लिए संविधान में केंद्र स्तर पर निर्वाचन तंत्र का प्रावधान है (अनुच्छेद 324) ।
(xiii) राज्यों के लेखाखातों की लेखापरीक्षा भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक द्वारा की जाती है । इनकी नियुक्ति और पदक्षति राष्ट्रपति द्वारा ही की जाती है ।
इस प्रकार, भारतीय संविधान पारंपरिक संघीय प्रणाली से अलग है जिसमें अनेक एकल और गैर संघीय तात्त्विक विशेषताएँ विद्यमान होने के साथ साथ केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं । तथापि, संविधान में ‘फेडरेशन’ (संघ) शब्द का प्रयोग कहीं नहीं हुआ है । दूसरी ओर संविधान के अनुच्छेद-I में भारत को ‘राज्यों का संघ’ बताया गया है ।
संविधानविद इससे प्रेरित होकर ही भारतीय संविधान के संधीय चरित्र को चुनौती देने का साहस कर सके हैं । प्रो. के. सी. व्हेयर ने भारतीय संविधान को ‘संघवत्’ बताते हुए टिप्पणी की है कि ‘भारतीय संघ एकल संघ है जिसमें सहायक एकल तत्व सहित संघीय राज्य की बजाय सहायक संघीय तत्व विद्यमान हैं ।’
इसी प्रकार, आइवर जेनिंग्स ने संविधान को ‘केंद्र उन्मुख प्रवृत्तियुक्त एक संघ’ माना है । ग्रेनविल आस्टिन ने भारतीय संघवाद को ‘सहकारी संघवाद’ बताया है । आस्टिन का मानना है कि यद्यपि भारतीय संविधान के माध्यम से सशक्त केंद्रीय सरकार का सृजन किया गया है फिर भी राज्य सरकारों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है अर्थात राज्य सरकारें न ही कमजोर हुई हैं और न ही केंद्र सरकार की नीतियों को कार्यरूप देने संबंधी प्रशासनिक एजेंसीमात्र का दर्जा प्राप्त हुआ है । डॉ. बी. आर. अंबेडकर के अनुसार – ”भारतीय राजनीतिक प्रणाली समय और परिस्थिति की अपेक्षानुसार एकीकृत और संघीय दोनों है ।”
केंद्र – राज्य विधियाँ संबंध (Centre-State Legislative Relations):
संविधान के अनुच्छेद 245 से 255 में भारतीय संघीय प्रणाली में केंद्र और राज्यों के मध्य विधायी संबंधों का उल्लेख है ।
इस विषय का उल्लेख कुछ और अनुच्छेदों में भी हुआ है जिनका विवरण इस प्रकार है:
केंद्र और राज्य के विधान की क्षेत्रीय विस्तार सीमा:
(i) संसद पूरे भारत अथवा भारत के किसी क्षेत्र के लिए कानून बना सकती है । भारतीय क्षेत्र के अंतर्गत राज्य संघ राज्यक्षेत्र और भारत क्षेत्र में फिलहाल के लिए शामिल किए गए अन्य क्षेत्र आते हैं ।
(ii) राज्य की विधानसभा पूरे राज्य अथवा राज्य के किसी भाग के लिए कानून बना सकती है । राज्य विधानसभा द्वारा बनाए गए कानून राज्य के बाहर लागू नहीं हो सकते हैं ।
(iii) ‘किसी क्षेत्र के बाहर के लिए विधान’ संसद ही बना सकती है । इस प्रकार संसद के कानून विश्व के किसी भी भाग में भारतीय प्रजा अर्थात लोगों और उनकी संपत्तियों पर लागू होते हैं ।
विधायी विषयों का विभाजन:
(i) संसद को इस आशय की विशेष शक्ति प्राप्त है कि संघ की सूची में निर्दिष्ट किसी विषय से संबंधित कानून बना सके । इस सूची में इस समय 99 विषय (मूलतः 97 विषय) शामिल हैं जिनमें मुख्य हैं – रक्षा, बैंकिंग, विदेश, मुद्रा, परमाणु, ऊर्जा, बीमा, संचार, अंतर्राज्यीय व्यापार और वाणिज्य आदि ।
(ii) राज्य की विधानसभा को सामान्य परिस्थितियों में इस आशय की विशेष शक्ति प्राप्त है कि राज्य की सूची में निर्दिष्ट किसी विषय से संबंधित कानून बना सके । इस सूची में इस समय 61 विषय (मूलतः 66 विषय) शामिल हैं जिनमें मुख्य हैं – कानून व्यवस्था और पुलिस, जन स्वास्थ्य, साफ-सफाई, कृषि, कारागार, स्थानीय शासन, मत्स्य पालन आदि ।
(iii) संसद और राज्य की विधानसभाओं-दोनों को इस आशय की शक्ति प्राप्त है कि समवर्ती सूची में निर्दिष्ट किसी भी विषय से संबधित कानून बना सकें । इसके अतिरिक्त इस सूची में निर्दिष्ट किसी विषय पर केंद्र और राज्य के कानूनों के मध्य विवाद की स्थिति में केंद्रीय कानून ही मान्य हैं न कि राज्य का कानून ।
समवर्ती सूची में इस समय 52 विषय (मूलतः 47 विषय) शामिल हैं जिनमें आपराधिक कानून और प्रक्रियाविधि, सिविल प्रक्रिया, विवाह और तलाक, वन, शिक्षा, आर्थिक और सामाजिक नियोजन, औषधियाँ, समाचारपत्र, पुस्तकें और मुद्रणालय और अन्य विषय ।
संविधान के 42वें संशोधन अधिनियम- 1976 के माध्यम से राज्य सूची में शामिल विषयों में से पाँच विषयों अर्थात शिक्षा वन माप और तौल वन्यजीव और पक्षियों का संरक्षण तथा न्याय प्रशासन और उच्चतम और उच्च न्यायालयों को छोड़कर सभी न्यायालयों के कार्यप्रबंध- को समवर्ती सूची में शामिल व स्थानांतरित किया गया है ।
(iv) संसद को इस आशय की भी विशेष शक्ति प्राप्त है कि उक्त तीनों सूचियों में से किसी भी सूची में शामिल न किए गए विषयों से संबंधित कानून बना सके । संविधान के अनुसार शेष शक्तियाँ केंद्र को प्राप्त हैं । इन शक्तियों में करारोपण संबंधी कानून बनाने (जिसका उक्त सूचियों में उल्लेख नहीं है) की शक्ति भी शामिल है । कोई विषय विशेष शेष शक्तियों के अंदर आता है या नहीं इसका निर्णय न्यायालय द्वारा किए जाने का प्रावधान है ।
राज्य सूची में शामिल विषयों से संबंधित कानून:
संसद द्वारा ही बनाया जाना:
संविधान के माध्यम से संसद को यह शक्ति प्रदान की गई है कि निम्नलिखित असामान्य परिस्थितियों में राज्य सूची में निर्दिष्ट किसी विषय से संबंधित कानून बना सके:
(i) राष्ट्र के हित में बशर्ते कि राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत के साथ प्रस्ताव पारित हो (अनुच्छेद 249) ।
(ii) राष्ट्रीय आपातकाल घोषित होने की स्थिति में (अनुच्छेद 250)
(iii) दो या दो से अधिक राज्यों द्वारा संसद से संयुक्त रूप से अनुरोध करने पर (अनुच्छेद 252)
(iv) अंतर्राष्ट्रीय समझौतों, संधियों और संगोष्ठियों को प्रभावी बनाने के लिए (अनुच्छेद 253)
(v) राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में (अनुच्छेद 356)
राज्य की विधानसभा पर केंद्र का नियंत्रण:
केंद्र का राज्य विधानसभा से जुड़े विषयों पर भी नियंत्रण है ।
विवरण निम्नवत् हैं:
(i) राज्यपाल, राज्य विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ रोक सकता है (अनुच्छेद 200 और 201) ।
(ii) राज्य सूची में शामिल विषयों से संबंधित विधेयक राष्ट्रपति के पूर्वानुमोदन से ही राज्य विधानसभाओं में लाए जा सकते हैं । उदाहरणार्थ – व्यापार और वाणिज्य की आजादी पर प्रतिबंध लगाने संबंधी विधेयक इसी श्रेणी में आते हैं (अनुच्छेद 304) ।
(iii) राष्ट्रपति, वित्तीय आपातकाल की स्थिति में राज्य विधानसभा द्वारा पारित मुद्रा विधेयक और अन्य वित्त विधेयकों को विचारार्थ रोक सकते हैं (अनुच्छेद 360) ।
केंद्र – राज्य के मध्य प्रशासनिक संबंध (Centre – State Administrative Relations):
देश में केंद्र और राज्यों के मध्य प्रशासनिक सम्बन्धों के विभिन्न पक्ष ये हैं:
केंद्र और राज्यों की कार्यकारी शक्तियों की सीमा:
(i) केंद्र की कार्यकारी शक्ति का विस्तार उन विषयों तक होगा संसद जिनसे संबंधित कानून बना सके तथा किसी संधि या समझौते के माध्यम से केंद्र द्वारा उपयोग में लाए जा सकने वाले अधिकार प्राधिकार और अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सके ।
(ii) राज्य की कार्यकारी शक्ति का विस्तार उन विषयों तक होगा जिनसे संबंधित कानून राज्य विधानसभा बना सके ।
(iii) किसी राज्य की कार्यकारी शक्ति का विस्तार समवर्ती सूची में शामिल उन विषयों तक भी होगा जिनसे संबंधित कानून राज्य विधानसभा और संसद दोनों बना सकें । तथापि इस संदर्भ में राज्य की कार्यकारी शक्ति संविधान द्वारा या संसद के किसी कानून द्वारा केंद्र को प्रदत्त कार्यकारी शक्ति पर निर्भर करेगी ।
केंद्र और राज्य की बाध्यता:
(i) प्रत्येक राज्य अपनी कार्यकारी शक्तियों का उपयोग संसद द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुरूप करेगा ।
(ii) केंद्र की कार्यकारी शक्ति के तहत उक्त आवश्यक प्रयोजन से किसी राज्य को निर्देश दिया जाना भी शामिल है ।
कुछ विषयों के संबंध में केंद्र का राज्यों पर नियंत्रण:
(i) राज्य अपनी कार्यकारी शक्तियों का उपयोग इस प्रकार करेंगे कि केंद्र की कार्यकारी शक्तियों की अवहेलना न हो । केंद्र की कार्यकारी शक्ति के तहत इस आवश्यक प्रयोजन से किसी राज्य को निर्देश दिया जाना भी शामिल है ।
(ii) केंद्र की कार्यकारी शक्तियों में यह भी शामिल है कि वह राज्य को राष्ट्रीय और सैन्य महत्व के संचार माध्यमों का निर्माण और अनुरक्षण करने तथा राज्य की सीमा में आने वाले रेलमार्गों की संरक्षा का उपाय करने संबंधी निर्देश दे सके ।
केंद्र द्वारा राज्यों पर कार्य की जिम्मेदारी:
(i) राष्ट्रपति संबद्ध राज्य की सहमति से उन विषयों से संबंधित कार्य की जिम्मेदारी उस राज्य पर डाल सकते हैं जिन विषयों के संदर्भ में केंद्र को कार्यकारी शक्ति प्राप्त हैं ।
(ii) संघ सूची में शामिल किसी विषय के संबंध में संसद द्वारा कानून के माध्यम से किसी राज्य पर शुल्क प्रभारित किए जाने के साथ-साथ शक्ति भी प्रदान की जा सकती है । अथवा इसके लिए राज्य की सहमति पर ध्यान दिए बिना केंद्र को प्राधिकृत किया जा सकता है ।
केंद्र पर राज्यों द्वारा कार्यभार की जिम्मेदारी डाला जाना:
किसी राज्य का राज्यपाल केंद्र की सहमति से उन विषयों से संबंधित कार्य की जिम्मेदारी केंद्र पर डाल सकता है जिन विषयों के संदर्भ में राज्य को कार्यकारी शक्ति प्राप्त है ।
जल विवाद:
संसद किसी अंतर्राज्यीय नदी और नदी घाटी के जल के उपयोग वितरण और नियंत्रण से संबंधित किसी विवाद के समाधान का प्रावधान कर सकती है । संसद यह प्रावधान भी कर सकती है कि ऐसे विवादों के संबंध में न ही उच्चतम न्यायालय द्वारा और न ही किसी दूसरे न्यायालय द्वारा अपने अधिकार का प्रयोग किया जाएगा ।
सार्वजनिक अधिनियम्, अभिलेख और न्यायिक कार्यवाही:
(i) भारत के पूरे क्षेत्र में सार्वजनिक अधिनियमों अभिलेखों और केंद्र तथा राज्यों की न्यायिक कार्यवाहियों को पूरे निष्ठाभाव से श्रेय दिया जाएंगा ।
(ii) सार्वजनिक अधिनियमों, अभिलेखों और न्यायिक कार्यवाहियों के औचित्य तथा प्रभावी परिणामों का निर्धारण करने के तरीकों तथा स्थितियों को संसद द्वारा तय किया जाएगा ।
(iii) भारत के पूरे क्षेत्र के किसी भाग में सिविल न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय और पारित आदेश कानून के अनुसार किसी भी भाग में लागू हो सकते है ।
अंतर्राज्यीय परिषद:
सविधान के अनुच्छेद 263 के तहत राष्ट्रपति अंतर्राज्यीय परिषद का गठन कर उसके कर्तव्यों, संगठन और क्रियाविधि का निर्धारण (परिभाषित) कर सकते है ।
इस परिषद को निम्नलिखित ढंग से सौंपे जाने वाले कार्यों का उल्लेख संविधान में किया गया है:
(i) राज्यों के मध्य विवाद की जाँच पड़ताल का परामर्श देना,
(ii) केंद्र और राज्य दोनों के लिए हितकर विषयों पर विचार विमर्श, और
(iii) विशेषतः नीति और कार्य के मध्य बेहतर तालमेल जैसे किसी भी विषय से संबंधित अनुशंसा करना ।
ऐसी एक परिषद का गठन राष्ट्रपति द्वारा वर्ष 1990 में केंद्र-राज्य संबंधों से संबद्ध सरकारिया आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर किया था ।
इस आयोग के अध्यक्ष प्रधानमंत्री (तत्कालीन) और सदस्यों में शामिल थे:
(i) विधानसभा वाले सभी राज्य और संघ राज्य क्षेत्रों के मुख्यमंत्री
(ii) बिना विधानसभा वाले संघ राज्य क्षेत्रों के प्रशासक
(iii) कैबिनेट स्तर के 6 केंद्रीय मंत्री जिसमें प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत गृहमंत्री भी शामिल थे । अंतर्राज्यीय परिषद आदेश 1990 में यह प्रावधान है कि परिषद एक वर्ष में कम से कम तीन बार बैठक करेगी ।
परिषद एक निकाय स्वरूप है जो अंतर्राज्यीय संबंधों केंद्र राज्य संबंधों और केंद्र संघ राज्य क्षेत्र के संबंधों से जुड़े विषयों से संबंधित अनुशंसाएँ करता है । परिषद का उद्देश्य ऐसे विषयों की जांच और इससे संबंधित विचार-विमर्श के द्वारा केंद्र राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों के मध्य तालमेल को बढ़ावा देना है ।
क्षेत्रीय परिषदें:
वर्ष 1956 के राज्य पुर्नसंगठन अधिनियम के द्वारा क्षेत्रीय परिषदों का गठन हुआ था । इस अधिनियम के माध्यम से देश को पांच क्षेत्रों में बांटा गया था और प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक क्षेत्रीय परिषद का प्रावधान किया गया था ।
पाँच क्षेत्र इस प्रकार हैं:
(i) उत्तरी क्षेत्र – जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान दिल्ली और चंडीगढ़
मुख्यालय – नई दिल्ली
(ii) मध्य क्षेत्र – उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश
मुख्यालय – इलाहाबाद
(iii) पूर्वी क्षेत्र – बिहार, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा कोलकाता
मुख्यालय – कोलकाता
(iv) पश्चिम क्षेत्र – गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, दादरा व नागर हवेली और दमनदीव
(v) दक्षिणी क्षेत्र – आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पांडिचेरी
मुख्यालय – चेन्नई
प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद में शामिल हैं:
(क) केंद्रीय गृहमंत्री
(ख) क्षेत्र के अधीन सभी राज्यों के मुख्यमंत्री
(ग) क्षेत्र के अधीन प्रत्येक राज्य के दो मंत्री
(घ) क्षेत्र के अधीन प्रत्येक संघराज्य क्षेत्र के प्रशासक
इसके अतिरिक्त निम्नलिखित व्यक्तियों को क्षेत्रीय परिषद के सलाहकार के रूप में (जिसे बैठकों में मत देने का अधिकार प्राप्त नहीं होगा) संबद्ध किया जा सकता है:
(क) योजना आयोग द्वारा नामित एक व्यक्ति
(ख) क्षेत्र के अधीन प्रत्येक राज्य सरकार के मुख्य सचिव
(ग) क्षेत्र के अधीन प्रत्येक राज्य के विकास उपयुक्त
उक्त पाँच क्षेत्रीय परिषदों का अध्यक्ष केंद्रीय गृहमंत्री होता है । प्रत्येक मुख्य मंत्री बारी-बारी से एक वर्ष के लिए परिषद का उपाध्यक्ष होता है ।
क्षेत्रीय परिषद का उद्देश्य राज्यों, संघराज्यों और केद्रं के मध्य सहयोग और समन्वयन (तालमेल) को बढ़ावा देना है । क्षेत्रीय परिषदें विचार-विमर्श के बाद आर्थिक और सामाजिक नियोजन, भाषायी अल्पसंख्यकों, सीमा-विवाद, अंतर्राज्यीय परिवहन आदि जैसे आम विषयों से संबंधित अनुशसाएँ करती हैं । क्षेत्रीय परिषदें परामर्श सेवाएँ प्रदान करने वाले निकाय हैं ।
उक्त क्षेत्रीय परिषदों के अतिरिक्त पूर्वोत्तर क्षेत्र परिषद का गठन भी एक अलग संसद अधिनियम- नॉर्थ-ईस्टर्न काउंसिल एक्ट – 1971 द्वारा किया गया था । यह परिषद असम, मणिपुर, मिजोरम, अरूणाचल प्रदेश, नागालैंड, मेघालय और त्रिपुरा की आम समस्याओं का निपटान करती है । वर्ष 1994 में सिक्किम को परिषद के आठवें सदस्य के रूप में शामिल किया गया ।
केंद्र–राज्य वित्तीय संबंध (Centre–State Financial Relations):
हमारी संघीय प्रणाली में केंद्र और राज्यों के मध्य वित्तीय संबंध से जुड़े विभिन्न पहलुओं से संबंधित संवैधानिक प्रावधान ये हैं:
केंद्र और राज्यों की कर प्रत्यारोपण संबंधी शक्ति:
(i) संसद, संघ की सूची में शामिल विषयों/मदों पर कराधान संबंधी कानून बना सकती है ।
(ii) राज्य विधानसभा राज्य की सूची में शामिल मदों पर कराधान संबंधी कानून बना सकती है ।
(iii) कर संबंधी विधान के मामले में समवर्ती सूची में शामिल विषयों के लिए किसी कर का प्रावधान नहीं है ।
(iv) संसद अपनी शेष शक्ति का उपयोग कर उपहार कर और व्यय कर लगा सकती है ।
केंद्र द्वारा आरोपित, संग्रहीत और अपने पास रखे जाने वाले कर:
इन करों का अधिकार केवल केंद्र को होता है । दूसरे शब्दों में इन करों का कोई संबंध राज्यों से नहीं होता है ।
निम्नलिखित कर इस श्रेणी में आते हैं:
(i) निगम कर
(ii) सीमा शुल्क
(iii) आयकर पर प्रभार
(iv) व्यक्तियों और कंपनियों की परिसंपत्तियों की पूँजीगत लागत पर (कृषि कानूनों के अतिरिक्त) कर ।
(v) संघ की सूची में शामिल विषयों से संबंधित शुल्क
केंद्र द्वारा प्रभारित किंतु राज्यों द्वारा संग्रहीत और विनियोजित कर:
इस श्रेणी के तहत निम्नलिखित कर शामिल हैं:
(i) विनिमय पत्रों, चेकों, प्रतिज्ञा पत्रों और अन्य पर स्टांप शुल्क
(ii) अलकोहल युक्त औषधियों और प्रसाधन सामग्री पर उत्पाद शुल्क
संघ सूची के तहत आने वाले इन करों को केंद्र द्वारा लगाया जाता है किंतु (क) इनका संग्रहण संबद्ध राज्य द्वारा (अर्थात जिस राज्य में कर लगाया जाता है) किया जाता है और (ख) जब कर को किसी संघ राज्य क्षेत्र में लगाया गया हो तब इनका संग्रहण केंद्र द्वारा किया जाता है । किसी भी राज्य में प्रभारित इन करों से हुई आय को किसी भी रूप में भारत की संचित निधि का भाग नहीं माना जाएगा अपितु संबद्ध राज्य को सौंप दिया जाएगा ।
केंद्र द्वारा प्रभारित और संग्रहित किंतु राज्यों को सौंपे गए कर:
इस श्रेणी के तहत निम्नलिखित शुल्क और कर आते हैं:
(i) संपत्ति उत्तराधिकार (कृषि भूमि को छोड़कर) के समय प्रशुल्क
(ii) संपत्ति पर संपदा कर (कृषि भूमि को छोड़कर)
(iii) रेल जल और वायुमार्ग द्वारा ले जाए जाने वाले सामानों तथा यात्रियों पर टर्मिनल टैक्स
(iv) रेल माल-भाड़े और किरायों पर कर
(v) वायदा बाजार तथा स्टॉक एक्ट चेंज में लेन-देन पर कर (स्टांप शुल्क को छोड्कर)
(vi) समाचार पत्रों के क्रय-विक्रय और उनमें प्रकाशित विज्ञापनों पर कर
(vii) अंतर्राज्यीय व्यापार, और वाणिज्य व्यापार (समाचार पत्र को छोड्कर) के समय मालों के क्रय विक्रय पर कर ।
(viii) अंतर्राज्यीय व्यापार और वाणिज्य व्यापार के समय मालों की खेप पर कर ।
इन प्रशुल्कों और करों से हुई निवल आमदनी संसद द्वारा निर्धारित नियमों और सिद्धांतों के अनुसार राज्यों को सौंप दी जाती है ।
केंद्र द्वारा प्रभारित और संग्रहित किंतु अनिवार्यतः केंद्र और राज्यों के मध्य वितरित कर:
आय पर कर (कृषि से आय और निगम कर को छोड़कर) और उसे संग्रहीत करने, का कार्य केंद्र द्वारा किया जाएगा किंतु उसका वितरण वित्त आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित ढंग के अनुसार केंद्र और राज्य के मध्य अनिवार्य रूप से किया जाएगा । आयकर के अनिवार्य वितरण का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 270 में किया गया है ।
केंद्र द्वारा लगाए और संग्रहित कर जिनका वितरण केंद्र और राज्य में किया जा सकता है:
इस श्रेणी के तहत औषध और प्रसाधन सामग्री का छोड़कर संघ की सूची में शामिल उत्पाद शुल्क आते हैं । इन करों को केंद्र द्वारा लगाया और संग्रहीत किया जाता है । इन करों/शुल्कों से हुई शुद्ध (निवल) आमदनी संसद में प्रावधान होने पर केवल भारत की संचित निधि के माध्यम से ही राज्यों को भुगतान की जा सकती है ।
इसके अतिरिक्त वितरण संबंधी सिद्धांतों का निर्धारण भी संसद द्वारा किया जाता है । यह ध्यान देने योग्य है कि संविधान के अनुच्छेद 270 के अनुसार आयकर से हुई आमदनी का बँटवारा अनिवार्य है तथा अनुच्छेद 272 के अनुसार उत्पाद शुल्क मान्य है ।
राज्यों द्वारा लगाए गए, संग्रहित और पारित कर:
ये कर राज्यों द्वारा ही लगाए जाते हैं । ऐसे करों की संख्या 19 है जिनका उल्लेख राज्य की सूची में है । प्रत्येक राज्य को इन करों को लगाने संग्रहीत करने और विनियोजित करने का हक है ।
इन करों में से कुछ इस प्रकार हैं:
(i) प्रतिव्यक्ति कर
(ii) कृषि भूमि उत्तराधिकार
(iii) कृषि भूमि संपदा शुल्क
(iv) भू-राजस्व
(v) कृषि आय कर
(vi) भूमि तथा भवन कर
(vii) खनिज अधिकार कर
(viii) विद्युत खपत और विक्रय कर
(ix) वाहन कर
(x) मालों के क्रय और विक्रय पर कर अर्थात बिक्री कर
(xi) मार्ग कर
(xii) व्यवसाय, व्यापार, आजीविका और रोजगार कर
अन्य प्रावधान:
केंद्र और राज्यों के मध्य वित्तीय संबंधों से संबंधित संविधान के अन्य प्रावधान इस प्रकार हैं:
(i) संसद के प्रावधान के अनुसार केंद्र द्वारा राज्यों को सहायता अनुदान दिया जाना । इस राशि को भारत की संचित निधि से लिया जाता है । (अनुच्छेद 275)
(ii) केंद्र, राज्यों और राज्यों के किसी भी संस्थान के लिए सार्वजनिक प्रयोजन अनुदान स्वीकृत कर सकता है । (अनुच्छेद 282)
(iii) केंद्र राज्यों के लिए ऋण मंजूर कर सकता है तथा राज्यों द्वारा लिए गए ऋण की गारंटी भी दे सकता है । (अनुच्छेद 293)
(iv) संसद, जनहित में अंतर्राज्यीय व्यापार और वाणिज्य पर प्रतिबंध लगा सकती है । (अनुच्छेद 302)
(v) राज्यों के लेखा का रखरखाव भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित ढंग से किया जाएगा । (अनुच्छेद 150)
संसदीय सरकार (Parliamentary Government):
भारतीय संविधान में केंद्र और राज्य सरकार के संसदीय स्वरूप का प्रावधान है ।
आधुनिक प्रजातांत्रिक सरकारों का वर्गीकरण सरकार के कार्यकारी और विधायी तत्त्वों के मध्य संबंध की प्रकृति के आधार पर संसदीय सरकार और अध्यक्षात्मक सरकार के रूप में किया गया है । संसदीय प्रणाली की सरकार में कार्यपालिका विधायिका के प्रति नीतियों और कार्यों की दृष्टि से जिम्मेदार होती है ।
दूसरी ओर अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका अपनी नीतियों और कार्यों की दृष्टि से विधायिका के प्रति जिम्मेदार नहीं होती तथा अपने कार्यकाल के संदर्भ में संवैधानिक तौर पर विधायिका से मुक्त होती है । इस प्रकार राष्ट्रपतिय प्रणाली की सरकार में राष्ट्रपति ही शासनाध्यक्ष भी होता है और राष्ट्राध्यक्ष भी; जिसे विधायिका के प्रति जिम्मेदार हुए बिना ही पूरी कार्यकारी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं ।
संसदीय सरकार को कैबिनेट मंत्रिमंडलीय सरकार या उत्तरदायी सरकार भी माना जाता है जिसका प्रचलन ब्रिटेन जापान कनाडा भारत और अन्य देशों में है । दूसरी ओर अध्यक्षात्मक सरकार को गैर संसदीय अथवा अनुत्तरदायी सरकार या निर्धारित कार्य प्रणाली की सरकार माना जाता है जिसका प्रचलन संयुक्त राज्य अमरीका, ब्राजील, रूस, श्रीलंका और अन्य देशों में है । भारत में संसदीय प्रणाली की सरकार मुख्यतः ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित है ।
तथापि भारत की सरकार कभी भी संसदीय प्रणाली का प्रतिरूप नहीं बनी तथा उससे दो संदर्भों में सर्वथा अलग है:
1. भारत में ब्रिटेन की साम्राज्य प्रणाली की जगह गणतांत्रिक प्रणाली है । भारत में देश के प्रमुख के रूप में राष्ट्रपति चुना जाता है जबकि ब्रिटेन में देश के प्रमुख के रूप में राजा या महारानी तथा उनके वंशज होते हैं ।
2. ब्रिटिश प्रणाली संसद की संप्रभुता पर आधारित है जबकि भारत में संसद सर्वोच्च नहीं है क्योंकि उसे सीमित शक्तियों ही प्राप्त हैं ।
अवस्थी बंधुओं ने ठीक ही विश्लेषण किया है कि- भारत की संसद – की संप्रभुता निम्नलिखित तथ्यों के संदर्भ में सीमित है:
(i) संविधान का लिखित रूप में होना (ब्रिटेन का संविधान लिखित नहीं है तथा इसका आधार राजनीतिक सभा और सम्मेलन हैं) ।
(ii) संघीय प्रणाली (ब्रिटेन में एकात्मक प्रणाली है) ।
(iii) न्यायिक समीक्षा प्रणाली (ब्रिटेन में न्यायिक समीक्षा प्रणाली नहीं है) ।
(iv) मौलिक अधिकार तथा राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत भारतीय संसद के प्राधिकार को सीमित कर देते हैं ।
भारत में संसदीय प्रणाली की सरकार के सिद्धांत इस प्रकार हैं:
नाममात्र का और वास्तत्रिक शासक:
राष्ट्रपति नाममात्र का शासक होता है जबकि प्रधानमंत्री वास्तविक शासक होता है । राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है तथा प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है । भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को उनके कार्य संचालन में परामर्श देने और उनकी सहायता करने के लिए मंत्री परिषद का प्रावधान है । ऐसे परामर्श (अर्थात मंत्रिपरिषद द्वारा राष्ट्रपति को दिए गए परामर्श) राष्ट्रपति को मानने होते है (अनुच्छेद 74) ।
बहुमत दल का शासन:
लोकसभा में जिस राजनीतिक दल के सदस्यों का बहुमत होता है वह दल सरकार बनाता है । बहुमत प्राप्त इस दल के नेता को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति भी प्रधानमंत्री की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा ही की जाती है (अनुच्छेद 75) । तथापि किसी दल को बहुमत न मिलने की स्थिति में मिलीजुली पार्टियों के मोर्चे द्वारा सरकार बनाई जाती है तथा इस मोर्चे के नेता को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है ।
सामूहिक उत्तरदायित्व:
संसदीय प्रणाली की सरकार का यह मूलभूत सिद्धांत है । मंत्रीगण सामान्यतः संसद के प्रति और विशेषतः लोकसभा के प्रति उत्तरदायी हैं (अनुच्छेद 75) । मंत्रीगण दलगत भावना से कार्य करते हैं तथा सभी कार्यों में एक-दूसरे के साथ होते हैं ।
सामूहिक जिम्मेदारी के तहत व्यक्तिगत जिम्मेदारी भी है अर्थात प्रत्येक मंत्री को अपने प्रभार के अधीन के विभाग में दक्ष प्रशासन के लिए स्वयं: उत्तरदायी है । सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का आशय यह है कि लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पारित कराकर किसी मंत्री को पद से हटा सकती है ।
राजनीतिक समानता:
मंत्रि परिषद के सभी सदस्य एक ही राजनीतिक दल के होते हैं; इसलिए उनकी राजनीतिक मान्यताएँ भी समान होती हैं । मिली-जुली पार्टियों की सरकार होने की स्थिति में मंत्रीगण को सहमति पर निर्भर रहना होता है ।
दोहरी सदस्यता:
मंत्रीगण विधायिका और कार्यपालिका दोनों के सदस्य होते हैं । कोई भी व्यक्ति संसद का सदस्य हुए बिना मंत्री नहीं बन सकता है । संविधान के अनुसार कोई मंत्री यदि निरंतर 6 माह तक संसद का सदस्य नहीं है तो वह इस अवधि की समाप्ति पर मंत्री पद पर बना नहीं रह सकता है (अनुच्छेद 75) ।
प्रधानमंत्री का नेतृत्व:
संसदीय प्रणाली की सरकार में प्रधानमंत्री की भूमिका नेतृत्व प्रदान करने की है । वह मंत्री परिषद का नेता संसद का नेता और सत्ताधारी दल का नेता होता है । वह अपने इन क्षमताओं के साथ सरकार संचालन में अतिमहत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । इस कुशल नेतृत्व के कारण ही राजनीति वैज्ञानिकों ने संसदीय प्रणाली की सरकार को ‘प्रधानमंत्री उन्मुख सरकार’ की संज्ञा दी है ।
निचले सदन का भंग होना – समग्र दृष्टिकोण:
संसद के निचले सदन (लोकसभा) को राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर भंग कर सकता है । दूसरे शब्दों में प्रधानमंत्री लोकसभा को इसके कार्यकाल की समाप्ति से पहले ही भंग करने की तथा नया चुनाव कराने की सलाह राष्ट्रपति को दे सकता है (अनुच्छेद 83) । इस प्रकार संसदीय प्रणाली की सरकार में कार्यपालिका को विधायिका को भंग करने का अधिकार है ।
गोपनीयता:
मंत्रीगण क्रियाविधि की गोपनीयता के सिद्धांत पर कार्य करते है तथा अपने विभाग की कार्यवाहियों नीतियों और निर्णयों से संबंधित सूचना को गोपनीय रखते हैं । मंत्रीगण अपने पद का कार्यभार सँभालने से पहले गोपनीयता की शपथ लेते है । यह शपथ राष्ट्रपति द्वारा दिलाई जाती है ।
देश में संसदीय प्रणाली को कायम रखा जाए या इसकी जगह राष्ट्रपति शासन की प्रणाली लाई जाए, यह मुद्दा सत्तर के दशक से ही चर्चा का विषय बना हुआ है । कांग्रेस की सरकार द्वारा वर्ष 1975 में गठित स्वर्ण सिंह समिति ने इस मामले पर विस्तार से विचार किया था । बाद में समिति ने कहा था कि संसदीय प्रणाली की सरकार ठीक कार्य कर रही है इसलिए इसकी जगह राष्ट्रपति शासन प्रणाली लाने की जरूरत नहीं है ।