Read this article in Hindi to learn about the top three ideologies of leadership. The ideologies are:- 1. लक्षणवादी या गुणवादी विचारधारा (Qualitative Ideology 2. व्यवहारवादी विचारधारा (Behavioral Ideology) 3. स्थितिवादी विचारधारा (Positional Ideology).
नेतृत्व की विचारधाराओं को तीन भागों में देख सकते है:
(I) लक्षणवादी या गुणवादी विचारधारा (Qualitative Ideology):
(a) 1900-1940 के मध्य लोकप्रिय रही इस विचारधारा के कारण की मान्यता है कि कतिपय अपनी विशेषताओं के कारण व्यक्ति नेता बनता है ।
(b) यह नेता क्या है मात्र इस पर ध्यान केन्द्रित करती है और अनुयायियों तथा परिस्थितियों की नेतृत्व निर्धारण में कोई भूमिका नहीं मानती ।
ADVERTISEMENTS:
(c) इस विचारधारा में भी दो उपधाराएं उत्पन्न हुई:
यह पूरातनवादी विचारधारा है जो नेता में जन्मजात गुण मानती है जिनके कारण वे महान नेता बनते हैं और इस गुणों को सीखा या ग्रहण नहीं किया जा सकता । नेता पैदा होते हैं बनाये नहीं जाते इसलिए नेता के चयन पर ध्यान देने की जरूरत है, उनके गुणों का अध्ययन करने की जरूरत नहीं क्योंकि उनका विकास नहीं हो सकता ।
गुण दृष्टिकोण:
यह नूतन विचारधारा है जो गुणों के अध्ययन विश्लेषण पर जोर देती है ताकि अन्य व्यक्ति उनमें अभ्यस्त होकर नेतृत्व कौशल विकसित कर सकें । एक व्यक्ति अपने कतिपय गुणों के आधार पर ही सफल नेता बन सकता है । इस विचारधारा के समर्थक विद्वानों में चेस्टर बर्नार्ड, आर्डवे टीड, शैल, मिलेट, टैरी, एपलबी प्रमुख हैं ।
ADVERTISEMENTS:
कमियां:
1. नेतृत्व के गुणों को लेकर इसके समर्थक विद्वानों में मतभेद हैं । गुणों की एसी सामान्य सूची का अभाव है ।
2. विद्वानों ने जो गुण बताये हैं उनमें बहुत विविधता है । फिफनर-शेरवुड, ”अब तक लक्षणों का कोई समान रूप विकसित नहीं हुआ है ।”
3. नेतृत्व के गुणों और विशेषताओं के तुलनात्मक महत्व को प्रदर्शित नहीं किया गया है । अर्थात यह बता पाने में असमर्थ है कि कौनसा गुण या विशेषता अधिक महत्वपूर्ण है ।
ADVERTISEMENTS:
4. इस बात का स्पष्टीकरण नहीं दे पाती कि जो गुण नेतृत्व के बताये जाते हैं वे उन सामान्य लोगों में भी पाये जाते है, जो नेता नहीं होते । उदाहरण के लिये नैतिकता, समझदारी, बुद्धि चातुर्थ, मिलनसारिता अनेक व्यक्तियों में होती है फिर भी खे नेता नहीं होते ।
5. नेता बनने और नेतृत्व को बनाये रखने के लिये भिन्न गुणों की जरूरत होती है । लेकिन यह विचारधारा दोनों गुणों में भेद नहीं करती ।
6. यह नेता को ही अधिक महत्व देती है और नेतृत्व में अनुयायियों की भूमिका को स्वीकार नहीं करती ।
7. यह परिस्थिति के नेतृत्व पर प्रभाव को भी अस्वीकारती है । नेपोलियन ने ठीक ही कहा था कि लोग महान व्यक्ति को नहीं महान विचारों को याद रखते हैं ।
(II) व्यवहारवादी विचारधारा (Behavioral Ideology):
1. 1940 के बाद व्यवहारवाद का बोलबाला हुआ । जहां लक्षणवादी-गुणवादी विचारधारा ”नेतृत्व क्या है” पर डटे रहे वही व्यवहारवादियों ने इस बात पर ध्यान दिया कि नेतृत्व ”क्या करता है” और ”कैसे करता है” ।
2. दूसरे शब्दों में उन्होंने नेता के गुणों के स्थान पर नेता के कार्यों और शैलियों पर ध्यान दिया ।
3. कर्ट लेवीन, रेंसिस लिकर्ट, ब्लेक-माउटन, बर्ट-हैरिस-फ्लेशमान आदि ने अपने अध्ययन-अनुसंधान से यह स्थापित करने का प्रयास किया कि नेता नेतृत्व कैसे करता है, कैसे अधीनस्थों से व्यवहार करता है, उनको प्रेरित करता है, उनसे संबंध स्थापित करता है ।
इन सबके उत्तरों की खोज के प्रयास में नेतृत्व की निम्नलिखित महत्वपूर्ण व्यवहारवादी विचारधाराएं प्रकाश में आई:
1. आइवा विश्वविद्यालय अध्ययन विचारधारा:
1930-40 के मध्य कर्ट लेविन के नेतृत्व में रोनाल्ड लिफिट और राल्फ व्हाइट ने नेतृत्व पर शोध किया ।
उनके अनुसार नेतृत्व की शक्ति आधारित तीन शैलियाँ होती हैं:
(a) निरंकुश शैली
(b) लोकतांत्रिक शैली और
(c) निबार्ध शैली
इसमें लोकतांत्रिक शैली सर्वाधिक प्रभावशाली, लोकप्रिय और परिणाममूलक होती है ।
2. ओहियो विश्वविद्यालय अध्ययन विचारधारा:
1945 में प्लेशमैन-हैरिस-बर्ट ने ओहियो यूनिवर्सिटी में शोध उपरांत नेतृत्व की दो शैलियां बतायी:
(a) निर्देशात्मक अर्थात पहलकारी संरचना और
(b) सहभागी प्रकार अर्थात विचार विमर्श केन्द्रीत ।
इसका निष्कर्ष यह था कि सफल नेतृत्व में उक्त दोनों शैलियों का उचित मिश्रण होना जरूरी है ।
3. मिशीगन विश्वविद्यालय अध्ययन विचारधारा:
1946 में रेंसिस लिकर्ट के नेतृत्व में एक दल ने अपने अध्ययन के उपरांत दो तरह की नेतृत्व-शैलियों का पता लगाया:
(a) उत्पादन केन्द्रीत और
(b) कार्मिक-केन्द्रीत
इसमें कार्मिक-केन्द्रीत नेतृत्व शैली को प्रभावी और सफल पाया गया ।
4. प्रबंधन नेतृत्व की 4 व्यवस्थाएं:
रेंसिस लिकर्ट ने 1961 में प्रबंधकीय नेतृत्व की 4 शैलियों का उल्लेख किया है:
(a) शोषणकारी
(b) परोपकारी,
(c) परामर्शकारी और
(d) सहभागी समूह या लोकतांत्रिक
इसमें अंतिम ”लोकतांत्रिक” पद्धति को श्रेष्ठ पाया गया ।
5. प्रबंधकीय ग्रिड विचारधारा:
1984 में ब्लेक और माउटन ने इस विचारधारा का प्रतिपादन किया । इसमें उत्पादन केन्द्रीत और कार्मिक केन्द्रीत नेतृत्व को 5 विशेष शैलियों में विभक्त किया गया ।
(a) उत्पादन पर ध्यान प मात्रा अनुसार 1 से 9 नंबर तथा
(b) कार्मिकों पर ध्यान की मात्रा के अनुसार 1 से 9 नंबर तक आवंटित किये जाते है ।
(c) सबसे कम ध्यान के लिये 1 नंबर तथा अधिकतम ध्यान के लिये 9 नंबर दिये जाते है ।
(d) फिर उत्पादन पर ध्यान और कार्मिकों पर ध्यान दोनों में प्राप्त नम्बरों का मिलान किया जाता है । इससे कुल 81 प्रकार की स्थितियाँ निर्मित होती है ।
(e) उत्पादन केन्द्रीत नेतृत्व सत्ता और आज्ञापालन पर बल देता है ।
(f) कार्मिक केन्द्रीत नेतृत्व सामाजिक संबंधों पर बल देता है ।
(g) उत्पादन और कार्मिक दोनों को सर्वोच्च प्राथमिकता 9-9 नंबर देने वाला नेतृत्व समूह प्रबंधन में विश्वास करता है । इसे ही ब्लटे-माउटन ने श्रेष्ठ माना है ।
(h) दोनों को निम्न प्राथमिकता 1-1 नंबर देने वाले नेतृत्व का प्रबंध अत्यंत कमजोर होता है ।
(i) दोनों को मध्यम-प्राथमिकता (5-5 अंक) देने वाला मध्यमार्गी होता है अर्थात संगठन और मानव प्रबंधक होता है।
(III) स्थितिवादी विचारधारा (Positional Ideology):
उपरोक्त दोनों विचारधाराएं क्रमश: नेता के गुणों और नेता के व्यवहार पर ध्यान देती हैं लेकिन इनसे संबंधित ”स्थिति” को नजर अंदाज करती है और इसलिये एक सम्पूर्ण विचारधारा के लिये विकल्प छोड़ देती है ।
यही विचारधारा स्थितिवादी है जो यह मानती है कि- (a) नेतृत्व नेता और उसकी स्थिति का योग होता है ।
(b) स्थितिगत कारक बदलते रहते है और ये बदलाव नेतृत्व का भी प्रभावित करते हैं ।
(c) इसलिये नेतृत्व प्रत्येक स्थिति में भिन्न होता है ।
(d) स्थितिगत कारकों के बदलने से पूरी स्थिति बदल जाती है । और इसलिये नेतृत्व को भी बदलना चाहिए अन्यथा वह असफल हो जाएगा ।
(e) स्थितिगत कारकों में स्वयं नेता और उसका व्यवहार, अनुयायी और उनका व्यवहार, कार्य की स्थिति और परिवेश आदि शामिल हैं ।
(f) इतने विविध परिवर्तित कारकों से तालमेल बैठाने वाला नेतृत्व ही सफल होता है और ऐसा नेतृत्व बहुआयामी होता है ।
प्रमुख स्थितिवादी विचारधाराएं इस प्रकार है:
1. नेतृत्व व्यवहार का सांतत्य सिद्धांत:
मूलत: 1958 में प्रतिपादित राबर्ट टेननबाम और वारेन श्मिट के ”नेतृत्व शैली के सांतत्य सिद्धांत” को 1973 में पुन: संशोधित किया गया था ।
इस सिद्धांत की मान्यता है कि:
(i) नेतृत्व गतिशील अवधारणा है ।
(ii) नेतृत्व कुछ कारकों की स्थिति के अनुसार ”शैली” को अपनाता है अर्थात स्थिति बदलने पर नेतृत्व भी बदलता है ।
(iii) स्वयं नेता, अनुयायी और स्थिति ये तीन कारक नेतृत्व की शैली को निर्धारित करते है ।
(iv) इन कारकों के स्वरूप के अनुसार संगठन में अनेक स्थितियां उत्पन्न हो सकती है जिनके दो अंतिम छोर क्रमशः नेता-उन्मुख और अनुयायी-उन्मुख होंगे ।
(v) नेतृत्व इनके मध्य ही किसी शैली को अपनाता है अर्थात अधिक नेता उन्मुख-कम अनुयायी उन्मुख, या अधिक अनुयायी उन्मुख-कम नेता उन्मुख आदि ऐसी अनेक शैलिया बन सकती हैं । इसका निर्धारण उक्त तीन कारकों की स्थिति अनुसार होता है ।
2. सांयोगिक या आकस्मिकता सिद्धांत:
फ्रेड ई. फीड़लर ने 1967 में नेतृत्व के प्रभाव को स्पष्ट करने के लिये सांयोगिक सिद्धांत दिया । कूण्टज और ओडोनेल ने इसे अवसर प्रदान करने का सिद्वांत कहा । इसे परिस्थित्यात्मक परीक्षण सिद्धांत भी कहा जाता है । फिड़लर ने नेतृत्व की सफलता हेतु उसकी कार्यप्रणाली और परिस्थिति दोनों के उचित तालमेल को आवश्यक बताया ।
उसने परिस्थिति के तीन आवश्यक तत्व बताये:
1. नेता-अनुयायी संबंध
2. कार्य और
3. नेता की स्थिति और अधिकार ।
L.P.C. मॉडल:
फिड़लर ने नेतृत्व की प्रभावकारिता का आकलन करने के लिये प्रसिद्ध Low Priority Colleague (न्यूनतम प्राथमिकता सहकर्मी) नामक एक मॉडल सुझाया । इसके अंतर्गत नेता से उस कार्मिक के बारे में राय मांगी जाती है जिसे वह बेहद कम पसंद करता है । यदि उसकी राय कार्मिक के बारे में पूर्णत: प्रतिकूल है तो नेता का L.P.C. न्यूनतम होगा अर्थात ऐसे नेता में नेतृत्व की बेहद कम क्षमता होगी ।
3. मार्गदर्शन या पथ-लक्ष्य विचारधारा:
अभिप्रेरण के प्रत्याशा सिद्धांत पर आधारित ”मार्गदर्शन नेतृत्व सिद्धांत” 1970-71 में राबर्ट हाउस और मार्टिन इवांस ने विकसित किया था । इस सिद्धांत के अनुसार नेतृत्व की जितनी भी शैलियां हैं (जैसे निर्देशात्मक, समर्थक, सहभागी उपलब्धि-उन्मुख आदि) ।
वे मुख्यतः दो तत्वों पर निर्भर हैं:
(i) अधीनस्थों की चारित्रिक विशेषताएं और
(ii) वातावरणीय दबाव ।
मार्गदर्शन सिद्धांत की मान्यताएं है:
(a) नेता को अधीनस्थों के संपर्क में रहना चाहिए ।
(b) नेता को अधीनस्थों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए ।
(c) नेता अधीनस्थों का इस तरह मार्गदर्शन करें कि उन्हें कार्य से संतोष प्राप्त हो ।
(d) नेता अधीनस्थों के लिये लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग को आसान बनाने के लिये प्रयास करें ।
(e) नेता उक्त सभी कार्यों को करते समय वातावरण की मांग को ध्यान में रखे ।
यह नेतृत्व सिद्धांत निरंतर लोकप्रिय हुआ ।
4. जीवन चक्र दृष्टिकोण या स्थितिगत दृष्टिकोण:
कौरमेन, पाल हर्जे और कैनेथ ब्लेन कार्ड द्वारा विकसित जीवन चक्र दृष्टिकोण बाद में ”स्थिति सिद्धांत” के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस सिद्धांत का मूल तत्व है- ”कार्मिक की परिपक्वता के बदलते स्तर के अनुसार नेतृत्व शैली में परिवर्तन”।
परिपक्वता (Maturity Level) से आशय आयु नहीं है अपितु कार्य के प्रति रूचि, जिम्मेदारी की भावना अनुभव आदि से है । अनुयायियों के परिपक्वता स्तर में कम से अधिक की तरफ परिवर्तन होता है और तदनुरूप नेतृत्व भी कार्य से कार्मिक की तरफ बढ़ता है ।
इसके अनुसार नेतृत्व की 4 शैलियां होती है:
1. बताना अर्थात कथन शैली (Telling)
2. बेचना अर्थात बिक्री शैली (Selling)
3. हिस्सा लेना अर्थात भागीदारी शैली (Participating)
4. सौपना अर्थात प्रतिनिधित्व शैली (Delegating)
स्पष्ट है कि शुरू में नेता कार्य केंद्रित अधिक और कार्मिक केंद्रित कम होता है क्योंकि कार्मिकों का परिपक्वता स्तर कम होता है । लेकिन धीरे-धीरे उसकी भूमिका कार्य केंद्रित से कार्मिक केंद्रित की तरफ बढ़ती जाती है क्योंकि समय बीतने के साथ कार्मिकों के परिपक्वता स्तर में वृद्धि होती जाती है वे उत्तरदायित्व ग्रहण कर पाने की स्थिति में आ जाते हैं ।
जहां अधीनस्थों की परिपक्वता निम्न हो वहां प्रथम दो शैली तथा उच्च होने पर अंतिम दो शैली उपयोगी होती है । सफल नेता वही है जो परिपक्वता के स्तर के अनुरूप शैली का इस्तेमाल करें ।
5. नेतृत्व का त्रिविमीय सिद्धांत:
1970 में विलियम रेडिन ने नेतृत्व के त्रिविमीय मॉडल का प्रतिपादन किया ।
उन्होंने नेतृत्व के तीन प्रमुख आयाम बताये:
1. कार्य-उन्मुख
2. संबंध-उन्मुख
3. प्रभाविता
उन्होंने उक्त आयामों की स्थिति के आधार पर नेतृत्व की 4 प्रभावी और 4 अप्रभावी शैलियाँ बतायी है ।
6. अनुयायी दृष्टिकोण:
इसे सेनफार्ड ने दिया । उसके अनुसार अधीनस्थ कार्मिकों की कुछ प्राथमिक आवश्यकतायें होती है जो इन्हें पूरा कर देगा वही नेता के रूप में स्वीकार्य होगा अर्थात नेतृत्व अनुयायियों पर निर्भर है । अत: अनुयायियों का अध्ययन करना चाहिए । इसे समूह विचारधारा भी कहते हैं । यह सामाजिक-मनौवैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रयोग करती है ।
7. पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण:
एम स्टागडिल द्वारा प्रतिपादित । इसके अनुसार परिस्थितियां नेता को प्रभावित करती है । एक परिस्थिति में सफल नेता जरूरी नहीं की दूसरी परिस्थिति में भी सफल हो । सफल नेता भिन्न परिस्थितियों में भिन्न व्यवहार करता है । मिलेट, ”ये परिस्थितियां हैं जो नेता को बनाती या बिगाड़ती हैं ।”
8. क्रियात्मक दृष्टिकोण:
कर्टन लेवी ने दिया । इसके अनुसार नेता का अध्ययन एक व्यक्ति के रूप में नहीं, समूह के रूप में करना चाहिए ।
9. निर्णय-सहभागिता मॉडल:
1937 में विक्टर ब्रुम और फिलिप येट्टन द्वारा प्रतिपादित यह मॉडल अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे नेतृत्व सहभागिता मॉडल, मानक माडॅल, नेतृत्व-निर्णय सिद्धांत आदि ।
इस सिद्धांत के अनुसार निर्णयकर्ता की भूमिका में व्यक्ति की नेतृत्व-क्षमता को तीन बदलते कारक महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं:
1. निर्णय की गुणवत्ता
2. अधीनस्थों द्वारा निर्णय को स्वीकार करने की सीमा
3. निर्णयन में आवश्यक समय