Read this article in Hindi to learn about:- 1. शहरी स्थानीय शासन का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (Historical Perspective of Urban Local Government) 2. संवैधानीकरण (Constitutionalisation) 3. 74वां (संशोधन) अधिनियम 1992 (74th Amendment Act of 1992) 4. प्रकार (Types) 5. नगरपालिका कार्मिक (Municipal Personnel) 6. केंद्रीय स्थानीय शासन परिषद (Central Council of Local Government).
Contents:
- शहरी स्थानीय शासन का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (Historical Perspective of Urban Local Government)
- संवैधानीकरण (Constitutionalisation)
- 74वां (संशोधन) अधिनियम 1992 (74th Amendment Act of 1992)
- शहरी स्थानीय निकायों के प्रकार (Types of Urban Local Government)
- नगरपालिका कार्मिक (Municipal Personnel)
- केंद्रीय स्थानीय शासन परिषद (Central Council of Local Government)
1. शहरी स्थानीय शासन का
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (Historical Perspective of Urban Local Government):
ADVERTISEMENTS:
भारत में ‘शहरी स्थानीय शासन’ शब्द का आशय लोगों द्वारा अनेक चुने हुए प्रतिनिधियोंके माध्यम से किसी शहरी क्षेत्र के शासन से है । शहरी स्थानीय शासन का अधिकार क्षेत्र राज्य सरकार द्वारा इस प्रयोजन से निर्धारित विशिष्ट शहरी क्षेत्र तक सीमित रहता है ।
भारत में शहरी स्थानीय शासन क्रू आठ प्रकार हैं- नगर निगम, नगरपालिका, अधिसूचित श्रेत्र कमेटी, टाउन एरिया कमेटी, छावनी बोर्ड, टाउनशिप, पोर्ट ट्रस्ट और विशेष उद्देश्य एजन्सि । शहरी शासन प्रणाली का संवैधानिक दर्जा संविधान के 74वें (संशोधन) अधिनियम 1992 द्वारा मिला था ।
केंद्र स्तर पर ‘शहरी स्थानीय शासन’ विषय से जुड़े तीन मंत्रालय हैं:
(i) शहरी विकास मंत्रालय:
ADVERTISEMENTS:
एक अलग मंत्रालय के रूप में वर्ष 1985 में गठित
(ii) रक्षा मंत्रालय – छावनी बोर्ड के मामलों से संबंधित
(iii) गृह मंत्रालय – संघ राज्य क्षेत्र के मामलों से संबंधित
आधुनिक भारत में शहरी स्थानीय शासन से जुड़ी संस्थाओं की उत्पत्ति और उनका विकास ब्रिटिश शासन के दौरान हुआ था ।
ADVERTISEMENTS:
इस संदर्भ में मुख्य घटनाक्रम इस प्रकार हैं:
(i) वर्ष 1687 में भारत में पहले नगर निगम की स्थापना मद्रास में हुई ।
(ii) वर्ष 1726 में मुंबई और कोलकाता में भी नगर निगमों की स्थापना हुई ।
(iii) स्थानीय स्वशासन से जुड़ी संस्थाओं का विकास वित्तीय विकेंद्रीकरण से संबंधित लॉर्ड मेयो के प्रस्ताव 1870 के फलस्वरूप हुआ ।
(iv) लॉर्ड रिपन के प्रस्ताव 1882 को स्थानीय स्वशासन के ‘मैग्ना कार्टा’ (महाधिकार पत्र) के रूप में जाना गया । बाद में उसे भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक कहा जाने लगा ।
(v) विकेंद्रीकरण के मुद्दे पर रायल कमीशन की नियुक्ति वर्ष 1907 में हुई । उसने अपनी रिपोर्ट वर्ष 1909 में दी थी । इस आयोग के अध्यक्ष हॉबहाउस थे ।
(vi) भारत सरकार अधिनियम 1919 द्वारा प्रांतों में शुरू की गई द्वैत योजना के अंतर्गत स्थानीय स्वशासन स्थानांतरित विषय बनकर जिम्मेदार भारतीय मंत्री के प्रभार में आ गया ।
(vii) वर्ष 1924 में केंद्रीय विधायिका अर्थात संसद द्वारा कैंटोनमेंट एक्ट पारित किया गया ।
(viii) भारत सरकार अधिनियम 1935 द्वारा शुरू की गई प्रांतीय स्वायत्तता योजना के तहत स्थानीय स्वशासन को प्रांतीय विषय घोषित किया गया ।
समितियाँ और आयोग:
केंद्र सरकार द्वारा शहरी स्थानीय शासन की कार्यप्रणाली में सुधार लाने के लिए नियुक्त समितियों और आयोगों का उल्लेख कालक्रम के अनुसार नीचे किया जा रहा है ।
कोष्ठकों में समितियों/योगों के अध्यक्ष के नाम दिए गए हैं:
(i) 1949-51 – लोकल फाइनेंस इन्क्वायरी कमेटी (पी.के.वट्टल)
(ii) 1953-54 – टेक्सेशन इन्क्वायरी कमीशन (जॉन मथाई)
(iii) 1963-65 – कमेटी ऑन द ऑफ म्यूनिस्पिल एंपलॉईज (नूरूद्दीन अहमद)
(iv) 1963-66 – रूरल अरबन रिलेशनशिप कमेटी (ए.पी.जैन)
(v) 1963 – कमेटी ऑफ मिनिस्टर्स आन आगमेंटेशन ऑफ फाइनेंशियल रिसोर्सेज आफ अरबन लोकल बॉडीज (रफीक जकारिया)
(vi) 1965-68 – कमेटी ऑन सर्विस कंडीशन ऑफ म्यूनिस्पल एंपलाइज
(vii) 1974 – कमेटी ऑन बजटरी रिफार्म इन म्यूनिस्पिल एडमिनिस्ट्रेशन (गिरिजापति मुखर्जी)
(viii) 1982 – स्टडी सुप ऑन कांस्टिट्यूशन, पावर्स एंड लॉज ऑफ अरबन लोकल बॉडीज एंड म्यूनिसिपल कारपोरेशन (के.एन.सहाय)
(ix) 1985-88 – नेशनल कमीशन ऑन अरबनाइजेशन (सी.एम.कोरिया)
2. संवैधानीकरण (Constitutionalisation):
अगस्त 1989 में राजीव गांधी की सरकार लोकसभा में संविधान का 65वाँ संशोधन विधेयक (अर्थात नगरपालिका बिल) लाई थी । इस विधेयक का उद्देश्य था नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा देकर उन्हें सुदृढ़ता प्रदान करना । लोकसभा में यद्यपि यह विधेयक पारित हो गया था किंतु राज्यसभा में इसे अकबर 1989 में हार का सामना करना पड़ा और विधेयक रद्द हो गया ।
वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार ने सितंबर 1990 में पुन: संशोधित नगरपालिका बिल प्रस्तुत किया किंतु यह पारित न हो सका तथा लोकसभा भंग हो जाने के कारण यह विधेयक पुन: रद्द हो गया । पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने भी सितंबर 1991 में संशोधित नगरपालिका बिल लोकसभा में प्रस्तुत किया जिसे लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों द्वारा दिसंबर 1992 में पारित कर दिया गया ।
इसके बाद अपेक्षित संख्या में राज्य विधानमंडलों ने इसे अनुमोदित कर दिया । राष्ट्रपति की सहमति भी अप्रैल 1993 में मिल गई और अंततः संविधान के वे (संशोधन) अधिनियम 1992 के रूप में 1 जून, 1993 से प्रभावी हो गया ।
3. 74वां (संशोधन) अधिनियम 1992 (74th Amendment Act of 1992):
इस अधिनियम ने भारतीय संविधान में भाग IX ए जोड़ दिया । इस भाग का शीर्षक ‘नगरपालिकाएं’ है तथा जिसके प्रावधानों का उल्लेख अनुच्छेद 243-पी से 243-जेड-जी में है । इसके अतिरिक्त इसके कारण संविधान में 12वीं अनुसूची भी जोड़नी पड़ी । इस अनुसूची में नगरपालिकाओं की 18 कार्यमदों का उल्लेख है जो अनुच्छेद 243 डब्ल्यू से संबंधित है ।
इस अधिनियम ने नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा दिया । नगरपालिकाएँ संविधान के अधिकार क्षेत्र में आ गई अर्थात इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार राज्य सरकारें नई नगरपालिका प्रणाली अपनाने को बाध्य हो गईं । इस अधिनियम का उद्देश्य शहरी शासन को पुनर्जीवन और सुदृढ़ता प्रदान करना है ताकि वे स्थानीय शासन की इकाई के रूप में अपना कार्य प्रभावी ढंग से कर सकें ।
इस अधिनियम की विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
तीन प्रकार की नगरपालिकाएँ:
इस अधिनियम में प्रत्येक राज्य में तीन प्रकार की नगरपालिकाओं के गठन का प्रावधान है, अर्थात:
(i) नगर पंचायत (नाम जो भी हो) जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के बीच के क्षेत्र से संबंधित हो (समवर्ती क्षेत्र के लिए)
(ii) नगर परिषद छोटे शहरी क्षेत्र के लिए
(iii) नगर निगम बड़े शहरी क्षेत्र के लिए
समवर्ती क्षेत्र, छोटा शहरी क्षेत्र व बड़ा शहरी क्षेत्र का आशय उस क्षेत्र से है जिसे राज्यपाल ने निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इस प्रयोजन से सरकारी अधिसूचना में निर्दिष्ट किया है:
(क) क्षेत्र की आबादी
(ख) जनसंख्या का घनत्व
(ग) स्थानीय प्रशासन के लिए उत्पादित राजस्व
(घ) गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार का प्रतिशत
(ड) आर्थिक महत्व या राज्यपाल द्वारा उचित समझे जाने वाले अन्य कारण ।
संरचना:
नगरपालिका के सभी सदस्यों का चुनाव उस नगरपालिका क्षेत्र के लोगों द्वारा सीधे-सीधे किया जाएगा । इसके लिए प्रत्येक नगरपालिका क्षेत्र को क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में; अर्थात वार्डों में बाँटा जाएगा । नगरपालिका अध्यक्ष के चुनाव पद्धति का निर्धारण राज्य विधानमंडल द्वारा किया जा सकता है ।
नगर पालिका में यह निम्नलिखित लोगों के प्रतिनिधित्व का प्रावधान भी कर सकता है:
(i) नगरपालिका प्रशासन का विशेष ज्ञान या अनुभव रखने वाला व्यक्ति किंतु उसे नगरपालिकाओं की बैठकों मत का अधिकार न हो ।
(ii) लोकसभा या राज्य विधानमंडल के वे सदस्य जो उस चुनाव क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हों जिसमें नगरपालिका का पूरा अथवा कुछ भाग आता हो ।
(iii) राज्यसभा या राज्य विधानपरिषद के वे सदस्य जो नगरपालिका क्षेत्र में मतदाता के रूप में पंजीकृत हों ।
(iv) समितियों के अध्यक्ष (वार्ड समितियों को छोड़कर)
वार्ड समितियाँ:
ऐसी नगरपालिकाओं में जिनके क्षेत्र की आबादी 3 लाख या इससे अधिक हो एक या एक से अधिक वार्डो को शामिल कर वार्ड समिति गठित की जाएगी । राज्य का विधानमंडल वार्ड समिति की संरचना भौगोलिक क्षेत्र और समिति में स्थानों को भरने की प्रक्रिया से संबंधित प्रावधान बना सकता है । राज्य का विधानमडल वार्ड समिति के गठन के अतिरिक्त समितियों के गठन के लिए भी किसी तरह का प्रावधान बना सकता है ।
स्थानों का आरक्षण:
इस अधिनियम के अंतर्गत नगरपालिका क्षेत्र की कुल आबादी में अनुसूचिन जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी के अनुपात मैं नगरपालिका में इन वर्गों के लिए सीटें आरक्षित रखने का प्रावधान है । इसके अतिरिक्त अधिनियम में किसी नगरपालिका क्षेत्र में कुल सीटी की संख्या में से एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित (अनुसूचित जाति और अनुसुचित जनजाति श्रेणी की महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों सहित) रखने का भी प्रावधान है ।
राज्य विधानमंडल नगरपालिकाओं में अध्यक्ष का पद अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षित करने की पद्धति का निर्धारण भी कर सकता है । राज्य विधानमंडल किसी नगरपालिका में पिछड़े वर्गों के लिए सीटों अथवा नगरपालिका में अध्यक्ष पद के आरक्षण के लिए भी व्यवस्था कर सकता है ।
नगरपालिकाओं की अवधि:
इस अधिनियम में प्रत्येक नगरपालिका का कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित किया गया है । किंतु इसे समय से पहले अर्थात कार्यकाल पूरा होने से पहले भी भंग किया जा सकता है ।
इसके अतिरिक्त, नगरपालिका के गठन के लिए नए चुनाव:
(i) पाँच वर्ष की अवधि की समाप्ति से पहले, या
(ii) नगरपालिका भंग होने की स्थिति में, भंग होने की तिथि से 6 माह की अवधि की समाप्ति से पहले करा लिए जाएँगे ।
अयोग्यता:
कोई वह व्यक्ति नगरपालिका का सदस्य चुने जाने का पात्र नहीं होगा जिसे (i) संबद्ध राज्य विधानमंडल के चुनावों के प्रयोजन से उस समय लागू किसी कानून के अधीन अयोग्य घोषित कर दिया जाता है; या (ii) राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी कानून के तहत अयोग्य पोषित किया जाता है । इसके अतिरिक्त किसी व्यक्ति को इस आधार पर अयोग्य करार नहीं दिया जाएगा कि उसन 25 वर्ष की आयु पूरी नहीं की हैं बशर्ते कि उसकी आयु 21 वर्ष से कम न् हो । तथापि, अयोग्यता से संबंधित सभी विवाद राज्य विधानमंडल द्वारा निर्धारित प्राधिकारी को निपटान हेतु भेजे जाएंगे ।
राज्य चुनाव आयोग:
नगरपालिकाओं के सभी चुनावों के आयोजन तथा मतदाता सूचियों की तैयारी के कार्य की निगरानी उसके निर्देशन तथा उस पर नियंत्रण रखने का अधिकार राज्य चुनाव आयोग को प्राप्त होगा ।
शक्तियाँ और कार्य:
राज्य विधानमंडल द्वारा नगरपालिकाओं को ऐसी शक्तियों और प्राधिकार प्रदान किए जाएँगे जो स्वशासन से जुड़ी संस्थाओं को उनके कार्य निष्पादन के लिए आवश्यक हों । इस योजना के तहत नगरपालिकाओं पर (i) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय से जुड़ी योजनाओं की तैयारी से संबंधित और (ii) नगरपालिकाओं को सौंपी जाने वाली आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय (जिनमें 12वीं अनुसूची में सूचीबद्ध 18 विषय भी शामिल हैं) से जुड़ी योजनाओं के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी डालने तथा कार्यान्वयन की शक्ति प्रदान करने की भी व्यवस्था की जाएगी ।
वित्तीय प्रबंध:
राज्य विधानमंडल:
(i) नगरपालिकाओं को कर, शुल्क, पथकर लगाने, उनका संग्रहण और विनियोजन करने की शक्ति/अधिक्तर दे सकता है ।
(ii) वह राज्य सरकार द्वारा प्रभारित और संग्रहीत करों शुल्कों और पथकरों को नगरपालिकाओं की सौंप सकता है ।
(iii) राज्य की संचित निधि से नगरपालिकाओं को सहायता अनुदान की व्यवस्था कर सकता है ।
(iv) नगरपालिकाओं की समस्त धनराशियों को जमा करने के लिए कोष का निर्माण कर सकता है ।
विन आयोग:
पंचायतों के लिए गठित वित्त आयोग प्रत्येक पाँच वर्ष के अंतराल पर नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति की भी समीक्षा करेगा तथा राज्यपाल से निम्नलिखित सिफारिशें करेगा:
(i) वे सिद्धांत जो:
(क) राज्य द्वारा प्रभारित करों शुल्कों पथकरों से हुई शुद्ध आय को राज्य और नगरपालिकाओं के बीच विभाजित करने पर लागू हों ।
(ख) नगरपालिकाओं को सौंपे जाने वाले करों शुल्कों और पथकरों के निर्धारण के लिए लागू हों ।
(ग) राज्य की संचित निधि से नगरपालिकाओं को सहायता अनुदान दिए जाने हेतु लागू हों ।
(ii) नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति में सुधार लाने के लिए आवश्यक उपाय ।
(iii) नगरपालिकाओं का वित्तीय स्थिति को ठीक रखने की दृष्टि से राज्यपाल द्वारा वित्त आयोग को प्रेषित अन्य कोई विषय ।
राज्यपाल, आयोग की सिफारिशों को अनुवर्ती कार्यवाही रिपोर्ट के साथ राज्य विधानमंडल में रखेगा ।
केंद्रीय वित्त आयोग भी राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर नगरपालिकाओं को संसाधनों की पूर्ति करने की दृष्टि से राज्य की संचित निधि को बढ़ाने के लिए जरूरी उपाय सुझाएगा ।
लेखापरीक्षा:
राज्य विधानमंडल द्वारा नगरपालिकाओं के लेखा खातों के रख-रखाव और उनकी लेखापरीक्षा का प्रावधान भी किया जा सकता है ।
केंद्र शासित क्षेत्रों में अधिनियम का लागू होना:
राष्ट्रपति स्वयं द्वारा निर्दिष्ट कुछ अपवादों और संशोधनों के अधीन अधिनियम के प्रावधानों को किसी भी संघ राज्य क्षेत्र में लागू करने का निर्देश दे सकता है ।
अधिनियम से बाहर के क्षेत्र:
इस अधिनियम के प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244 में उल्लेखित अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातीय क्षेत्रों में लागू नहीं होंगे । इस अधिनियम के कारण पश्चिम बंगाल की दार्जिलिंग गोरखा हिल कांउसिल की कार्यशक्तियाँ प्रभावित नहीं होंगी ।
जिला नियोजन समिति:
प्रत्येक राज्य, जिले की नगरपालिकाओं पंचायतों द्वारा तैयार की गईं योजनाओं को एक करने तथा जिले की समग्र विकास योजना का प्रारूप तैयार करने के लिए जिलास्तरीय जिला नियोजन समिति का गठन करेगा ।
राज्य विधानमंडल निम्नलिखित बातों से संबंधित व्यवस्थाएँ कर सकता है:
(i) ऐसी समितियों की संरचना से संबंधित ।
(ii) इन समितियों के सदस्यों के चुनाव के ढंग से संबंधित ।
(iii) इन समितियों की, जिला नियोजन से संबंधित कार्यों के संबंध में ।
(iv) इन समितियों के अध्यक्षों के चुनाव के ढंग से संबंधित ।
इस अधिनियम में यह प्रावधान है कि जिला नियोजन समिति सदस्यों में से 4/5 की संख्या में सदस्यों का चुनाव जिले की पालिकाओं और जिला पंचायत के चुने गए सदस्यों में से ही किया जाएगा । समिति में इन सदस्यों का प्रतिनिधित्व जिले में ग्रामीण शहरी आबादी के अनुपात में होगा । इन समितियों के अध्यक्ष विकास योजना को राज्य सरकार भेजेंगे ।
महानगर नियोजन समिति:
प्रत्येक महानगर क्षेत्र में विकास योजना के प्रारूप को तैयार करने के लिए महानगर नियोजन समिति होगी । महानगर क्षेत्र का उस क्षेत्र से है जिसकी आबादी 10 लाख या इससे अधिक हो जो क्षेत्र एक या एक से अधिक जिलों में पड़ता हो और जिसमें दो या दो से अधिक नगरपालिकाएं या पंचायतें या अन्य संबद्ध क्षेत्र हों ।
राज्य विधानमंडल निम्नलिखित से संबंधित प्रावधान भी कर सकता है:
(i) इन समितियों की संरचना से संबंधित,
(ii) इन समितियों के लिए सदस्यों की चुनाव पद्धति से संबंधित
(iii) इन समितियों में केंद्र सरकार, राज्य सरकार और अन्य संगठनों के प्रतिनिधित्व से संबंधित
(iv) महानगर क्षेत्र के लिए नियोजन और समन्वयन से संबंधित समितियों के कार्य और
(v) इन समितियों के अध्यक्षों की चुनाव पद्धति से संबंधित ।
अधिनियम में यह प्रावधान है कि महानगर नियोजन समिति में सदस्यों की कुल संख्या के दो-तिहाई सदस्य नगरपालिकाओं के लिए चुने गए सदस्यों तथा महानगर क्षेत्र की पंचायतों के अध्यक्षों द्वारा उनमें से ही चुने जाएँगे । इस समिति में इन सदस्यों का प्रतिनिधित्व महानगर क्षेत्र की नगरपालिकाओं और पंचायतों की आबादी के अनुपात में होगा । इन समितियों के अध्यक्ष विकास योजना को राज्य सरकार को भेजेंगे ।
मौजूदा कापूनों और नगरपालिकाओं की स्थिति:
नगरपालिकाओं से संबंधित राज्य के सभी कानून इस अधिनियम के लागू होने की तिथि से एक वर्ष की समाप्ति तक प्रभावी रहेंगे अर्थात राज्य सरकारों को इस अधिनियम के लागू होने की तिथि 1 जून, 1993 से एक वर्ष के अंदर ही अधिनियम के प्रावधान के अनुसार नई नगरपालिका प्रणाली अपनानी होगी । इसके अतिरिक्त, इस अधिनियम के लागू होने से ठीक पहले मौजूदा नगरपालिकाएँ अपने कार्यकाल की समाप्ति तक बनी रहेगी । बशर्ते कि राज्य के विधान द्वारा उन्हें भंग न किया जाए ।
बारहवीं अनुसूची:
इस अनुसूची के अंतर्गत नगरपालिकाओं के अधिकार क्षेत्र में आने वाली कार्यमदें इस प्रकार हैं:
(i) शहरी नियोजन, नगर नियोजन सहित
(ii) भूमि प्रयोग का विनियमन और भवन निर्माण
(iii) आर्थिक और सामाजिक विकास से संबंधित नियोजन
(iv) पुल/सेतु और सड़क
(v) घरेलू, औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रयोजन से जलापूर्ति
(vi) जनस्वास्थ्य, साफ सफाई, संरक्षण और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन
(vii) अग्निशमन सेवाएँ
(viii) शहरी वानिकी, पर्यावरण संरक्षण और परितंत्रीय पहलुओं का संवर्धन
(ix) समाज के कमजोर वर्गों विकलांगों और मानसिक रूप से विकलांगों के हितों की रक्षा
(x) मलिन बस्तियों का सुधार और उन्नयन
(xi) शहरी निर्धनता उन्मूलन
(xii) पार्कों, बागों और खेल के मैदानों जैसी शहरी सुविधाओं की व्यवस्था
(xiii) सांस्कृतिक, शैक्षिक और सौंदर्यबोधी पहलुओं का संवर्धन
(xiv) शवदाह तथा शवदाह स्थल तथा विद्युत शवदाह गृह
(xv) पशुओं के लिए तालाब तथा पशुओं के प्रति निर्दयता पर रोक
(xvi) महत्वपूर्ण आँकड़ों का संग्रहण-जन्म और मृत्यु के पंजीकरण सहित
(xvii) मार्गप्रकाश, गाड़ी खड़ी करने के स्थान, बस स्टॉप जैसी जन सुविधाएँ
(xviii) बूचड़खानों और कसाईखानों का विनियमन (Regulation) ।
4. शहरी स्थानीय निकायों के प्रकार (Types of Urban Local Government):
भारत में, शहरी क्षेत्रों में प्रशासन की दृष्टि से निम्न आठ प्रकार के शहरी स्थानीय निकायों का गठन किया गया है:
1. नगर निगम
2. नगरपालिका
3. अधिसूचित क्षेत्र समिति- (नोटिफाइड एरिया समिति)
4. नगर क्षेत्र समिति (टाउन एरिया समिति)
5. छावनी परिषद/बोर्ड
6. टाउनशिप
7. पोर्ट ट्रस्ट
8. स्पेशल परपज एजेंसी
1. नगर निगम:
नगर निगमों का गठन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, बंगलौर और अन्य महानगरों में प्रशासन की दृष्टि से किया गया है । राज्यों में नगर निगमों का गठन संबद्ध राज्य के विधानमंडल के अधिनियम द्वारा तथा संघ राज्य क्षेत्रों में नगर निगमों का गठन संसदीय अधिनियम द्वारा होता है । नगर निगमों के लिए एक अधिनियम भी हो सकता है तथा प्रत्येक नगर निगम के लिए अलग अधिनियम भी ।
किसी नगर निगम में तीन प्राधिकरण होते हैं- परिषद, स्थायी समितियाँ और आयुक्त । निगम परिषद में जनता द्वारा चुना गया पार्षद तथा नगरपालिका प्रशासन से संबंधित कार्य अनुभव और ज्ञान रखने वाले कुछ नामित व्यक्ति हो सकते हैं । संक्षेप में, निगम परिषद की संरचना, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षण सहित 74वें संशोधन अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार होती है ।
निगम परिषद का प्रधान ‘महापौर’ होता है जिसकी सहायतार्थ ‘उपमहापौर’ होता है । मेयर का चुनाव अधिकांश राज्यों में एक वर्ष की अवधि के लिए होता है बाद में इसका नवीनीकरण किया जा सकता है । महापौर (मेयर) मूलतः दिखावटी होता है और निगम का औपचारिक प्रमुख होता है । मेयर का मुख्य कार्य निगम के विधायी और वैचारिक स्कंध-‘परिषद’ की बैठकों की अध्यक्षता करना है ।
स्थायी समितियों के गठन का उद्देश्य निगम के कार्यों में सहायता पहुँचाना है । निगम में कार्यों का अंबार रहता है जिनके निपटान को सुगम बनाने का कार्य स्थायी समितियों द्वारा किया जाता है । स्थायी समितियां सार्वजनिक कार्यों, शिक्षा, स्वास्थ्य, कराधान, वित्त आदि से जुड़े मामलों को निपटाती हैं । स्थायी समितियाँ अपने कार्यक्षेत्र से संबंधित निर्णय भी लेती हैं ।
नगर निगम आयुक्त पर स्थायी समितियों और परिषद द्वारा लिए गए निर्णयों को कार्यान्वित करने की जिम्मेदारी होती है । इस प्रकार निगम आयुक्त निगम का मुख्य कार्यकारी प्राधिकारी होता है । निगमायुक्त की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है और वह प्रायः भारतीय प्रशासनिक सेवा का सदस्य होता है ।
2. नगरपालिका:
नगरपालिकाओं की स्थापना शहरों और छोटे नगरों पर प्रशासन की दृष्टि से की जाती है । निगम की तरह नगरपालिकाओं की स्थापना भी राज्यों में राज्य विधानमंडल के अधिनियम द्वारा तथा संघ राज्य क्षेत्रों में संसदीय अधिनियम द्वारा की जाती है ।
नगरपालिकाओं को दूसरे नामों से भी जाना जाता है, अर्थात नगर परिषद, नगर समिति, म्यूनिस्पल बोर्ड, बारो म्यूनिसिपलिटी, सिटी म्यूनिसिपलिटी और अन्य । नगर निगमों की तरह नगरपालिका में भी तीन प्राधिकरण होते हैं- परिषद, स्थायी समिति और मुख्य कार्यकारी अधिकारी ।
परिषद की संरचना, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षण सहित 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार होती है । परिषद नगरपालिका का विमर्शी और विधायी स्कंध है । परिषद का प्रधान अध्यक्ष होता है जिसकी सहायतार्थ उपाध्यक्ष होते हैं । नगर निगम के महापौर से सर्वथा भिन्न, नगरपालिका का अध्यक्ष नगरपालिका प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । परिषद की बैठकों की अध्यक्षता करने के अलावा उसे कार्यकारी शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं ।
नगरपालिका में स्थायी समितियों का गठन परिषद के कार्यों को सुगम बनाने के लिए किया जाता हैं- स्थायी समितियों सार्वजनिक कार्यों कराधान स्वास्थ्य वित्त आदि से जुड़े मामलों का निपटान करती हैं ।
मुख्य कार्यकारी अधिकारी या मुख्य नगरपालिका अधिकारी पर नगरपालिका के दिन-प्रतिदिन के सामान्य प्रशासन की जिम्मेदारी होती है तथा उसकी नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है ।
3. अधिसूचित क्षेत्र समिति (नोटिफाड़ड एरिया कमेटी):
इस समिति का गठन दो तरह के क्षेत्रों में किया जाता है । वे क्षेत्र हैं- औद्योगीकरण के कारण तेजी से विकसित हो रहे नगर तथा वे नगर जो नगरपालिका के गठन संबंधी आवश्यक शर्तों को पूरा नहीं कर पाते किंतु जिन्हें राज्य सरकार द्वारा महत्त्वपूर्ण माना जाता हो ।
इस समिति का गठन फूँक सरकारी राजपत्र में अधिसूचना के द्वारा होता है इसलिए इसे अधिसूचित क्षेत्र समिति कहते हैं । यद्यपि यह समिति राज्य के म्यूनिसिपल अधिनियम के अंतर्गत कार्य करती है किंतु अधिनियम के केवल वे प्रावधान ही इस समिति पर लागू हैं जो सरकारी राजपत्र में अधिसूचित हैं और जिनके द्वारा इसका गठन हुआ है ।
इस समिति को किसी दूसरे अधिनियम के अंतर्गत भी अपनी शक्तियों का प्रयोग करने की अनुमति दी जा सकती है । इस समिति को नगरपालिकाओं के समकक्ष शक्ति प्राप्त होती है; किंतु नगरपालिका से सर्वथा भिन्न इस समिति के सभी सदस्य तथा अध्यक्ष राज्य सरकार द्वारा नामित किए जाते हैं । इस प्रकार यह समिति न तो निर्वाचित निकाय है और न ही संवैधानिक ।
4. टाउन एरिया कमेटी:
इस कमेटी का गठन छोटे शहरों पर प्रशासन की दृष्टि से किया जाता है यह अर्ध-नगरपालिका प्राधिकरण है जिसको सीमित संख्या में कार्य सौंपे गए हैं । जैसे- जलनिकासी, सड़क, पथ-प्रकाश, संरक्षण आदि । इस कमेटी की स्थापना राज्य के विधान के अंतर्गत अलग अधिनियम द्वारा होती है ।
इस कमेटी की संरचना, कार्य और अन्य मामलों का निर्धारण इस अधिनियम द्वारा ही किया जाता है । यह समिति राज्य सरकार द्वारा पूर्णतः निर्वाचित या पूर्णतः नामित अथवा अंशतः निर्वाचित और अंशतः नामित हो सकती है । ए.पी.जैन की अध्यक्षता वाली ‘ग्रामीण शहरी क्षेत्र से संबद्ध समिति’ (1963-66) ने सिफारिश की थी कि स्थानीय निकायों की संख्या को कम करने की दृष्टि से छोटे शहरी क्षेत्र की समितियों को पंचायती राज संस्थाओं में मिला देना चाहिए ।
5. छावनी बोर्ड:
छावनी बोर्ड की स्थापना छावनी क्षेत्र की असैनिक आबादी पर नगरपालिका प्रशासन की दृष्टि से होती है । इसका क्षेत्र विस्तारित होता है जिसमें सैन्य बल और टुकड़ियाँ स्थायी रूप से रहती हैं । छावनी बोर्ड का गठन केंद्र सरकार द्वारा अधिनियमित छावनी क्षेत्र अधिनियम 1924 के अंतर्गत किया जाता है ।
यह बोर्ड केंद्रीय सरकार के अधीन रक्षा मंत्रालय के नियंत्रण में कार्य करता है । इस प्रकार यह उन शहरी स्थानीय निकायों से सर्वथा भिन्न है जिनका गठन और प्रशासन राज्य सरकार द्वारा होता है । छावनी बोर्ड का गठन और प्रशासन केद्रं सरकार द्वारा होता है ।
वर्तमान में, देशभर में 63 छावनी बोर्ड हैं जिन्हें निम्नलिखित 3 श्रेणियों में बाँटा गया है:
(i) श्रेणी I – 10,000 से अधिक असैनिक आबादी
(ii) श्रेणी II – 2300 से 10,000 के बीच की असैनिक आबादी
(iii) श्रेणी III – 2500 से कम असैनिक आबादी
छावनी बोर्ड में अंशतः निर्वाचित और अंशतः नामित सदस्य होते हैं । चुने हुए सदस्यों का कार्यकाल 3 वर्ष का तथा नामित सदस्यों (पदेन सदस्य) का कार्यकाल तब तक के लिए होता है जब तक वे उस शहर में रहते हुए उस पद पर होते हैं । संबद्ध स्टेशन को कमांड कर रहा सैन्य अधिकारी छावनी बोर्ड का पदेन अध्यक्ष होता है और बोर्ड की बैठकों की अध्यक्षता करता है । बोर्ड के उपाध्यक्ष का चुनाव चुने हुए सदस्यों द्वारा उन्हीं सदस्यों में से किया जाता है जिनका कार्यकाल 3 वर्ष का होता है ।
श्रेणी 1 के छावनी बोर्ड में निम्नलिखित सदस्य शामिल होते हैं:
(i) स्टेशन को कमांड कर रहा सैनिक अधिकारी
(ii) छावनी क्षेत्र का कार्यकारी अभियंता
(iii) छावनी क्षेत्र का स्वास्थ्य अधिकारी
(iv) जिला मजिस्ट्रेट द्वारा नामित प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट
(v) स्टेशन को कमांड कर रहे सैन्य अधिकारी द्वारा नामित चार सैन्य अधिकारी
(vi) छावनी क्षेत्र की जनता द्वारा चुने गए सात सदस्य
छावनी बोर्ड वे ही काम करता है जो नगरपालिकाओं द्वारा किए जाते हैं । ये कार्य संवैधानिक दृष्टि से बाध्यकर और विवेकाधीन कार्यों के रूप में श्रेणीबद्ध हैं । बोर्ड की आय के स्रोत में कर आधारित आय और गैर-कर आधारित आय- दोनों तरह की हैं ।
छावनी बोर्ड के कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है । कार्यकारी अधिकारी बोर्ड और इसकी समितियों के सभी निर्णयों और प्रस्तावों को लागू करता है । कार्यकारी अधिकारी केंद्रीय संवर्ग का होता है जिसका गठन इस प्रयोजन से ही किया जाता है ।
6. टाउनशिप:
शहरी शासन के इस रूप की स्थापना बड़े सार्वजनिक उद्यमों द्वारा अपने उन कार्मिकों और श्रमिकों को नागरिक सुविधाएँ प्रदान करने के लिए की जाती है जो उद्यम से जुड़े संयत्रों के निकट बनी आवासीय कॉलोनियों में रहते हैं ।
उद्यम ऐसे शहर (टाउनशिप) में प्रशासन कार्य की देखभाल के लिए नगर प्रशासन की नियुक्ति करता है जिसकी सहायतार्थ कुछ अभियंता तथा तकनीकी और गैर तकनीकी स्टाफ होते है । इस प्रकार शहरी शासन के इस रूप में कोई निर्वाचित सदस्य नहीं होता है । वास्तविकता यह है कि टाउनशिप उद्यम के नौकरशाही ढाँचे का विस्तार है ।
7. पोर्ट ट्रस्ट:
इनकी स्थापना पत्तन शहरों जैसे मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि जैसे स्थानों पर दो उद्देश्यों से की जाती है:
(i) पत्तनों के प्रबंधन और उनकी सुरक्षा के लिए, और
(ii) नागरिक सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए ।
पोर्ट ट्रस्ट का गठन संसद के अधिनियम द्वारा होता है । इसमें निर्वाचित और नामित-दोनों तरह के सदस्य होते हैं । इसका अध्यक्ष कोई अधिकारी होता है । इसके नागरिक कार्य कमोबेश नगरपालिका जैसे ही है ।
8. विशेष उद्देश्य एजेंसी:
क्षेत्र आधारित शहरी निकायों या बहुउद्देश्यीय एजेंसियों; जैसे- नगर निगम, नगरपालिकाएँ, अधिसूचित क्षेत्र समितियाँ, टाउन एरिया समितियाँ, छावनी बोर्ड टाउनशिप पोर्ट ट्रस्ट के अतिरिक्त राज्य सरकारों द्वारा उन विशेष कार्यों को निपटाने के लिए कुछ एजेंसियों का गठन किया है जो वैध रूप से नगरनिगमों या नगरपालिकाओं या अन्य स्थानी शहरी शासन के अधिकार क्षेत्र में आती हैं । दूसरे शब्दों में, कार्य आधारित एजेंसियों हैं न कि क्षेत्र आधारित । इन एजेंसियों को ‘एक उद्देशीय’ या ‘बहुउद्देशीय या विशेष उद्देशीय’ अथवा ‘कार्य आधारित’ स्थानीय निकाय कहा जाता है ।
इस प्रकार के कुछ निकायों/एजेंसियों का उल्लेख नीचे किया जा रहा है:
(i) टाउन इम्प्रूव्मेंट ट्रस्ट (नगर सुधार ट्रस्ट)
(ii) अरबन डेवलपमेंट अथारिटी (शहरी विकास प्राधिकरण)
(iii) वाटर सप्लाई एंड सीवरेज बोडर्स (जल आपूर्ति एवं मलजल निकासी बोर्ड)
(iv) हाउसिंग बोर्ड (गृह निर्माण बोर्ड)
(v) प्रदूषण नियंत्रण बोडर्स
(vi) विद्युत आपूर्ति बोडर्स
(vii) ट्रांसपोर्ट बोर्ड और अन्य ।
कार्य आधारित इन स्थानीय निकायों की स्थापना राज्य विधानमंडल के अधिनियम द्वारा एक सार्वजनिक निकाय के रूप में अथवा कार्यकारी प्रस्ताव के द्वारा विभागों के रूप में की जाती है । ये स्वायत्त संस्थाओं के तौर पर काम करते हैं और स्थानीय-शहरी सरकारों के; अर्थात नगर निगमों या नगर पालिकाओं आदि से स्वाधीन उन कार्यों को निपटाते हैं जो उनको सौंपे जाते हैं । अतः ये स्थानीय नगरपालिका निकायों की अधीनस्थ संस्थाएँ नहीं हैं ।
5. नगरपालिका कार्मिक (Municipal Personnel):
भारत में 3 प्रकार की नगरपालिका कार्मिक-प्रणालियाँ हैं । स्थानीय शहरी शासन के अंतर्गत कार्यरत कार्मिक इन तीन प्रणालियों में से किसी एक अथवा सभी प्रणालियों से संबद्ध हो सकते हैं ।
ये प्रणालियाँ हैं:
1. पृथक कार्मिक प्रणाली:
इस प्रणाली के अंतर्गत प्रत्येक स्थानीय निकाय अपने कर्मचारियों की नियुक्ति प्रशासन और नियंत्रण स्वयं करता है । इन कार्मिकों को किसी दूसरे स्थानीय निकाय में स्थानांतरित नहीं किया जा सकता । यह व्यापक रूप से प्रचलित प्रणाली है । यह प्रणाली स्थानीय स्वायत्तता के सिद्धांत की पुष्टि करती है और अविभक्त निष्ठा भाव को प्रोत्साहंन देती है ।
2. सम्मिलित कार्मिक प्रणाली:
इस प्रणाली के अंतर्गत नगरपालिका कर्मचारियों की नियुक्ति उन पर प्रशासन और नियंत्रण राज्य सरकार करती है । दूसरे शब्दों में राज्य के सभी शहरी निकायों के लिए राज्यव्यापी सेवाओं का निर्माण किया जाता है । इनको राज्य के स्थानीय निकायों के बीच स्थानांतरित किया जा सकता है । यह प्रणाली आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में प्रचलित है ।
3. एकीकृत कार्मिक प्रणाली:
इस प्रणाली के अंतर्गत राज्य सरकार के कर्मचारी और स्थानीय निकायों के कर्मचारी एक ही सेवा के अंग होते हैं; अर्थात नगरपालिका कार्मिक राज्य सेवा के सदस्य होते हैं । इन कार्मिकों को राज्य के स्थानीय निकायों में ही नहीं बल्कि राज्य सरकार के विभागों तथा स्थानीय निकायों में भी स्थानांतरित किया जा सकता है । इस प्रकार स्थानीय लोकसेवा और राज्य लोकसेवा में कोई भेद नहीं होता है । यह प्रणाली उड़ीसा बिहार कर्नाटक पंजाब हरियाणा और अन्य राज्यों में प्रचलित है ।
नगरपालिका कार्मिकों को प्रशिक्षण प्रदान कर रही राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न संस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं:
1. अखिल भारतीय स्थानीय स्वशासन संस्थान (ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ लोकल सेल्फ गवर्नमेंट मुंबई ।) इसका गठन वर्ष 1927 में हुआ था । यह निजी पंजीकृत समिति है ।
2. शहरी एवं पर्यावरण अध्ययन केंद्र (सेंटर फॉर अरबन एंड एनवायरमेंटल स्टडीज) नई दिल्ली । इसका गठन ‘नगर पालिका कर्मचारियों को प्रशिक्षण’ विषय से संबद्ध नूरूद्दीन अहमद समिति (1963-65) की सिफारिशों के आधार पर वर्ष 1967 में किया गया था ।
3. क्षेत्रीय शहरी एवं पर्यावरण अध्ययन केंद्र (रीजनल सेंटर्स फॉर अरबन एंड एनवायरमेंटल स्टडीज) कोलकाता, लखनऊ, हैदराबाद और मुंबई का गठन भी नूरूद्दीन अहमद कमेटी में उल्लिखित समिति की ही सिफारिश के आधार पर वर्ष 1968 में किया गया था ।
4. राष्ट्रीय शहरी मामलों का संस्थान (नेशनल इंस्टीट्यूट आफ अरबन अफेयर्स) स्थापना वर्ष 1976
5. मानव अधिवास प्रबंधन संस्थान (ह्यूमन सेटलमेंट मैनेजमेंट इंस्टीट्कू) स्थापना वर्ष 1985
6. केंद्रीय स्थानीय शासन परिषद (Central Council of Local Government):
इस की स्थापना वर्ष 1954 में भारत के राष्ट्रपति के आदेश से संविधान के अनुच्छेद 263 के अंतर्गत की गई थी । मूलतः इसे केंद्रीय स्थानीय स्वशासन परिषद के नाम से जाना जाता था । ‘स्वशासन’ शब्द को अनावश्यक मानते हुए मात्र ‘शासन’ शब्द को रहने दिया गया । इस प्रकार स्वशासन के स्थान पर स्थानीय शासन अर्थात ‘केंद्रीय स्थानीय शासन परिषद’ का नाम पड़ा ।
वर्ष 1958 तक यह परिषद शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्र के स्थानीय शासन का कार्य संभालती रही किंतु वर्ष 1958 के बाद यह परिषद केवल शहरी स्थानीय शासन का कार्य ही देख रहा है । परिषद एक परामर्शदाता निकाय है । इसमें भारत सरकार में शहरी विकास मंत्री और राज्यों के स्थानीय स्वशासन से जुड़े विभाग के मंत्री शामिल होते हैं । परिषद का अध्यक्ष केंद्रीय मंत्री होता है ।
यह परिषद स्थानीय शासन से संबंधित निम्नलिखित कार्य करती है:
(i) नीतिगत मामलों पर विचार और उनकी अनुशंसा,
(ii) विधान निर्माण संबंधी प्रस्ताव तैयार करना,
(iii) केंद्र और राज्य के बीच सहयोग की संभावना का पता लगाना,
(iv) साझा कार्य योजना तैयार करना,
(v) केंद्रीय वित्तीय सहायता हेतु सिफारिश करना,
(vi) केंद्रीय वित्तीय सहायता से स्थानीय निकायों द्वारा किए गए कार्यों की समीक्षा करना ।