Read this article in Hindi to learn about the models of comparative public administration. The models are:- 1. प्रारंभिक आदर्श मॉडल 2. विस्तृत-प्रिज्मीय- चक्रीय मॉडल (Fused-Prismatic-Diffracted Model) (नया आदर्श मॉडल) 3. विवर्तित मॉडल (Differentiated Model) and a Few Others.
1. प्रारंभिक आदर्श मॉडल:
संरचनात्मक-कार्यात्मक उपागम का इस्तेमाल करते हुऐ रिग्स ने 1956 में अपना कृषका-औधोगिका (Agraria-Industrial) मॉडल प्रस्तुत किया । इस मॉडल का आधार चीन और अमेरिका के क्रमश: कृषि और औधोगिक प्रधान समाजों का तुलनात्मक अध्ययन था ।
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जो इस प्रकार है:
1. कृषि समाज में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति जन्म आधारित होती है (आरोपण) जब कि औधोगिक समाज में उपलब्धि आधारित (उपलब्धिन्मुख) ।
2. कृषि समाज में सामाजिक स्तरीकरण में स्थिरता और इस कारण से स्पष्टता रहती है जबकि औधोगिक समाज में सामाजिक स्तरीकरण अस्थिर और इस कारण से अस्पष्ट रहता है । कार्य और उपलब्धि में परिवर्तन होते ही, व्यक्ति की सामाजिक स्थिति भी बदल जाती है । व्यक्ति कभी ऊँची स्थिति में चला जाता है तो कभी निचली स्थिति में, यह उसके द्वारा अर्जित उपलब्धि के अनुपात में होता है ।
3. अत: कृषि समाज सामान्य रूप से स्थिर होते है, तो औधोगिक समाज गतिशील ।
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4. इस प्रकार कृषि समाजों की व्यवस्था मतभेदपूर्ण स्तरीकरण से ग्रस्त रहती है (जैसे प्राचीन भारत में वैश्यों को उनकी भौतिक उपलब्धि के बावजूद सामाजिक स्तरीकरण में ब्राहमण, क्षत्रीय से निचला दर्जा प्राप्त था) । इसके विपरित औधोगिक समाजों में समानता आधारित वर्ग विभाजन रहता है ।
5. कृषि समाजों में सामाजिक मूल्य कारणात्मक होते है अर्थात् परम्परा-आधारित होते हैं जबकि औधोगिक समाजों में सामाजिक मूल्यों का वैज्ञानिक-तार्किक आधार होता है ।
6. कृषि समाजों में पेशेगत भिन्नताएं साधारण और स्थिर होती हैं । एक व्यक्ति एक से अधिक व्यवसाय करता दिखायी देता है जैसे वह जमीन भी जोत रहा है, फसल की कटाई में भी लगा है, उसका विपणन भी कर रहा है, खुद का धंधा भी कर रहा है और खाली समय में हस्तशिल्प के सामान बना रहा है ।
औद्योगिक समाजों और आलोचना: इन मॉडल की आलोचना हुई । औधोगिक समाजों में व्यवसायिक ढाँचा विकसित होता है जिसमें पेशेवरता पायी जाती है । क्योंकि यहां एक व्यक्ति कार्य विशेष को ही करता है और उसमें निपुण होता है ।
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7. अत: कृषि समाज के सभी ढाँचे, चाहे सामाजिक संस्थायें हों या आर्थिक या राजनीतिक असंगठित अवस्था में पाये जाते हैं । जबकि औधोगिक समाजों में संगठित अवस्था में जो स्वरूप में विशिष्ट और स्पष्ट होते हैं । रिग्स के अनुसार सभी कृषक समाजों का धीरे-धीरे औधोगिक समाजों में रूपान्तरण हो जाता है ।
संक्रमणा मॉडल (Transitia Model):
1957 में रिग्स ने कृषका-औधोगिका के मध्य एक संतुलनकारी मॉडल दिया, जिसे ”संक्रमण” की संज्ञा दी । यह वस्तुत: कृषि समाजों के औधोगिक समाजों में रूपान्तरण होने की मध्य अवस्था है । कृषि समाज का औधोगिक समाज की ओर संक्रमण किस रूप में होता है संक्रमणा मॉडल यह बताता है । यह विकासशील देशों की अवस्था का घोतक है ।
रिग्स के अनुसार कृषका और औधोगिका के उसके मॉडल आदर्श समाजों का प्रतिनिधित्व करते हैं, वास्तविकता में ऐसे समाज नहीं पाये जाते हैं । वास्तविकता में तो सभी समाज ”संक्रमण” हैं जिसमें इन दोनों समाजों की विशेषताओं का सह अस्तित्व पाया जाता है ।
लेकिन ये विशेषताएं बराबर नहीं पायी जाती । या तो कृषका-विशेषताएं अधिक होंगी या औधोगिक । जिस समाज में कृषका की विशेषताएं अधिक प्रभावी होगी वह कृषि समाज होगा और जिसमें औधोगिका की विशेषताएं अधिक प्रभावी होंगी, वह औधोगिका समाज होगा ।
सीमाऐं और आलोचना:
इन मॉडल की आलोचना हुई । रिग्स ने स्वयं इनकी सीमाओं को स्वीकार किया ।
जैसे:
i. यह कृषि और औधोगिक विकास जैसे आर्थिक पहलुओं को अधिक रेखांकित करते हैं जबकि पिछड़े और विकसित समाजों का वर्गीकरण सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, प्रौधोगिकी आदि स्तरों में अन्तर के आधार पर अधिक स्पष्टता के साथ किया जा सकता है ।
ii. कृषका-औधोगिका मॉडल संक्रमणशील (विकाशशील) समाजों के अध्ययन में कोई सहायता नहीं करते ।
iii. आधुनिक से आधुनिक समाज में भी कृषि का महत्व रहता है, जिसकी उपेक्षा ये मॉडल करते हैं ।
iv. इन मॉडलों में समाज के जिन चरित्रों का विश्लेषण किया गया है, उनमें प्रशासनिक चरित्र को बहुत कम स्थान मिला है। जब कि रिग्स का ध्येय इन समाजों में प्रशासनिक व्यवस्था का ही विश्लेषण करना था । वह प्रशासन के केन्द्र बिन्दु को भूल गये और उसके पर्यावरण पर अधिक ध्यान लगा बैठे ।
v. कृषि अवस्था से औधोगिक अवस्था की और गति को दिशात्मक मानना सिद्धान्तत: गलत है ।
2. विस्तृत-प्रिज्मीय- चक्रीय मॉडल (Fused-Prismatic-Diffracted Model) (नया आदर्श मॉडल):
उक्त आलोचनाओं और सीमाओं को ध्यान में रखते हुऐ रिग्स ने अपने पुराने मॉडल को त्याग दिया । विकासशील समाजों और उनके प्रशासनिक व्यवस्था के विश्लेषण हेतु नया आर्दश प्ररूप विकसित किया, जिसे विस्तृत-प्रिज्मय-चक्रीय नाम दिया ।
वस्तुत: इसमें विस्तृत, (संयोजित) प्रिज्मीय (समपार्श्वीय) और चक्रीय विवर्तित क्रमश: पिछड़े, विकासशील और विकसित समाजों से संबंधित है लेकिन इन सबका उदेश्य विकासशील समाज के चरित्र का विश्लेषण करना है और उसकी प्रशासनिक व्यवस्था (साला) को समझाना है । ये मॉडल 1959-60 के दौरान विकसित किये गये ।
वर्ग विक्षेपण का प्रकाशिकीय सिद्धान्त: रिग्स ने प्रकाश के वर्ण विक्षेपण सिद्धान्त का इस्तेमाल एक रूपक के रूप में करते हुऐ उक्त तीन प्रकार के समाजों के चरित्र को स्पष्ट करने का प्रयास किया है । सूर्य की श्वेत किरण सात रंगों से मिलकर बनी होती है । ये सातों रंग इस किरण में इस तरह घुले-मिले रहते है कि किसी भी रंग का पृथक् अस्तित्व नहीं दिखायी देता ।
इस किरण को प्रिज्म से गुजारा जाए, तो इसके सात रंगों में विलगाव या अलगाव उत्पन्न होगा जो प्रिज्म के अन्दर आशिक जबकि उसके बाहर पूर्णत: होता है । यह विक्षेपण महत्तम होता है क्योंकि और अधिक प्रिज्म लगाने पर भी इससे अधिक विक्षेपण नहीं होगा । वर्षा ऋतु में इन्द्रधनुष बनने की प्रकिया भी इसी तरह की है ।
रिग्स ने किरण के प्रा. बिन्दु को संयोजित या विस्तृत, प्रिज्म के भीतर किरण में उत्पन्न कंपन या आशिक विलगाव को समपार्श्वीय और प्रिज्म के बाहर चक्कर लगाते हुऐ निर्मित सप्तरंगी वर्णक्रम को चक्रीय या विवर्तित कहा ।
विकास प्रक्रिया का वर्ण विक्षेपण सिद्धान्त: रिग्स के अनुसार अधिकांश पारम्परिक समाज या पिछड़े देश अपने प्राकृतिक स्वरूप में सूर्य की प्रकाश किरण के समान होते है । इन समाजों में बहुत कम संरचनाएं होती है और एक संरचना अनेक कार्य सम्पन्न करती है । रिग्स ने इन पारम्परिक समाजों को विस्तृत समाज कहा ।
इन्हें संयोजित समाज का भी नाम दिया जिनमें श्वेत प्रकाश किरण के समान एक मात्र संस्था ”परिवार” दिखती है जिसमें अन्य संरचनाएं भी मिली होती हैं मसलन आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक इत्यादि । यह अपने राज परिवार का ही प्रतिरूप होता है जो देश के समाज, अर्थ, राजनीति, प्रशासन सभी कार्यों का एकमात्र केन्द्र बिन्दु होता है ।
रिग्स के अनुसार इन संयोजित या विस्तृत समाजों को विवर्तित या चक्रिय समाज अर्थात विकसित समाजों में बदलने के लिये प्रिज्ममेटिक अवस्था से गुजरना होता है । अर्थात् इनमें परस्पर संलयित संरचनाओं को पृथक-पृथक करना होता है । जब इन विशिष्ट संरचनाओं में पूर्णत: अलगाव के साथ प्रभावी एकीकरण भी हो जाता है, तो ऐसे समाज विवर्तित या चक्रिय (विकसित) समाज बन जाते हैं । इन्हें रिग्स ने अत्याधुनिक समाज भी कहा है ।
रिग्स के अनुसार विस्तृत और विवर्तित समाज वास्तविकता में नहीं होते हैं, बल्कि सभी समाज वास्तविकता में प्रिज्येटिक समाज हैं । जिस प्रिज्मेटिक समाज में विस्तृत समाज का चरित्र अधिक प्रभावी होगा, वह विस्तृत समाज तथा जिसमें विवर्तित का चरित्र अधिक प्रभावी होगा वह विवर्तित समाज होगा ।
वर्ण विक्षेपण के प्रकाशिकी सिद्धान्त से विकास की प्रकिया को समझाते हुऐ रिग्स ने प्रिज्मेटिक समाजों का गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया है क्यों कि इसी समाज और उसमें स्थित प्रशासन (साला) की व्याख्या उसका मुख्य ध्येय था । लेकिन इसके लिये उसे विस्तृत और विवर्तित मॉडल की भी व्याख्या और तुलना का सहारा लेना पड़ा ।
विस्तृत मॉडल या संयोजित मॉडल:
रिग्स ने विस्तृत या संपुटित समाज से संबंधित अपने मॉडल को विकसित करने के लिये साम्राज्यवादी चीन, क्रांति पूर्व का कंबोडिया और पहले के थाइलैण्ड (स्याम) का अध्ययन किया । रिग्स के अनुसार अधिकांश पारम्परिक समाज या पिछड़े देश अपने प्राकृतिक स्वरूप में सूर्य की श्वेत किरण के समान होते हैं ।
इन समाजों में प्रकार्यों का कोई स्पष्ट वर्गीकरण नहीं है । प्रत्येक ढाँचा ‘इकहरी संरचना’ है जिसमें अनेक संरचनाओं का घोल मेल है । एक कार्य अनेक संरचना करती दिखायी देती है, तो एक संरचना अनेक कार्यों में उलझी रहती है । अत: इन्हें विस्तृत कार्यात्मक समाज भी कहा गया ।
इन समाजों की विभिन्न चारित्रिक विशेषताएं रिग्स ने इस प्रकार बतायी हैं:
(i) सामाजिक संरचना:
समाज की विभिन्न संरचनाएं जैसे राजनीति, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आदि परिवार में निहित होती हैं और इसलिये परिवार संयुक्त और बड़ा होता है । परिवार एकमात्र सामाजिक संस्था होती है । समाज के मूल्य परम्पराओं पर आधारित होते हैं । समाज का स्वरूप लगभग कबिलाई (Canton) होता है, जिसमें एक ही सम्प्रदाय के लोग एक स्थान पर रहते (जिसे रिग्स ने Sects कहा है) हैं ।
(ii) आर्थिक संरचना:
विस्तृत समाजों की आर्थिक व्यवस्था को रिग्स ने “एरिन” की संज्ञा दी जो अनेक एरिना घटकों-समाज, धर्म, जाति, राजनीति से प्रभावित होती हैं । पृथक वित्तीय संस्थाओं जैसे बैंक आदि का उदय नहीं होता है और इसलिये परस्पर लेन-देन में वस्तु विनिमय का प्रचलन रहता है, जिसे सिए ने ”पुनर्वितरण प्रारूप” की संज्ञा दी । कृषि पर व्यापक रूप से निर्भर ऐसे समाजों में औधोगिकरण का अभाव होता है ।
(iii) राजनीतिक संरचना:
राजनीतिक चेतना या जागरूकता से शून्य विस्तृत समाजों में राजा और राजपरिवार ही राजनीतिक मुखिया होता है । शासक और शासित (राजा और प्रजा) के मध्य संबंध निम्न स्तर के होते हैं । शासक वर्ग जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होता, फिर भी जनता के मध्य उसकी अत्यधिक प्रतिष्ठा होती है ।
जनता शासन या राजा को अपनी सेवायें, कर, भेंट आदि देती है, लेकिन बिना किसी प्रतिफल की आशा के । इस प्रकार विस्तृत समाजों में सरकार की कोई पृथक् और आधुनिक संकल्पना का अभाव होता है । शासक वर्ग और उसके नुमाइन्दे दमनकारी कानूनों का उपयोग करते है ।
(iv) प्रशासनिक संरचना:
राजनीतिक मुखिया ही प्रशासनिक मुखिया होता है । वही अपने खासमखास लोगों, विशेषकर परिवार से जुड़े लोगों को महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करता है । इसलिये प्रशासन तन्त्र भी जनता के बजाय शासक वर्ग (राज परिवार) के हितों के लिये काम करता है ।
इस प्रकार विस्तृत समाजों की प्रशासनिक संरचना अपने आप में विशिष्ट (अपने आप में अलग) मनौनीत और शासन तन्त्र का ही प्रतिरूप होती हैं, जिसे रिग्स ने Chamber कहा । प्रशासन एक साथ अनेक कार्य प्रशासनिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि गतिविधियों में संलग्न रहता है ।
3. विवर्तित मॉडल (Differentiated Model):
यह विकसित समाजों से संबंधित रिग्स का अध्ययन मॉडल है, जिसे उसने पहले ”प्रकीर्णित” की संज्ञा दी और बाद में विवर्तित की । ये समाज वैज्ञानिक संरचनाओं, तार्किकता और आधुनिक मूल्यों पर आधारित होते है । प्रत्येक कार्य के लिये एक विशिष्ट संरचना या ढाँचा होता है जो अपने कार्य तक ही सीमित रहता है ।
अत: इन समाजों को अल्पकार्यात्मक भी कहा गया । इन समाजों की विशेषतायें हैं: सब के साथ समान व्यवहार, उपलब्धि आधारित मान्यतायें, विशेषीकृत संरचनायें आदि ।
विवर्तित समाजों की विभिन्न चारित्रिक विशेषताएं इस प्रकार होती हैं:
(i) सामाजिक संरचना:
सामाजिक गतिशीलता उच्च स्तरीय होती है क्योंकि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसकी उपलब्धि के अनुसार बदलती रहती है । इसीलिये व्यक्ति का सामाजिक स्पष्टीकरण अस्पष्ट रहता है । लेकिन वर्ग संरचना स्पष्ट और विवर्तित रहती है । परिवार छोटा और विशिष्ट होता है । सामान्यता एक स्थान पर सभी सम्प्रदाय के व्यक्ति रहते है या रह सकते हैं (जिसे रिग्स ने Club कहा है) ।
वस्तुत: विस्तृत समाज आधुनिक मूल्यों पर आधारित एक तर्कपूर्ण व्यवस्था होती है ।
(ii) आर्थिक संरचना:
रिग्स ने विवर्तित समाज को “बाजारीकृत समाज” कहा है । सौदेबाजी में मौद्रिक विनिमय का इस्तेमाल होता है और अनेक आर्थिक संघ या संस्थायें विशिष्ट कार्यों (प्रकार्य) को करने के लिये विकसित हो चुके होते हैं जैसे बैंक, बीमा आदि । संचार, प्रौधोगिकी और औधोगिक उत्पादन का उच्च स्तर पाया जाता है ।
(iii) राजनीतिक संरचना:
विवर्तित समाजों में राजनीतिक सला का आधार जन ईच्छा होती है । जनता सरकारों को बनाती या उतारती है अत: सरकारें जनता के प्रति उत्तरदायी होती है और उनकी जरूरतों का ख्याल रखती है । इस हेतु जनता के निकट सम्पर्क में रहती है । राज्य को बहुत कम नियमनकारी कानून लागू करना पड़ता है क्योंकि जनता अपने कर्त्तव्यों और दायित्वों के प्रति सजग रहती है ।
(iv) प्रशासनिक संरचना:
प्रशासन उच्च विशेषीकृत संरचना का उदाहरण होता है, जिसे रिग्स ने Bureau कहा । प्रत्येक कार्य के लिये विशिष्ट प्रशासनिक ढाँचा होता है । प्रशासन पेशेवर ढंग से कार्य करता है, जनता की सेवा ”सेवक” की भाँति करता है तथा सभी के साथ समान व्यवहार करता है ।
4. समपार्श्वीय मॉडल या प्रिज्मेटिक साला मॉडल (Prismatic Model):
रिग्स का मुख्य उदेश्य विकासशील देशों के समाज और उनकी प्रशासनिक व्यवस्था का विश्लेषण करना था । अत: इन देशों से संबंधित “प्रिज्मेटिक” मॉडल का उसने गहन-विश्लेषण प्रस्तुत किया है । उसके अनुसार प्रिज्मेटिक समाज वस्तुत: विस्तृत और विवर्तित समाजों के मध्य की वह स्थिति है जिसमें दोनों समाजों के चरित्रों का सह-अस्तित्व पाया जाता है ।
प्रिज्मेटिक समाजों ने आधुनिक समाजों की भाँति विभिन्न संरचनाओं और उनकी भूमिकाओं में जरूरी विशेषीकरण के स्तर को तो प्राप्त कर लिया है, लेकिन इनमें एकीकरण या समन्वय स्थापित नहीं कर पाये हैं ।
”साला” (प्रिज्मेटिक प्रशासन):
प्रिज्मेटिक समाज के प्रशासन को रिग्स ने ”साला” का विशेष संबोधन दिया । ”साला” एक स्पेनिश शब्द है जिसके अनेक अर्थों में शामिल है सरकारी कार्यालय, घर्मिक सभा, कक्ष, पांडाल आदि । स्पेन के अलावा उन पूर्वी एशियायी देशों में भी ”साला” इन्हीं अर्थों में प्रचलित है जहां कभी स्पेन का औपनिवेशिक शासन रहा है।
रिग्स ने ”साला” को समझाने के लिये विस्तृत समाज की प्रशासनिक व्यवस्था (चैम्बर) और विवर्तित समाज की प्रशासनिक व्यवस्था (ब्यूरो) की विशेषताओं का भी उल्लेख किया है । उसके अनुसार ”साला” के कई लक्षण चैम्बर और ब्यूरों में पाये जाते हैं ।
रिग्स के अनुसार प्रिज्मेटिक समाज के अनुरूप ही उसके प्रशासन ”साला” में भी विजातियता, औपचारिकता और परस्पर व्यापन दिखायी देता है । और ऐसा ब्यूरों और चैम्बर के दो परस्पर विपरित लक्षणों की उपस्थिति के कारण ही होता है ।
(i) सिद्धि उन्मुख भर्ती प्रणाली:
चैम्बर की भर्ती जहां आरोपण (सिफारिश, भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार) से होती है, ब्यूरों की भर्ती उपलब्धि (योग्यता) आधारित होती है । ”साला” की भर्ती में आरोपण और उपलब्धि दोनों आधारों पर होती है जिसे ”सिद्धि उन्मुख” कहा गया ।
यह ”औपचारिकता” का ही लक्षण है । कहने को प्रिन्मेटिक प्रशासन में भर्ती के लिये लोक सेवा आयोग जैसी स्वतंत्र भर्ती एजेंसियां हैं लेकिन इनमें भी सिफारिश, भ्रष्टाचार आदि आ ही जाता है, फिर अनेक पद इनके दायरे से बाहर हैं जो पिछले दरवाजे से भरे जाते हैं । प्रिज्येटिक समाज में सामान्यतया पाये जाने वाले इस लक्षण की उपस्थिति विकसित देशों में भी आशिक रूप से दिखायी देती है जैसे अमेरिका में लूट प्रथा ।
(ii) कोटा या आरक्षण प्रणाली:
प्रिज्मेटिक समाज में पारंपरिक वर्चस्व वाले अल्पसंख्यक (ब्राहम्ण, बनिया, क्षत्रिय) अपनी उच्च सामाजिक-आर्थिक स्थिति और राजनीतिक प्रभाव का लाभ उठाकर प्रशासन में अधिकाधिक पद लेने में सफल हो जाते हैं । इससे बहुसंख्यकों (पिछड़ी, दलित जातियों) में उत्पन्न असंतोष को कम करने हेतु आरक्षण या कोटा प्रणाली लागू की जाती है । प्रिज्मेटिक समाज में सामान्यतया पाये जाने वाले इस लक्षण की उपस्थिति विकसित देशों में भी आशिक रूप से दिखायी देती है जैसे अमेरिका के दक्षिण प्रांतों में श्वेत-अश्वेत संघर्ष ।
(iii) नौकरशाही प्रवृत्तियां:
साला प्रशासन स्वरूप में नौकरशाही प्रवृत्ति का होता है । यह अपनी संवृद्धि (अधिकार और आकार बढ़ाने में संलग्न) और आत्मरक्षा में लगा रहता है । सिस के अनुसार ”साला” संरचना वस्तुत: अत्यधिक केंद्रीकृत अधिकार संरचना है । यहां सत्ता और नियंत्रण एक दूसरे से पृथक होते है । रिग्स ने सत्ता के लिए ‘डि-ज्यूर’ शब्द इस्तेमाल किया है जिसका अर्थ है- वैधानिक शक्ति । उसने नियंत्रण के लिए “डि-फेक्टो” शब्द इस्तेमाल किया है जिसका अर्थ है, “वास्तविक” लेकिन अवैधानिक शक्ति । रिग्स कहते हैं कि डिज्यूर डिफेक्टों के सामने समर्पण कर देती है ।
रिग्स ने प्रिज्मेटिक समाज को इसलिये असंतुलित राज्य की संज्ञा दी है क्योंकि यहां संवैधानिक रूप से सशक्त प्रजातांत्रिक सत्ता के बावजूद नौकरशाही समाज पर हावी हो जाती है । परिणामत: जनता के हितों की अनेदखी होती है । लेकिन सिस के अनुसार साला अधिकारी जितना अधिक शक्ति संपन्न होगा, उतना ही अधिक प्रभावी भी होगा ।
(iv) आत्म कल्याणकारी भ्रष्ट प्रशासन:
रिग्स कहते हैं कि साला के अधिकारी जनकल्याण के बजाय स्वकल्याण पर बल देते हैं । नियम प्रक्रियाओं की आड़ में भ्रष्टाचार का खेल होता है और लालफीताशाही बढ़ती है । नौकरशाही उन नियमों-कानूनों-प्रक्रिया का ही उल्लंघन करती है जिनका पालन सुनिश्चित करवाना उसका दायित्व है । वस्तुत: सत्ता और दायित्व अस्पष्ट होता है क्योंकि विधि के शासन के साथ व्यक्ति का शासन भी उपस्थित हो जाता है ।
इस प्रकार घिस ने वैबर की आदर्श नौकरशाही को प्रिज्मेटिक दुनिया से बाहर कर दिया और बताया कि यह विकासशील देशों में नहीं पायी जाती । रिग्स ने आदर्श के स्थान पर वास्तविक नौकरशाही का चित्र खींचा जो वेबर की सकारात्मक छवि के स्थान पर नौकरशाही की नकारात्मक छवि को प्रतिबिम्बत करता है ।
विस्तृत-विवर्तित-प्रिज्येटिक समाजों की तुलना:
अत्यंत पिछड़े (विस्तृत), विकसित (विवर्तित) और विकासशील (बहुकार्यात्मक) समाजों के मध्य तुलनात्मक अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं:
1. विस्तृत एक स्थिरशील समाज है जबकि विवर्तित गतिशील और क परिवर्तनशील
2 अत: पहले में संरचनात्मक विलगाव नहीं होता, दूसरे में पूर्णत: होता है जबकि तीसरे में हो रहा होता है ।
3. पहला प्राथमिक समाज है, दूसरा आधुनिक जबकि तीसरा संक्रमणशील ।
4. इसलिये पहला विस्तृत-कार्यात्मक (प्रकार्यात्मक विसरण), दूसरा अल्प कार्यात्मक (प्रकार्यात्मक विशिष्टता) जबकि तीसरा बहु कार्यात्मक होता है । अत: पहला पूर्ण अविभेदीकृत (अविशेषीकृत), दूसरा पूर्ण विभेदीकृत (विशेषीकृत) जबकि तीसरा अल्प विभेदीकृत लेकिन एकीकृत होता है ।
5. विस्तृत समाज ग्राहकों से विशिष्ट व्यवहार (Particularism-विशिष्टता) विवर्तित समाज समान व्यवहार (Universalism-सार्वभौमिकता) करते हैं, जबकि प्रिज्मेटिक समाज चयनात्मक व्यवहार (Selectivism-विभिन्न तत्वों से प्रभावित) करते हैं ।
6. पहला समाज पारंपरिक मूल्यों (कारणात्मक मूल्य) पर आधारित होता है, दूसरा तर्कपूर्ण वैज्ञानिक मूल्यों पर जबकि तीसरा इन दोनों पर आधारित होता है (सैद्धांतिक रूप से तर्कपूर्ण और व्यवहारिक रूप से पारंपरिक) ।
7. अत: पहले में व्यक्ति की स्थिति जन्म आधारित, दूसरे में कर्म आधारित जबकि तीसरे में कभी जन्म, कभी कर्म आधारित होती है ।
8. पहले में व्यक्ति का शासन होता है, दूसरे में विधि का शासन होता है, तीसरे में परिस्थिति का शासन अर्थात विधि का शासन होता है लेकिन उसका उल्लंघन अधिक होता है (क्योंकि कानून के ऊपर पारंपरिक व्यवस्था हावी होती है) ।
9. पहले में वस्तुओं के मूल्य मर्जी अनुसार तय होते हैं, दूसरे में मांग-पूर्ति के तर्क पर आधारित होते हैं जबकि तीसरे में मोल-भाव या सौदेबाजी के माध्यम से ।
10. पहली अर्थव्यवस्था एरीना घटकों से प्रभावित है, दूसरी मार्केट के नियमों से जबकि तीसरी बाजार कैटीन व्यवहार से ।
11. पहले समाज में सेक्ट्स (एक संप्रदाय के लोग एक स्थान पर केंद्रीत) पाये जाते है, दूसरे में क्लब (एक स्थान पर अनेक संप्रदाय के लोग) और तीसरे में क्लेक्टस (सभी जाति, संप्रदाय के ऐसे व्यक्तियों के लिये संबोधन जो साधनों के इस्तेमाल में आधुनिक लेकिन सोचने में परंपरागत है) पाये जाते है।
12. पहले और दूसरे यथार्थ समाज होते हैं अर्थात जैसे होते हैं वैसे ही दिखते हैं जबकि तीसरे समाज में सिद्धांत और यथार्थ में अंतर पाया जाता है ।
13. अत: पहले और दूसरे के लक्षण सामान्य होते हैं जबकि प्रिज्मेटिक के विशिष्ट और इसका उदाहरण है तीन तरह की विशिष्टताएं- विजातीयता, औपचारिकता, और परस्पर व्यापन ।
चैम्बर-ब्यूरो-साला की तुलना:
रिग्स ने विस्तृत, विवर्तित और प्रिज्मेटिक समाज की नौकरशाही को क्रमश: चैम्बर, ब्यूरो और साला की संज्ञा दी । उसने चैम्बर और ब्यूरो के आधार पर साला को स्पष्ट किया ।
1. चैम्बर की भर्ती आरोपण (सिफारिश, भाई भतीजावाद) पद्धति से, ब्यूरो की भर्ती योग्यता आधारित पद्धति से और साला की भर्ती सिद्धि-उम्मुख पद्धति (योग्यता के साथ सिफारिश, रिश्वत का भी बोलबाला) से होती है ।
2. चैम्बर में कुछ ही संरचनाए सभी तरह के (राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक) कार्य करती है, ब्यूरो में प्रत्येक कार्य के लिये विशिष्ट संरचना होती है जबकि साला में विशिष्ट संरचनाएं तो होती हैं लेकिन वे परस्पर हस्तक्षेप करती हैं ।
3. पहले में व्यक्ति का शासन (राजपरिवार और मुट्ठीभर शासक वर्ग) दूसरे में विधि का शासन जबकि तीसरे में नौकरशाही का शासन होता है ।
4. चैम्बर में पारंपरिक नियम-प्रक्रियाएं होती हैं, ब्यूरो में आधुनिक और सरल होती हैं जबकि साला में कठोर और जटिल प्रक्रियाएं होती है ।
5. अत: चैम्बर और ब्यूरो की तुलना में साला में ‘लालफीताशाही’ अधिक पायी जाती है और इसलिये भ्रष्टाचार भी ।
6. चैम्बर के अधिकारी धर्म, परंपराओं के कारण नियमों का पालन करते हैं, ब्यूरो के अधिकारी कर्त्तव्य की भावना से उनका पालन करते हैं जबकि साला के अधिकारी कानूनों को तोड़ने में गर्व और शक्ति महसूस करते हैं ।
5. परवर्ती पारसोनियन मॉडल (संशोधित प्रिज्मेटिक माडल या द्विपक्षीय मॉडल):
फ्रेडरिग्स ने बाद में प्रिज्येटिक मॉडल संबंधी अवधारणा में इसलिये संशोधन किया क्योंकि यह मात्र एक पक्ष ”विलगाव” को तो स्पष्ट करती थी लेकिन दूसरे उतने ही महत्वपूर्ण पक्ष ”एकीकरण” की उपेक्षा करती थी ।
अत: अपनी पुस्तक ”प्रिज्मेटिक सोसाइटी रिविजिटेड”, 1975 में रिग्स ने ”प्रिज्मेटिक मॉडल” की पुन: व्याख्या द्विपक्षीय उपागम के अंतर्गत की जिसके दो मूलाधार थे:
1. विलगाव की मात्रा और
2. समन्वय या एकीकरण की मात्रा ।
इस प्रकार विलगाव को उन्होंने पूर्व के मॉडल के अनुरूप पुन: एक महत्वपूर्ण आधार के रूप में प्रयुक्त किया लेकिन उसके साथ अब ”समन्वय” के दूसरे नये आधार को भी प्रयुक्त किया । विलगाव या भिन्नता का अर्थ है प्रत्येक कार्य के लिये एक अलग संरचना की उपस्थिति । विलगाव संपुटन का विपरित है । समन्वय या एकीकरण का अर्थ है प्रत्येक संरचना की भूमिकाओं के मध्य समायोजन । समन्वय बिखराव का विलोम है ।
रिग्स के अनुसार संलयित या संपुटित समाज अविभाजित संरचना होता है अत: उसमें स्वाभाविक समायोजन मौजूद होता है । वस्तुत: समन्वय की समस्या तब उत्पन्न होती है जब संरचनाएं विभाजित या पृथक होना शुरू होती है और इसलिये विलगाव-समन्वय के द्विपक्षीय उपागम को रिग्स मात्र प्रिज्मेटिक और विवर्तित दो समाजों की विकास स्थिति को स्पष्ट करने के लिये प्रयुक्त करते हैं ।
इन्हें रिग्स ने ग्राफीय निरूपण के द्वारा भी समझाया है । दिये गए चित्र में X-अक्ष संरचनात्मक विभेदीकरण (अलगाव या विलगाव) को प्रदर्शित कर रहा है, जबकि Y-अक्ष इनके मध्य एकीकरण के मध्य ”विकर्ण” जैसी स्थिति पायी जाती है । अर्थात विभेदीकृत संचनाओं के मध्य एकीकरण के भिन्न-भिन्न स्तर हो सकते है ।
रिग्स ने विकर्ण को दो संकेतों के रूप में प्रयुक्त किया है:
1. विभेदीकरण के अनुपात में आवश्यक एकीकरण की स्थिति को दर्शाना ।
2. प्रत्येक संरचना के लिये आवश्यक स्वायत्तता की वह मात्रा ताकि वह अपना कार्य सक्षम तरीके से कर सके ।
अल्फाबेट्स (अक्षर-संकेतक) में M, N आदि विकर्ण पर अवस्थित अक्षर विवर्तित समाजों की विभिन्न स्थितियों को दर्शाते हैं । इसी प्रकार a, b, c आदि विकर्ण के नीचे अवस्थित अक्षर प्रिज्मेटिक समाजों की विभिन्न स्थितियों को दर्शाते हैं । M, N… S तक के अक्षरों को विकर्ण के ऊपर रखना स्पष्ट संकेत करता है कि विवर्तित समाज सदैव ही प्रिज्मेटिक से उच्च अवस्था में होगा ।
‘इयो’, ‘आर्थो’ और ‘नियो’ की संकल्पना:
रिग्स ने प्रिज्मेटिक और विवर्तित समाजों में से प्रत्येक को तीन श्रेणियों में पुन: बांटा । ऐसा विलगाव और समन्वय की तीन भिन्न स्थितियों के आधार पर किया । अत: प्रिज्मेटिक समाज इयो प्रिज्मेटिक, आर्थो प्रिज्मेटिक और नियो प्रिज्येटिक हो सकता है । इसी प्रकार विवर्तित समाज की भी तीनों अवस्थाएं हो सकती हैं । रिग्स ने इयो, आर्थो, नियो जैंसे उपसर्गों का प्रयोग, दोनों मॉडलों में यह स्पष्ट करने के लिये किया कि उनमें किस सीमा तक समन्वय हो पाया है ।
इस प्रकार प्रिज्मेटिक शब्दावली से अर्ध-विगलित का बोध होता है लेकिन इयो, आर्थो और नियो जुड़ने से यह तीन नये स्वरूप ले लेता है:
(i) इयो- प्रिज्मेटिक अर्थात अर्ध विगलित, न्यूनतम समायोजित ।
(ii) आर्थो- प्रिज्मेटिक अर्थात अर्ध विगलित, मध्यम समायोजित ।
(iii) नियो- प्रिज्मेटिक अर्थात अर्ध विगलित, पूर्ण समायोजित ।
इसी प्रकार विवर्तित समाजों को भी तीन नये स्वरूप दिये गये:
(i) इयो- प्रिज्मेटिक अर्थात पूर्ण विगलित, न्यूनतम समायोजित ।
(ii) आर्थो- ड्रीअर्थात पूर्ण विगलित, मध्यम समायोजित ।
(iii) नियो- प्रिज्मेटिक अर्थात अर्ध विगलित, पूर्ण समायोजित ।
यहां विगलित से आशय संरचनाओं में विभेदीकरण या विशेषीकरण या अलगाव से है । जबकि समायोजन से आशय इन संरचनाओं की भूमिका में एकीकरण या समन्वय या जुड़ाव से है ।
रिग्स के अनुसार इस द्विपक्षीय उपागम का प्रयोग यह स्पष्ट करने के लिये किया गया है कि:
1. प्रिज्मेटिक या विवर्तित समाज में भी भिन्न-भिन्न अवस्थाएं हो सकती हैं ।
2. प्रिज्मेटिक स्थितियां मात्र विकासशील देशों तक सीमित नहीं होती अपितु विकसित देशों में भी दिखायी दे सकती हैं । उदाहरण के लिये अमेरिका में विचलन-युक्त एकीकरण है जिसके चलते श्वेत-अश्वेत संघर्ष, छात्र आंदोलन, हिप्पी आंदोलन आदि प्रकट होते रहे हैं ।
3 इससे विकासशील समाजों के विचित्र प्रशासनिक व्यवहारों को समझाने में मदद मिलेगी ।
रिग्सीयन मॉडल का परीक्षण:
फ्रेडरिग्स और उनके विचारों का लोक प्रशासन के विकास में अत्यधिक महत्व स्वीकार किया जाता है । विशेषकर तुलनात्मक लोक प्रशासन, पर्यावरणीय प्रशासन और विकास प्रशासन के क्षेत्र में लिस का योगदान विशिष्ट पहचान रखता है । फिर भी सिसीयन मॉडलों की अपनी सीमाएं और कमियां हैं, जो आलोचना का केंद्र बनी हैं ।
सिसन ने रिग्स की सबसे कठोर आलोचना की है, जो मॉडल और उनमें प्रयुक्त शब्दावली दोनों को लेकर है । सिसन कहते हैं कि रिग्स के योगदान को समझने के लिये तीन बार पढने की जरूरत है । पहली बार शब्दावली समझने के लिये, दूसरी बार अवधारणा समझने के लिये और तीसरी बार यह समझने के लिये कि समझने लायक कुछ है भी या नहीं ।
इसी बात को रिचर्ड चेपमेन कहते हैं कि- ”अपनी शब्दावली को समझाने के लिये सिस को निजी शब्दकोष भी तैयार करना चाहिये ।”
किशन खन्ना कहते हैं कि रिग्स ने भौतिक विज्ञान से अधिकांश शब्दावली ली है ताकि अपने मॉडलों को वैज्ञानिक पहचान दी जा सके । रिग्स द्वारा अंतर्विषयक दृष्टिकोण का इतना अधिक प्रयोग हुआ है कि लोक प्रशासन की स्वयं की पहचान खतरे में पड़ जाती है ।
रमेश अरोड़ा के अनुसार रिग्स ने परस्पर व्यापिता को मात्र प्रिज्यीय समाजों तक सीमित रखकर और उसके स्वरूप को मात्र नकारात्मक रूप में पेश करके संकुचित दृष्टिकोण अपनाया है । वस्तुत: परस्पर व्यापिता प्रशासन की अन्य सहायक व्यवस्थाओं में स्वस्थ्य प्रतियोगिता के विकास द्वारा कार्यकुशलता बढ़ा सकती है ।
इसी प्रकार रिग्स ने औपचारिकता को भी नकारात्मक रूप में लिया है । जबकि विकास प्रशासन के लिये जरूरी है कि विधि के शासन के साथ परिस्थिति का भी शासन हो । इसीलिये वालसन ने ”सकारात्मक औपचारिकता” की नवीन संकल्पना प्रतिपादित की जिसमें बताया गया कि सिद्धांत और व्यवहार के अंतर एक सीमा तक विकासशील समाजों की जरूरतें भी है ।
लिस ने विजातीयता को भी नकारात्मक तरीके से पेश किया है जबकि भारत के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यहां बहुल संप्रदायिकता सांस्कृतिक-व्यापकता के रूप में मौजूद है । दयाकृष्ण सिस की ”विकास” संबंधी अवधारणा में कतिपय विरोधाभास को प्रकट करते है ।
तथापि उनके आलोचक चैपमेन स्वीकारते है कि तमाम सीमाओं के बावजूद सिसीयन मॉडल अस्थिरता से गुजर रहे समाजों की प्रशासनिक समस्याओं को समझने में मदद करते हैं । भले ही उनके मॉडल यथार्थ में नहीं पाये जाते हों लेकिन को समझने में तो सहायक हैं ही ।