Read this article in Hindi to learn about the various theories and models of motivation.
इसमें वे विचारधारायें हैं जो कार्य के स्थान पर कार्मिक केंद्रित हैं जिनका उद्देश्य मनुष्य के विकास के द्वारा संगठन का विकास करना है । इसमें मनुष्य को विकास करने की स्वाभाविक इच्छा रखने वाला तत्व माना गया है ।
इस दिशा में पहला सिद्धांत एल्टन मेयो ने दिया था लेकिन अभिप्ररेण का व्यवस्थित सिद्धांत पहली बार अब्राहम मैस्लो ने दिया । इसके आलावा डगलस मैकग्रेगर की वाई थ्योरी, लेंसिस लिकंर्ट का प्रबन्धकीय मॉडल, क्रिस आईगारिस का सिद्धांत, आऊच की ‘जेड थ्योरी’ आदि प्रमुख है ।
1. ऐलन मेयो का सिद्धांत (Theories of Allen Mayo):
हार्थान प्रयोग से इन्होंने सिद्ध किया कि कार्मिक मात्र मौद्रिक प्रोत्साहन से ही अभिप्रेरित नहीं होता अपितु उन्हें सामाजिक संतुष्टि (गैर मौद्रीक) से ही वास्तविक रूप से अभिप्रेरित किया जा सकता है ।
2. ऊर्विक की जेड थ्योरी (Z Theory of Urvick):
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उर्विक ने औपचारिक ढांचे को स्वीकार करने के बावजूद इस तथ्य को स्वीकारा कि कार्मिक को मौद्रिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ उसकी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करके ही अभिप्रेरित किया जा सकता है ।
3. अब्राहम मैस्लो का सिद्धांत (Theory of Abraham Maslow):
(i) प्रशासनिक व्यवहार में अभिप्रेरण की भूमिका को विशेष रूप से रेखांकित करने वाले प्रथम विद्वान थे- अब्राहम मैस्लो । मैस्लो मनोवैज्ञानिक था ।
(ii) मैस्लो की पुस्तक है ”मोटिवेशन एण्ड पर्सनेलिटी” (1954) ।
(iii) मैस्लो ने अपने लेख ”ए डायनामिक थ्योरी आफ ह्यूमन मोटिवेशन” (1943) में अभिप्रेरण के ”आवश्यकता सोपान सिद्धान्त” का विवेचन किया है । उन्होंने स्पष्ट किया कि अभिप्रेरण सम्पूर्ण सांगठनिक व्यवहार का पर्याय नहीं है अपितु उसके निर्धारक तत्वों में से एक है । अभिप्रेरण के अलावा अन्य कारक तत्व हैं- जैविक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय पृष्ठभूमि जो व्यवहार को प्रभावित करते हैं ।
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(iv) मैस्लो ने संगठन में मनुष्य के व्यवहार को उसकी विभिन्न आवश्यकताओं से संबंधित किया । इन आवश्यकताओं को उसने नीचे से ऊपर (ऊर्ध्वगामी) की तरफ जमाया अर्थात कार्मिक की पहली स्तर की आवश्यकताऐं निम्न तल पर होंगी जबकि अंतिम स्तर की आवश्यकताएं सर्वोच्च तल पर ।
(v) उसने इन आवश्यकताओं के पांच तल निर्धारित किये । प्रथम दो तल की आवश्यकताऐं क्रमश: मनुष्य के शरीर और सुरक्षा से जुड़ी हैं । इसे उसने निम्न आवश्यकताओं की संज्ञा दी ।
इनसे ऊपर का तल सामाजिक और आत्मसम्मान (या महात्वाकांक्षा) से जुड़ी आवश्यकताओं से संबंधित है । सर्वोच्च तल पर आत्म प्रत्यक्षीकरण की आवश्यकता अवस्थित है ।
(vi) मैस्लो ने बताया कि कार्मिक संगठन से इसलिए जुडते हैं ताकि उनकी आवश्यकतायें पूरी हो सकें। ये आवश्यकतायें अनंत होती हैं परंतु पांच मुख्य वर्गों में व्यवस्थित की जा सकती हैं, जो नीचे से ऊपर की तरफ बढती हैं ।
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ये निम्नलिखित हैं:
1. शारीरिक आवश्यकता:
मनुष्य संगठन में भर्ति इसलिए होता है कि अपनी जैविक या शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके- जैंसे रोटी, कपड़ा, यौन आकांक्षा इत्यादि ।
2. सुरक्षात्मक आवश्यकता:
इसके पश्चात उसकी सुरक्षा आवश्यकता प्रकट होती है अर्थात उसे नौकरी की सुरक्षा चाहिए और कार्य के जोखिम के विरुद्ध भी सुरक्षा चाहिऐ । उसे अपनी बचत को सुरक्षित रखने की भी आवश्यकता होती है । समाज में बच्चों को अभिभावकों से सुरक्षा मिलती है, तो बड़ों को सरकारी एजेन्सी से ।
3. सामाजिक आवश्यकता:
संगठन में कार्मिक सामाजिक संबंधों की खोज करता है क्योंकि वह एक सामाजिक प्राणी है । जैसे प्यार, स्नेह, सुख-दुख का आदान प्रदान, अनौपचारिक समूह की सदस्यता ।
4. सम्मान और महत्वाकांक्षा की पूर्ति:
कार्मिक सम्मान पूर्ण पद चाहता है । उपलब्धियों की मान्यता चाहता है । अपनी महत्वाकांक्षा को ही होते देखना चाहता है । यह सब उसके अहम को तुष्ट करती हैं ।
5. आत्मविश्लेषणात्मक आवश्यकता:
यह सर्वोच्च आवश्यकता है यहां व्यक्ति आत्म संतोष प्राप्त करना चाहता है । वह अपना आत्मविश्लेषण या आत्म प्रत्यक्षीकरण करता है कि उसकी उपलब्धियाँ उसकी योग्यता के अनुपात में कितनी कम है तथा वह क्या श्रेष्ठतम कर सकता है । आत्मप्रत्यक्षीकरण शब्द सर्वप्रथम गोल्डस्टेन ने दिया था ।
विशेषताएं:
(1) आवश्यकता निम्न तल के उच्च तल की ओर बढ़ती है । प्रथम आवश्यकता निम्न तल पर स्थित है तथा पांचवी उच्च तल पर ।
(2) कार्मिक पहले तल की आवश्यकता को सबसे पहले पूरी करना चाहता है ।
(3) एक तल की सभी आवश्यकतायें जब तक पूरी नहीं होती वह दूसरे तल की आवश्यकता महसूस नहीं करता है ।
(4) कार्मिक एक तल की आवश्यकता को त्यागकर या बीच के तल को छोड़कर ऊपर के तल को छलांग नहीं लगाता ।
(5) संतुष्ट आवश्यकता अभिप्रेरित नहीं करती ।
(6) असंतुष्ट आवश्यकता ही अभिप्रेरित कर सकती है ।
(7) आवश्यकता तभी पूरी मानी जाएगी जब उसके सभी तत्व मनुष्य को संतुष्ट कर दें । जैंसे, भूख के साथ यौन तृष्णा, कपड़ा, मकान ये सब पूरी होने पर ही शारीरिक आवश्यकता संतुष्ट होगी ।
(8) ऐसा नहीं हो सकता है कि मनुष्य की पहले ही संतुष्ट कोई आवश्यकता पुन: असंतुष्ट हो जाऐ ।
(9) आत्मप्रत्यक्षीकरण की आवश्यकताओं के सन्दर्भ में मनुष्य के व्यवहार का आकलन बहुत मुश्किल है, लेकिन निचले स्तर की आवश्यकताओं तक जाते-जाते यह आंकलन अधिकाधिक शुद्ध रूप में ज्ञात हो जाता है ।
आलोचना:
i. स्वयं अब्राहम मैस्लो के अनुसार आवश्यकता का जो सोपान है वो दृढ़ नहीं है अर्थात कोई कार्मिक अपवाद स्वरूप किसी भी तल की आवश्यकता को पहले चुन सकता है ।
ii. आवश्यकता की क्रमागता व्यावहारिक नहीं है ।
iii. आवश्यकता की पहचान बेहद मुश्किल है, विशेषकर उच्च स्तरीय आवश्यकता वस्तुनिष्ठ नहीं है अर्थात रोटी, कपड़े की आवश्यकता को तो पहचाना जा सकता है लेकिन आत्मविश्लेषण आवश्यकता को पहचानना मुश्किल है, तब प्रबंध उन्हें कैसे संतुष्ट कर पायेगा ।
4. हर्जबर्ग का द्विघटक सिद्धांत (Theories of Herzberg):
हर्जबर्ग ने 1950 में सेंटपीट्सबर्ग (अमेरिका) में 2100 अभियंताओं और लेखापालों पर यह प्रयोग किया था ।
उसका निष्कर्ष था कि संगठन में व्यक्ति के कार्य को प्रभावित करने वाले दो तत्व होते हैं:
1. कार्य:
हर्जबर्ग के अनुसार कार्य एक व्यापक शब्दावली है जिसमें उपलब्धि, मान्यता, पदोन्नति, स्वयं कार्य और विकास की संभावनाये आदि निहित है इन्हें 5 संतोषक की संज्ञा दी गई । इनकी उपस्थिति ही व्यक्ति को अभिप्रेरित करती है । ये तत्व मिलकर अभिप्रेरक घटक का निर्माण करते हैं । हुमन अब्राहम- कार्य पर विकास की आकांक्षा ।
2. कार्य का वातावरण:
यह वह वातावरण है जहां कार्य किया जा रहा है । इसमें शामिल हैं, वेतन, प्रबंध की नीतियां, पर्यवेक्षण का तरीका, कार्य की दशाएं और व्यैक्तिक संबंध । इसे हर्जबर्ग ने 5 असंतोषक की संज्ञा दी । ये घटक आरोग्य घटक या स्वास्थ्य घटक कहलाते हैं । हर्जबर्ग के अनुसार इनकी उपस्थिति अभिप्रेरित तो नहीं करती लेकिन अनुपस्थिति असंतुष्ट कर देती है और व्यक्ति का ध्यान काम से हटकर वातावरण पर चला जाता है ।
एनीमल एडम:
वातावरण के कष्ट को दूर करने की आवश्यकता । हर्जबर्ग के अनुसार मानव की आधारभूत आवश्यकताएं दो विपरीत दिशा में जाती हुई प्रतीत होती है, प्रथम पशु-आदम जो वातावरण की पीड़ा से दूर भागना चाहता है और द्वितीय मानव-अब्राहम जो कार्य में प्रवृत्त होकर मनौवैज्ञानिक रूप से संतुष्ट होना चाहता है ।
विशेषताएं:
1. हर्जबर्ग के अनुसार स्वास्थ्य या आरोग्य घटक की उपस्थिति अभिप्रेरित नहीं करती लेकिन यदि कार्मिक को भय दिखाया जाये कि इन्हें छीना जा सकता है, तो इस दबाव से वे तात्कालिक रूप से अभिप्रेरित हो जाते है, परंतु दूरगामी रूप से असंतुष्ट होकर उद्देश्यों के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं ।
2. संतोषक या अभिप्रेरक घटक की उपस्थिति के कारण कार्मिक का ध्यान कार्य की तरफ बने रहने से कार्यकुशलता बढती है ।
3. अभिप्रेरण में अभिप्रेरक घटक का योगदान 81 प्रतिशत है जबकि आरोग्य घटक का 19 प्रतिशत हैं ।
4. कार्य असंतोष को कम करने में आरोग्य घटक का योगदान 69 प्रतिशत जबकि अभिप्रेरक घटक का 31 प्रतिशत होता है ।
5. हर्जबर्ग ने ”कार्य संवर्धन” और ”ऊर्ध्वाधर लगान” नामक विषय वस्तु भी इस सिद्धांत के साथ जोड़ी ।
कार्य संवर्धन कार्य की विषय वस्तु से संबंधित है, जिसमें व्यक्ति कार्य के विभिन्न तत्वों से संबंधित अपने अनुभव से अभिप्रेरित होता रहता है । यह चिरकालिक होता है ।
हजबर्ग इस बात की वकालत करते हैं कि किसी व्यक्ति को अभिप्रेरित करने के लिए कार्य में उसके योगदान की बढ़ाना चाहिऐ, न कि घटाना । अर्थात प्रबंधकों को चाहिए कि वह क्षैतिज दृष्टि के स्थान पर ऊध्वार्धर दृष्टि अपनाये । इसे हर्जबर्ग ने ”ऊध्वार्धर लदान” की संज्ञा दी ।
आलोचना:
इस तथ्य के बावजूद की यह सिद्धांत लोकप्रिय हुआ हैं, इसकी आलोचनाएं भी कम नहीं हुई हैं ।
(i) टेलरवाद के अनुरूप ही इसने भी औद्योगिक इंजिनियरिंग एप्रोच अपनायी; यद्यपि दोनों की विषय वस्तु पृथक रही है ।
(ii) यह सिद्धान्त उच्च स्तरीय प्रबन्धकों पर अधिक लागू होता है, जबकि निम्न स्तर के कार्मिकों पर बहुत ही कम ।
(iii) कारकों को संतोषक, असंतोषक में स्पष्ट रूप से विभाजित नहीं किया जा सकता । वेतन दोनों ही वर्गों में रखा जा सकता है ।
(iv) एक ही कारक किसी व्यक्ति को संतुष्ट कर सकता है तो दूसरे को असंतुष्ट ।
(v) इसके द्वारा कार्य और सांगठनिक पर्यावरण को प्रभावित करने वाले कारकों को अलग-अलग ढंग से देखा जाना सर्वाधिक खटकने वाली बात है । ये दोनों अभिप्रेरक भी हो सकते है और स्वास्थ्य घटक भी अब यह स्पष्ट हो चुका है ।
हर्जबर्ग और मैस्लो की तुलना:
समानताएं:
1. दोनों सिद्धान्त मानवीय आवश्यकता पर आधारित है ।
2. हर्जबर्ग का आरोग्य चटक, मैस्लो की निम्नस्तरीय आवश्यकताओं यथा शारीरिक, सुरक्षात्मक, सामाजिक आवश्यकता आदि के समान है । मैस्लो की उच्च स्तरीय आवश्यकताएं यथा, महत्वाकांक्षा और आत्म-प्रत्यक्षीकरण हर्जबर्ग के अभिप्रेरक घटकों में स्थान पाती है ।
असमानताएं:
1. मैस्लो सिद्धान्त प्रत्यक्ष रूप से मानवीय आवश्यकताओं से सम्बन्धित है, जबकि हर्जबर्ग थ्योरी इन आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले कारकों से ।
2. मैस्लो दृष्टिकोण में प्रत्येक आवश्यकता अभिप्रेरण का कार्य करती है, जबकि हर्जबर्ग ने मात्र उत्प्रेरक तत्वों को ही अभिप्रेरण का साधन माना ।
3. मैस्लो विचारधारा हर्जबर्ग की तुलना में अधिक व्यवहारिक और स्वीकार्य है ।
5. लिकर्ट का प्रबंधकीय मॉडल (Likert’s Model):
लिकर्ट ने अपने प्रयोगों से उन कारकों की खोज की जो उच्च कार्य प्रदर्शन हेतु दबाव को जन्म दे रहे है । ये कारक हैं- अन्तराष्ट्रीय स्तर पर व्यापारिक स्पर्धा का तेज विस्तार नियन्त्रण का विरोध, स्वतन्त्रता की बढती प्रवृत्ति, श्रमिकों की योग्यता में निरन्तर वृद्धि, प्रबंध में श्रमिक भागीदारी की मांग में इजाफा ।
मिशिगन शोध-अध्ययन के बाद लिकर्ट ने पर्यवेक्षकों को दो भागों में बाटा:
1. कार्य केंद्रित- कार्य को निश्चित स्वरूप में संपादित करना ।
2. कार्मिक केंद्रित- अधीनस्थों के साथ मिलकर प्रभावशाली समूह निर्माण करना ।
अनोन्य क्रिया प्रभाव तंत्र:
लिकर्ट ने संगठन के पद सोपानों पर कार्यरत कार्मिकों के अभिप्रेरण को अधिकतम करने हेतु ”अन्नोन्यक्रिया प्रभावतन्त्र” की संकल्पना विकसित की ।
इसके उपबन्ध है:
1. व्यक्तिगत आवश्यकताओं और उद्देश्यों का संगठन के उद्देश्यों एवं मूल्यों के साथ एकीकरण ।
2. प्रत्येक कार्मिक सांगठनिक उद्देश्यों की प्राप्ति में ही अपना समय लगाता है ।
3. व्यक्ति पर लक्ष्य प्राप्ति का दबाव आन्तरिक प्रेरणा से आता है, बाहर से नहीं ।
4. व्यक्ति से व्यक्ति, व्यक्ति से समूह, समूह से समूह तक सटीक सूचना तन्त्र निर्मित होता है ।
5. प्रत्येक कार्मिक संगठन के निर्णयों/क्रियाओं पर प्रभाव डालने में समर्थ होता है जो उसके वास्तविक योगदान के बराबर होता है । अर्थात व्यक्ति के पद के कर्त्तव्य के स्थान पर उसके वास्तविक व्यवहार का प्रभाव इसमें झलकता है ।
लिंकिंग पिन मॉडल- संगठन में व्यक्ति की दो समूहों में दोहरी भूमिका होती है । वह निम्नस्तरीय समूह का नेता तथा उच्च स्तरीय समूह का सदस्य होता है । इससे संगठन में विभिन्न समूहों के मध्य लिंक निर्मित हो जाता है ।
अभिप्रेरण की 4 पद्धतियां- लिंकर्ट ने 4 प्रबन्धकीय पद्धतियां बताई:
1. शौषणात्मक अधिकारिक
2. हितैषी आधिकारिक
3. परामर्शी अधिकारिक
4. सहभागिता अधिकारिक
पहली पद्धति में ऊपर से नीचे तक कठोर पर्यवेक्षण होता है और अनौपचारिक संबंधों के स्थान पर पद आधारित संबंध होते हैं । कार्य निष्पादन में दबाव का प्रयोग होता है, तथा अभिप्रेरण लक्ष्य केंद्रित होता है । धीरे-धीरे इस प्रवृत्ति में मानवीयता का विकास होता है । ये परिवर्तन एकाएक नहीं अपितु क्रमिक रूप से होते हैं ।
मध्यवर्ती 2 और 3 प्रकार की पद्धतियां वस्तुतः प्रथम से चतुर्थ तक पहुचनें के मध्य की प्रक्रियागत स्थितियां हैं । प्रथम पद्धति के स्थान पर दूसरी पद्धति हितैषी-अधिकारिक, लक्ष्य केंद्रित से कार्मिक केंद्रित की तरफ गतिशील होती है । ये परिवर्तन अनायास नहीं होते अपितु क्रमिक रूप से होते हैं । परामर्शी और सहभागी कार्मिक केंद्रित अधिक होती है ।
चतुर्थ पद्धति अर्थात सहभागिता में व्यक्तिवादी के स्थान पर सामूहिक निर्णय प्रक्रिया, पदसोपानिक संचार के स्थान पर त्रिमार्गीय संचार, मानवीय पर्यवेक्षण आदि अपनाये जाते हैं । लिकंर्ट ने इसे ही अभिप्रेरण की सर्वोत्तम विधि माना ।
6. क्रिस आइगाईरिस सिद्धांत- “अंतर्निहित सुयोग्यता” (Theory of Crish Igaisrish):
व्यक्तिगत विकास से संगठन का विकास:
इसका उद्देश्य है मानव विकास द्वारा सागंठनिक लक्ष्य प्राप्त करना । आइगाईरिस ने संगठन की संरचना को शैतान की संज्ञा दी और कहा हमें कार्य के स्थान पर व्यक्ति पर ध्यान देना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति में आत्मविश्लेषण की भावना होती है । इसलिए व्यक्तिगत विकास से ही संगठन का विकास हो सकता है ।
वे औपचारिक संगठन की जरूरतों को व्यक्ति के विकास के मार्ग में बाधक मानते है । ऐसे संगठन विशेषीकरण, आदेश की एकता, नियन्त्रण की सीमा, पदसोपन जैसे सिद्धान्तों में विश्वास करते हैं जो कार्मिको में अर्धीनस्थ और परनिर्भरता की भावना का विकास कर उन्हें कुण्ठाग्रस्त कर देते हैं ।
अंतर्निहित सुयोग्यता:
उनके अनुसार व्यक्ति में बौद्धिक या तकनीकी योग्यता विकसित करने के स्थान पर उसमें अंतनिर्हित सुयोग्यता का विकास करना चाहिए । यह सुयोग्यता है अन्य कार्मिकों के साथ प्रभावी संबंध निमार्ण की योग्यता । इस हेतु परपंरागत संगठन के स्थान पर मैट्रिक्स संगठन का विचार उन्होंने दिया । इसमें उच्च अधीनस्थ संबंध नहीं होते तथा व्यक्ति स्वयं का नियंत्रक होता है ।
T-Group प्रशिक्षण:
उसने T-Group प्रशिक्षण को अपनाने पर बल दिया जो व्यक्ति की सहनशीलता या संवेदनशीलता को बढाता है ।
आइगाईरिस ने अभिप्रेरण चार प्रमुख बातें बतायी हैं:
1. व्यक्ति के विकास हेतु उचित वातावरण का निर्माण- यह प्रबंध की जिम्मेदारी है ।
2. अंतरवैयक्तिक सुयोग्यता में सुधार ।
3. परम्परागत पदसोपानिक अवधारणा में मनुष्योन्मुखी परिवर्तन ।
4. नियोजित शिक्षा प्रणाली का विकास जो व्यक्तिक विकास को तीव्र करें ।
आलोचना:
आईरगाइरिस ने अभिप्रेरण हेतु ”आत्म विश्लेषण” संकल्पना पर इतना जोर दिया है कि वह आदर्शात्मक अधिक व्यवहारिक कम प्रतीत होता है । साइमन तो ”आत्म प्रत्यक्षीकरण” की इस भावना को अराजकता की संज्ञा देते हैं ।
उनके अनुसार संगठनों का अंतिम लक्ष्य ”आत्म प्रत्यक्षीकरण” जैसे आदर्शों के स्थान पर अधिक यथार्थपूरक होने चाहिए- जैसे काम के घण्टों में कमी, अवकाश में बढ़ोतरी आदि । वस्तुत: इन प्रेरकों से ही व्यक्ति आत्म विश्लेषण करने के लिये प्रेरित हो सकेगा ।
आईरगाइरिस का सत्ता और शासन से परहेज भी आलोचना के दायरे में आता है । उनके द्वारा ”संरचना को शैतान” कहना उनकी इसी भावना की अभिव्यक्ति है । व्यक्ति संगठनों के विरोधी नहीं होते अपितु इसलिये भी उनको स्वीकारते हैं कि उनके लक्ष्यों से संगठनों के लक्ष्य किसी सीमा तक एकरूपता रखते हैं ।
7. ERG सिद्धांत (ERG Theory):
क्लेटन अल्डेरफर ने मेस्लो और हर्जबर्ग के सिद्धांतो को संयुक्त और संशोधित कर प्रस्तुत किया ।
मनुष्य की 3 जरूरतें बतायीं:
(1) अस्तित्व आवश्यकताएं (Need of Existence)- ये मनुष्य के जीवित रहने और शारीरिक रूप से स्वस्थ्य रहने के लिये जरूरी हैं जैसे भोजन, पानी आदि ।
(2) संबंध बनाने संबंधी आवश्यकताएं (Need of Relatedness)- सामाजिक समूह से संबंधित होने, अंत: व्यैक्ति संबंध बनाने की जरूरत ताकि सुख:दुख बाँट सकें ।
(3) विकास आवश्यकताएं (Need of Growth)- व्यक्ति के उत्तोरत्तर विकास से संबंधित जरूरतें जो उसे आत्म तुष्टि प्रदान करती है ।
8. समानता का सिद्धांत (Theory of Equality):
स्टासी एडम्स द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धांत की मान्यता है- समान परिस्थितियों में एक कार्मिक द्वारा अपने प्रयास और प्रतिफल की तुलना अन्य कार्मिक के प्रयास और प्रतिफल से करना । यदि इनमें असमानता हो तो कार्मिक असंतुष्ट और तनावग्रस्त हो जाते हैं । ऐसे में-
(1) यदि उसके प्रयास तुलनात्मक रूप से अधिक हैं तो वह उन्हें कम कर बराबर स्तर पर लाने की कोशिश करेगा ।
(2) यदि कम है तो उनमें वृद्धि कर बराबर स्तर पर लाने की कोशिश करेगा ।
(3) इस प्रकार एक कार्मिक अपने आगत-निर्गत की दूसरे कार्मिक के आगत-निर्गत से तुलना कर अपने ”कार्य स्तर” का स्वयं निर्धारण कर लेता है ।
9. आऊची की जेड (Z) थ्योरी (Z Theory of Auchi):
इसे जापानी प्रबंध विचारधारा भी कहा जाता है । विलियम आऊची ने 1981 में 8 वर्षों के शोध के उपरान्त इसे दिया था । इसमें अल्केड जेगर आऊची के सहयोगी थे । अपनी पुस्तक ”जेड थ्योरी” में आऊची ने जापानी प्रबंध की सफलता का राज कार्मिकों की संगठन में सन्निहितता (Involvement) को दिया ।
सन्निहितता से आशय कार्मिकों को प्रबंध में सन्निहित कर लेना है । ऐसा प्रबंधकों द्वारा कार्मिक के बारे में पूर्ण जानकारी से ही संभव होता है । ITSI- आऊची ने सन्निहितता के लिए विश्वास (Trust), मर्मज्ञता (Sublimity), घनिष्ठता (Intimacy) को आवश्यक बताया । उपरोक्त तीनों तत्वों में सन्निहिता में वृद्धि करने के लिए मर्मज्ञता को सबसे महत्वपूर्ण बताया ।
10. विक्टर ब्रुम की प्रत्याशा विचारधारा या V I E सिद्धांत (Theory of Victor Broom):
विक्टर ब्रुम ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन अपनी पुस्तक ”वर्क एण्ड मोटिवेशन” (1964) में किया था । विक्टर ब्रुम ने अभिप्रेरण को दो बातों का गुणनफल बताया है- आकर्षण शक्ति और प्रत्याशा ।
अभिप्रेरण = परिणाम के प्रति आकर्षण (आकर्षण शक्ति) X परिणाम प्राप्ति की आशा (प्रत्याशा) ।
पार्टर-लावलर मॉडल:
विक्टर ब्रूम के प्रत्याशा सिद्धांत का विस्तारित रूप है ”पोर्टर-लावलर मॉडल ।” इसमें निष्पादन और संतुष्टी के अंतरसंबंध को स्थापित किया गया है ।
11. डेविड मेक्लीलैण्ड की आवश्यकता विचारधारा (Views of David Mekliland):
मैकफारलैंड ने अभिप्रेरण का अर्थ बताया, व्यक्तियों को निर्धारित कार्य व्यवहार संपादित करने के लिए दिया जाने वाला उद्दीपन ।
उसके अनुसार तीन आवश्यकतायें मनुष्य को अभिप्रेरित करती है:
(1) शक्ति या अधिकार की आवश्यकता (Need for Power)
(2) अनौपचारिक संबंध बनाने की आवश्यकता (Need for Affiliation) ।
(3) उपलब्धि की आवश्यकता (Need for Achievement)
12. र्गोगोपोलस का पथ लक्ष्य सिद्धांत (Theory of Gorgopolas):
इसे र्गोगो पोलस ने मोहानी और जोन्स के साथ विकसित किया था । इसके अनुसार व्यक्ति अभिप्रेरित हो जाते है, ”बस उन्हें पता होना चाहिए कि लक्ष्य प्राप्ति के लिये किस संघर्ष के पथ से गुजरना है ।”
1970 के दशक में एडविन लाक ने भी इसी से मिलता-जुलता लक्ष्य-निर्धारण सिद्धांत दिया था ।