प्रेरणा: अर्थ और सिद्धांत | कर्मचारियों | Motivation: Meaning and Theories | Hindi | Employees!
अभिप्रेरणा का अर्थ (Meaning of Motivation):
शब्द ‘अभिप्रेरणा’ (Motivation) लातिन शब्द ‘Movere’ से निकला है जिसका अर्थ है- ‘चलना’ । सांगठनिक परिप्रेक्ष्य में प्रेरणा का अर्थ है- एक बुनियादी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया । रेंसिस लिकर्ट अभिप्रेरणा को ‘प्रबंधन के मर्म’ के रुप में देखते हैं ।
परिभाषा (Definition):
फ्रेड लुथांस- ”अभिप्रेरणा वह प्रक्रिया है जो किसी शारीरिक या मानसिक कमी या व्यवहार को सक्रिय करने वाली जरूरत या एक आवेग के साथ शुरू होती है जिसका लक्ष्य कोई उद्देश्य या प्रोत्साहन है ।” कूँट्ज व ओ डॉनेल- ”अभिप्रेरणा आवेगों, जरूरतों, इच्छाओं और समान शक्तियों के उस संपूर्ण वर्ग पर लागू होने वाला एक सामान्य शब्द है, जो किसी व्यक्ति या समूह को काम करने के लिए प्रेरित करें ।”
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बेराल्सन व स्टीनर- ”कोई अभिप्रेरणा एक आंतरिक स्थिति है जो लक्ष्य पूर्ति की ओर व्यवहार को ऊर्जस्वित, सक्रिय या प्रेरित (अंत:प्रेरणा) और निर्देशित या मार्गदर्शित करती है ।” मॉर्गन- ”अभिप्रेरणा जरूरतों द्वारा शुरू किए गए और लक्ष्यों की ओर निर्देशित व्यवहार की ओर इशारा करने वाला एक सामान्य शब्द है ।” इस प्रकार प्रेरणा एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को ऊर्जस्वित और सक्रिय करती है ।
अभिप्रेरणा की सिद्धांत/मॉडल (Theories/Models of Motivation):
अभिप्रेरणा सिद्धांत की दो श्रेणियाँ हैं- अर्थात् अंतर्वस्तु और प्रक्रिया । दोनों के बीच फर्क करते हुए फ्रेड लुथांस कहते हैं- ”अंतर्वस्तु सिद्धांतों का सरोकार मनुष्य की जरूरतों/आवेगों की पहचान करना है, अर्थात् कैसे ये जरूरतें/आवेग प्राथमिकता क्रम में व्यवस्थित होती हैं । दूसरी ओर प्रक्रिया सिद्धांतों का ज्यादा सरोकार उन संज्ञानात्मक, पूर्ववृत्तों से होता है जो प्रेरणा या प्रयास में होते हैं और जिस रूप में वे एक-दूसरे से संबंधित होते हैं ।”
उसी प्रकार जे.एस. चंदन कहते हैं- ”अंतर्वस्तु सिद्धांत उन आवेगों और जरूरतों को निर्धारित करने और उल्लिखित करने का प्रयास करते हैं जो लोगों को काम करने के लिए प्रेरित करती हैं, जबकि प्रक्रिया सिद्धांत उन परिवर्ती कारकों की पहचान करने का प्रयास करते हैं जो प्रेरणाओं और उनके आपसी संबंधों में होते हैं ।”
इस प्रकार, अंतर्वस्तु सिद्धांतों का नाता इस बात से होता है कि लोगों को काम के लिए क्या प्रेरित करता है, जबकि प्रक्रिया सिद्धांत यह देखता है कि ‘कैसे’ प्रेरणा काम करती है । मास्लोव, मैकग्रेगर, हर्जबर्ग व एल्डरफर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत महत्त्वपूर्ण अंतर्वस्तु सिद्धांत हैं जबकि विक्टर ब्रूम, पोर्टर-लॉलर, स्टेसी एडम्स व हेरॉल्ड केली द्वारा प्रतिपादित प्रेरणा की मुख्य प्रक्रिया सिद्धांत हैं ।
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प्रेरणा के विभिन्न सिद्धांतों की नीचे व्याख्या की गई है:
पारंपरिक सिद्धांत:
प्रेरणा के पारंपरिक सिद्धांत को तीन अन्य नामों से भी जाना जाता है:
(क) प्रेरणा का एकलवादी सिद्धांत,
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(ख) प्रेरणा का आर्थिक सिद्धांत व
(ग) प्रेरणा का कैरट एंड स्टिक उपागम ।
मानव प्रेरणा का पारंपरिक सिद्धांत इसकी व्याख्या सिर्फ आर्थिक कारकों के अर्थ में करता है । यह मानती है कि प्रत्येक कर्मचारी एक क्लासिकीय ‘आर्थिक मनुष्य’ है जो अपनी आर्थिक आय को बढ़ाने में दिलचस्पी रखता है ।
इस प्रकार यह सिद्धांत कहता है कि लोग उस स्थिति में ज्यादा मेहनत करके ज्यादा उत्पादन कर लेते हैं जब पर्याप्त भौतिक पुरस्कार मौजूद हों या जब खराब प्रदर्शन की स्थिति में सजा का भारी डर हो (जैसे- पुरस्कार वापस लेना) ।
वैज्ञानिक प्रबंधन सिद्धांत के पिता एफ. डब्ल्यू. टेलर इस उपागम के पहले प्रमुख प्रतिपादक थे और बाद में, सभी क्लासिकीय चिंतकों ने इसका समर्थन किया । लेकिन मानव संबंधवादियों और व्यवहारवादियों ने इस जमीन पर इस सिद्धांत की आलोचना शुरु की, कि यह अति-सरलीकृत है और गैर-आर्थिक जैसे- सामाजिक- मनोवैज्ञानिक कारकों की उपेक्षा करके, मानव प्रेरणा को कम करके आँकता है ।
चेस्टर बर्नार्ड कहते हैं- ”मुझे यह सामान्य अनुभव की बात लगती है कि मनुष्यों के एक बेहद छोटे से हिस्से को छोड़ दें तो भौतिक इनाम जीविकोपार्जन स्तर के आगे अप्रभावी होते हैं; क्योंकि अधिकांश मनुष्य न तो भौतिक वस्तुओं के लिए ज्यादा मेहनत करते हैं और न ही इसके ऊपर उन्हें सांगठनिक प्रयास में उनके संभव योगदान के एक हिस्से से ज्यादा को समर्पित करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है ।”
मास्लोव का आवश्यकताओं का पदानुक्रम:
अब्राहम मास्लोव ने अपने क्लासिकीय शोधपत्र ए थ्योरी ऑफ ह्यूमैन मोटिवेशन (1943) में मानव प्रेरणा का ‘आवश्यकता पदानुक्रम’ सिद्धांत का प्रतिपादन किया । उनकी लोकप्रिय पुस्तक ‘मोटिवेशन एंड पर्सनेलिटी’ 1954 में प्रकाशित हुई ।
मास्लोव का आवश्यकता पदानुक्रम मानव प्रेरणा का पहला व्यवस्थित अवधारणात्मक मॉडल है । उन्होंने समझाया कि मानवीय जरूरतें मानव व्यवहार को प्रभावित करती हैं । एक मनोवैज्ञानिक होने के नाते उन्होंने मानव व्यवहार को मनोविश्लेषण के जरिए समझा ।
मास्लोव के आवश्यकता पदानुक्रम सिद्धांत के अधीन बढ़ने क्रम में व्यवस्थित मानवीय आवश्यकताओं के पाँच स्तर होते हैं:
1. शारीरिक आवश्यकताएँ (जैविक आवश्यकताएँ) जैसे- भूख, प्यास, सेक्स, नींद ।
2. सुरक्षा आवश्यकताएँ (रक्षा आवश्यकताएँ) जैसे- प्राकृतिक आपदाओं, धमकियों, खतरों से बचाव ।
3. सामाजिक आवश्यकताएँ (प्रेम आवश्यकताएँ) जैसे- समूहों, परिवार, दोस्ती के संबंध का अहसास ।
4. सम्मान आवश्यकताएँ (अहं आवश्यकताएँ) जिन्हें दो समूहों में बाँटा जा सकता है- उपलब्धि आवश्यकताएँ जैसे- आत्मविश्वास, स्वतंत्रता, योग्यता; और पहचान आवश्यकताएँ जैसे- हैसियत, महत्व, पसंद ।
5. आत्म- वास्तवीकरण आवश्यकताएँ, जैसे- आत्मपूर्ति अपनी संभावित क्षमताओं की अनुभूतिकरण, रचनात्मकता । ‘आत्म-वास्तवीकरण’ शब्द का प्रयोग पहली बार कर्ट गोल्डस्टीन ने किया था ।
मास्लोव ने आवश्यकताओं को निम्नक्रम आवश्यकताओं- शारीरिक, सुरक्षा और सामाजिक; और उच्चक्रम आवश्यकताओं सम्मान और आत्म-वास्तवीकरण में बाँटा । मास्लोव के अनुसार, मानव आमतौर पर पहले अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास करते हैं ।
जब ये पूरी हो जाती हैं तो ये मानव व्यवहार को प्रेरित नहीं करतीं । लोग अब अगले उच्चक्रम की आवश्यकता, यानी सुरक्षा आवश्यकताओं से प्रेरित होते हैं । इस तरह से, मनुष्य अपनी आवश्यकताओं को क्रम से और चरणबद्ध तरीके से पूरा करते हैं ।
इस प्रकार किसी संतुष्ट आवश्यकता की प्रचंडता (अपरिहार्यता) कम होती है और एक दूसरी असंतुष्ट माँग इसकी जगह लेने के लिए उभरती है । लेकिन संतोष एक सापेक्ष शब्द है; अर्थात आवश्यकताओं का उदय एक क्रमिक परिघटना है, अचानक होने वाली परिघटना नहीं ।
इसके अतिरिक्त, आवश्यकताओं का पदानुक्रम इतना कठोर नहीं जितना अवधारणा में प्रतीत होता है और आवश्यकताएँ कोई पृथक खंड नहीं हैं । इस प्रकार मानवीय आवश्यकताएँ अंतर्निर्भर, अंतर्संबंधित और एक दूसरे का आच्छादन करने वाली हैं और मानव व्यवहार बहु-प्रेरित होता है ।
हालाँकि मास्लोव का ‘प्रेरणा सिद्धांत’ में एक अद्वितीय योगदान है किंतु इसकी निम्न आलोचकों ने आलोचना की है:
(i) लॉलर, सटल व पोर्टर ने अपने अध्ययनों में पाया कि मानव आवश्यकताएँ मास्लोव द्वारा बताये गये पदानुक्रम के अनुरूप नहीं हैं । हॉल व नूगैम भी इससे सहमत थे ।
(ii) कोफर व एपलबी ने मास्लोव की आत्म-वास्तवीकरण की अवधारणा की अस्पष्टता, ढीलेपन और अपर्याप्तता के लिए आलोचना की ।
(iii) वाभा व बर्डवेल ने अपने अनुसंधान में पाया कि मानव आवश्यकताओं के दो प्राथमिक समूह होते हैं- अभाव आवश्यकताएँ और वृद्धि आवश्यकताएँ, न कि मास्लोव द्वारा बताई गई पाँच आवश्यकताएँ ।
(iv) माइकल नैश के अनुसार, हालांकि मास्लोव की सिद्धांत दिलचस्प है, मगर यह वैध नहीं है । वे कहते हैं- ”मास्लोव के आवश्यकता पदानुक्रम के साथ कठिनाई यह है कि यह उन प्रबंधकों के लिए एक व्यावहारिक मार्गदर्शक नहीं बन सकता जो लोगों को उत्पादक बनाने के प्रयास में लगे हैं ।”
(v) बास व बैरेल्ट कहते हैं कि मास्लीव की आवश्यकताओं के पदानुक्रम का सिद्धांत सही होने की बजाय लोकप्रिय और दिलचस्प है ।
मैकग्रेगर का सिद्धांत X व सिद्धांत Y:
डगलस मैकग्रेगर ने अपनी पुस्तक दि ह्यूमैन साइड ऑफ एंटरप्राइज (1960) में प्रेरणा के अपने सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसे लोकप्रिय रूप से ‘सिद्धांत X व सिद्धांत Y’ के नाम से जाना जाता है । वे तर्क देते हैं कि ”मानव संसाधनों को नियंत्रित करने के बारे में प्रबंधन जो वैचारिक कल्पनाएँ करता है, वे पूरे उद्यम के चरित्र को निर्धारित कर देता है ।”
उनकी मुख्य परिकल्पना यह रही है कि ”हर प्रबंधकीय कार्य का आधार कोई सिद्धांत होता है ।” मैकग्रेगर के अनुसार, प्रबंधन संगठनों में मानव प्रकृति और मानव व्यवहार के बारे में दो प्रकार की कल्पनाएँ करता है । ये दो ठीक विपरीत किस्म की कल्पनाएँ उसके द्वारा सिद्धांत X व सिद्धांत Y कहलाती हैं ।
सिद्धांत X प्रबंधन के प्रति क्लासिकीय उपागम (यानी, निर्देशात्मक प्रबंधन) का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि सिद्धांत Y प्रबंधन के प्रति व्यवहारवादी उपागम (यानी, भागीदारी प्रबंधन) का प्रतिनिधित्व करता है । इस प्रकार, सिद्धांत X कार्य-केंद्रित है, जबकि सिद्धांत Y कार्य-केंद्रित और जन-केंद्रित दोनों हैं । मैकग्रेगर ने सिद्धांत X को प्रबंधकीय निर्देशन व नियंत्रण का पारंपरिक उपागम और सिद्धांत Y को व्यक्तिगत और सांगठनिक लक्ष्यों का एकीकरण कहा ।
मैकग्रेगर के अनुसार सिद्धांत X के तहत प्रबंधक मानव प्रकृति और मानव व्यवहार के बारे में निम्न कल्पनाएँ करता है:
(i) एक औसत मानव की काम के प्रति स्वाभाविक घृणा होती है और वह अगर इसे टालने की संभावना रखता है तो वह इसे अवश्य टालेगा ।
(ii) काम के प्रति घृणा की इस मानव विशेषता के कारण ज्यादातर लोगों को सांगठनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पर्याप्त प्रयास करवाने के लिए पीड़ित, नियंत्रित, निर्देशित और सजा से धमकाना पड़ता है ।
(iii) औसत मनुष्य निर्देशित होना पसंद करता है, जिम्मेदारी से बचना चाहता है, कम महत्वाकांक्षी होता है और सर्वोपरि सुरक्षा चाहता है ।
सिद्धांत X के तहत नकारात्मक उपागमों के विपरीत मैकग्रेगर ने सिद्धांत Y के तहत निम्न सकारात्मक कल्पनाओं को दर्ज किया:
(i) कार्य में शारीरिक और मानसिक प्रयास करना उतना ही स्वाभाविक है जितना खेलना या आराम करना । औसत मानव काम से घृणा नहीं करता । यह नियंत्रणीय स्थितियों पर निर्भर करता है कि काम संतोष का स्रोत भी हो सकता है (जो ऐच्छिक रूप से किया जाए) या दंड का भी स्रोत हो सकता है, संभव होने पर जिससे बचा जाए ।
(ii) प्रयासों को सांगठनिक उद्देश्यों के करीब लाने का बाह्य नियंत्रण और सजा का भय एकमात्र माध्यम नहीं है । मनुष्य उन उद्देश्यों की सेवा में आत्मनिर्देशन और आत्मनियंत्रण लागू करेगा जिनके प्रति वह प्रतिबद्ध है ।
(iii) उद्देश्यों के लिए प्रतिबद्धता उपलब्धि के साथ जुड़े इनामों का काम है । उदाहरण के लिए ऐसे इनामों में सबसे महत्त्वपूर्ण, जैसे- अहं और आत्म-वास्तवीकरण आवश्यकताओं की तुष्टि, सांगठनिक उद्देश्यों की ओर निर्देशित प्रयासों का सीधा नतीजा हो सकते हैं ।
(iv) उचित स्थितियों के अंतर्गत एक औसत मानव न सिर्फ जिम्मेदारी स्वीकारना सीखता है बल्कि जिम्मेदारियों की खोज करना भी सीखता है । जिम्मेदारी से बचना, महत्वाकांक्षा का अभाव और सुरक्षा पर जोर अक्सर अनुभव से पैदा होते हैं, वे स्वाभाविक मानवीय गुण नहीं होते ।
(v) सांगठनिक समस्याओं के समाधान में कल्पना, मेधाविता और रचनात्मकता के अधिक उपयोग की क्षमता लोगों में काफी होती है ।
(vi) आधुनिक औद्योगिक जीवन की स्थितियों के अंतर्गत एक औसत मानव की बौद्धिक क्षमताओं का सिर्फ आंशिक रूप में ही उपयोग किया जा सकता है ।
मैकग्रेगर के अनुसार, सिद्धांत X को चलाने वाला केंद्रीय सिद्धांत प्राधिकार के प्रयोग द्वारा निर्देशन और नियंत्रण करना है । इसे ‘स्केलीय सिद्धांत’ कहा गया है । सिद्धांत Y से निकलने वाला केंद्रीय सिद्धांत है एकीकरण का सिद्धांत, ऐसी स्थितियों की रचना जो एक संगठन के सदस्यों को अपने प्रयासों को उद्यम की सफलता की ओर निर्देशित करके अपने लक्ष्यों को पूरा करने में सक्षम बनाएँ ।
मैकग्रेगर ने कहा कि सिद्धांत Y की कल्पनाएँ आदमी को वृद्धि और विकास की संभावनाओं से भरपूर एक गतिमान सकारात्मक प्राणी के रूप में समझती हैं । इन कल्पनाओं में सिद्धांत की X कल्पनाओं से प्रबंधकीय रणनीति के अलग निहितार्थ हैं । मैकग्रेगर ने अंत में कहा कि सिद्धांत X की कल्पनाओं पर आधारित प्रबंधकीय रणनीति व्यक्ति और संगठन दोनों के लिए ही ज्यादा फायदेमंद होंगी ।
हर्जबर्ग का द्वि-कारक सिद्धांत:
फ्रेडरिक हर्जबर्ग का प्रेरणा का द्वि-कारक सिद्धांत प्रेरणा-हाइजीन सिद्धांत या प्रेरणा-रक्षण सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है । उनकी दो लोकप्रिय पुस्तकें हैं- दि मोटिवेशन टू वर्क (1959) और वर्क एंड दि नेचर ऑफ मैन (1966) ।
हर्जबर्ग ने पिट्सबर्ग उद्योग की आबादी के एक हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाले दो सौ इंजीनियरों और एकाउन्टेंटों का यह जानने के लिए साक्षात्कार लिया कि प्रेरणा के लिए कौन-से कारक उत्तरदायी हैं ।
उन्होंने विश्लेषण के लिए सूचनाएँ जुटाने में महत्त्वपूर्ण घटना पद्धति का इस्तेमाल किया । उन्होंने उन लोगों से काम पर हुई उन घटनाओं के अनुभव के बारे में पूछा जो या तो उनके कार्य संतोष में विशेष वृद्धि में परिणामित हुई, या कार्य संतोष में कमी की ओर ले गईं ।
हर्जबर्ग ने पाया कि कार्य संतोष में संलग्न कारकों का समुच्चय कार्य असंतोष में संलग्न कारकों के समुच्चय से पूरी तरह भिन्न है । पहले कारकों के समुच्चय को उन्होंने ‘संतोषकारक’ (या प्रेरक या वृद्धि कारक या आंतरिक कारक) कहा और कारकों के दूसरे समुच्चय को ‘असंतोषकारक’ (हाइजीन कारक या परिरक्षण कारक या बाह्य कारक) कहा ।
हर्जबर्ग के अनुसार, कारकों के दोनों समुच्चयों की दो अलग विषय-वस्तुएँ हैं । ‘प्रेरक’ मनुष्य के उसके काम से संबंध की व्याख्या करते हैं (उसकी कार्य अंतर्वस्तु) । दूसरे शब्दों में, वे काम की प्रकृति से जुड़े होते हैं और काम के अंदर निहित होते हैं । वे व्यक्ति को बेहतर प्रदर्शन और प्रयास के लिए प्रेरित करने में प्रभावी हैं । इस प्रकार वे अपनी गैर-मौजूदगी से असंतोष नहीं पैदा करते, मगर उनकी उपस्थिति संतोष को जन्म देती है ।
दूसरी ओर, ‘हाइजीन कारक’ मनुष्य के उस परिप्रेक्ष्य या परिवेश से संबंध की व्याख्या करते हैं जिनमें वह अपना काम करता है । दूसरे शब्दों में, वे काम के परिवेश और सीमावर्ती पहलुओं से जुड़े हैं इसलिए उसके बाहर हैं । वे व्यक्ति को बेहतर प्रदर्शन और प्रयास के लिए प्रेरित नहीं करते ।
वे कार्य असंतोष को रोकने के लिए प्रयास करते हैं और यथास्थिति बनाए रखते हैं । इस प्रकार वे अपनी गैर-मौजूदगी से असंतोष पैदा करते हैं और उनकी मौजूदगी संतोष नहीं लाती । जैसा कि फेड लुथांस समाहार करते हैं- ”अपने प्रभाव में ये कारक अभिप्रेरणों को एक सैद्धांतिक शून्य स्तर तक ले जाते हैं और असंतोष रोकने के अनिवार्य तल के रूप में होते हैं ।” हाइजीन कारक स्वयं के द्वारा प्रेरित नहीं करते ।
हर्जबर्ग ने ‘हाइजीन’ शब्द का प्रयोग इसके चिकित्सीय प्रयोग के रूपक के तौर पर किया जिसका अर्थ होता है- ‘रोकने वाला और परिवेशीय’ । दूसरे शब्दों में- उन्होंने ‘असंतोषकारकों’ को ‘हाइजीन’ कारक इसलिए कहा क्योंकि वे मानसिक हाइजीन से मिलते-जुलते तरीके से काम करते हैं । हाइजीन उपचारात्मक नहीं है, मगर निवारक है ।
हर्जबर्ग के अनुसार, हाइजीन कारक अप्रिय स्थिति को टालने के कारण ‘कार्य असंतोष’ की ओर ले जाते हैं । दूसरी ओर प्रेरक, आत्म-वास्तवीकरण की वृद्धि की जरूरत के कारण ‘कार्य संतोष’ की ओर ले जाते है ।
उनके शब्दों में- ”कार्य की प्रवृत्ति के दो आयाम मनोवैज्ञानिक स्तर पर द्वि-आयामी आवश्यकता संरचना को प्रतिबिंबित करते है । एक आवश्यकता प्रणाली ‘अप्रिय स्थितियों’ को रोकने के लिए और एक समानांतर आवश्यकता प्रणाली ‘व्यक्तिगत वृद्धि’ के लिए ।” हर्जबर्ग ने कहा कि मनुष्य की बुनियादी आवश्यकताओं को विपरीत दिशा में जाते हुए दो समानांतर रेखाओं के रूप में चित्रित किया जा सकता है ।
एक तीर उसकी पशु-आदम प्रकृति को चित्रित करता है जिसका सरोकार परिवेश से पैदा हो रही पीड़ा से बचना है । दूसरा तीर आदमी की मानव-अब्राहम प्रकृति को चित्रित करता है जिसका सरोकार आत्म-पूर्ति या कामों को पूरा करने के जरिये मनोवैज्ञानिक विकास करने से है ।
हर्जबर्ग के द्वि-कारक सिद्धांत का निम्न रूप में समाहार किया जा सकता है:
(i) कार्य संतोष पैदा करने में संलग्न कारक कार्य असंतोष पैदा करने वाले कारकों से अलग और भिन्न होते हैं ।
(ii) कार्य संतोष का उल्टा कार्य असंतोष नहीं, बल्कि कार्य संतोष का न होना है ।
(iii) उसी प्रकार कार्य असंतोष का उल्टा कार्य संतोष नहीं, बल्कि कार्य असंतोष का न होना है ।
इस प्रकार, प्रेरक मुख्यत: एक ध्रुवीय होते हैं । अर्थात, वे कार्य असंतोष में काफी कम योगदान करते हैं । इसके विपरीत हाइजीन कार्य संतोष में काफी कम योगदान करते हैं । हर्जबर्ग ने संगठनों में काम कर रहे लोगों को दो श्रेणियों में विभाजित किया- ‘हाइजीन ढूँढने वाले’ और ‘प्रेरणा ढूँढने वाले’ ।
मास्लोव के विवरणात्मक सिद्धांत के विपरीत, हर्जबर्ग का सिद्धांत निर्देशात्मक है । इस प्रकार हर्जबर्ग ने संगठन के सदस्यों को प्रेरित करने के लिए ‘कार्य विस्तार’ की पारंपरिक अवधारणा के स्थान पर ‘कार्य-संवृद्धि’ की अवधारणा का सुझाव दिया ।
हर्जबर्ग के अनुसार ‘कार्य संवृद्धि’ की तकनीक में काम के मनोनयन इस तरह शामिल हैं कि उपलब्धि, मान्यता, जिम्मेदारी, उन्नति और वृद्धि के अवसर उपलब्ध कराए जा सकें । इसमें अनिवार्य रूप से ज्यादा काम नहीं होते, बल्कि काम की योजना, कार्यान्वयन, नियंत्रण और मूल्यांकन के अर्थों में ज्यादा स्वायत्तता, जवाबदेही और जिम्मेदारी शामिल होती है ।
इस प्रकार कार्य विस्तार, जो काम को क्षैतिज रूप में (विस्तारित) करती है और इसकी पहुँच को बढ़ाती है, के विपरीत कार्य संवृद्धि काम को ऊर्ध्वाधर रूप से भारतग्रस्त (विस्तारित) करती है और इसकी गहराई को बढ़ती है । मगर हर्जबर्ग का प्रेरणा सिद्धांत लोकप्रिय होने के बावजूद कई आलोचकों का निशाना बना ।
हाउस व विग्डॉर ने इसकी निम्न पाँच आधारों पर आलोचना की:
(i) यह ‘पद्धतिबद्ध’ है । अर्थात् यह अनुसंधान और सूचना संकलन की महत्त्वपूर्ण घटना पद्धति द्वारा सीमित है । इस पद्धति के अनुसार, जवाब देने वालों से केवल अति संतोषप्रद और अति असंतोषप्रद घटनाओं के बारे में छा गया था ।
(ii) मूल्यांकनकर्ताओं की पक्षधरता, अर्थात मूल्यांकनकर्ताओं द्वारा-निरंतर मूल्यांकन कायम रखने के लिए कोई नियंत्रण नहीं था ।
(iii) अनुसंधान संपूर्ण कार्य संतोष का मापन करने में असफल रहा क्योंकि इसने केवल अत्यधिक प्रसन्नता की माप की ।
(iv) स्थितिगत परिवर्ती कारकों की उपेक्षा के कारण यह पूर्व शोधों के साथ अनिरंतर (Inconsistent) है ।
(v) इसकी शोध पद्धति में सिर्फ संतोष पर ध्यान दिया, उत्पादकर्ता पर नहीं ।
माइकल नैश ने मास्लोव व हर्जबर्ग के सिद्धांतों को ‘प्रमुख गलत सिद्धांतों’ के रूप में स्थापित किया । हिंटन ने भी हर्जबर्ग की शोध पद्धति पर-सवाल खड़े किए । मायर्स शोध की खोजों ने हर्जबर्ग के सिद्धांत का केवल आंशिक समर्थन किया । डोनाल्ड शेवैब को हर्जबर्ग की पद्धति लागू करने पर अलग-अलग परिणाम प्राप्त हुए ।