Read this article in Hindi to learn about:- 1. कार्मिक प्रशासन का अर्थ (Meaning of Personnel Administration) 2. कार्मिक प्रशासन में भर्ती (Recruitment in Personnel Administration) 3. योग्यता (Qualifications) and Other Details.
कार्मिक प्रशासन का अर्थ (Meaning of Personnel Administration):
कार्मिक प्रशासन का अर्थ है- आवश्यक संख्या में कार्मिकों की भर्ती की व्यवस्था, उनका प्रशिक्षण, उनको कार्यभार सौंपना और उनसे संबंधित सभी गतिविधियों का नियोजन, नियंत्रण और संगठन करना । कार्मिकों की शिकायतों का निवारण भी कार्मिक प्रशासन का एक उद्देश्य होता है ।
राज्य द्वारा सामाजिक आर्थिक कल्याण की भावना स्वीकार करने से उसके कार्यों में बेतहाशा वृद्धि हुई तथा इनको सम्पन्न करने के लिए सरकारी सेवकों की संख्या में भी भारी है । इनकी योग्यता, कार्यकुशलता, संतुष्टि आदि पर ही सरकार की सफलता निर्भर करती है अत: सभी सरकारें अपने कार्मिकों पर विशेष ध्यान देती हैं । इस प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (1966) ने केंद्र और राज्य दोनों में कार्मिक प्रशासन विभाग स्थापित करने की अनुशंसा की थी ।
कार्मिक प्रशासन में भर्ती (Recruitment in Personnel Administration):
कार्मिक प्रशासन में भर्ती प्रारंभिक बिंदु है तथा इसी पर लोक सेवा संगठन निर्भर करता है । स्टाल के अनुसार भर्ती लोक सेवा ढांचे की आधार है । सरकार अपने कार्यों के लिए कार्मिकों की संख्या उनकी दक्षता और योग्यता पर निर्भर है ।
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सरकार को अपनी कार्मिक प्रणाली से दो महत्वपूर्ण सराकारों को पूरा करने की जरूरत होती हैं, प्रथम जनता की देखभाल और उसकी आवश्यकताओं की समय पर पूर्ति तथा जनता के पैसों अधिकतम सदुपयोग । इस हेतु सरकार को एक और तो कार्मिकों की भारी संख्या रखना है, दूसरी और ऐसे कार्मिक खोजना होते हैं, जो अपने ऊपर वाले व्यय से अधिक सरकार या जनता को सेवा के रूप में लौटा सके ।
बेकन, ”कार्यों के कार्यान्वयन का जीवन नर छ उत्तम चयन पर निर्भर करता है ।” कार्मिकों को भर्ती करना आसान है, लेकिन दक्ष और कार्यकुशल कार्मिकों की भर्ती काफी मुश्किल हैं । टेलर ने कार्यकुशलता हेतु कार्मिकों के ”वैज्ञानिक चयन” पर बल दिया था ।
अब जब सरकारों का स्थापना व्यय बहुत बढ़ गया हैं और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अधिकाधिक सुधारों की गति तीव्र हो गयी है, तब लोक सेवा की गुणवत्ता का मुदन्ह भी ”पार्किसन नियम” से बाहर निकल आया है । विगत दशकों की चौंकाने वाली उपलब्धियों ने इस दुनिया को जटिलतम कर दिया है । आधुनिक प्रौद्योगिकी के लाभें को जनता तक पहुंचाने के साथ उससे उत्पन्न दोषों से निपटने की दोहरी जवाबदारी लोक सेवकों पर हैं ।
फिनर प्रेस्थस के शब्दों में- ”बीसवीं सदी के उतरार्ध में कार्मिक भर्ती को नाभिकीय भौतिक जगत की ओर प्रेरित करने की आवश्यकता हैं । इसमें माननीय समस्याओं के निराकरण के लिए सर्वाधिक योग्यता की जरूरत हैं । इसमें कार्मिक की खोज ही पर्याप्त नहीं होगी, अपितु उनका ऐसा विकास करना होगा कि वे अधिकाधिक जटिलताओं को समेकित करने का जटिल कार्य कर सके ।”
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भर्ती पर लोक सवा का संगठन निर्भर करता हैं । किसी ”लोकसेवा” की पहचान उसकी भर्ती प्रणाली की श्रेष्ठता से भी होती हैं । यदि लोक सेवा में दोष उत्पन्न होते हैं, तो शंका की सुई भर्ती प्रणाली की तरफ भी घूमती हैं । ग्लेन स्टाल ने भर्ती को ”सम्पूर्ण लोक कार्मिक संरचना के नींव के पत्थर की संज्ञा दी ।”
यदि भर्ती रूपी नींव कमजोर हुई तो उस पर आधारित लोक सेवा की ईमारत कभी भी ढह सकती है । प्रोफेसर जिंक का यह कथन उल्लेखनीय है कि- ”भर्ती की अपेक्षा अब लोक प्रशासन का अन्य कोई भाग इतना महत्वपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि जब तक आधारभूत सामग्री (भर्ती) उपयुक्त नहीं होगी तब तक प्रशिक्षण, निरीक्षण की यह यथेष्ट पूर्ति नहीं कर पाएगी ।
भर्ती की प्रशासन में भूमिका को चीन ने दूसरी शति ईसा पूर्व ही जान लिया था, जब वहां भर्ती का वैज्ञानिक तरीका अपनाया गया । प्रतियोगिता परीक्षा द्वारा कार्मिकों की भर्ती पहले कहीं नहीं हुई और बाद में भी मध्य युग तक ऐसा प्रयोग अन्यत्र नहीं हुआ ।
आधुनिक काल में प्रशा (जर्मनी) ने ऐसा सर्वप्रथम किया, 1857 से । भारत में योग्यता सिद्धान्त को मंजूरी 1853 (चार्टर एक्ट 1853) में ही मिल गयी थी और ब्रिटेन ने 1855 में इसकी शुरूआत की । लोक सेवा आयोग की स्थापना से यद्यपि वास्तविक शुरूवात कहा 1857 से ही हुई ।
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अमेरिका ने 1883 में लूट पद्धति से पिण्ड छुड़ाया । आज लगभग प्रत्येक देश ने भर्ती की प्रतियोगिता प्रणाली को अपनी लोक सेवा का आधार बनाया हैं । तथापि यह एक तथ्य हैं, कि योग्यता निर्धारण की आयोग प्रणाली नाकारात्मक आधार पर खडी हैं । किंग्सले के शब्दों में- ”इसमें धुर्तों को बाहर रखने के अपने उद्देश्य को तो प्राप्त किया हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में अनेक योग्य भी संभवत: बाहर रह जाते हैं ।”
भर्ती प्रणाली अपनाने वाला पहला देश चीन था, जिसने सम्राट शी-तु-हुई के समय (2री शताब्दी ईसा पूर्व) योग्यता आधारित प्रतियोगिता परीक्षा द्वारा भर्ती करना शुरू किया था । आधुनिक समय में प्रशा ने संरक्षण प्रणाली क स्थान पर योग्यता आधारित भर्ती प्रणाली 1857 से ही शुरू कर दी थी । भारत में 1853 के एक्ट से प्रतियोगिता परीक्षा के सिद्धान्त को मंजुरी मिली ।
कार्मिक प्रशासन में कर्मचारियों की योग्यता (Qualifications of the Employees in Personnel Administration):
एक समस्या भर्ती प्रणाली की यह है कि प्रत्येक पद पर नियुक्त होने वाले व्यक्ति से कौन सी योग्यता अपेक्षित हो और उसका निर्धारण कौन करें ? योग्यता को दो भागों में देखा जाता है- सामान्य योग्यता और विशेष योग्यता ।
i. सामान्य योग्यताएं (General Qualification):
प्रत्येक देश में लिंग, आयु, अधिवास, नागरिकता आदि सामान्य मानक निर्धारित किये गये हैं । नागरिकता लोक सेवा की पहली शर्त हैं । ‘अधिवास’ संबंधी दूसरी योग्यता संघीय स्वरूप वाले देशों में प्रान्तीय स्तर पर लागू रहती है । पहली बार अमेरिका में इसे अपनाया गया था, राज्य पुनर्गठन आयोग की आलोचना के बाद भारत में 1957 के अधिवास अधिनियम द्वारा अधिवास संबंधी योग्यता को हटा दिया गया । लिंग संबंधी प्रावधान भी शिथिल हो गये है, और अब महिलाऐं भी लोकसेवा में प्रवेश कर सकती है ।
इसी प्रकार निश्चित न्यूनतम और अधिकतम आयु-सीमा का प्रावधान भी लोकसेवा की एक योग्यता के रूप में निर्धारित किया जाता हैं । भारत, ब्रिटेन जैसे ”वृत्तीय लोकसेवा” संकल्पना वाले देशों में यह अपेक्षाकृत कम (21-30) तथा अमेरिका जैसे देशों में अधिक (18-50) हैं । हम यदि ध्यान से विचारे तो उपरोक्त प्रावधान योग्यता के अन्तर्गत कम तथा शर्तों के अधीन अधिक आते हैं । किसी देश या प्रान्त का निवासी होना, पुरूष लिंगी होना आदि भेदभावमूलक प्रतीत होते हैं ।
जिस प्रकार हम आज यह कल्पना नहीं कर सकते कि महिलाओं को लिंग के आधार पर लोकसेवा के प्रवेश करने से रोका जाएगा, उसी प्रकार ”विश्वग्राम” में तेजी से बदलती दुनिया में निकट भविष्य में नागरिकता की शर्त भी उसी प्रकार विलुप्त हो जाएगी, जैसे अनेक देशों में अधिवास संबंधी हुई हैं ।
इन तथाकथित सामान्य योग्यताओं का धीरे-धीरे समाप्त होना ही इस प्रश्न का स्पष्टीकरण हैं, कि असमानता, भेदभाव आदि कारित करने वाले प्रावधानों को ”योग्यता” की संज्ञा कैसी दी जा सकती हैं । बहरहाल उपर्युक्त योग्यताओं की जांच, संलग्न प्रमाण पत्रों के आधार पर वस्तुनिष्ठ ढंग से की जाती हैं । इनमें से किसी भी अपेक्षित योग्यता के पूरा नहीं होने पर अभ्यर्थी की उम्मीदवारी पर आगे विचार नहीं किया जाता है ।
ii. विशेष योग्यताएं (Special Qualification):
इसमें शिक्षा, तकनीकी अनुभव, व्यक्तिगत योग्यताएं आदि आती है । विशिष्ट योग्यता का जहां तक प्रश्न है, पदों पर चयन में यही मुख्य भूमिका निभाती है । सामान्य योग्यता तो अभ्यर्थी पर शासन द्वारा आरोपित है, और अभ्यर्थी द्वारा किसी प्रयास से अर्जित नहीं होती जबकि विशिष्ट योग्यताएं अभ्यर्थी के प्रयासों तथा उसकी मेहनत और बुद्धि का परिणाम होती हैं । इसमें सर्वाधिक महत्व की योग्यता शिक्षा संबंधी हैं ।
a. शैक्षिक योग्यता:
लोकसेवा में भर्ती हेतु विभिन्न पदों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक अर्हता सामान्य रूप से रखी ही जाती हैं, यद्यपि अमेरिका इसका अपवाद हैं, जहां समानता पर इतना अधिक बल दिया गया है कि लोकसेवा के उच्च या निम्न, प्रत्येक पद के लिए कोई शिक्षा अनिवार्य नहीं रखी गयी हैं ।
अमेरिका में योग्यता के स्थान पर अनुभव को आधार बनाया गया है । ब्रिटेन में निम्न पदों (लिपिकीय वर्ग) के लिए न्यूनतम अर्हता (आनर्स) होना आवश्यक है । अन्य कार्यकारी पदों के लिए सामान्य स्नातक ही अपेक्षित होते है । भारत में लिपिकीय पदों के लिए हाई स्कूल तथा सभी प्रशासकीय पदों के लिए स्नातक उपाधि अपेक्षित होती हैं ।
b. अनुभव:
हमारे यहां लोक सेवा में अनुभव को मान्यता नहीं है, यद्यपि उच्च तकनीकी पदों (चिकित्सा, इंजीनियरिंग) पर अनुभव मांगा जा सकता है । अमेरिका में सामान्य पदों पर भी अनुभवी व्यक्ति को प्राथमिकता दी जाती है । वस्तुत: वहां ”अनुभव ही योग्यता है” का सिद्धान्त स्वीकारा जाता है ।
c. तकनीकि योग्यता:
सरकार में तकनीकि (डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक) पदों के लिए संबंधित योग्यता का होना देश में आवश्यक माना गया है ।
d. व्यक्तिगत गुण:
लोक सेवकों में कतिपय ऐसे गुण भी खोजे जाने चाहिए, जिनका उनके कार्य निष्पादन से गहरा संबंध हो । दक्षता, ईमानदारी, बुद्धि-चातुर्य, सहयोगी प्रवृति, तार्किकता आदि लगभग प्रत्येक कार्मिक के कार्य निष्पादन की गुणवत्ता को निश्चित करते हैं ।
फिफनर प्रेस्थस ने 5 प्रकार की व्यैक्तिक योग्यताओं का जिक्र किया हैं:
1. वैज्ञानिक चिन्तन से युक्त लोचदार विचार जिसमें समन्वय को स्वीकारा गया हो ।
2. संगठन और प्रबन्ध की विषय सामग्री का ज्ञान हो ।
3. समस्या के आसान समाधान की योग्यता ।
4. पढ़ने-लिखने की व्यापक योग्यता ।
5. विषम स्थितियों को विभिन्न व्यक्तियों के सहयोग-सम्पर्क से निपटाने की योग्यता ।
कार्मिक प्रशासन में कर्मचारियों की प्रशिक्षण (Training of the Employees in Personnel Administration):
लोक सेवा को कार्यकुशल बनाने और भावी जरूरतों के अनुरूप बनाए रखने के प्रशिक्षण की निरंतर बढ़ रही हैं । लोकसेवा जैसे वृहदाकार संगठन में अनेक कार्यों सम्पन्न जाता है अतएव यह आवश्यक होता है कि कार्य की प्रकृति के अनुरूप ही विशेष प्रशिक्षण प्रदान किया जाए । भारत जैसे विकासशील देशों में देर से ही सही, क्षण के महत्व को अब स्वीकार कर लिया व्यावहारिक रूप में प्रशिक्षण के मार्ग में अनेक कठिनाइयां अब भी मौजूद हैं ।
कार्मिक प्रशासन में कर्मचारियों की पदोन्नति (Promotion of the Employees in Personnel Administration):
पदोन्नति कार्मिक प्रशासन में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं । कार्मिक मनोबल सांगठनिक उत्साह से संबंधित पदोन्नति से आशय हैं कार्मिक को वर्तमान पद से अधिक उच्च पद पर नियुक्त करना ।
अर्थ:
पदोन्नति के अंग्रेजी में प्रमोशन शब्द आता है । प्रमोशन मूलत: लेटिन शब्द ”प्रमोवीर” से बना है । इसका अर्थ है पद की उन्नति । पदसोपानिक ढांचे में निम्न पद से उच्च पद की प्राप्ति पदोन्नति होती है जबकि विपरीत पदावनति । पदोन्नति की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यह कार्मिक के वैयक्तिक विकास से संबंधित है अर्थात् किसी कार्मिक की अर्जित उपलब्धि है । पदोन्नति और वेतन वृद्धि में भी अंतर है । पदोन्नति मात्र वेतन वृद्धि नहीं है अपितु पद के कर्तव्यों और दायित्वों में सकारात्मक परिवर्तन पदोन्नति का आधारभूत लक्षण हैं ।
कार्मिक प्रशासन में कर्मचारियों की उन्नति, स्थानान्तरण, पुन: निर्धारण (Advancement, Transfer and Reassignment of the Employees in Personnel Administration):
उन्नति (Advancement):
इससे आशय कार्मिक की मात्र वेतन वृद्धि से है । इसे आर्थिक और प्रशासनिक पदोन्नति भी कहा जाता है ।
इसके 3 स्वरूप है:
(i) स्वचालित उन्नति, जिसमें सेवा अवधि के अनुपात में क्रमोन्नति होती रहती है ।
(ii) सशर्त उन्नति, जिसमें कार्यकुशलता के आधार पर क्रमोन्नति दी जाती है ।
(iii) अर्ध प्रतिबंध उन्नति, जिसमें सेवा अवधि और कार्य कुशलता दोनों के आधार पर क्रमोन्नति प्रदान की जाती है ।
स्थानान्तरण (Transfer):
सामान्यत: स्थानान्तरण से आशय है, समान पद पर रहते हुए कार्य स्थल में बदलाव । उदाहरणार्थ लिपिक का लिपिक पद ही दूसरी शाखा में स्थान परिवर्तन । लेकिन पदोन्नति में भी अधिकांशतया दूसरे स्थान पर नियुक्त किया जाता है, तब इसे ”पदोन्नति पर स्थानान्तरण” कहते हैं ।
पुननिर्धारण (Reassignment):
यह कार्य के स्वरूप में बदलाव से संबंधित है । इसके तहत श्रेणी, पदनाम, वेतनमान आदि समान रहते हुए कार्मिक के कार्य में परिवर्तन कर दिया जाता है ।
पदोन्नति की आवश्यकता और महत्व:
1. यह व्यक्ति को अभिप्रेरित करने का सर्वोत्तम उपाय है । संगठन में कार्यकुशलता और उत्साह बना रहे इससे हेतु कार्मिकों को पदोन्नति के माध्यम से उच्च मनोबल दिया जाता है ।
2. पदोन्नति की आशा में ही अच्छे कार्मिक संगठन में आते हैं ।
3. उच्च पदों पर अनुभवी व्यक्तियों की प्राप्ति हेतु भी यह आवश्यक है ।
4. प्रतिवर्ष अलग-अलग समय पर अनेक कार्मिक निवृत्त होते है जिनके रिक्त पदों पर कार्मिकों की जरूरत पड़ती है । इनकी पूर्ति हेतु निम्न पदों से कार्मिकों को पदोन्नत कर दिया जाता है ।
5. पदोन्नति की आशा में निम्न पद पर भी योग्य व्यक्ति लोक सेवा में आ जाते हैं ।
6. संगठन में कार्यकुशलता, मितव्ययिता तथा अच्छे समन्वय को सुनिश्चित करने में भी मदद मिलती है ।
7. पदोन्नति को नियोक्ता की तरफ से कार्मिक को उसकी अच्छी सेवा के पुरस्कार के रूप में भी देखा जाता हैं ।
8. उच्च पदों पर पदोन्नत व्यक्तियों के ज्ञान और अनुभव का उपयोग प्रशासनिक कुशलता में इजाफा करता है ।
9. रिक्त पदों की पदोन्नति के द्वारा शीघ्र पूर्ति होने से संगठन की गतिशीलता बनी रहती है तथा बाहरी भर्ती पर होने वाले व्यय से बचाव होता हैं ।
10. वस्तुत: वृत्तिक लाक सेवा की संकल्पना में पदोन्नति सर्वाधिक आकर्षक और प्रभावशाली उपबन्ध हैं ।
कार्मिक प्रशासन में कर्मचारियों की वेतन और सेवा शर्ते (Pay and Service Conditions of the Employees in Personnel Administration):
कार्मिक प्रशासन में वेतन और सेवा शर्ते कार्मिक और नियोक्ता दोनों दृष्टि से अति महत्वपूर्ण होते है । व्यापक रूप से देखा जाए तो सेवा शर्तो में ही वेतन संबंधी प्रावधान शामिल होते है । इसके अलावा वेतन वृद्धि, भत्ते, पदोन्नति, अवकाश और स्थानांतरण, प्रतिनियुक्ति, आचार संहिता, सेवावधि और सेवानिवृत्ति, पेंशन, निष्कासन, भविष्य निधि, प्रोवीडेन्ट फंड आदि प्रावधान आते हैं । इस प्रकार सेवा शर्ते भर्ती, प्रशिक्षण, वर्गीकरण को छोड़कर कार्मिक प्रशासन के अन्य सभी पहलुओं को अपने में समेट लेती हैं । इसमें वतन और भत्तों का मुद्दा कार्मिकों के लिये प्रारंभिक रूप से काफी महत्व रखता है ।
वेतन का अर्थ (Meaning of Salary):
वेतन के लिए अंग्रेजी में Salary शब्द आया है जो मूलत: लैटिन शब्द ”सेलेरियम” से बना है । सेलेरियम का अर्थ है- नमक-धन या नमक खरीदने के लिये धन की व्यवस्था । रोमन सैनिकों को ”सेलेरियम” नमक खरीदने के लिये दिया जाता था । भारत में मध्ययुग में इसे ”तनख्वाह” कहा गया जो आज भी भारत में जारी है । भारत में इसके लिये Payment और ”पगार” शब्दावली भी प्रचलित है यद्यपि ये वेतन का पर्याय नहीं है ।
कार्मिक प्रशासन में कर्मचारियों की ऋण एवं कटोत्रा (Loans and Deductions of the Employees in Personnel Administration):
(i) कार्मिकों के वेतन से नियमानुसार निश्चित धन राशि की प्रतिमाह या वार्षिक रूप से की जाती है जो के ”फंड” में जमा होती रहती है ।
(ii) राज्य बीमा तथा भविष्य निधि (प्रोवीडेन्ट फंड) के लिए अनिवार्य रूप से राशि की कटौत्री प्रतिमाह होती है । इस जमा राशि पर ब्याज, बोनस कार्मिक को देय होता है । इन फंड से कार्मिक नियमानुसार ऋण भी ले सकता है ।
(iii) आयकर और वृतिकर (प्रोफेशनल टेक्स) के दायरे में आने वाले कार्मिकों के वेतन से इस हेतु वार्षिक कटोत्री होती है जो कार्मिकों को वापस नहीं मिलती ।
(iv) समूह बीमा योजना (1980) के अंतर्गत प्रतिवर्ष अप्रैल माह में कुछ राशि काटी जाती है । सरकार से लिए गये ऋण की किश्त की राशि भी काटी जाती है ।
(v) सरकारी कार्मिक को उपलब्ध ऋण इस प्रकार हैं:
a. राज्य बीमा से ऋण,
b. भविष्य निधि (प्रोवीडेन्ट फंड) से ऋण,
c. आवास निर्माण हेतु ऋण,
d. वाहन-ऋण,
e. अनाज खरीदने हेतु ग्रीष्मकालीन अग्रिम,
f. स्थानांतरण एवं दौरे के लिऐ अग्रिम राशि,
g. त्यौहार अग्रिम राशि (कुछ कर्मचारियों को) ।
कार्मिक प्रशासन में कर्मचारियों की सेवा निवृत्ति (Retirement of the Employees in Personnel Administration):
वृत्तिक लोक सेवा की एक विशेषता के रूप में सेवानिवृत्ति प्रशासन का महत्वपूर्ण मूलाधार है । इससे आशय है, आयु, सेवावधि या अन्य आधार पर सेवा से संतोषजनक निवृत्ति । मेयर्स के अनुसार- ”सेवानिवृत्ति से आशय है असमर्थ व्यक्तियों से उनकी सेवा समाप्ति का समझौता करना । इस समझौते की मुख्य शर्त यह है कि सरकार उस व्यकित के शेष जीवन के लिए धनराशि का एकमुश्त या किश्तों या दोनों में देने का प्रावधान करें ।”
सेवानिवृत्ति की अवधारणा इस तथ्य पर आधारित है कि कार्य करते-करते कार्मिक की एक अवस्था ऐसी आती है, जब वह उसको करने के लिए शारिरिक रूप से दक्ष नहीं रह जाता । लेकिन उस समय उसे सेवा से पृथक् इस तरह किया जाना आवश्यक है, कि वह अपना शेष जीवन बिना आर्थिक कठिनाई के गुजार सके ।