Read this article in Hindi to learn about the contribution of various political thinkers towards behavioural approach to public administration.
1. हरबर्ट साइमन और व्यवहारवाद (Herbert Simon and Behavioural Approach):
(i) व्यवहारवाद के प्रमुख प्रवर्तक हरबर्ट साइमन ने अपनी पुस्तक ”एडमिनिस्ट्रेटिव्ह बिहेविअर-ए डिसिजन मेकिंग साइंस” (1947) में व्यवहारवाद का निर्णय प्रक्रिया के सन्दर्भ में विस्तृत विवेचन और विश्लेषण प्रस्तुत किया ।
(ii) इस उपागम को साइमन ने नयी दृष्टि दी और बताया कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रशासनिक क्रिया के रूप में “निर्णय” ही सांगठनिक व्यवहार को निश्चित करते है, अत: उसका यथार्थ और वैज्ञानिक अध्ययन किए बिना सांगठनिक समस्याओं को न तो समझा जा सकता है, न ही उनका समाधान किया जा सकता है ।
(iii) उन्होंने ”प्रशासन की कहावत” नामक शीर्षक-लेख में यांत्रिक सिद्धान्तों को अवैज्ञानिकता और युग्मावस्था के कारण कहावतों की संज्ञा दी थी ।
ADVERTISEMENTS:
(iv) साइमन के अनुसार संगठन का केवल औपचारिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, अपितु उसके वास्तविक व्यवहार का ज्ञान भी जरूरी है । यह जरूरी नहीं कि दोनों में अन्तर ही हो, तथापि कई अवसरों पर संगठन का व्यवहारिक रूप उसके औपचारिक ढांचे से आगे बढ़ जाता है ।
(v) साइमन प्रशासन को ‘विशुद्ध विज्ञान’ बनाने हेतु मूल्यों की उपेक्षा पर जोर देता है ।
(vi) उसके अनुसार संगठन में मनुष्य दो प्रकार से व्यवहार करता है- कार्यगत व्यवहार और व्यक्तिगत व्यवहार । मनुष्य का व्यक्तिगत व्यवहार उन संस्कारों, सामाजिक पृष्ठभूमि से प्रभावित होता है जिसका वह हिस्सा है । यह व्यवहार उसके पदेन व्यवहार को प्रभावित करता है । यहां तक कि उसे पदेन व्यवहार से विमुख भी कर सकता है अतएव संगठन में मनुष्य के इन व्यवहारों का वैज्ञानिक अध्ययन होना चाहिए ।
(vii) साइमन-स्मिथबर्ग-थामसन ने व्यवहारवाद की चार मान्यतायें दी-
ADVERTISEMENTS:
1. मानदण्डों का मूल्यांकन
2. महत्वाकांक्षा
3. प्रभाव की स्वीकृति
4. सांगठनिक मनोबल
ADVERTISEMENTS:
(ix) प्रशासन और व्यवहार- साइमन ने संगठन को ”समूह व्यवहार” की संज्ञा दी तथा उच्च प्रशासनिक वर्गों के निर्णयों को समूह और व्यक्ति दोनों के व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्व के रूप में देखा । साइमन ने प्रशासन को एक ऐसी कला माना जो संगठन में मनुष्य के व्यवहार को निर्देशीत, समन्वित और अन्तत: प्रभावित करती है । संगठन में मानवीय व्यवहार अनेक तत्वों से प्रभावित होती है । सांगठनिक उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्रशासन को इन व्यवहारों में सामंजस्य उत्पन्न करना आवश्यक है ।
2. क्रिस आर्गेयरिस का योगदान (Contribution of Criss Agryaris):
पर्सनॉलटी एवं आर्गेनाइजेशन (1957) में क्रिस ने शास्त्रीय विचारधारा की आलोचना करते हुए संगठन और मनुष्य के मध्य संबंधों पर विस्तुत चर्चा की । परिपक्वता माडल और फ्युजन-प्रोसेस माडल में उसने व्यैक्तिक व्यवहार की संगठन में भूमिका प्रतिपादित की ।
अपरिपक्वता-परिपक्वता सिद्धांत:
आर्गेयरिस के अनुसार प्रत्येक संगठन में मनुष्य की प्रवृत्ति अपरिपक्वता से परिपक्वास्था की ओर विकास करने की होती है ।
विकास की इस प्रक्रिया के 7 घटक है:
1. निष्क्रिय शैशवस्था से सक्रिय वयस्कावस्था तक ।
2. पर निर्भरता से सापेक्षिक अनिर्भरता तक ।
3. सीमित व्यवहार से कई विभिन्न व्यवहारों तक ।
4. अनिश्चित उथले व्यवहार और सतही रूचियों से स्थिर व्यवहार और गहन रूचियों तक ।
5. अल्पकालिन परिप्रेक्ष्य से दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य तक ।
6. अधीन सामाजिक स्थिति से समान या श्रेष्ठ सामाजिक स्थिति तक ।
7. आत्म-जागरूकता के अभाव से आत्म जागरूकता और आत्म नियंत्रण तक ।
आर्गेराइरिस कहते है कि कार्मिक की बढ़ती परिपक्वता के मार्ग में शास्त्रीय संगठन बाधा बन जाता है । क्योंकि दोनों की जरूरतें भिन्न होती है । इन जरूरतों में एक मूल असंगति पायी जाती है । जहां परिपक्व होता कार्मिक सक्रियता, आत्मनिर्भरता और दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य लेकर श्रेष्ठ सामाजिक स्थिति की और बढ़ता है, वहीं शास्त्रीय सिद्धांत उसे निष्क्रिय, पर-निर्भर और अधीन बनाये रखते है ।
यह असंगति अत्यधिक होती जाती है:
1. जैसे-जैसे कार्मिक अधिक परिपक्व होता है,
2. जब संगठन के औपचारिक ढांचे को अधिक कठोर और तार्किक बनाया जाता है,
3. जैसे-जैसे पदसोपान के नीचले स्तरों पर जाते है ।
इन परिस्थितियों में कार्मिक अधोलिखित प्रतिक्रिया देता है:
1. संगठन को छोड़कर चला जाएगा या
2. पदसोपान में ऊपर के उच्च पदों की तरफ जाने का प्रयास, क्योंकि वहां असंगति कम होती है ।
3. कतिपय रक्षात्मक उपायों का प्रयोग या
4. असंवेदशीलता और उदासीनता का प्रदर्शन ।
संयोजन-प्रक्रिया विचारधारा: व्यैक्तिकरण और सामाजिकीकरण की प्रक्रियाएं:
क्रिस आर्गेराइरिस और ई. डब्ल्यू बाक्के द्वारा उद्देश्य प्राप्ति हेतु व्यकित और संगठन दोनों की परस्पर निर्भरता को ”फयूजन प्रोसेस मॉडल” द्वारा समझाया गया है ।
(i) इसके अनुसार संगठन कार्मिक दोनों का प्रयास ”आत्म वास्तवीकरण” को प्राप्त करने का होता है । और इस प्रयास में दोनों एक-दूसरे का इस्तेमाल करते है और जब ये प्रयास एक साथ होता है तो संलयन उत्पन्न होता है ।
(ii) व्यक्ति अपने उद्देश्यों की दिशा में आगे बढ़ने के लिये संगठन का इस्तेमाल करता है, जिसे क्रिस बाक्के ने ”व्यैक्तिकरण प्रक्रिया” कहा ।
(iii) इसी प्रकार संगठन अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु व्यक्ति का इस्तेमाल करता है, जिसे क्रिस-बाक्के ने ”सामाजिकीकरण की प्रक्रिया” कहा ।
(iv) जब ये दोनों ही प्रक्रियाएं संगठन में सक्रिय रहती है तो इस अवस्था को ”संयोजन प्रक्रिया” कहते है ।
व्यैक्तिक और सांगठनिक लक्ष्यों का एकीकरण:
आर्गेयरिस ने व्यैक्तिक जरूरतों के सांगठनिक लक्ष्यों के साथ एकीकरण हेतु कतिपय सुझाव दिये, जो इस प्रकार है:
1. मेट्रिक्स संगठन:
क्रिस औपचारिक संगठन के स्थान पर मेट्रिक्स संगठन को लाने का समर्थन करते है । इसमें उच्च-अधीनस्थ संबंधों को समाप्त कर दिया जाता है । उनका स्थान आत्मानुशासित व्यक्ति लेते है जिनके मध्य उच्च-अधीन के संबंध नहीं होते । विशेष समस्याओं के समाधान हेतु ”प्रोजेक्ट-ग्रुप” बना दिये जाते है, जो सत्ता के बजाय उपयोगी सूचना और विशेषज्ञता के आधार पर निर्मित होते है । ये संगठन की ऊर्ध्वाधर और लंबवत दोनों रेखाओं को छेदते है अर्थात् पदसोपानिक कठोरता से मुक्त होते है ।
2. टी-ग्रुप या संवेदनशील प्रशिक्षण:
कार्मिकों की व्यक्तिगत प्रभावकारिता और अंतर-व्यैक्तिक योग्यता (व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य संबंध बनाने की योग्यता) को बढ़ाने हेतु क्रिस संवेदनशील प्रशिक्षण की तकनीक का समर्थन करते है जिसे टी-ग्रुप प्रशिक्षण कहा जाता है । यह प्रयोगशाला आधारित प्रशिक्षण है जिसमें एक विशेष रूप से निर्मित प्रयोगशाला में कार्मिकगण परस्पर चर्चा करते है और ”समूह की कार्य पद्धति” को सीखते हैं । इसमें कार्मिक एक-दूसरे के प्रति अपने रवैये को लेकर खुलकर चर्चा करते है ।
3. डबल-लूप लर्निग तकनीक:
क्रिस ने सीखने की ”डबल-लूप” तकनीक का समर्थन किया जिसके अंतर्गत व्यक्ति स्व-निर्मित तकनीकों के स्थान पर अन्य व्यक्तियों से सीखता है ।
4. कार्य विस्तार दृष्टिकोण:
क्रिस आर्गेयरिस कार्य विस्तार का सुझाव देते है, ताकि:
(1) कार्य अधिक रूचिकर और संतोषप्रद बन सके तथा
(2) कार्मिकों में जवाबदारी की भावना उत्पन्न हो सके ।
लेकिन कार्य विस्तार में अनिवार्यतः व्यक्ति की बौद्धिक और अंत-व्यैक्तिक योग्यता का उपयोग किया जाना चाहिए ।
5. सहभागी प्रबंध:
क्रिस प्रबंध की भागीदारी शैली का सुझाव देते है । इसमें नेता कार्य दशाओं के निर्धारण के समय अधीनस्थों से विचार-विमर्श करता है । सहभागी प्रबंध को बढ़ावा देने से प्रबंध-श्रमिक के मध्य असहमति और संघर्ष दोनों घटाने में मदद मिलती है ।
क्रिस उक्त सुझावों को ”सुधार की रणनीतियां” कहते है जिनका प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति-संगठन का एकीकरण है और इस एकीकरण से प्रत्येक कार्मिक को आत्म प्रत्यक्षीकरण का वास्तविक अवसर मिलता है । अंतत: यह रणनीति व्यक्ति, संगठन और उनके परिवेश सभी को लाभान्वित करती है ।
3. लिकर्ट का योगदान (Contribution of Likert):
(A) लिकर्ट ने उन कारकों की खोज की जो कार्मिकों पर अच्छा प्रदर्शन करने हेतु दबाव डाल रहे है जैसे बढ़ती हुई व्यापारिक स्पर्धा, प्रबंध में श्रमिक भागीदारी की मांग आदि ।
(B) लिंकर्ट ने पर्यवेक्षकों को दो भागों में बांटा:
1. कार्य केंद्रित- कार्य को निश्चित स्वरूप में संपादित करवाना ।
2. कार्मिक केंद्रित- अधीनस्थों के साथ मिलकर प्रभावशाली समूह का निर्माण करना ।
अनोन्य क्रिया प्रभाव तंत्र:
(अ) कार्मिक की आवश्यकता और उद्देश्य का संगठन के उद्देश्यों और कार्यों से एकीकरण ।
(ब) कार्मिक पर कार्य का दबाव आंतरिक प्रेरणा से न कि बाहरी प्रेरणा से ।
लिकिंग पिन मॉडल संगठन में व्यक्ति की दो समूहों में दोहरी भूमिका होती है । वह निम्न स्तरीय समूह का नेता तथा उच्च स्तरीय समूह का सदस्य होता है । इससे संगठन में विभिन्न समूहों के मध्य लिंक निर्मित हो जाता है ।
प्रबन्धकीय पद्धतियां:
लिंकर्ट ने चार प्रबन्धकीय पद्धतियां बताई:
1. शोषणात्मक अधिकारिक ।
2. हितैषी आधिकारिक ।
3. परामर्शी अधिकारिक ।
4. सहभागिता अधिकारिक ।
पहली पद्धति में ऊपर से नीचे तक कठोर पर्यवेक्षण होता है और अनौपचारिक संबंधों के स्थान पर पद आधारित संबंध होते है । कार्य निष्पादन में दबाव का प्रयोग होता है, तथा अभिप्रेरण लक्ष्य केंद्रित । धीरे-धीरे इस प्रवृत्ति में मानवीयता का विकास होता है । ये परिवर्तन एकाएक नहीं अपितु क्रमिक रूप से होते । प्रथम पद्धति के स्थान पर दूसरी पद्धति हितैषी-अधिकारिक, लक्ष्य केंद्रित से कार्मिक केंद्रित की तरफ गतिशील होती है ।
परामर्शी और सहभागी कार्मिक केंद्रित अधिक होती है । चतुर्थ पद्धति अर्थात सहभागिता में व्यक्तिवादी के स्थान पर सामूहिक निर्णय प्रक्रिया, पदसोपानिक संचार के स्थान पर त्रिमार्गीय संचार, मानवीय पर्यवेक्षण आदि अपनाये जाते है ।
4. अन्य चिंतकों के योगदान (Contribution of Other Thinkers):
प्रशासनिक अध्ययन में व्यवहारीय दृष्टिकोण के विकास में अन्य चिंतकों के योगदान निम्न है:
1. कर्ट लेविन- समूह गतिशीलता और क्षेत्र सिद्धांत (Group Dynamics and Field Theory)
2. कार्ल रोजर्स – परामर्श थैरेपी का रोग निवारण दृष्टिकोण (Clinical Approach to Counseling Therapy)
3. जे. एल. मोरेनो- अंतरवैयक्तिक संबंधों के अध्ययन (Studies of Interpersonal Relations)
4. मैस्लो- आवश्यकताओं की सौंपानिकता (Hierarchy of Needs)
5. मैकग्रेगर- X-विचारधारा व Y-विचारधारा (X-Theory and Y-Theory)
6. हर्जबर्ग- प्रेरणा-हाइजीन विचारधारा (Motivation- Hygiene Theory)
7. वॉरेन बेनिस- प्रयोगशाला प्रशिक्षण (टी समूह प्रशिक्षण) (Laboratory Training or T-Group Training)