Read this article in Hindi to learn about the control of public corporation in India.
लोक निगम नियंत्रण और स्वयात्ता दो विरोधी तत्वों का सुन्दर मिश्रण कहा जाता है । यह इनकी समस्या भी है ।
लोक निगम पर नियंत्रण की तीन एजेन्सीयां है:
1. कार्यपालिका,
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2. संसद,
3. लोक उपक्रम समिति ।
1. कार्यपालिका का नियंत्रण (Control of the Executive):
लोक निगमों के निर्देशक मण्डल की नियुक्ति सरकार करती है और यह सरकारी नियंत्रण का पहला माध्यम माना जाता है । सरकार इन्हें हटा भी सकती है कतिपय आधारों पर । सरकार (मंत्री) निगमों को सामान्य नीति के प्रश्नों पर निर्देश दे सकती है ।
कोई निर्देश नीतिगत है या आन्तरिक प्रबंध से संबंधित, इसका निर्णय भी सरकार करती है । कुछ निगमों को पूंजी निवेश करने या कहीं से ऋण लेने के लिए सरकारी अनुमति लेना आवश्यक रखा गया है । सरकार अथवा कैग के परामर्श से ही निगम अपने लेखों का स्वरूप तय करते है ।
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कैग ही इनके लेखों का परीक्षण करता है । कुछ निगमों के लिए यह भी आवश्यक है कि वे नये कार्यक्रमों/योजनाओं को शुरू करने के पहले सरकारी पूर्वानुमति प्राप्त कर ले । निगमों के लिए यह आवश्यक है कि वे समय-समय पर अपनी स्थिति से सरकार को अवगत कराये अथवा सरकार द्वारा मांगे जाने पर कोई भी जानकारी अविलम्ब उपलब्ध कराये । आर.बी.आई., पुनर्वास वित्त निगम, औद्योगिक वित्त निगम जैसे निगमों का सरकार भंग भी कर सकती है । वस्तुतः कार्यपालिका का उपर्युक्त नियंत्रण उस मंत्री के माध्यम से आता है जिसके मंत्रालय से निगम संबंधित होता है ।
2. संसदीय नियंत्रण (Parliamentary Control):
लोक निगम जिस मंत्रालय से संबंद्ध होता है, उसके मंत्री को संसदीय उत्तरदायित्व के तहत् निगम के बारे में पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देना होता । लेकिन मंत्री निगम के प्रबंध या आंतरिक संचालन से संबंधित प्रश्नों को न तो स्वीकारते है न ही उनका उत्तर देते हैं अपितु वे उन नीति संबंधी प्रश्नों का ही उत्तर देने के लिए बाध्य है जिनके निर्देशक/नियंत्रण का दायित्व उस पर है ।
निगमों के वित्तीय विवरण, वार्षिक संचालन प्रतिवेदन तथा लेखों संसद के सामने रखे जाते हैं तब संसद को चर्चा का अवसर मिल जाता है । ऐसा अन्तर तब भी आता है जब सार्वजनिक उद्यम समिति अपना जाँच प्रतिवेदन संसद के समक्ष प्रस्तुत करती है ।
लोक लेखा समिति और अनुमान समिति भी निगमों के क्रमशः लेखों और अनुमानों की जाँच कर सकती है और संसद के विचारार्थ प्रतिवेदन रख सकती है । संसद लोक निगम की स्थापना के समय भी उसके उद्देश्य, संगठन और औचित्य पर चर्चा करती है । जब निगम घाटे में होता है तो उसकी पूर्ति की मंजूरी भी संसद से लेनी होती है ।
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संसद के उपर्युक्त नियंत्रण के साधन सीमित है और उसे इस बात का अफसोस भी सदैव से रहा है । कार्यपालिका संसद को यह संतोष देने का प्रयास करती रही है कि उसके माध्यम से संसद का ही नियंत्रण स्थापित होता है ।
3. सार्वजनिक लोक उपक्रम समिति (Public Undertaking Committee):
लोकसभा की इस मांग को अन्ततः 1963 में स्वीकार कर ही लिया गया कि लोक उपक्रमों की जाँच हेतु एक पृथक् समिति स्थापित की जानी चाहिए । इसके कुल 15 सदस्यों में से 10 लोकसभा और 5 राज्य सभा के होते थे । 1974-75 से यह 22 सदस्यी हो गयी जिसमें लोकसभा से और 7 राज्यसभा से हैं । इसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है ।
यह सभी लोक उपक्रमों की जाँच इन संदर्भों में करती है कि:
(i) इन संस्थानों का संचालन व्यावसायिक और वाणिज्यिक सिद्धांतों के आधार पर हुआ है या नहीं? (इनकी स्वायत्ता और मितव्यियता के परिप्रेक्ष्य में)
(ii) कैग (महालेखा परीक्षक) के उपक्रमों से संबंधित प्रतिवेदन पर विचार ।
समिति अपना प्रतिवेदन संसद के समक्ष रखती जितनी सिफारिशों को सामान्यतया स्वीकार कर लिया जाता है ।
सार्वजनिक उद्यमों के अन्य प्रबंधकीय विकल्प: नियंत्रण मण्डल और सहकारी समिति ।
अनुमान समिति ने नियंत्रण मण्डल या परिषद की अनुशंसा की थी । यह सामान्यतया नदी घाटी परियोजना के प्रयुक्त होता है । इसका निर्माण कार्यपालिका आदेश द्वारा होता है, संसद द्वारा नहीं । इस पर विभाग का कॉफी नियंत्रण होता है । भारत में भाखड़ा नांगल प्रबंध परिषद; तुंगभद्रा परियोजना परिषद उल्लेखनीय है ।
सहकारी अधिनियम के तहत सरकार किसी व्यक्तिक गतिविधि को पंजीकृत करा लेती है तो उसे सार्वजनिक उपक्रम सहकारी समिति के नाम से संबोधित किया जाता है । इसमें सरकार अन्य सदस्यों के समान एक सदस्य के रूप में शामिल होती है लेकिन उसका अंश अन्य सदस्यों की तुलना में शामिल होती है लेकिन उसका अंश अन्य सदस्यों की तुलना में अधिक होती है अतः ऐसी समितियों का उद्देश्य सार्वजनिक हित से जुड़ जाता है और ”सामूहिक हित के द्वारा व्यक्तिगत हित” की सहकारी उक्ति चरितार्थ हो जाती है । आनंद डेयरी विकास सहकारी समिति लिमिटेड व्यापार मेला प्राधिकरण आदि ऐसी ही सार्वजनिक उद्यम सहकारी समितियाँ है ।
(iii) संयुक्त कम्पनी इसे कंपनी का प्रबंध भी कहते हैं । विगत दशकों में सरकार ने अपने उद्योगों के लिए इसका सर्वाधिक प्रयोग किया है । जब तीन से लेकर सात व्यक्ति तक किसी वाणिज्यक या औद्योगिक प्रकृति के व्यवसाय को कंपनी एक्ट 1956 के तहत पंजीकृत करते हैं और उसकी पूंजी के अंशों का विक्रय करते है तो कंपनी अस्तित्व में आती है ।
शेयर पूंजी का विक्रय आम जनता में नहीं किया जाता है तो यह प्राइवेट लिमिटेड कंपनी होती है जबकि जनता में खुली बिक्री होने पर पब्लिक लिमिटेड होती है । सरकार भी अपने अधिकारियों के नाम पर किसी सार्वजनिक उद्यम को कंपनी एक्ट में पंजीकृत करा सकती है ।
इसका एक निर्देशक मन्डल होता है जिसमें सरकारी प्रतिशत बहुमत होता है क्योंकि सरकार ऐसी कंपनियों में 51 प्रतिशत या उससे अधिक का अंश रखती है । इसमें वित्त विभाग के अधिकारी अवश्य नियुक्त किये जाते हैं । उदाहरण- एच.एम.टी., बी.एच.ई.एल. जी.ए.आई.एल. आदि ।
विशेषताएँ:
प्रशासनिक सुधार आयोग (1966) के अनुसार संयुक्त पूंजी कंपनी की निम्नलिखित विशेषताएं होती है:
1. प्राइवेट कंपनियों से अत्यधिक समानता ।
2. उद्यम की संपूर्ण मुख्य पूंजी या 51 प्रतिशत पूंजी सरकारी ।
3. निर्देशक मन्डल में सरकारी बहुमत ।
4. कंपनी एक्ट के तहत निर्मित सावयवी निकाय ।
5. स्वतंत्र कानूनी व्यक्तित्व ।
6. मात्र कार्यपालिका के आदेश द्वारा निर्मित । संसदीय स्वीकृति की जरूरत अनिवार्य नहीं ।
7. वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति सरकार और निजी शेयर होल्डरों से ।
8. कार्मिकों की भर्ती, पदमुक्ति में सरकार से स्वतंत्र ।
9. सरकार से पृथक् लेखांकन, लेखापरीक्षण ।
10. बजट से स्वतंत्रता ।
लाभ:
(1) स्थापना की सरल प्रक्रिया- मात्र कंपनी एक्ट के तहत पंजीकरण ।
(2) कार्य की पर्याप्त स्वतंत्रता ।
(3) वाणिज्यिक प्रकृति के कार्यों के लिए बेहद उपयुक्त ।
(4) पर्याप्त लोचशीलता ।
(5) विकास के सुलभ परिस्थितियां ।
दोष:
(1) संसद के प्रति उत्तरदायित्व की ।
(2) सरकारी विभागों का ही विस्तार मात्र ।
(3) अत्यधिक गोपनीयता जनता से जानने योग्य बातें छिपायी जाती है, इसीलिए कैग ने कंपनी प्रारूप को संविधान के साथ धोखाधड़ी की संज्ञा दी ।
I. मिश्रित संयुक्त पूंजी कंपनी (Mixed Joint Capital Company):
यह भी कंपनी एक्ट के तहत रजिस्टर्ड होती है । इसे मिश्रित इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें सरकार और निजी दोनों की पूंजी लगी होती है । इसमें कंपनी पर स्वामित्व और नियंत्रण भी मिश्रित प्रकृति का होता है । अशोका होटल, हिन्दुस्तान शिपयार्ड आदि मिश्रित संयुक्त पूंजी कंपनी हैं ।
चूँकि सरकार अपनी अंश पूंजी, निजी पूंजी की तुलना में अधिक रखती है, अतः चेयरमैन और अधिकांश डायरेक्टर्स वही मनोनित करती है । साथ ही कंपनी को बनाये रखने, समाप्त करने, उसका विस्तार करने, ऋण लेन-देन, बोनस वितरित करने के अधिकार भी सरकार के विवेकाधिन होते हैं ।
गुण:
(1) गैर सरकारी तत्व की उपस्थिति, इसकी लोचशीलता बड़ा देती है ।
(2) निजी व्यापार के ज्ञान, अनुभव का लाभ कंपनी को मिलता है ।
(3) सहयोग के अधिक अवसर ।
दोष:
(1) निजी पूंजी को मात्र लाभ की चिन्ता ।
(2) दो असमान तत्वों और उद्देश्यों का बेमेल मिश्रण । सरकार का उद्देश्य जन सेवा, जबकि निजी व्यापारी का उद्देश्य लाभ कमाना । दोनों के अपने-अपने व्यापारिक, प्रबंधकीय सिद्धांत, अतः उनमें सहयोग की कठिनाईयाँ।
(3) परस्पर दोषारोपण की प्रवृत्तियां ।
II. संचालन ठेका या क्रियात्मक अनुबंध (Mixed Joint Capital Company):
आधुनिक समय में इसका प्रयोग बढ़ा है । इस व्यवस्था में सरकार अपने व्यवसाय या सेवा से संबंधित उद्यम को किसी निजी कंपनी को निश्चित संचालन व्यय के भुगतान पर ठेके पर दे देती है । इसमें ठेकेदार काम करता है, जबकि संचालन सरकारी पूंजी से होता है अतः इसे ”संचालन ठेका” कहा जाता है ।
इसका दूसरा नाम क्रियात्मक अनुबंध भी है । अमेरिका में आणविक ऊर्जा विभाग एवं सुरक्षा विभाग अपने कार्यों के लिए इसका बहुत प्रयोग करते हैं । भारत ने भी एच.एम.टी. (हिन्दुस्तान मशीन दूल्स, बैंगलोर) का संचालन ठेका स्वीडन की फर्म मैसर्स औरिलकेम को दिया था लेकिन यह सफल नहीं हो सका ।
गुण:
(1) निजी ठेकेदार के अधिक अनुभव का लाभ उद्यम को ।
(2) ठेकेदार कंपनी व सरकारी नियंत्रण की कठोरताओं से स्वतंत्र रहकर कार्य करता है ।
(3) ठेका बनाये रखने के लिए कंपनी का लाभ हेतु प्रयास करना ।
दोष:
(1) सरकार के निरन्तर हस्तक्षेप की चिन्ता ।
(2) ठेकेदार का नियंत्रण मुक्त होकर काम करना, संसदीय उत्तरदायित्व की अवहेलना है ।
(3) कंपनी द्वारा लापरवाही की संभावना ।
III. क्षेत्रीय निगम (Regional Corporation):
जब किसी एक विशिष्ट कार्य, प्रकृति तथा विषय क्षेत्र के सभी अभिकरणों को एकीकृत करके एक निगम के रूप में स्थापित किया जाए तो वह उस क्षेत्र का क्षेत्रीय निगम कहलाता है । क्षेत्रीय निगम की स्थापना का सुझाव प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी दिया था ।
आयोग ने लोक उपक्रमों संबंधी अपनी रिपोर्ट (1967) में इंगित किया था कि एक क्षेत्र में कार्यरत पृथक् पृथक् लोक उपक्रमों के कारण बिखराव तथा अतिराव की समस्याएं उत्पन्न होती है तथा विभिन्न मंत्रालयों के मध्य सामंजस्य का अभाव भी बना रहता है ।
प्रशासनिक सुधार आयोग ने क्षेत्रीय निगमों के निम्नांकित गुण बताये है:
(i) ये उपक्रम, सरकारी उद्योगों के बिखराव को रोककर औद्योगिक प्रयासों को एकीकृत स्वरूप प्रदान करेंगे ।
(ii) नियंत्रण तथा समन्वय की सुविधा रहेगी ।
(iii) अनावश्यक व्यय पर नियंत्रण हो सकेगा ।
(iv) प्रबंध में सहायता मिल सकेगी क्योंकि स्टॉफ की भर्ती, प्रशिक्षण तथा पदोन्नति इत्यादि में एक ही नीति कार्यरत होगी ।
आयोग ने लौह एवं इस्पात, इंजीनियरिंग तथा मशीनी यंत्र, विद्युत ऊर्जा, कोयला, पेट्रोलियम, लौह एवं धातु खनन, उर्वरक तथा रसायन एवं औषधि के क्षेत्र में 8 प्रकार के क्षेत्रीय निगम सुझाये थे । भारत में क्षेत्रीय निगमों की ध्यान नहीं दिया जा रहा है तथापि इनकी उपादेयता रूप से महत्वपूर्ण है ।
IV. लोक न्यास (Public Trust):
इनकी स्थापना सामाजिक सेवा मुहैया उद्देश्य से की जाती है । सरकारी क्षेत्र में ऐसे न्यासों की स्थापना संसदीय अधिनियम द्वारा होती है जैसे ट्रस्ट ऑफ इंडिया, पोर्ट ट्रस्ट आदि ।
V. नियंत्रण मंडल (Control Board):
विशेष रूप से बहुउद्देश्यीय नदी घाटी प्रोजेक्ट हेतु इनका गठन होता है । भारत में ऐसे 14 बोर्ड है जैसे भाखड़ा व्यास प्रबंध बोर्ड, कोसी नियंत्रण बोर्ड आदि ।
VI. आयोग प्रणाली (Commission System):
क्षेत्र विशेश में विकास को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य संसदीय अधिनियमों के अंतर्गत आयोगों की स्थापना जाती है जैसे खादी और ग्राम उद्योग आयोग, टेरिफ कमीशन, फारवर्ड मार्केटस कमीशन आदि ।
VII. कमोडिटी बोर्ड (Commodity Board):
किसी विशेष औद्योगिक वस्तु या श्रेणी के विकास पर केन्द्रित कमोडिटी बोर्ड भी संसदीय अधिनियम द्वारा होते है जैसे रबर बोर्ड, काफी बोर्ड जुट बोर्ड आदि ।
VIII. सहकारी समितियां (Co-Operative Societies):
सोसाइटी पंजीकरण कानून के तहत पंजीकृत कतिपय समितियों का निर्माण विकास और संवर्धन उद्देश्य से जाता है जैसे भारतीय व्यापार मेला प्राधिकरण, दुग्ध विकास निगम, भारतीय राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकाश निगम ।