Read this article in Hindi to learn about the role of public corporation in economic liberalization.

सार्वजनिक उपक्रमों के प्रकार के रूप में लोक निगम अपनी स्वायत्ता और उससे प्राप्त प्रबंध की कार्यकुशलता के लिए जाने जाते है । लगभग 250 सार्वजनिक उपक्रमों में 30 फिसदी उपक्रम निगम पद्धति के अंतर्गत है ।

इन्हें सरकार की समाजवादी अवधारणा को लागू करने की दिशा में एक प्रभावी लोक कल्याणकारी औजार माना गया है । लेकिन प्रारंभिक घाटा और अकार्यकुशलता से पीड़ित रहे इन निगमों के उपर भूमण्डलीकरण के दौर में पुन: विचार हो रहा है ।

लोक निगमों से आशय सार्वजनिक उपक्रमों का वह स्वरूप है जिसे निगम पद्धति से संचालित किया जाता है । डिमाक के अनुसार – ”लोक निगम किसी व्यापारिक या वित्तीय उद्देश्य की पूर्ति के लिए केंद्रीय राज्य या स्थानीय कार्यपालिका द्वारा स्थापित प्रशासनिक संगठन है ।”

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वस्तुतः भारत में द्वितीय पंचवर्षीय योजना से लोक निगमों की स्थापना में बड़े पैमाने पर निर्णय लिया गया । इसके पूर्व 1948 में दामोदर घाटी विकास निगम से इसकी शुरूआत हो चूंकि थी । लोक निगमों की स्थापना का उद्देश्य सार्वजनिक पूंजी के विस्तार के माध्यम से ऐसी सेवाओं और वस्तुओं का उत्पादन सुनिश्चित करना था । जिनका संबंध प्रधानतया जनता की मूलभूत आवश्यकताओं से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हो । जैसे, क्षेत्रीय विकास, सामाजिक सुरक्षा, दवाओं का उत्पादन, गैस इत्यादि ।

कालांतर में इनकी संख्याएं तो बड़ी लेकिन अधिकांश निगमों में गुणवत्ता का ह्रास हुआ । इनकी लागत बढ़ती रही और कार्यकुशलता कम होती गई । यद्यपि कुछ निगमों (L.I.C., O.N.G.C, N.T.P.C. इत्यादि) ने सरकार के आर्थिक दरबार में ”नवरत्न” का दर्जा प्राप्त किया ।

लेकिन अधिकांश की स्थिति गंगू तेली से भी गयी गुजरी हो गयी । लोक निगमों की स्थिति एक तरफ तेजी से गिर रही थी और सरकार उनके विकल्प के तौर पर कंपनी या संचालन ठेका जैसी प्रबंध पद्धतियां अपनाने लगी ।

लेकिन 1991 के बाद भारत ने जिस आर्थिक उदारीकरण को अपना नीतिगत उद्देश्य घोषित किया । उसका एक महत्वपूर्ण अंग समस्त सार्वजनिक उपक्रमों (निगम सहित) के संदर्भ में पुनर्विचार करना था । आर्थिक उदारीकरण का प्रभाव सरकार ने नई उदारीकरण की नीति के तहत जो फैसले किये ।

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उसका निगमों पर आया प्रभाव बिंदुवार इस प्रकार देखा जा सकता है:

1. सरकार ने वैश्विकरण (W.T.O) से जुड़कर जिस उदारीकरण को अपनाया उसके तहत आरक्षित विषयों की सूची निरंतर संकुचित होने लगी । आज इस सूची में मात्र तीन विषय रह गए । इससे लोक निगमों की सक्रियता और आरक्षण वाले क्षेत्रों में देशी और विदेशी निजी पूंजी प्रवेश कर गयी । परिणामस्वरूप अधिकांश निगम इस अप्रत्याशित प्रतिस्पर्धा में पिछड़ गए ।

2. यद्यपि इससे निगमों के दायित्व कम करने में मदद मिली और कुछ निगमों ने इन प्रतिस्पर्धा के अनुकूल अपने आप को ढाल लिया लेकिन इसके दो दुष्परिणाम स्पष्ट है, प्रथम अनेक लोक निगमों की स्थिति पहले से भी दयनीय हो गया और दूसरा जनता के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा ।

3. उदारीकरण और वैश्वीकरण की एक अनिवार्य शर्त या पहलू है, राजकोषी घाटे को निरंतर कम करना । अतः उन लोक निगमों को बंद करने या बेचने का निर्णय लिया गया जो राजकोष पर भार बने हुए थे । परंतु सरकार ने (एन.डीए. सरकार) बाद में इन निगमों एवं उपक्रमों को बेचने का निर्णय लिया, जिनमें पूंजी लाभ का अनुपात बेहद निम्न स्तर का था । जैसा कि पूर्व विनिवेश मंत्री अरूण शौरी ने कहा कि, उद्योग चलाना सरकार का काम नहीं ।

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4. सरकार ने विनवेशित उपक्रमों और लोक निगमों की 51 प्रतिशत तक की अधिकारिता निजी क्षेत्र को हस्तांतरित कर दी । अर्थात् स्वामित्व निजी हो गया, लेकिन सरकार भी अपने 49 प्रतिशत शेयर के माध्यम से उपक्रम में मौजूद थी ।

इसका परिणाम यह हुआ कि:

1. सरकार को एक बड़ी राशि प्राप्त हो गई ।

2. इन उपक्रमों के संचालन और संभावित घाटे के भार से वह मुक्त हो गयी ।

3. निजी क्षेत्र की कार्यकुशलता और प्रबंधकीय पेशेवरता इन उपक्रमों में आने का रास्ता साफ हो गया ।

4. यद्यपि इससे निजी लाभ और सार्वजनिक कल्याण का एक बेमेल मिश्रण भी उत्पन्न हुआ ।

उदारीकरण ने उपक्रमों और निगमों के सामने जिस प्रतिस्पर्धा की चुनौती को पेश किया, उससे निपटने के लिए इसका आधुनिकीकरण और तकनीकीकरण जरूरी हो गया । इनमें एडवांस टेक्नालाजी लाई जा रही है । और कार्मिक प्रबंधन, सामग्री प्रबंधन, विपणन प्रबंधन आदि क्षेत्रों में आधुनिक प्रक्रियाओं का अधिकाधिक इस्तेमाल सुनिश्चित हो रहा है । इसका परिणाम भी आशाजनक है कि निगम और उपक्रम धीरे-धीरे पटरी पर आ रहे है ।

तथा उनका पूंजी-लाभ अनुपात सकारात्मक रूप से परिवर्तित हो रहा है । स्पष्ट है कि आर्थिक उदारीकरण ने लोक निगमों सहित सभी सार्वजनिक उपक्रमों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है । इस प्रभाव की दिशा कुछ अपवादों को छोड़कर आर्थिक रूप से सकारात्मक रही ।