Read this article in Hindi to learn about:- 1. सार्वजनिक निगम का अर्थ (Meaning and Definitions of Public Corporations) 2. सार्वजनिक निगम की आवश्यकता (Need for Public Corporations) 3. इतिहास (History) 4.  प्रकार (Types) and Other Details.

सार्वजनिक निगम का अर्थ (Meaning and Definitions of Public Corporations):

निगम का अर्थ होता है निरंतर चलने वाला व्यवसाय । लोक शब्द का अर्थ सार्वजनिक या सरकार से लिया जाता है । अत: लोक निगम सरकार द्वारा संचालित व्यवसायिक कार्यों के लिये प्रयुक्त होता है । सरकार द्वारा स्थापित उद्योगों को सार्वजनिक उपक्रम कहा जाता है ।

इन उपक्रमों के संचालन की समस्या सरकार के सामने होती है । इसका एक तरीका है- निगम प्रणाली । डब्ल्यू.ए.रॉब्सन ने लोक निगमों को बीसवीं सदी की सबसे बड़ी संवैधानिक नवीनता कहा है ।

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परिभाषाएं (Definitions):

डिमॉक- ”किसी वित्तीय या व्यापारिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु कार्यपालिका (केंद्र, राज्य या स्थानीय सरकार) द्वारा स्थापित उपक्रम लोक निगम है ।”

रूजवेल्ट (अमेरिकी राष्ट्रपति)- ”लोक निगम सरकारी जामा पहने ऐसे निकाय हैं जिनमें निजी उद्यमों की विशेषता (प्रेरणा और लोचशीलता) पायी जाती है ।”

फिफनर- ”अनेक व्यक्तियों के एक व्यक्ति के रूप में कार्य करने की प्रणाली को लोक निगम कहते हैं ।”

सार्वजनिक निगम की आवश्यकता (Need for Public Corporations):

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आधुनिक औधोगिक क्रान्ति ने आर्थिक क्रियाओं को बहुत बढ़ा दिया और निजी पूंजी का महत्व बढ़ने लगा । ऐसे समय साम्यवाद विकसित होने लगा जिसकी मांग थी कि आर्थिक साधनों पर सामूहिक स्वामित्व हो ।

इस मांग से समाज को बचाने के लिए पूंजीवादी राष्ट्रों ने बीच का रास्ता तलाशा यह था सरकार द्वारा आम जनता से संबंधित उत्पादन सेवा को सरकारी स्वामित्व में लेना, शेष निजी हाथों में बने रहने देना । सरकार उत्पादन और सेवा से संबंधित कार्यों के लिए और उनकी पूर्ति के लिए धन आदि की व्यवस्था हेतु अनेक उद्यम स्थापित करने लगी ।

इन उद्यमों का प्रबंध संचालन करने की समस्या सामने आई अर्थात् इन्हें कौन चलाये और कैसे चलाये । विभाग चलाये, सरकारी कंपनी चलाये या सरकार किसी कंपनी को ठेके पर दे दे या निजी उद्यमियों के साथ मिलकर इनका संचालन करें या विभाग के अधीन लेकिन उससे स्वतंत्र निगम प्रणाली अपनाई जाये । सरकार ने निगम प्रणाली भी बाद में अपनाई और अधिकांशतया इसी प्रारूप को अन्य उपायों के साथ प्रयुक्त किया ।

क्योंकि:

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1. इन उद्यमों या सेवाओं को व्यवसायिक दृष्टिकोण से संचालित करना जरूरी होता है, जबकि विभागीय पद्धति, लालफिताशाही और नौकरशाही ही से ग्रस्त रहती है ।

2. इन्हें आंतरिक प्रशासन संचालन की पूर्ण स्वतंत्रता देनी थी ताकि विभाग की दुष्प्रवृत्तियों से इन्हें बचाया जा सके ।

इन कारणों ने विभागीय पद्धति के स्थान पर सरकार को अन्य पद्धति को अपनाने के लिए मजबूर किया और उनमें से सबसे महत्वपूर्ण निगम प्रणाली को अधिकाधिक अपनाया गया ।

सार्वजनिक निगम का इतिहास (History of Public Corporations):

i. भारत में निगम प्रणाली प्राचीनकाल से मौजूद है । जिनके अपने सिक्के, मुहरे और श्रेणी-धर्म होता था ।

ii. इंग्लैण्ड में भी ऐसे व्यक्तिगत क्षेत्रों के निगमों की शुरूआत बहुत पहले ही हो गई थी ।

iii. जहां तक सरकारी निगमों का सवाल है इसे सर्वप्रथम 19वीं शताब्दी के अंत में आस्ट्रेलिया में रेलवे प्रबंध के द्वारा अपनाया गया ।

iv. इंग्लैण्ड में 1906 में पोर्ट ऑफ लंदन अथॉरिटी को पहला लोक निगम तो माना जाता है लेकिन इससे लेकर 1926 तक इंग्लैण्ड और आस्ट्रेलिया में जो भी निगम स्थापित हुये वे आधुनिक निगम प्रणाली की शर्तों को पूरा नहीं करते थे ।

v. आधुनिक निगम प्रणाली के रूप में बी.बी.सी., लंदन (1927) ही पहले निगम के रूप में माना जाता है । इस प्रकार आधुनिक निगम प्रणाली का जन्मदाता इंग्लैण्ड है ।

vi. अमेरिका में 1904 में पनामा रेड कोर्ट की स्थापना हो गई थी लेकिन वहां प्रथम और विशेषकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वास्तविक निगमों की स्थापना हुई ।

vii. भारत में 1948 में पुर्नवाल वित्त निगम, दामोदर घाटी निगम, औद्योगिक वित्त निगम तथा औद्योगिक कार्मिक राज्य बीमा निगम पहले पहल स्थापित हुए निगम हैं । 1953 में एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइन्स लोक निगम स्थापित हुये यद्यपि ये बाद में कंपनी में बदल दिये गये 1994 में । 1956 में भारतीय जीवन बीमा निगम संसद द्वारा स्थापित किया गया एक महत्वपूर्ण निगम है ।

सार्वजनिक निगम के प्रकार (Types of Public Corporations):

सामान्यतया 3 प्रकार प्रचलित हैं:

1. राजकीय निगम (State Corporation):

इन्हें सरकारी या लोक निगम भी कहते हैं । यह सरकार द्वारा स्थापित होते हैं । जिनकी पूरी पूंजी सरकार की होती है, अत: सरकार का ही संपूर्ण नियंत्रण होता है । जैसे- ओएनजीसी ।

2. मिश्रित निगम (Mixed Corporation):

इसमें सरकारी और निजी दोनों पूंजी लगी होती है । नियंत्रण किसका होगा यह प्रत्येक के अंश पर निर्भर करेगा । वैसे सरकार अपना अधिक अंश रखकर नियंत्रण रखती है लेकिन अंतराष्ट्रीय वित्त निगम में सरकार का बहुत कम अंश होने से उस पर उसका नियंत्रण नहीं है ।

3. निजी निगम या व्यक्तिगत निगम (Private Corporation or Personal Corporation):

यह निजी उद्यमियों द्वारा स्थापित किये जाते हैं । इनका सरकार से कोई लेना देना नहीं होता, जैसे- टाटा कॉर्पोरेशन, सिंधिया नेवीगेशन, ओबेराय होटल । यह वस्तुत: निगम का प्रकार है, लोक निगम का नहीं ।

भारत में निगम- तीन प्रकार से स्थापित:

(1) संसद द्वारा- संसद अधिनियम बनाकर लोक निगम को स्थापित कर देती है ।

(2) कार्यपालिका द्वारा- मंत्रिमण्डल अपने निर्णय द्वारा लोक निगमों को स्थापित कर सकती है । जैसे- ओएनजीसी (1994 से कंपनी प्रारूप में) ।

(3) निजी क्षेत्र के निगम, जैसे- टाटा कॉर्पोरेशन ।

मंत्री-संसद-निगम (Minister-Parliament-Corporation):

1. मंत्री के साथ संबंध:

मंत्री का सार्वजनिक निगम के साथ पूर्ण नियंत्रक का संबंध नहीं होता है । मंत्री प्रबंध मंडल को सलाह देने का अधिकार तो रखता है लेकिन उसकी सलाह मानने के लिए प्रबंध मंडल बाध्य नहीं हैं । इस प्रकार से मंत्री प्रबंध मंडल पर प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं रखता है ।

2. संसद के साथ संबंध:

दिन-प्रतिदिन के प्रशासन से संबंधित मसलों के लिए सार्वजनिक निगम संसद के निर्देशों पर निर्भर नहीं रहते हैं और न ही संसद इन निगमों के दिन-प्रतिदिन के मामलों में हस्तक्षेप कर सकती है । इस संबंध में संबंधित अधिनियमों में इसके बारे में यह व्यवस्था कर दी जाती है कि नीति संबंधी मामलों के लिए सार्वजनिक निगम सरकार पर निर्भर करेगा ।

(अनुच्छेद 21- भारतीय जीवन बीमा निगम, अधिनियम, जहां तक हो सकेगा ये निगम वाणिज्यिक सिद्धांतों पर कार्य करेंगे, अनुच्छेद 9- वायु निगम अधिनियम) इसका तात्पर्य यह भी है कि निगम के दिन-प्रतिदिन के प्रशासन से संबंधित मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा । तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने भी 27 नवंबर, 1952 लोकसभा में कहा था कि- ”संसद स्वायत्तशासी संस्थाओं के दिन-प्रतिदिन के प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करती है ।”

सार्वजनिक निगम के क्षेत्र या उद्देश्य (Area or Purpose of Public Corporations):

लोक निगमों का गठन सरकार निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करती रही है, जो इस प्रकार है:

1. साख की व्यवस्था:

सरकार औद्योगिक और गैर औद्योगिक, तथा अन्य विकास कार्यों के लिए जनता की पूंजी का इस्तेमाल करने के उद्देश्य से लोक निगम स्थापित कर सकती है । भारतीय जीवन बीमा निगम सामाजिक हित के साथ ही साख सुविधा जुटाने के दोहरे उद्देश्य से गठित निगम हैं ।

2. औद्योगिक विकास हेतु:

औद्योगिक क्षेत्रों के निर्माण, उनमें आधारिक संरचनाओं के विकास तथा उद्योगों की स्थापना हेतु वित्तीय साख उपलब्ध कराने के उद्देश्य से औद्योगिक वित्त निगम, औद्योगिक विकास निगम आदि स्थापित किये जाते हैं ।

3. क्षेत्रीय विकास निगम:

किसी क्षेत्र के सर्वांगीण विकास को निगम पद्धति के माध्यम से सुनिश्चित करने के उद्देश्य से ऐसे निगम भी स्थापित किये जाते हैं जो बहुउद्देशीय होते हैं, जैसे दामोदर घाटी या टेनीस घाटी निगम ।

4. जनहित संबंधी सेवाओं को प्रदान करना:

अनेक लोक निगम सरकार द्वारा जनहित से जुड़ी ऐसी गतिविधियों को संचालित करने के उद्देश्य से स्थापित किये जाते हैं, जो या तो निजी क्षेत्र करना नहीं चाहतें या उसकी लागत अधिक आती हैं । उदाहरण के लिए सरकार ने औषधि निर्माण, साइकल निर्माण, अनाज भण्डारण आदि के लिए अनेक निगम स्थापित किये हैं ।

5. रक्षा संबंधी उत्पादन:

सरकार ने रक्षा इकाईयों के लिए आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन हेतु अनेक सार्वजनिक उद्यम स्थापित किये हैं, इनमें से कुछ एक का प्रबन्ध ”लोक निगम” पद्धति द्वारा हो रहा है ।

6. प्राकृतिक संसाधनों का दोहन:

देश के भीतर उपलब्ध खनिज, तेल आदि का दोहन करने के लिए भी लोक निगमों की स्थापना की गयी है ।

स्पष्ट है कि लोक निगमों की स्थापना के पीछे मुख्य उद्देश्य सरकारी स्वामित्व में विभिन्न सेवाओं, वस्तुओं का इस प्रकार उत्पादन करना है कि निजी पूंजी के स्थान पर सार्वजनिक पूंजी का प्रयोग और विस्तार हो ।

सार्वजनिक निगम के उपयोगिता (Utility of Public Corporations):

लोक निगमों के अनेक लाभ हैं जो इसकी सार्वजनिक उद्यमों के प्रबन्ध में उपयोगिता को प्रमाणित करते हैं ।

जैसे:

(i) संचालन संबंधी लाभ:

लोक निगम अपने संचालन में राजनीतिक हस्तक्षेप और कठोर प्रशासनिक नियंत्रण से मुक्त होते हैं । वे अपनी आंतरिक नीति स्वयं तय करते हैं, उसमें समयानुकूल परिवर्तन कर सकते हैं और दैनंदिनी संचालन हेतु कोई भी निर्णय नीति-अनुकूल ले सकते हैं । इस प्रकार उनमें नौकरशाही की कठोरता के स्थान पर निजी व्यवसाय की लोचशीलता पायी जाती हैं जो उनके संचालन को सुगम बनाती है ।

(ii) प्रशासकीय लाभ:

अपने कार्मिक प्रशासन में स्वायत्त लोक निगम आवश्यकतानुरूप विशिष्ट योग्यताधारी और तकनीकी प्रशिक्षित विशेषज्ञों को नियोजित कर सकता है । सरकारी मेवा शर्तों से मुक्त निगम के कार्मिकों में अधिक कार्यकुशलता पायी जाती है । उन पर निगम का पर्याप्त नियंत्रण बना होता है ।

(iii) आर्थिक लाभ:

निगम को काफी हद तक वित्तीय स्वायत्तता प्राप्त होती है, अतएव वह अपना स्वयं का बजट बनाता है जो लागत लाभ की प्रभावकारिता पर आधारित होता हैं । निगम का संचालन आर्थिक मितव्ययिता की दृष्टिकोण से किया जाता है ।

(iv) सामाजिक लाभ:

लोक निगम का प्रमुख उद्देश्य “सेवा” देना हैं । ये अपने कार्यों को जनहित की दृष्टि से संचालित करते हैं । इनके माध्यम से सरकार मूल्य नियंत्रण करती हैं और जनोपयोगी वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करती हैं ।

इनके माध्यम से हजारों-लाखों कार्मिकों को रोजगार के अवसर सुलभ होते हैं । वस्तुत: लोक निगम “लोक हित” और “व्यावसायिक कार्य संचालन” दोनों के मध्य उचित संतुलन को कायम रखने वाली एक अति उपयोगी सरकारी कार्य पद्धति हैं ।

सार्वजनिक निगम के दोष/सीमाएं (Limitation of Public Corporations):

लोक निगमों के दोष और सीमाएं इस प्रकार है:

1. इनमें परिस्थिति उन्मुखता का अभाव पाया जाता है । वस्तुतः परिस्थिति में परिवर्तन के अनुरूप लोक निगम की संरचना और कार्य प्रणाली में परिवर्तन नहीं हो पाता क्योंकि ऐसा मात्र संसद ही कर सकती है और संसदीय प्रक्रिया अत्यंत जटिल और समय साध्य होती है ।

2. इनमें विभागीय नियंत्रण और प्रबंधकीय स्वायत्तता के मध्य संतुलन की समस्या पायी जाती है ।

3. मंत्री का नियंत्रण ”नीति प्रश्नों” पर होता है जबकि निगमीय स्वायत्तता ”दैनंदिनी प्रबंध” पर होती है । लेकिन कौन सा प्रश्न नीति का है और कौन सा आंतरिक प्रबंध का, यह तय करना बेहद मुश्किल होता है ।

4. इस अस्पष्टता से निगम के आंतरिक मामलों में भी मंत्री हस्तक्षेप करते रहते है जिससे निगमीय स्वायत्तता सीमित हो जाती है और कार्यकुशलता बाधित होती है ।

5. निगमों के प्रबंध मंडल में सरकार द्वारा नामित निदेशकों के माध्यम से भी सरकारी हस्तक्षेप आ जाता है ।

6. लोक निगमों और सरकारी विभाग के मध्य कार्य क्षेत्राधिकार का विवाद उत्पन्न हो जाता है जिससे समन्वय की समस्या खड़ी हो जाती है ।

7. इनमें घाटे या गबन की प्रवृत्ति पायी जाती है ।

8. इनमें भी सरकारी लालफिताशाही और अकार्यकुशलता के दोष पाये जाते हैं ।

9. कुछ आलोचकों के अनुसार इनके माध्यम से कुछ हाथों में महत्वपूर्ण राजनीतिक और प्रशासनिक शक्ति पहुंच जाती है जबकि उनका उत्तरदायित्व सुनिश्चित नहीं होता ।

वस्तुत: देखा जाएं तो उपर्युक्त में से अधिकांश दोष निगम पद्धति के नहीं है अपितु बाहरी है जैसे राजनीतिक हस्तक्षेप आदि ।

भारत में सार्वजनिक निगम के दोष (Public Corporations Flaws in India):

इस दिशा में सरकार ने दो समितियां गठित की थी:

1. ए.ड़ी. गोरवाला समिति ।

2. एम.सी. छागला समिति ।

गोरवाला समिति, लोक निगमों की स्वायत्ता पर गठित हुई थी जबकि छागला समिति मुदंडा कांड को लेकर जीवन बीमा निगम की कार्यप्रणाली पर सुझाव देने हेतु गठित की थी ।

इसके निष्कर्ष निम्नलिखित थे:

1. विभाग निगमों की स्वायत्ता को सीमित कर रहे हैं, बार-बार हस्तक्षेप के द्वारा ।

2. मंत्री नीति की आड़ लेकर आंतरिक कार्यों में भी हस्तक्षेप करता है ।

3. लोक निगमों के कार्मिकों में प्रबंधकीय योग्यता और तकनीकी क्षमता का आभाव है ।

4. लोक निगमों में गबन और घोटाले की प्रवृत्ति है ।

5. जीवन बीमा निगम का अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए जिसे शेयर मार्केट का गहरा ज्ञान हो ।

6. निगम की राशि सुरक्षित स्थानों पर निवेश की जानी चाहिए ।

केंद्र सरकार के कुछ महत्वपूर्ण सार्वजनिक निगम:

1. भारतीय रिजर्व बैंक (1935),

2. दामोदर घाटी निगम (1948),

3. भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (1948),

4. इंडियन एयरलाइंस कॉर्पोरेशन (1953),

5. एयर इंडिया इंटरनेशनल (1953),

6. भारतीय स्टेट बैंक (1955),

7. भारतीय जीवन बीमा निगम (1956),

8. केंद्रीय भंडार निगम (1957),

9. तेल और प्राकृतिक गैस आयोग (1959),

10. भारतीय खाद्य निगम (1964) ।

राज्य सरकारों के अधीन कुछ महत्वपूर्ण सार्वजनिक निगम है:

1. राज्य सड़क निगम,

2. राज्य वित्त निगम,

3. राज्य विद्युत बोर्ड,

4. स्टेट लैंड मॉर्टगेज बैंक्स ।