Read this article in Hindi to learn about the patterns and role of public enterprises in India.

सार्वजनिक उद्यम के प्रतिरूप (Patterns of Public Enterprises):

सार्वजनिक उद्यमों में वे उपक्रम, निगम और कंपनियों आती हैं जिसका स्वामित्व पूर्णतः या अंशतः केंद्र सरकार या राज्य संयुक्त रूप से और राज्य सरकार के अधीन होता है । इनका प्रबंधन तंत्र है तथा ये औद्योगिक कृषि से संबंधित वाणिज्यिक और वित्तीय गतिविधियों से संबंध रखते हैं ।

भारत में सार्वजनिक उद्यम मुख्यतया चार रूपों में संगठित हैं- विभागीय उपक्रम, सार्वजनिक निगम, सरकारी कंपनियों और होल्डिंग कंपनियां । इनके अतिरिक्त और रूप है; जैसे- आयोग, नियंत्रण बोर्ड, सहकारी समितियाँ, पब्लिक ट्रस्ट और कमोडिटी बोर्ड ।

1. विभागीय उपक्रम (Departmental Undertaking):

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यह सार्वजनिक उद्यम का पारंपरिक और सबसे पुराना रूप है । रेलवे और डाक एवं तार विभाग- दो प्रमुख सार्वजनिक प्रतिष्ठान हैं । इनके अतिरिक्त आकाशवाणी, दूरदर्शन, रक्षा उत्पाद एकक, परमाणु ऊर्जा से जुड़ी परियोजनाएँ सरकारी मुद्रणालय भी संगठित विभागीय प्रतिष्ठान हैं । इस पैटर्न का प्रयोग प्रायः तब होता है जब किसी उद्यम का मुख्य उद्‌देश्य राजस्व उपलब्ध कराना होता है ।

विभागीय उपक्रम की विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

1. इसमें होने वाला सकल निवेश सरकार द्वारा किया जाता है । किसी निजी पार्टी को इसमें निवेश करने की अनुमति नहीं है ।

2. इसका वित्त पोषण खजाने से वार्षिक विनियोजन के आधार पर होता है । इसके अतिरिक्त, इनसे प्राप्त राजस्व का पूरा अथवा अधिकांश भाग खजाने में जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

3. इसका आधार बजट लेखा और लेखापरीक्षा नियंत्रण होता है जो अन्य सरकारी विभागों के लिए भी लागू है ।

4. इसके स्थायी कर्मचारी लोकसेवक होते हैं । इसके अतिरिक्त इसमें कर्मचारियों की भर्ती के तरीके और सेवा शर्तें भी अन्य लोकसेवकों जैसी ही होती हैं ।

5. यह सामान्यतः सरकार के विभागों में से एक विभाग के उप-प्रभाग के रूप में संगठित होता है और उस पर विभाग प्रमुख का नियंत्रण होता है ।

6. इसको राज्य की प्रभुसत्ता प्राप्त होती है तथा इसके विरुद्ध सरकार की अनुमति के बिना कानूनी दावा नहीं किया जा सकता है ।

ADVERTISEMENTS:

7. यह संसद के प्रति संबद्ध मंत्री के माध्यम से जिम्मेदार होता है ।

8. इसका गठन कार्यकारी प्रस्ताव द्वारा होता है । इसके गठन के लिए संसद की पूर्वानुमति आवश्यक नहीं है ।

संगठन के विभागीय उपक्रम रूप के लाभ इस प्रकार हैं:

1. इस पर मंत्री का अधिकाधिक नियंत्रण रहता है जो संसद के प्रति राजनीतिक तौर पर जवाबदेह है ।

2. इससे सरकारी तंत्र के अन्य भागों के साथ स्पष्ट संबंध बनाए रखा जा सकता है ।

3. सरकार इसके कोष कर अच्छा खासा नियंत्रण रख सकती है । इस प्रकार विभागीय उपक्रम धन के दुरुपयोग को रोकता है ।

4. विभागीय उपक्रम रूपी इस संगठन के नियम मानक और प्रतिमान निर्धारित हैं ।

5. यह उन उद्यमों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है जिनकी स्थापना रक्षा सामरिक महत्व राष्ट्रीय सुरक्षा आर्थिक नियंत्रण वित्तीय नियंत्रण जनहित की रक्षा आदि जैसे विशेष कारणों से हुई है ।

विभागीय उपक्रम रूप की हानियों इस प्रकार हैं:

1. अत्यधिक नियंत्रण के कारण यह स्वायतत्ता की अपेक्षाओं को सीधे नकारता है ।

2. यह उद्यमों के लचीलेपन और उनकी पहल का प्रतिरोध करता है ।

3. यह वित्तीय और बजटीय नियंत्रण का मार्ग प्रशस्त करता है ।

4. इसके नियम और कानून कठोर हैं । इस पर लाल फीताशाही का प्रभाव होने के कारण इसके कार्यों में विलंब होता है ।

5. अति केंद्रीयकरण के कारण इसे पर्याप्त प्राधिकार प्राप्त नहीं हैं ।

इसलिए, संगठन के इस स्वरूप का प्रयोग हाल के वर्षों में इसकी अनम्यता और विलंब की परंपरा के कारण आर्थिक और वित्तीय उद्यमों के लिए नहीं किया गया है ।

2. सार्वजनिक निगम (Public Corporation):

सार्वजनिक उद्यम के रूप में सार्वजनिक निगम 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विकसित हुआ । इस संदर्भ में डब्लू.ए.रॉबसन ने कहा है कि ”सार्वजनिक निगम सरकारी संस्थानों के क्षेत्र में 20 वीं शताब्दी की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण खोज है ।”

हरबर्ट मोरिसन का कहना है कि ”सार्वजनिक निगम में हम जनहित के लिए सरकारी स्वामित्व सरकार के उत्तरदायित्व और व्यवसाय प्रबंधन के मध्य तालमेल की अपेक्षा करते हैं ।” संयुक्त राज्य अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति एफ.डी. रूजवेल्ट का मानना है कि ”सार्वजनिक निगम पर सरकार का नियंत्रण हैं किंतु ये निजी उद्यम के लचीलेपन और पहल से युक्त हैं ।”

केंद्र सरकार के कुछ महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक निगम ये हैं:

1. भारतीय रिजर्व बैंक (1935)

2. दामोदर घाटी निगम (1948)

3. भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (1948)

4. इंडियन एयरलाइंस कॉर्पोरेशन (1953)

5. एयर इंडिया इंटरनेशलन (1953)

6. भारतीय स्टेट बैंक (1955)

7. भारतीय जीवन बीमा निगम (1956)

8. केंद्रीय भंडार निगम (1957)

9. तेल और प्राकृतिक गैस आयोग (1959)

10. भारतीय खाद्य निगम (1964)

राज्य सरकारों के अधीन कुछ महत्वपूर्ण सार्वजनिक निगम हैं:

1. राज्य सड़क परिवहन निगम

2. राज्य वित्त निगम

3. राज्य विद्युत बोर्ड

4. स्टेट लैंड मॉर्टगेज बैंक्स

सार्वजनिक निगम रूपी संगठन की विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

1. इन पर राज्य सरकारों का स्वामित्व होता है अर्थात इनके लिए समस्त पूँजी सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाती है ।

2. इनका गठन केंद्रीय या राज्य के विधान के विशेष कानून द्वारा होता है । इनका विशेष दर्जा इनके उद्देश्यों शक्तियों कर्तव्यों और विशेषाधिकारों को परिभाषित करता तथा इनके प्रबंधन के स्वरूप और सरकारी विभागों के साथ इनके संबंध का निर्धारण करता है ।

3. निगमित निकाय के रूप में विधायी प्रयोजन की दृष्टि से इनका अलग अस्तित्व है । ये मुकदमे कर सकते हैं और इन पर मुकदमा भी चलाया जा सकता है । ये अनुबंध कर सकते हैं और अपने नाम संपत्ति भी अर्जित कर सकते हैं ।

4. इसका वित्त पोषण प्रायः स्वतंत्र रूप से होता है किंतु घाटे की भरपाई और पूँजी के लिए इसका वित्त पोषण विनियोजन के माध्यम से भी किया जाता है । इसे सरकारी खजाने या सार्वजनिक क्षेत्र से लेनदारी के माध्यम से और इसके माल और सेवाओं की बिक्री के माध्यम से धन प्राप्ति होती है । अपने राजस्व को उपयोग और पुन: उपयोग करने का इसे प्राधिकार प्राप्त है ।

5. इसे सामान्यतः उन विनियामक और निषिद्ध विधानों से छूट प्राप्त है जो सरकारी धन के व्यय के संबंध में लागू होते हैं ।

6. इसका उन क्रियाविधियों लेखापरीक्षा संबंधी कानूनों लेखा और बजट से कुछ भी नहीं लेना-देना जो गैर- निगमित एजेंसियों (सरकारी विभागों) पर लागू हैं ।

7. इसके अधिकांश कर्मचारी लोकसेवक नहीं होते तथा इनकी भर्ती पारिश्रमिक और अन्य सुविधाओं का भुगतान निगम द्वारा ही निर्धारित नियम और शर्तों के आधार पर किया जाता है ।

8. इसे कार्य निष्पादन संबंधी स्वायत्तता प्राप्त है तथा इस पर विभाग प्रमुख का सीधा नियंत्रण होता है ।

मंत्री द्वारा जारी औपचारिक नीतिगत निर्देशों को छोड्‌कर इसके कार्यों पर उस विधान का नियंत्रण होता है जिसके तहत इसका गठन हुआ है । इसका प्रबंधन सरकार द्वारा नियुक्त निदेशक बोर्ड करता है । निदेशकों में से एक निदेशक बोर्ड का ‘अध्यक्ष’ नियुक्त होता है ।

सार्वजनिक निगम के स्वरूप वाले संगठन से होने वाले लाभ इस प्रकार हैं:

1. यह दिन-प्रतिदिन के प्रशासन में स्वायत्तता सुलभ कराता है ।

2. यह राजनीतिक प्रभावों और पक्षपात की भावना से मुक्त होता है ।

3. यह किसी सरकारी विभाग की सार्वजनिक जिम्मेदारी के साथ किसी निजी उद्यम की वाणिज्यिक दक्षता को बेहतर ढंग से जोड़ता है ।

4. यह अनुपयुक्त नियमों और विनियमों तथा सरकारी नियंत्रण से मुक्त होता है ।

5. यह उच्च स्तरीय वित्तीय लचीलापन और कार्मिक स्वायत्तता सुलभ कराता है ।

6. यह अर्थ जगत पर सामाजिक नियंत्रण का महत्त्वपूर्ण उपकरण है ।

सार्वजनिक निगम रूपी संगठन से होने वाली हानियाँ इस प्रकार हैं:

1. यह अपनी प्रकृति से ही बदलते समय की अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम नहीं है तथा इसके प्रावधान कठोर हैं । आशय स्पष्ट है कि इसकी संरचना या क्रियाविधि या अन्य पहलुओं में बदलाव विधान में संशोधन करके ही लाया जा सकता है ।

3. सरकारी कंपनी (Government Company):

भारत में सरकारी कंपनी संगठन का वह रूप है जिसका औद्योगिक और वाणिज्यिक लोक उद्यमों के प्रबंधन में सर्वाधिक प्रयोग् होता है । यह भारतीय कंपनी अधिनियम 1956 के तहत पंजीकृत होती है । इस अधिनियम के अनुसार सरकारी कंपनी वह कंपनी है जिसमें केंद्र सरकार या राज्य सरकार (सरकारों) या आशिक रूप से केंद्र सरकार द्वारा और आशिक रूप से राज्य सरकार द्वारा (सरकारों) शेयर पूंजी की धारिता 51% से कम न हो । किसी सरकारी कंपनी पर पूर्णतः सरकार का स्वामित्व हो सकता है (अर्थात कुल शेयर पूंजी सरकार द्वारा निवेश की जा सकती है) या उस पर सरकार का आशिक स्वामित्व हो सकता हैं (अर्थात शेयर पूँजी 51% सरकार द्वारा निवेश किया जा सकता है और शेष पूंजी निजी उद्यमों द्वारा दी जा सकती है) ।

प्राइवेट लिमिटेड कपनी:

1. इसके गठन के लिए कम से कम दो शेयर धारकों की आवश्यकता होती है ।

2. इसमें शामिल शेयर धारकों को अपना शेयर हस्तांतरित करने का अधिकार होता है ।

3. इसमें शेयर धारकों की अधिकतम संख्या 50 होती है, इससे अधिक नहीं ।

पब्लिक लिमिटेड कंपनी:

1. इसके गठन के लिए कम से कम सात शेयर धारकों की आवश्यकता होती है ।

2. इसमें शामिल शेयर धारकों को अपना शेयर हस्तांतरित करने का अधिकार नहीं होता है ।

3. इसमें शेयर धारकों की अधिकतम संख्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है ।

इस प्रकार जिस कंपनी पर सरकार का आंशिक स्वामित्व होता है उस कंपनी को मिश्रित स्वामित्व वाली कंपनी कहा जाता है क्योंकि यह संयुक्त उद्यम के रूप में होती है जिसमें शेयर पूँजी का बँटवारा सरकार और निजी क्षेत्र में होता है और जो (कंपनी) देशी अथवा विदेशी हो सकती है ।

सरकार 51% या इससे अधिक शेयर प्राप्त करने के साथ ही संयुक्त स्वामित्व वाली कंपनी की गतिविधियों पर नियंत्रण रखने की वास्तविक प्राधिकारी हो जाती है । इसलिए ही इसे सरकारी कंपनी कहा जाता है । भारतीय कंपनी अधिनियम 1956 द्वारा कंपनियों के दो रूपों को मान्यता प्रदान की गई है- प्राइवेट लिमिटेड कंपनी और पब्लिक लिमिटेड कंपनी ।

उक्त दोनों तरह की कंपनियों के भेद से संबंधित उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि किसी सार्वजनिक प्रतिष्ठान को संगठित करने की दृष्टि से प्राइवेट लिमिटेड कंपनी-पब्लिक लिमिटेड कंपनी से कहीं अधिक उपयुक्त हैं । इसलिए भारत में राज्य सरकारों द्वारा प्राइवेट लिमिटेड को वरीयता दी गई है ।

कुछ महत्वपूर्ण सरकारी कंपनियों के नाम ये हैं:

1. भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स (प्राइवेट) लिमिटेड ।

2. हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड ।

3. भारत इलैक्ट्रॉनिक्स (प्राइवेट) लिमिटेड ।

4. राष्ट्रीय फर्टिलाइजर एंड कैमिकल्स (प्राइवेट) लिमिटेड ।

5. हिंदुस्तान मशीन टूल्स (प्राइवेट) लिमिटेड ।

6. हिंदुस्तान केबल (प्राइवेट) लिमिटेड ।

7. हिंदुस्तान हाउसिंग फैक्टरी (प्राइवेट) लिमिटेड ।

8. फर्टिलाइजर कॉपोरशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (भारतीय उर्वरक निगम) ।

9. हिंदुस्तान इसेक्टिसाइड्‌स (प्राइवेट) लिमिटेड ।

10. शिपिंग कार्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड ।

11. हिंदुस्तान शिपयार्ड लिमिटेड ।

12. मारुति उद्योग लिमिटेड ।

13. इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज लिमिटेड ।

14. नेशनल कोल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ।

15. हैवी इजीनियरिंग कॉर्पोरेशन ।

16. इंडिया टूरिज्म डेवलपमेट कॉर्पोरेशन (भारत पर्यटन विकास निगम) ।

17. इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन (भारतीय तेल निगम) ।

यहाँ यह नोट किया जाना चाहिए कि कुछ सरकारी कंपनियाँ ‘निगम’ शब्द का प्रयोग करती हैं किंतु वे वास्तविक रूप में सरकारी कंपनियों के रूप में संगठित हैं । जैसे- भारतीय उर्वरक निगम भारतीय तेल निगम ।

सरकारी कंपनी के स्वरूप वाली सरकारी कंपनियों की विशेषताएँ निम्न हैं:

1. इसकी अधिकांश विशेषताएं प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों जैसी ही हैं ।

2. इस पर पूर्णतः सरकार का स्वामित्व होता है या इसकी 51% (या इससे अधिक) पूँजी पर सरकार का स्वामित्व होता है ।

3. इसका गठन सामान्य कानून के अंतर्गत कार्यकारी प्रस्ताव के द्वारा अर्थात भारतीय कंपनी अधिनियम 1956 के तहत किया जाता है । इसके लिए कार्यपालिका को विधायिका से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होती ।

4. यह एक निगमित निकाय है जिसका विधायी प्रयोजन से अलग अस्तित्व है तथा यह वाद आरोपण तथा प्रत्यारोपण के अधीन है । यह अनुबंध कर सकता है तथा अपने संपाति अर्जित कर सकता है ।

5. इसके आंतरिक प्रबंधन से जुड़े नियमों का निर्धारण सरकार द्वारा किया जाता है जिसमें सरकार द्वारा संशोधन भी किया जा सकता है ।

6. इसके लिए धन की प्राप्ति सरकार से होती है तथा कुछ मामलों में निजी शेयर धारकों से तथा इसके माल और सेवाओं की बिक्री से अर्जित राजस्व के माध्यम से भी धन की प्राप्ति होती है ।

7. इसका उन क्रियाविधियों और लेखापरीक्षा से जुड़े लोकसभा से संबद्ध प्राक्कलन समिति का मानना है कि कानूनों, लेखा तथा बजट से कुछ लेना-देना नहीं है जो सरकारी विभागों पर लागू होते हैं ।

8. इसके कर्मचारी (प्रतिनियुक्ति को छोड़कर) नहीं होते हैं । इनकी भर्ती और वेतन भत्तों का भुगतान कंपनी द्वारा ही निर्धारित नियमों और शर्तों के अधीन किया जाता है ।

9. सभी निदेशकों या अधिकांश की नियुक्ति सरकार द्वारा उद्यमों में भागीदार निजी पूँजी की मात्रा को ध्यान में रखकर की जाती है ।

सरकारी कंपनी के स्वरूप वाले संगठन से होने वाले लाभ या भारत में इसके लोकप्रिय होने के कारण इस प्रकार हैं:

1. इससे किसी उद्यम के गठन का कार्य सरल और सुविधाजनक हो जाता है । ऐसा इसलिए है कि इसका गठन संसदीय अनुमोदन के बिना कार्यपालिका के निर्णय के द्वारा किया जा सकता है । इसकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण यही है ।

2. इस पर सरकार का पूरा नियंत्रण होता है ।

3. इसका संबंध निजी उद्यमों के साथ स्थापित किया जा सकता है ।

4. इससे दिन-प्रतिदिन के प्रशासन में स्वायत्तता प्राप्त की जा सकती है ।

5. इसमें आसानी से विस्तार किया जा सकता है ।

सरकारी कंपनी के स्वरूप वाले संगठन से होने वाली हानियाँ इस प्रकार हैं:

1. इस पर कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं होती है जैसी कि राज्य द्वारा नियंत्रित उद्यम पर सरकार और संसद के प्रति होती है । इस कारण इसके संदर्भ में पूर्व नियंत्रक और लेखा परीक्षक ने कहा है कि ”यह कंपनी अधिनियम के साथ धोखाधड़ी है साथ ही भारतीय संविधान के साथ भी ।” लंका सुंदरम ने इसे ‘राज्य के अंतर्गत छोटे राज्य’ की संज्ञा दी है ।

2. कंपनी के स्वरूप का प्रयोग तथा वाणिज्यिक कंपनियों को विनियमित करने वाले कानून का प्रयोग काल्पनिक होकर रह गया है क्योंकि सभी अथवा अधिकांश कार्य शेयरधारकों और प्रबंधन के ऊपर हैं तथा उस विधान के द्वारा सरकार के लिए सुरक्षित हैं जिस विधान द्वारा कंपनी की स्थापना होती है ।

3. व्यवहारत: इससे न तो वित्तीय पहलुओं से जुड़ा लचीलापन और स्वायत्तता लाई जा सकती है और न ही प्रशासनिक पहलुओं से जुड़ी ।

लोकसभा से संबंध प्राक्कलन समिति का मानना है कि “कंपनियां कमोबेश विभागों के विस्तारित रूप हैं…… तथा थोड़े से परिवर्तनों के साथ लगभग उसी तरह से चलती हैं ।” सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के स्वरूप की उपयुक्ता की जाँच विभिन्न समितियों और आयोगों द्वारा की गई है ।

इस संदर्भ में निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं:

1. ए.ड़ी. गोरवाला ने एफिशिएंट कंडक्ट ऑफ स्टेट एंटरप्राइजेज विषयक अपने रिपोर्ट (1951) में सरकारी कंपनी के स्वरूप को इसके लचीलेपन के कारण सार्वजनिक निगम से बेहतर माना है ।

2. प्रथम पंचवर्षीय योजना से संबंधित प्रलेख में सरकारी कंपनी के स्वरूप को अपनाने का समर्थन किया गया है ।

3. लोकसभा से संबद्ध प्राक्कलन समिति (1960) ने लोक उद्यमों को संगठित करने की दृष्टि से सार्वजनिक निगम के स्वरूप के पक्ष में अनुशंसा की थी ।

4. कृष्णा मेनन समिति ने सार्वजनिक निगम के स्वरूप को अपनाने का सुझाव दिया था ।

5. प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी सार्वजनिक उद्यमों को संगठित करने में आमतौर पर सार्वजनिक निगम को अपनाने का समर्थन किया था ।

आयोग ने इस संदर्भ में निम्नलिखित सिफारिशें की थीं:

उद्योग और उत्पादन से जुड़े सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए साधारणतः निगम के स्वरूप को अपनाना चाहिए ।

संवर्धनात्मक और विकासात्मक एजेंसियों को निगम अथवा विभागीय उपक्रम के रूप में चलाया जाना चाहिए ।

निम्नलिखित मामलों में कंपनी के स्वरूप को अपनाया जाना चाहिए:

(क) जब किसी उद्यम की स्थापना निजी भागीदारी के माध्यम से की जा रही हो ।

(ख) जब किसी उद्यम का सरोकार मुख्यतया व्यापार से हो;

(ग) जब किसी उद्यम की स्थापना किसी व्यवसाय के क्षेत्र विशेष में सुधार लाने और उसे स्थिरता प्रदान किए जाने के लिए की जा रही हो;

(ध) जब किसी उद्यम का आकार छोटा हो ।

सरकार ने प्रशासनिक सुधार आयोग की अनुशंसाओं को स्वीकार नहीं किया था तथा सार्वजनिक उद्यमों के लिए कंपनी के स्वरूप वाले संगठन को अपनाने की पहले की नीति को कायम रखा था ।

4. होल्डिंग कंपनी (Holding Company):

होल्डिंग कंपनी के स्वरूप वाले संगठन के अंतर्गत उन कंपनियों को जोड़ा जाता है जो एक ही क्षेत्र में कार्य करती हैं या एक-दूसरे के साथ समान प्रबंधन के तहत तकनीकी और वाणिज्यिक संबंध रखती हैं । इस प्रकार ऐसी कंपनियों को सब्सिडीअरीज सहायक कहा जाता है जिन्हें होल्डिंग कंपनी के एकछत्र प्रबंधन के तहत लाया जाता है ।

होल्डिंग कंपनी वह कंपनी है जो स्वामित्व पूँजी में अधिकांश शेयर (भाग) धारित करती हो और जो अपने शेयर स्वामित्व की दृष्टि से सब्सीडरी कंपनियों के प्रबंधन तंत्र को नियंत्रित करने में सक्षम हों ।

कुछ होल्डिंग कंपनियों ये हैं:

1. स्टील अथांरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (1973) ।

2. कोल अथारिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड ।

3. अशोक सुप ऑफ होटल्स ।

4. स्टेट ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया ।

5. जनरल इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया ।

6. गैस अथारिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड ।

प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा वर्ष 1967 में अनुशंसित ‘सैक्टर कॉर्पोरेशन’ के स्वरूप वाले संगठन-होल्डिंग कंपनी के स्वरूप वाले संगठनों से मिलता-जुलता है । अर्जुन सेनगुप्त समिति ने वर्ष 1986 में अर्थजगत के मुख्य क्षेत्रों में होल्डिंग कंपनियों या सेक्टर कॉर्पोरेशन की अनुशंसा की थी ।

5. अन्य रूप (Other Forms):

उपर्युक्त चार प्रमुख रूपों के अतिरिक्त सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के निम्न अन्य रूप भी हैं:

i. नियंत्रण बोर्ड:

इनकी स्थापना बहुउद्‌देश्यीय नदी घाटी परियोजनाओं के प्रबंधन के प्रयोजन से की जाती है । इनका गठन केंद्र सरकार या राज्य सरकार द्वारा एक प्रस्ताव पारित करके किया जाता है । देश में इस समय 14 नियंत्रण बोर्ड हैं, जैसे- नागार्जुनसागर कंट्रोल बोर्ड, कोसी कंट्रोल बोर्ड, भाखड़ा-व्यास मैनेजमेंट बोर्ड आदि ।

ii. पब्लिक ट्रस्ट:

इनकी स्थापना सेवा कार्य से जुड़े उद्यमों के प्रबंधन के लिए अथवा आमतौर पर समाज को प्रभावित करने वाली गतिविधियों के लिए जाती है । इनका गठन संसद के विशेष अधिनियमों के द्वारा होता है । इस श्रेणी के उद्यमों में पोर्ट ट्रस्ट यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया आदि आते हैं ।

iii. आयोग:

इनकी स्थापना क्षेत्र विशेष में विकास कार्य निष्पादित करने के लिए की जाती हैं । इनका गठन भी संसद के विशेष अधिनियमों द्वारा होता है । इस श्रेणी के उद्यमों में टेरिफ कमीशन, खादी और ग्राम उद्योग आयोग, फॉरवर्ड मार्केट्‌स कमीशन आदि आते हैं ।

iv. कमोडिटी बोर्ड:

इनकी स्थापना औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने की दृष्टि से की जाती है । इनका गठन भी संसद के विशेष अधिनियमों द्वारा किया जाता है । स्माल स्केल इंडस्ट्री बोर्ड, कॉफी बोर्ड, रबर बोर्ड आदि इस श्रेणी के उद्यम हैं ।

v. सहकारी समितियाँ:

इनकी स्थापना विकास और संवर्धनात्मक कार्यों के लिए की जाती है । ये समितियाँ सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम के तहत पंजीकृत होती हैं । इस श्रेणी के उद्यमों में भारतीय राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम भारतीय व्यापार मेला प्राधिकरण भारतीय दुग्ध विकास निगम आते हैं ।

vi. सार्वजनिक प्रष्ठिान विभाग:

वर्ष 1965 में वित्त मंत्रालय के तहत सार्वजनिक प्रतिष्ठान ब्यूरो की स्थापना हुई थी । वर्ष 1985 में ब्यूरो को उद्योग मंत्रालय में शामिल कर सार्वजनिक प्रतिष्ठान विभाग का दर्जा प्रदान किया गया ।

सार्वजनिक प्रतिष्ठान के संदर्भ में यह विभाग निम्नलिखित कार्य करता है:

1. यह विभाग समान विषयों से संबंधित डाटा बैंक और विश्वस्त सूचना भंडार का कार्य करता है ।

2. यह सार्वजनिक प्रतिष्ठान चयन बोर्ड के सचिवालय के रूप में कार्य करता है तथा अन्य प्रकार के चयन कार्य में उद्यमों को सहायता प्रदान करता है ।

3. यह प्रशिक्षण कार्यक्रमों के आयोजन की व्यवस्था के साथ-साथ उद्यमों को प्रबंधन-विकास से जुड़े परामर्श मुहैय्या करता है ।

4. यह विभाग नियंत्रक मंत्रालयों को तकनीकी और विशेषज्ञतापूर्ण सहायता प्रदान करने के लिए एक माध्यम का कार्य करता है ।

5. यह उद्यमों को मजदूरी ढाँचे, सेवा-शर्तों और नीतिगत मामलों से संबंधित परामर्श देता है ।

6. यह विभाग अपनी कार्य प्रणाली से संबंधित आवधिक रिपोर्ट संसद और सरकार को प्रस्तुत करता है ।

7. यह अपनी कार्य प्रणाली की संसदीय समितियों द्वारा की जाने वाली जाँच प्रक्रिया में सहयोग करता है ।

8. यह विभाग प्रशासनिक सुधार विभाग के साथ संपर्क बनाए रखता है ।

vii. सार्वजनिक प्रतिष्ठान चयन बोर्ड:

यह एक स्वायत्त निर्णयकर्त्ता निकाय है । यह बोर्ड कार्मिक तथा प्रशिक्षण विभाग, जो कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय का भाग है के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्य करता है । इस बोर्ड को सार्वजनिक प्रतिष्ठान विभाग से सचिविक सहायता मिलती है ।

इस बोर्ड के निम्नलिखित कार्य हैं:

1. सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में मुख्य कार्यकारी और कार्यकारी निदेशकों के बोर्ड स्तर के पूर्णकालिक पदों तथा निदेशकों के अल्पकालिक पदों पर नियुक्ति के लिए सरकार से अनुशंसा करना ।

2. सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के प्रबंधन के लिए उच्च स्तरीय पदों को श्रेणीबद्ध करने और उपयुक्त सांगठनिक संरचना के संबंध में सरकार को परामर्श देना ।

3. प्रबंधकीय आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने की दृष्टि से उनकी प्रबंधन विकास से जुड़ी गतिविधियों की निगरानी करना ।

सार्वजनिक प्रतिष्ठान की भूमिका और कार्य निष्पादन (Role and Performance of Public Enterprise):

सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को भारत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी गई है । औद्योगिक नीति प्रस्ताव 1956 से संबंधित योजना के तहत अर्थजगत में विकास कार्य करने तथा इसे प्रगतिपथ पर अग्रसर रखने का कार्य सार्वजनिक क्षेत्र को सौंपा गया था न कि निजी क्षेत्र को ।

सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की भूमिका और कार्य इस प्रकार हैं:

1. आर्थिक विकास दर में तेजी लाना ।

2. औद्योगीकरण के लिए दुरुस्त आर्थिक उपरि संरचना का प्रबंधन एवं स्थापना करना ।

3. कुछ लोगों के द्वारा धनसंपति पर किए गए एकाधिकार को खत्म करना ।

4. विदेशी प्रौद्योगिकी पर निर्भरता में कमी लाने के लिए अति महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता लाना ।

5. क्षेत्रीय असमानता को छू करने की दृष्टि से संतुलित क्षेत्रीय विकास सुनिश्चित करना ।

6. लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने की दृष्टि से विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना ।

7. निर्यात-प्रोत्साहन और आयात में कमी के माध्यम से भुगतान संतुलन पर दबाव को दबाव को कम करना ।

8. लघु एवं सहायक उद्योग के विकास और विस्तार के लिए सहायता प्रदान करना ।

9. पुनर्निवेश के उद्देश्य से अतिरिक्त संसाधन जुटना ।

10. आय और संपति के पुनर्वितरण को बढ़ावा देना । सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के कार्य का आकलन विभिन्न कोणों से किया जाना चाहिए ।

जैसे:

1. सार्वजनिक प्रतिष्ठानों ने अच्छी प्रगति की है । वर्ष 1951 में केवल 5 केंद्रीय उद्यम थे, जिनमें 29 करोड़ रु. निवेशित था । वर्ष 1999 तक यह संख्या बढ्‌कर 240 तक पहुँच गयी थी जिसमें कुल 2,30,140 करोड़ रु. का निवेश था ।

2. सार्वजनिक प्रतिष्ठानों ने अर्थव्यवस्था के समग्र औद्योगिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । जहाँ तक राष्ट्रीय उत्पादन में उनकी हिस्से की बात है देश में लिगनाइट ताँबा और पेट्रोलियम पूर्णतः सार्वजनिक प्रतिष्ठानों द्वारा उत्पादित किया गया । देश में उत्पादित जस्ते का 80% कोयले का 95% तथा इस्पात और अल्युमिनियम का 50% भाग तथा उर्वरक के लगभग एक-तिहाई भाग के उत्पाद में सार्वजनिक प्रतिष्ठानों का ही योगदान है ।

3. सार्वजनिक प्रतिष्ठानोंने ‘मॉडल नियोक्त (एम्प्लायर)’ की भूमिका भी अदा की है । इन्होंने अपने कर्मचारियों को मकान, स्कूल, अस्पताल, मनोरंजन केंद्र आदि जैसी सामाजिक सुविधाएँ भी उपलब्ध कराई हैं । वर्ष 1999 तक लोक उंद्यमों में कुल 19 लाख कर्मचारी थे ।

4. सार्वजनिक प्रतिष्ठानों द्वारा मध्य प्रदेश बिहार राजस्थान और उड़ीसा जैसे पिछड़े क्षेत्रों के विकास तथा सब्सिडीकृत मूल्य पर जनहित की सुविधाओं के प्रावधान के माध्यम से आय और संपति के पुनर्वितरण को बढ़ावा देने का कार्य भी किया गया है ।

5. इन्होंने विदेशी मुद्रा अर्जन में तथा आयात सब्स्टीट्‌यूशन द्वारा मुद्रा बचाने में अर्थव्यवस्था की मदद की है । अर्थजगत को निर्यात से होने वाली कुल आय में लोक उद्यमों का .25 से लेकर .20 तक का योगदान है ।

6. लाभांशों, निगम कर, उत्पाद शुल्क सीमा शुल्क और अन्य के माध्यम से सार्वजनिक प्रतिष्ठानों का सरकारी खजाने में योगदान बढ्‌कर वर्ष 1999 में 47,000 करोड़ रु. हो गया था ।

7. विभिन्न प्रकार के माल और सेवाओं जैसे- परिवहन, संचार, विद्युत, सिंचाई, औषधि, सीमेंट आदि की प्रदानगी और आपूर्ति के क्षेत्र में इनका रिकार्ड प्रशंसनीय रहा है ।

8. सार्वजनिक प्रतिष्ठानों ने आर्थिक विकास में तेजी लाने की दृष्टि से बचत राशि के संग्रहण और सरकारी निवेश के लिए संसाधनों को गतिशील बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । ऐसे उद्यम हैं- भारतीय औद्योगिक विकास बैंक भारतीय औद्योगिक वित्त निगम जीवन बीमा निगम यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया भारतीय स्टेट बैंक और अन्य ।

विभिन्न उपलब्धियों के बावजूद सार्वजनिक प्रतिष्ठान वित्तीय कार्य निष्पादन और प्रबंधकीय क्षमता के क्षेत्र में अपनी स्थिति ठीक नहीं रख सके हैं । देश के कुल 240 केंद्रीय सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में से लगभग 140 ही लाभार्जन कर रहे हैं तथा शेष 100 लोक उद्यमों को हानि हो रही है । 50 ऐसे औद्योगिक उद्यम हैं जो रुग्णावस्था में हैं तथा भारी नुकसान उठा रहे हैं । सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के कार्यों का निष्पादन आशा से कम रहा है ।

इनकी सीमित सफलता के कारण इस प्रकार हैं:

1. कमजोर और असंगत मूल्य नीति ।

2. प्रौद्योगिकीय उपरि संरचना का अभाव ।

3. उत्पादन क्षमता का कम दोहन ।

4. भर्ती संबंधी उपयुक्त नीति का अभाव जिस कारण कर्मचारी संख्या पर्याप्त से अधिक है ।

5. कार्य निष्पादन और निपटान की लंबी अवधि की प्रक्रिया ।

6. निर्माण कार्यों में विलंब के कारण परियोजनाओं की लागत में वृद्धि ।

7. अतिशय पूंजीकरण ।

8. उच्च पूँजी अभिमुखीकरण के कारण रोजगार में कमी ।

9. अक्षम प्रबंधन ।

10. नियंत्रण-प्रक्रिया में दोष के कारण स्वायत्तता में कमी ।

11. नगर निर्माण चिकित्सालयों आदि की ऊँची लागतों को वहन करना ।

12. राजनीतिक दबाव के कारण अनुपयुक्त स्थलों का चयन ।

13. अविचारित स्पर्धा और तोड़-फोड़ ।

14. मजदूर संघवाद यूनियन से जुड़े विवाद जैसे बाह्य कारण ।

15. मदसामग्रियों का अक्षम प्रबंधन आदि ।