Read this article in Hindi to learn about:- 1. लोक नीति का अर्थ (Meaning of Public Policy) 2. लोक नीति की प्रक्रिया (Process of Making Public Policy) 3. क्रियान्वयन (Implementation) 4. प्रभाव (Effects) 5. मूल्यांकन (Evaluation).

लोक नीति का अर्थ (Meaning of Public Policy):

सरकार जनहित के उद्देश्य से जो भी कार्य करने का निर्णय लेती है वे लोक नीति कहलाते हैं । सरकार के विभिन्न अंग अपने स्तर पर लोक नीति निर्माण में भाग लेते हैं जिसकी एक प्रक्रिया पायी जाती है । परंतु नीति के क्रियान्वयन एवं समुचित मूल्यांकन का सामना प्रत्येक सरकार को करना पड़ता है ।

लोक नीति में दो शब्द है लोक और नीति । लोक अर्थात जनता सार्वजनिकता का द्योतक है क्योंकि एकमात्र सरकार ही उन नीतियों का प्रतिपादन करती है जिनका सीधा संबंध एकमात्र लोक कल्याण से होता है । अर्थात लोक नीति सरकारी या सार्वजनिक नीति होती है और यह निजी नीति से भिन्न होती है । पहली का उद्देश्य राष्ट्र कल्याण है तो दूसरी का अपना व्यवसायिक कल्याण । अत: पहली बहुलक्ष्मी और जटिल होती है तो दूसरी सीमित लक्ष्मी और सरल होती है ।

लोक नीति की प्रक्रिया (Process of Making Public Policy):

एक जटिल नीति को बनाने के लिये उसकी प्रक्रिया भी उतनी ही जटिल होती है । अत: लोक नीति की प्रक्रिया भी उतने विभिन्न चरणों से गुजरती है ।

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जैसे:

1. सरकार को समाज की समस्याओं की पहचान करना होती है । चूँकि समस्याएं बहुत हैं, बहुपक्षीय है, जबकि संसाधन सीमित है, अत: समस्याओं की प्राथमिकता तय करनी होती है । परंतु लोकतांत्रिक समाजों में बहुत दबाव होते हैं, जैसे- क्षेत्रीय दबाव, अत: प्राथमिकता का निर्धारण भी जटिल हो जाता है ।

2. समस्या की पहचान से अधिक जटिल उसके समाधान हैं, क्योंकि इसके लिये पहले विकल्पों की तलाश करनी होगी । ये विकल्प संवैधानिक सीमाओं, वित्तीय सीमाओं, प्राकृतिक सीमाओं इत्यादि के संदर्भ में विकसित होते हैं और इसीलिए स्वयं भी सीमित हो जाते हैं ।

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3. अत: सीमित विकल्पों में से श्रेष्ठतम का चुनाव नीति विश्लेषण की मांग करता है और यह सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है । जिसमें विकल्पों के सामाजिक आर्थिक लाभ-हानि को तुलनात्मक रूप दिया जाता है ।

4. अंतत: इन विकल्पों में से एक बेहतर चुन लिया जाता है और यह निर्णय ही नीति बन जाता है परंतु लोक नीति की प्रक्रिया, उसके निर्धारण से आगे क्रियान्वयन तक पहुंचती है । इसमें सक्षम व उचित संगठन की पहचान की जाती है चूकि नीति बहुपक्षीय होती है, अत: उसके विभिन्न भागों का आबंटन संबंधित संगठनों को करना पड़ता है ।

जैसे भारत में मंत्रिमंडल का निर्णय दो या अधिक मंत्रालयों के माध्यम से क्रियान्वित हो सकता है । उदाहरण के लिये शहरी विकास । शहरी विकास मंत्रालय व पर्यावरण मंत्रालय दोनों से संबंधित है ।

5. और जैसे-जैसे उपर से नीचे नीति का क्रियान्वयन उतरता जाता है, वैसे-वैसे उस पर उसी क्रम में पर्यवेक्षण नियंत्रण आदि की समीक्षा का काम भी शुरू हो जाता है ।

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6. लेकिन नीति का क्रियान्वयन प्रभावी हो, इससे भी ज्यादा जरूरी उसकी परिणाम मूलकता है । अत: नीति का मूल्यांकन भी लोक नीति प्रक्रिया में महत्वपूर्ण है जिसमें उद्देश्यों के संदर्भ में परिणामों का आंकलन होता है । यह मूल्यांकन ही भावी नीति और नियोजक का आधार बनता है ।

आस्टिन रैन्नी लोक नीति के पांच अंगों का उल्लेख करते हैं ।

जो इस प्रकार हैं:

(क) एक विशेष लक्ष्य-समूह,

(ख) घटनाओं का वांछित मार्ग,

(ग) कार्य करने की शैली का चयन,

(घ) संकल्प या उद्देश्य की घोषणा, तथा

(ड़) उद्देश्यों को लागू करना या कार्यान्वयन ।

माईकल हाऊलेट और एम.रमेश नीति-चक्र के पांच चरण बताते हैं:

1. कार्य सूची निश्चित करना,

2. नीति-निर्माण,

3. निर्णय करना,

4. नीति-कार्यान्वयन,

5. नीति-मूल्यांकन ।

सामान्यतया नीति के 5 चरण हैं:

1. उस समस्या की पहचान जिसके लिये नीति बनानी है ।

2. समस्या समाधान के विकल्प ढूंढना ।

3. उपर्युक्त विकल्प का चयन (नीति की स्थापना) ।

4. विकल्प का क्रियान्वयन ।

5. नीति का मूल्यांकन ।

स्पष्ट है कि प्रत्येक लोक नीति समस्या से समाधान तक पहुंचने की एक प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया के माध्यम से ही निश्चित समाधान ढूंढने के लिए अनेक विकल्पों पर विचार होता है । इन विकल्पों पर लाभ-हानि की दृष्टि से नहीं अपितु जनकल्याण की दृष्टि से विचार किया जाता है और इसीलिए लोकनीति, निजी नीति से प्राथमिकताओं में भिन्न होती है, प्रक्रिया में नहीं । एक विवेकशील नीति-नियोजन की प्रक्रिया में निर्णयों की श्रृंखला का उल्लेख आर.के.सप्रू ने किया है ।

लोक नीति का क्रियान्वयन (Implementation of Public Policy):

इस प्रकार उपरोक्त तरीके से एक लोक नीति बाहर निकलती है और क्रियान्वयन के लिये खड़ी हो जाती है और पहले यह कहा जाता था कि नीति श्रेष्ठ बना ली जाये परिणाम मिल जायेगा परंतु अब क्रियान्वयन पर अधिक जोर है । क्योंकि उद्देश्य और परिणाम में भारी अंतर ने क्रियान्वयन को महत्वपूर्ण बना दिया है ।

क्रियान्वयन प्रशासन का मूल कार्य दायित्व है लेकिन इसमें भी सरकार के तीनों अंग जनता, स्वयं सेवी संस्थाएं आदि विविध पक्ष भाग लेते हैं । वस्तुत: लोकनीति क्रियान्वयन का दायित्व भी राजनैतिक होता है इसलिए विधायिका और कार्यपालिका दोनों जिम्मेदार हैं, विधायिका संविधान और जनता के प्रति दायित्व की पूर्ति हेतु नीति क्रियान्वयन पर नजर रखती है, वह प्रश्न पूछती है, प्रत्यक्ष जांच कर सकती है ।

परंतु संसदीय प्रजातंत्र में यह दायित्व कार्यपालिका पर हस्तांतरित हो जाता है । मंत्री और मंत्री परिषद अपने लोकनीति के क्रियान्वयन के लिये विधायिका के नियंत्रण में रहते हैं और इसलिए उन्हें अपने अधीनस्थ प्रशासन पर नियंत्रण और निगरानी का अधिकार होता है ।

प्रत्येक प्रशासनिक मंत्रालय अपने अधीनस्थ और संलग्न कार्यालयों के माध्यम से नीतियों का निष्पादन करवाते हैं मंत्री के अधीन यह प्रशासन स्वीकृत पदसोपानिक व्यवस्था होती है । न्यायपालिका भी संवैधानिक उपचारों के तहत सरकार को लोकनीति क्रियान्वयन के लिये उत्प्रेरित और आदेशित करती है ।

परंतु 21वीं शताब्दी के प्रारंभ में लोकनीति क्रियान्वयन में एक नई प्रवृत्ति उभरी है स्वयं सेवी संस्थाओं और निजी क्षेत्र की भागीदारी । आज सरकारें शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक चेतना इत्यादि क्षेत्रों से संबंधित कार्यक्रमों योजनाओं को एन.जी.ओ. को बड़े पैमाने पर हस्तांतरित कर चुकी है । इसी प्रकार बी.ओ.टी, पी.पी.पी. के तहत लोकनीति क्रियान्वयन से निजी क्षेत्र भी जुड़ गये ।

नीति क्रियान्वयन में जनता की भागीदारी बढ़ा दी गई है जहां विकेंद्रीकरण के तहत स्वशासन की नीति निर्माण में भूमिका बढ़ी वहीं क्रियान्वयन में अधिक बड़ी जैसे रोजगार गारंटी प्रो. का क्रियान्वयन पंचायतें कर रही हैं । आज सिटीजन चार्टर, सूचना का अधिकार आदि का प्रयोग करके जनता क्रियान्वयन पर पैनी नजर रख रही है ।

लोकनीति क्रियान्वयन की सीमाएँ (Limitations on the Implementation of the Public Policy):

क्रियान्वयन में एजेंसियों को अनेक सीमाओं को ध्यान में रखना पड़ता है ।

1. पहली सीमा प्रशासनिक है अर्थात नीति के अनुरूप ही प्रशासनिक संगठन दक्ष अधिकारी और इसकी नियम प्रक्रियाएं होनी चाहिएं ।

2. दूसरी सीमा तकनीक की है नीति के अनुरूप तकनीक की पहचान और प्राप्ति सदैव ही समस्या रही है जैसे हमने सूचना का अधिकार तो दिया पर उसकी सर्व सुलभता के अनुरूप तकनीक सुलभ नहीं कर पाये ।

3. लोकनीति क्रियान्वयन की प्रमुख समस्याएं वित्तीय रहीं क्योंकि सदैव ही सरकार की नीतियों का तो विस्तार हो जाता है पर उसके अनुरूप राजस्व का नहीं और यह सीमा सदैव बनी रहती है ।

4. इसी प्रकार भारत जैसे देशों में भौगोलिक सीमा भी एक समस्या है जैसे पहाड़ी क्षेत्रों का विकास या सियाचीन की सुरक्षा आदि ।

5. अनेक बार लोकनीति सामाजिक धार्मिक सीमाओं से प्रतिबंधित हो जाती है जैसे बाल विवाह रोकने से संबंधित सरकार के प्रयास के आगे आज भी धार्मिक सामाजिक सीमा खड़ी है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि लोकनीति शासन और प्रशासन में सबसे महत्वपूर्ण केंद्रीय मुद्दा है और मौटे तौर पर लोकनीति ही सरकार होती है ।

यह सही है कि लोकनीति को अनेक कारक प्रभावित करते हैं और इसीलिए उसके निर्माण में कतिपय सीमाएं लग जाती हैं परंतु सबसे महत्वपूर्ण समस्या उसके क्रियान्वयन की ही होती है ।

लोक नीति पर प्रभाव (Effects of Public Policy):

लोकनीति जन कल्याण के लिए होती है अत: उसे अनेक समस्याओं का समाधान करना है और इसीलिये उस पर अनेक कारक प्रभाव डालते हैं । लोकनीति का संबंध संपूर्ण समाज से है और इसीलिए उसमें परिवेश उन्मुखता जरूरी है ।

वस्तुत: लोकनीति पर सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक आर्थिक घटक प्रभाव डालते हैं इसी प्रकार लोकनीति भी इनको प्रभावित करती है क्योंकि वह होती ही परिवर्तनवादी और परिवर्तन इन्हीं सब घटकों में होता है ।

अत: लोकनीति में प्रतिसंभरण और पुर्ननिवेशन आवश्यक होता है । लेकिन यह अनिवार्य हो जाता है भारत जैसे देशों में क्योंकि यहां विकास मुख्य लक्ष्य है और इसीलिए नौकरशाही के स्थान पर विकास प्रशासन संस्थागत आवश्यकता है ।

1. नीति निर्माण पर सर्वाधिक प्रभाव सामाजिक, आर्थिक, विधिक, दार्शनिक, धार्मिक आदि का होता है ।

गार्ड पीटर्ज का कथ है- किसी देश की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थाएं वहां की सरकार के कार्यों की सीमाएं निर्धारित करती हैं……. इस बात की व्याख्या करके कि सरकार में क्या अच्छा है और क्या बुरा, संस्कृति कुछ कार्यों को लगभग अनिवार्य बना देती है और कुछ अन्य कार्यों पर रोक लगा देती है ।

इसका कारण यह है कि नीति का निर्माण करने वाले चाहे वे राजनीतिज्ञ हों, चाहे सरकारी अधिकारी अपने समाज की ही उपज होते हैं । सरकारी पदों को प्राप्त करने से पूर्व वे समाज के मूल्यों, परंपराओं और आचार-व्यवहारों को अपना चुके होते हैं सामाजिक-वातावरण में जिन दृष्टिकोणों और व्यवहारों को वे विकसित कर लेते हैं, वे बहुत हद तक उनके निर्णयों को प्रभावित करते हैं ।

2. आधुनिक युग में प्रदूषण एक प्रमुख समस्या है अत: इस समस्या से संबंधित पर्यावरण संरक्षण नीति अपनायी जाती है ताकि अंधाधुंध विकास के स्थान पर सतत विकास को सुनिश्चित किया जा सके ।

3. सामाजिक समस्याओं से संबंधित सामाजिक नीतियां समाज की दशा-दिशा से गहन रूप से प्रभावित होती हैं और उसे स्वयं भी प्रभावित करती हैं । जैसे भारत ने जनसंख्या नियंत्रण के माध्यम से गरीबी, बेरोजगारी आदि समस्याओं को नियंत्रित करने की नीति अपनायी है ।

4. राजनीतिक विचार, पद्धति, समस्याये भी लोकनीति को प्रभावित करते हैं । चुनाव में निरंतर सुधार लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती से संबंधित हैं ।

5. गांवों के देश भारत में लोकनीतियां ग्रामीण समस्याओं से प्रमुख रूप से प्रभावित होती हैं । इनको विगत बजट में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है जैसे भारत निर्माण योजना, पुरा योजना, रोजगार गारंटी कार्यक्रम आदि से संबंधित नीतियां ।

6. आर्थिक कारक आज वैश्विक युग में अधिक प्रभावी हो गये हैं । भारत की आर्थिक नीतियां स्वदेशी और विदेशी के उचित तालमेल को सुनिश्चित करने से संबंधित हैं ।

7. राजनीतिक नेतृत्व का व्यक्तित्व, सोच (जैसे- नेहरूजी की समाजवादी सोच), राजनीतिक दलों का प्रभाव, संविधान और विधान आदि भी लोकनीतियों को प्रभावित करती हैं ।

8. संसदीय शासन में नौकरशाही भी नीति को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती है । जब सरकारें अस्थिर होती हैं तब तो नौकरशाही स्वयं नीति-निर्मात्री बन जाती है । स्पष्ट है कि लोक नीतियां अनेक कारकों के प्रभावों को स्वीकारती हैं और इसीलिये वह एक लंबी प्रक्रिया से गुजरकर स्वरूप ग्रहण करती हैं ।

मिस फोलेट ने कहा है कि- ”प्रत्येक निर्णय एक प्रक्रिया में एक क्षण होता है । यह नीति-संबंधी निर्णयों पर बहुत ही यथार्थ है । देखने को कोई नीति किसी विशेष संस्था अथवा अधिकारी का एक निर्णय जान पड़ती है, किंतु यह संस्था अथवा अधिकारी उस विषय के पिछले इतिहास की लंबी श्रृंखला में केवल अंतिम जोड़ होता है । जो निर्णय किया गया है, उसके अंतिम स्वरूप में अनेक समूहों, व्यक्तियों, अधिकारियों तथा गैर-सरकारी व्यक्तियों ने अपने-अपने अंश का योगदान दिया होता है । अत: सदा ही एक नीति कई लोगों के सहकारी प्रयत्नों का परिणाम होती है ।”

लोक नीति मूल्यांकन (Evaluation of Public Policy):

इस प्रकार नीति क्रियान्वयन का महत्व बढ़ा उसी प्रकार अब जटिल होती लोकनीति ने नीति मूल्यांकन को ही उत्तरोत्तर महत्व हासिल हो रहा है । नीति मूल्यांकन से आशय यह देखना है कि लोकनीति अपने उद्देश्यों में कहां तक सफल रही ।

वस्तुत: मूल्यांकन का उद्देश्य लोकनीति के उद्देश्य और परिणाम के अंतर को पाटना है, इसके द्वारा कार्यान्वयनकारी एजेंसियों को सजग रखना है और उनका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना है । और इसीलिए सरकार ने नीति मूल्यांकन व्यवस्था स्थापित की ।

इसकी सर्वोच्च संस्था विधायिका है जिसके सामने सरकार (राष्ट्रपति) अपनी उपलब्धियों का ब्यौरा रखती है । राजनैतिक कार्यपालिका प्रशासनिक कार्यपालिका का मूल्यांकन करती है और स्वयं प्रशासन में पदसोपानिक क्रम अनुसार मूल्यांकन चलता है । न्यायपालिका अपनी सीमाओं के दायरे में मूल्यांकन को अंजाम देती है । जैसे वह कह सकती है कि नीति क्रियान्वयन में भेदभाव किया गया, या शक्तियों का दुरुपयोग किया गया ।

लोकनीतियों का मूल्यांकन बाहरी एजेंसियों द्वारा भी होता है जैसे एम.पी. की शिक्षा गारंटी योजना, कामनवेल्थ पुरूस्कृत है वहीं ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने भ्रष्टाचार की सूची में 74वां क्रम दिया । जनता और मीडिया भी नीति मूल्यांकन में सक्रिय हो रहे हैं विशेषकर ग्राम सभा में लोकनीति मूल्यांकन बेहद रोमांचक अवधारणा है ।

इस प्रकार नीति मूल्यांकन लोकनीति संदर्भ में महत्वपूर्ण हो जाता है और सरकार अपने प्रबंधन को अधिक कुशल और मितव्यय बनाने की मूल्यांकन की साबरनेटिक्स, समीक्षा बैठक, नियतकालिक नियोजन प्रणाली आदि को मजबूत बना रही है । सारांशत: जहां कही भी सरकार है वहां निर्माण, क्रियान्वयन, मूल्यांकन का एक अंतसंबंधी लोकनीति चक्र भी सदैव संचालित रहता है ।

इस चक्र के उद्देश्य और इसकी प्रक्रिया अपने स्वरूप में जितनी जटिल और बहुआयामी होती है । उतनी ही आवश्यकता लोकनीति को लोक की समझ और सुझाव के अनुरूप बनाने की होती है यही सरकार में लोकनीति का सार है ।