Read this article in Hindi to learn about the factors affecting the relations between union and government.
इन्हें चार प्रमुख कारक निर्धारित करते हैं:
1. संघ बनाने का अधिकार ।
2. हड़ताल का अधिकार ।
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3. राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार ।
4. विवाद-निपटारा तंत्र की व्यवस्था ।
1. संघ बनाने का अधिकार (Right to Form Union):
इसमें मोटे तौर पर दो बातें शामिल है- प्रथम, सरकारी सेवकों को अपने संघ बनाने का अधिकार है या नहीं और द्वितीय, सरकारी सेवक बाहर के संघों के सदस्य बन सकते हैं या नहीं ।
इन दो आधारों को लेकर विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न व्यवस्थाएं हैं:
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ब्रिटेन:
ब्रिटेन में लोक सेवक अपने संघ बनाने में पूर्णत: स्वतंत्र हैं । वे मान्यता रहित और मान्यता प्राप्त किन्हीं भी संगठनों, संघों के सदस्य बन सकते हैं । एक संघ, अन्य संघ में विलीन भी हो सकता है । 1927 के ”ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट” ने लोक सेवकों पर बाहरी संघ से संबंध रखने पर जो प्रतिबन्ध लगाया था, उसे 1946 में लेबर सरकार ने समाप्त कर दिया ।
अमेरिका:
अमेरिका में ”लायड-ला फालेट” एक्ट (1912 की धारा 6) के तहत लोक सेवक किसी भी ऐसे संघ के सदस्य बन सकते है जिसकी सरकार विरोधी हड़ताल में भाग लेना लोक सेवकों के लिए अनिवार्य नहीं हो ।
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भारत:
भारत में संघ बनाने का संवैधानिक अधिकार मौजूद है (अनु.19(1)ग) । यद्यपि राज्य (भारत) सुरक्षा की दृष्टि से कतिपय प्रतिबंध लगा सकता है । अनुच्छेद 309 के तहत् विधायिका लोकसेवा में भर्ती और सेवा संबंधी शर्तें निर्धारित कर सकती हैं, यह भी संघ निर्माण के कार्मिक अधिकार पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण आरोपित करता हैं ।
वर्तमान में कार्मिक किसी भी ऐसे संगठन के सदस्य बन सकते हैं, (या संगठन का निर्माण कर सकते हैं) जिसे 6 माह के भीतर सरकारी मान्यता मिल गयी हो । लेकिन जिन संगठनों को 6 माह उपरान्त भी मान्यता नहीं मिली हो, या उनकी मान्यता विचाराधीन हो या मान्यता रदद् कर दी गयी हो, उनके सदस्य लोक सेवक नहीं बन सकते । ध्यातव्य हैं कि ऐसे संगठनों का सरकारी कार्मिकों से निर्मित होना आवश्यक हैं ।
ऐसे संगठनों को तभी सरकार मान्यता देती हैं, जब:
(i) उनमें मात्र सरकारी कार्मिक ही सदस्य हो,
(ii) संगठन के बाकी सदस्य भी ऐसे ही चुने गए हो,
(iii) उसका संबंध किसी भी राजनीतिक दल से न हो, और
(iv) वह किसी एक सदस्य के हितों का पोषण नहीं करता हो । उसके लिए राजनीतिक निधि रखना भी निषेध हैं, यद्यपि कुछ संघों को इसकी छूट मिली हुई है । स्पष्ट हैं कि भारत में सरकारी संघों पर कठोर शर्तें आरोपित हैं । किसी भी मान्यता रहित संगठन का सदस्य बनना अनुशासनहीनता की श्रेणी में आता है ।
विशेष तथ्य:
(i) भारत में पहला ट्रेड यूनियन्स बाम्बे हैण्ड मिल एसोसिएशन था, जो 1886 में लोखंडे ने बनाया था ।
(ii) लेकिन सरकारी क्षेत्र में प्रथम लोकसेवा संघ 1897 में स्थापित हुआ था, जो भारत और बर्मा के रेलवे कार्मिकों ने संयुक्त रूप से बनाया था । इसमें मात्र एंग्लोइण्डियन और यूरोपियन ही सदस्य थे, और यह व्यावसायिक के स्थान पर सामाजिक गतिविधियों से अधिक सम्बद्ध था ।
(iii) 1918 में वाडिया द्वारा निजी क्षेत्र का पहला व्यवस्थित संघ ”मद्रास लेबर यूनियन” बनाया गया था, जिसमें नियमित सदस्यता शुल्क का प्रावधान था ।
(iv) इसी वर्ष गांधीजी ने अहमदाबाद के कपड़ा मजदूरों के मध्य ”अटला” की स्थापना की ।
(v) 1920 में ऐटक बना जिसके पहले अध्यक्ष लाला लाजपातराय थे ।
(vi) सरकारी सेवकों के वास्तविक संघ 1922 से ही बनना शुरू हुए । रेल और डाक कार्मिकों के संघों से इसकी शुरूआत हुई, जब 1922 में उनका संयुक्त संघ बना ।
(vii) 1926 के ट्रेड यूनियन एक्ट द्वारा व्यावसायिक संघों को वैधता प्रदान की गयी ।
2. हड़ताल का अधिकार (Right to Strike):
हड़ताल से तात्पर्य है कार्मिकों का निश्चित या अनिश्चित अवधि के लिए काम करना स्थगित कर देना ।
ब्रिटेन:
ब्रिटेन में हड़ताल निरोधक कोई कानून नहीं है लेकिन सरकारें हड़ताल को पसन्द नहीं करती और उस पर अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सकती है । व्यावहारिक रूप में वहां हड़ताल के स्थान पर कार्मिक सरकार दोनों ”वार्ताओं” को अधिक महत्व देते हैं ।
अमेरिका:
अमेरिका में हड़तालों पर पूर्ण प्रतिबन्ध हैं । 1947 के श्रम-प्रबंध संबंध एक्ट तफ्त हार्टले) द्वारा लोकसेवकों को हड़ताल से संबंध रखने से रोका गया और 1955 के लोक नियम द्वारा इसे अधिक कठोर बना दिया गया । वहां हड़ताली लोकसेवकों को सेवा से पृथक् किया जा सकता हैं । जुर्माना और कैद के प्रावधान भी उक्त नियमों के उल्लंघन में दिए जा सकते हैं ।
फ्रांस:
फ्रांस एकमात्र देश हैं, जो हड़ताल की अनुमति प्रदान करता है ।
भारत:
भारत में हड़ताल के संबंध में स्थिति ब्रिटेन के समान हैं । हड़ताल निषेध कानून तो नहीं हैं, लेकिन हड़ताल को अनुशासनहीनता के रूप में लिया जाता है, जो सरकार के स्वविवेक पर अधिक निर्भर करता है । यहां अत्यावश्यक सेवा कानून के तहत् कतिपय सेवाओं से जुड़े कार्मिक हड़ताल नहीं कर सकते ।
भारत में 1960 की आम हड़ताल और 1974 की रेलवे हड़ताल ने सरकार को इस दिशा में कठोर कदम उठाने हेतु प्रेरित किया था । द्वितीय वेतन आयोग और प्रशासनिक सुधार आयोग ने कार्मिक हड़ताल को कदापि उचित नहीं माना ।
वस्तुत: यह विवाद का विषय रहा है, कि लोकसेवकों को अपनी मांगो के समर्थन में हड़ताल करने का अधिकार हैं, या नहीं । कुछ ही विद्वान हैं, जो हड़ताल को लोकसेवकों का प्रजातान्त्रिक अधिकार बताते हैं, और कहते हैं, कि इसका अधिकार नहीं होने पर सरकार को कार्मिकों पर अन्याय/अत्याचार करने का रास्ता मिल जाता है ।
मोशर तो हड़ताल को तर्क तथा राजनीतिक दर्शन की कसौटी पर भी खरा मानते हैं, और कहते हैं, कि हड़ताल अधिकार से लोकसेवकों को वंचित करने का अर्थ है, उन्हें दासता के स्तर पर पहुंचा देना । sइसके विपरित अधिकांश विद्वानों का मत है, कि लोकसेवक निश्चित आचार संहिता से बंधे होते हैं, और उसमें यह शर्त भी शामिल होती हैं, कि वे सरकार के विरूद्ध कार्य नहीं करेंगे ।
वे जनसेवा की शपथ लेकर सरकार में आते हैं, तब उन्हें हड़ताल द्वारा जनता को कष्ट पहुंचाने का अधिकार किसी भी दृष्टि से उचित नहीं हो सकता । बी. शिवराव, रूजवेल्ट जैसे विद्वान मानते हैं कि हड़ताल का अधिकार वस्तुत: जनता को कष्ट पहुंचाने का हथियार बन सकता हैं, अत: इसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए ।
निष्कर्षत:
दोनों विचार अतिवादी हैं । एक प्रजातान्त्रिक अधिकारों के दुरूपयोग का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, तो दूसरा कार्मिकों के दासत्मक शोषण का मार्ग । अतएव कार्मिकों का हड़ताल पर जाने का अधिकार तो होना चाहिए, लेकिन असीमित रूप में नहीं । जब रजनीतिक दल सरकार की कतिपय नीतियों के विरूद्ध बन्द जैसे आयोजन करते हैं, तो उससे भी जनता को कष्ट पहुंचता हैं ।
कार्मिकों की हड़ताल करने के सीमित अधिकार दिये जाए- जिनमें यह स्पष्ट किया जाय कि वह इसे अंतिम हथियार के रूप में प्रयुक्त कर सकते है, जबकि वार्ता के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं । अत्यावश्यक सेवा कार्मिकों को हड़ताल के स्थान पर अन्य कारगर माध्यम सुलभ करवाया जाना चाहिए, ताकि उनको भी समस्या समाधान का कोई मार्ग सुलभ रहे ।
वस्तुत: अच्छे नियोक्ता कार्मिक संबंधों में हड़ताल एक कांटा ही होती हैं, अतएव दोनों पक्षो को इसे टालने के भरसक प्रयत्न करना चाहिए । राजनीतिक दल अपने घोषणा-पत्र में स्पष्ट कार्मिक नीति अपनाएं, जिससे जनमत की दृष्टि भी इस पर प्रतिक्रया प्राप्त हो सके और तदानुरूप नीतियां बनायी जा सके ।
3. लोक सेवकों के राजनीतिक अधिकार (Political Rights of Public Servants):
भारत:
भारत में लोक सेवकों को चुनाव में मतदान करने का एकमात्र राजनीतिक अधिकार प्राप्त है ।
1. व सक्रीय राजनीति में भाग नहीं ले सकते ।
2. चुनाव नहीं लड़ सकते । यद्वीप सरकार की अनुमति से स्थानीय निकायों के चुनाव लड़ सकते हैं ।
3. चुनाव प्रचार नहीं कर सकते ।
4. राजनीतिक दल की सदस्यता नहीं ले सकते ।
ब्रिटेन:
ब्रिटेन में लोक सेवकों के राजनीतिक अधिकारों को लेकर विचित्र प्रावधान है । वहां उच्च नौकरशाहों के राजनीतिक अधिकारों और राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने पर पूर्ण प्रतिबंध है, लेकिन मध्य और निम्न श्रेणी के लोक सेवक तो सभी राजनीतिक कार्यों में भाग ले सकते है ।
”लोकसेवकों की राजनीतिक गतिविधियों” पर बनी मास्टरमेन समिति (1949) ने लोक सेवकों की राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी । यहां मतदान करने का राजनीतिक अधिकार सभी को प्राप्त है ।
अमेरिका:
अमेरिका में संघीय लोक सेवकों को चुनाव में मतदान करने और विचार व्यक्त करने, ये दो प्रकार के राजनीतिक अधिकार प्राप्त है । वस्तुत: 1939 के प्रथम हैच अधिनियम (राजनीतिक गतिविधि कानून) ने संघीय कार्मिकों को सक्रीय राजनीति से पृथक् किया था । द्वितीय हैच अधिनियम (1940) ने यह प्रतिबंध राज्य और स्थानीय कार्मिकों पर भी लगाया था, जिसे 1974 में निरस्त कर दिया गया ।
फ्रांस:
अमेरिका और भारत के विपरित फ्रांस के लोक सेवकों को राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने, चुनाव लड़ने आदि का अधिकार प्राप्त है ।
4. विवाद निपटारा तंत्र की व्यवस्था या वार्ता संस्थाएं (Grievance Redressal Mechanism):
कार्मिक और सरकार के मध्य के विवादों के निपटारे की व्यवस्था का प्रचलन आज लगभग हर देश में मौजूद है । इसका प्रावधान दोनों के मध्य सौहार्दपूर्ण संबंध तो सुनिश्चित करता है, विवादों के मध्य उत्पन्न विवादों की मध्यस्था से संबंधित नहीं होते का निपटारा शांतिपूर्ण ढंग से करने में मदद कर कार्मिक अपितु कार्मिक संघ और सरकार के मध्य उत्पन्न विवादों की अशांति उसके परिणामों हड़ताल, तोड़फोड़ को भी टालने सुनवाई और निर्णय करते हैं ।
विभिन्न देशों में इन तंत्रों की में भी मदद करता है । यहां उल्लेख करना समीचिन है, कि यह तंत्र किसी कार्मिक के व्यक्तिगत मामलों और सरकार के मध्य उत्पन्न विवादों की सुनवाई और निर्णय करते हैं । परिसरें इस दिशा में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं ।