Read this article in Hindi to learn about:- 1. शास्त्रीय विचारधारा का अर्थ (Meaning of Classical Theory) 2. शास्त्रीय विचारधारा का उद्देश्य (Objectives of Classical Theory) 3. लक्षण (Characteristics).
शास्त्रीय विचारधारा का अर्थ (Meaning of Classical Theory):
संगठन को परम्परागत दृष्टिकोण अर्थात् ”ढांचा” मात्र के रूप में विश्लेषित करने वाली शास्त्रीय विचारधारा सांगठनिक विश्लेषण की पहली संकल्पना थी । मानवीय और पर्यावरणीय तत्व की उपेक्षा के कारण आलोचित होने के बावजूद यह एक सीमा तक स्वीकारी गयी ।
चरम आदर्शों की अव्यवहारिक कल्पना ओर मानवीय उपेक्षा के कारण यह संगठन का विकल्प नहीं पायी लेकिन सांगठिक विश्लेषण की दिशा के द्वार खोलकर इसने लोक प्रशासन को स्वायत्त स्वरूप प्राप्त कराने के उल्लेखनीय योगदान दिया । चूंकि यह प्राचीन है, लम्बे समय से बनी हुई है तथा अन्य विचारधाराओं की पूर्वज भी है, अत: इसे शास्त्रीय विचारधारा (Classical Theory) कहते है। फेयोल, गुलिक व उर्विक इसके प्रारंभिक प्रमुख प्रवक्ता थे । मुने, रैले, शेल्टन विलोबी, व्हाइट, एन्डरसन आदि अन्य समर्थक रहे है । फेयोल प्रशासनिक सिद्धान्तों का प्रमुख प्रतिपादक हुआ ।
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(I) संगठन की शास्त्रीय विचारधारा का संबंध मुख्य रूप से दो पहलुओं से है:
1. संगठन की संरचना और
2. प्रबंधकीय कार्य प्रणाली ।
(II) यह विचारधारा उक्त दोनों पहलुओं का वैज्ञानिकीकरण करती है और इसलिए दोनों से संबंधित अनेक सिद्धांतों की खोज और उनका प्रतिपादन शास्त्रीय विचारधारा की केंद्रीय विषय वस्तु है । अत: इसे प्रशासनिक सिद्धान्त विचारधारा (Administrative Theory) भी कहते है ।
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(II) संगठन की संरचना अर्थात् औपचारिक ढांचे के निर्माण के लिये इसने श्रम विभाजन, पदसोपान, आदेश की एकता, नियंत्रण-विस्तार केंद्रीयकरण-विकेन्द्रीयकरण जैसे विभिन्न सिद्धांतों का प्रतिपादन किया ।
(III) इसी प्रकार प्रबंधकीय या प्रशासनिक कार्य के लिये नियोजन, संगठन, समन्वय, बजटिंग, एकाउंटिंग आदि विभिन्न तत्वों का विकास किया ।
मान्यताऐं:
1. संगठन एक ऐसा ढांचा है जो निश्चित सिद्धांतों पर आधारित है ।
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2. इस ढांचे की रूपरेखा पहले बनायी जाती है । इसमें कार्मिकों की भर्ती आवश्यकतानुसार बाद में की जाती है ।
3. संगठन में पदों के मध्य कार्यगत संबंध होते है न कि उन पर नियुक्त कार्मिकों के मध्य के व्यक्तिगत संबंध ।
4. कार्मिक तथा उनके परस्पर संबंध और व्यवहार का संगठन के औपचारिक स्वरुप से कोई लेना-देना नहीं होता अर्थात् वे संगठन को प्रभावित नहीं करते हैं ।
शास्त्रीय विचारधारा का उद्देश्य (Objectives of Classical Theory):
(i) इस विचारधारा का प्रमुख उद्देश्य संगठन के निश्चित सिद्धांतों की खोज थी । ऐसे सिद्धांत जो सभी प्रकार के संगठनों में समान रूप से लागू हो सके ।
(ii) इसका उद्देश्य प्रशासन को मात्र प्रशासन सिद्ध करना है चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो ।
(iii) वस्तुत: शास्त्रीय चिंतकों की चिंता वैज्ञानिक प्रबंध की भांति सांगठनिक कुशलता के अधिकतमीकरण की थी । उन्हें दृढ़ विश्वास था कि सिद्धांतों पर आधारित सांगठनिक-संरचना के द्वारा ही कार्यकुशलता और मितव्ययिता को वहां तक बढ़ाया जा सकता है, जहां तक संभव है ।
शास्त्रीय विचारधारा के लक्षण (Characteristics of Classical Theory):
शास्त्रीय विचारधारा जिन सिद्धांतों और आदर्शों पर बल देती है और इनकी प्राप्ति के जो उद्देश्य और उपाय बताती है ।
उनसे इसके निम्नलिखित लक्षण प्रकट होते है:
i. आदर्शात्मक:
शास्त्रीय विचारधारा संगठन का मानकीकरण करती है । वह बताती है कि संगठन का स्वरूप कैसा होना चाहिये ? उसमें कार्य विभाजन और कार्य वर्गीकरण के क्या आधार होने चाहिये । उसकी आदर्शात्मकता और आदेशात्मकता संगठन को वास्तविकता के बजाय काल्पनिकता की तरफ धकेलती है। ”क्या है” के बजाय वह ”क्या होना चाहिए” को महत्व देती है ।
ii. अमानवीय:
मानकीकरण (तथ्य) करने के लिये मानवीयकरण (मूल्य) की उपेक्षा जरूरी हो जाती है और इसलिए शास्त्रीय विचारधारा मानवीय संबंधों और व्यवहारों के प्रभाव को अस्वीकार करती है ।
iii. यांत्रिकता:
मानवीय तत्व को बाहर रखने से संगठन का स्वरूप ”यांत्रिक” रह जाता है । अत: शास्त्रीय चिंतक कार्मिक के बजाय काम की चिंता करते है । वे लक्ष्य की सफलता औपचारिक संबंधों में देखते है जबकि अनौपचारिक संबंधों के प्रभाव और योगदान की अनदेखी करते है ।
iv. असीमित तार्किकता:
यह विचारधारा संगठन को एक तार्किक प्रणाली मानती है और उसकी प्रत्येक गतिविधि का तार्किक परीक्षण करने पर बल देती है । इसके अनुसार तार्किकता के आधार पर सिंद्धांतों को न सिर्फ खोजा जा सकता है अपितु उनमें निरंतर सुधर-संशोधन भी हो सकता है क्योंकि मनुष्य की तार्किकता की कोई सीमा नहीं होती । कार्य कुशलता और मितव्ययिता को अधिकतम संभव स्तर तक बढ़ाया जा सकता है, ऐसा इस विचारधारा का मानना है ।
v. आर्थिकता:
संगठन को एक आर्थिक प्रणाली माना जाता है और उसमें काम करने वाले कार्मिक को आर्थिक प्राणी जो मात्र आर्थिक प्रेरणा से संचालित होता है न कि सामाजिक प्रेरणा से ।
vi. स्वैच्छिकता:
यह सिद्धांत संगठन को स्वैच्छिक प्रणाली मानता है । इसके अनुसार समूह सदस्य को नियंत्रित नहीं करता क्योंकि सदस्य में सामाजिक नियंत्रण के प्रति प्रतिरोध की भावना होती है । व्यक्तिक स्वयं की इच्छा से चालित होता है न कि समूह की इच्छा से ।
vii. परमाण्विकता:
अत: व्यक्ति अपने सहयोगी कार्मिकों से पृथक् अस्तित्व रखता है । प्रत्येक कार्मिक का अपना तयशुदा औपचारिक व्यवहार होता है जो अन्य कार्मिकों से बिना प्रभावित हुए योजनानुसार प्रकट होता है ।
viii. निव्यैक्तिकता:
संगठन में कार्मिकों के मध्य मात्र कार्यात्मक संबंध पाये जाते है, सामाजिक संबंध नहीं । अंत: संगठन एक औपचारिक प्रणाली है, अनौपचारिक नहीं । अत: वह निव्यैंक्ति प्रणाली है, व्यैक्तिक नहीं ।
ix. बंद व्यवस्था:
यह प्रणाली संगठन को पर्यावरण विमुख एक बंद ढांचा मानती है अर्थात यह संगठन-पर्यावरण अंतर्सम्बंधों को नकारती है ।