Read this article in Hindi to learn about the ideas of Mary Parker Follett on public administration.

एम. पी. फॉलेट (1868-1933) को संगठन के क्लासिकीय उपागम और व्यवहारीय मानव संबंध उपागम के बीच का पुल माना जाता है । दूसरे समकालीन विचारकों से अलग उन्होंने संगठन को एक सामाजिक व्यवस्था और प्रशासन को एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में देखा ।

उन्होंने संगठन के मानवीय आयाम की शुरुआत की और सांगठनिक व्यवहार पर स्थितिगत कारकों के प्रभाव पर जोर दिया । इसलिए फॉलेट को सांगठनिक विश्लेषण के व्यवहार मानव संबंध उपागम का पूर्ववर्ती (पूर्वगामी) माना जाता हैं ।

डेनियल ए रेन कहते है कि- ”कालानुक्रमानुसार वह वैज्ञानिक प्रबंधन के युग से थी और दार्शनिक तौर पर वह सामाजिक मनुष्य युग की थी ।” एक क्लासिकीय चिंतक के रूप में वह संगठन के अपने सिद्धांतों की सार्वभौमिकता में यकीन करती थी और एक व्यवहारवादी मानव संबंधवादी के रूप में उन्होंने सांगठनिक व्यवहार के सामाजिक मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर जोर दिया ।

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अरविक व मेटकाफ कहते हैं- ”उनकी अवधारणाएँ उनके वक्त से आगे थीं । वे मौजूदा चिंतन से भी आगे हैं । ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए सुझावों की खान हैं जो किसी उद्यम के व्यवहार में मानव सहकार स्थापित करने और कायम रखने की समस्याओं में रुचि रखता हो ।”  फॉलेट ने प्रशासन की क्लासिकीय सिद्धांत की आलोचना मुख्यत: इसके यांत्रिक उपागम और सांगठनिक व्यवहार के सामाजिक मनोवैज्ञानिक आयामों की उपेक्षा के लिए की ।

उनके मुख्य कार्य हैं:

(i) दि स्पीकर ऑफ दि हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स (1896),

(ii) दि न्यू स्टेट (1920),

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(iii) क्रिएटिव एक्सपीरियंस (1924),

(iv) डाइनैमिक एडमिनिस्ट्रेशन (1941) ।

यह अरविक व मेटकाफ द्वारा संपादित फॉलेट के शोधपत्रों का संकलन है । इसका दूसरा संस्करण 1973 में अरविक व फॉक्स ने संपादित किया ।

फॉलेट द्वारा निकाली गई विभिन्न अवधारणाओं व सिद्धांतों का निम्न शीर्षकों के तहत अध्ययन किया जा सकता है:

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विरोध व एकीकरण (Conflict and Integration):

फॉलेट के लिए वैयक्तिक मतभेदों के कारण संगठन में विरोध अवश्यंभावी है । विरोध युद्ध नहीं है बल्कि संगठन में लोगों की विभिन्न श्रेणियों के बीच मतों और हितों में अंतर का प्रकट होना है । इसलिए विरोध को बेकार और नुकसानदायक नहीं बल्कि एक सामान्य प्रक्रिया समझा जाना चाहिए और उसे रचनात्मक ढंग से हल किया जाना चाहिए ।

अत: फॉलेट ने ‘रचनात्मक विरोध’ की अवधारणा का प्रतिपादन किया । यह सांगठनिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए विरोधों के समाधान के प्रति एक सकारात्मक कदम है ।

फॉलेट ने संगठन में विरोध के समाधान के तीन रास्ते बताए:

(i) प्रभुत्व- एक पक्ष की दूसरे पक्ष पर जीत ।

(ii) समझौता- दोनों पक्ष अपनी मांगों का कुछ हिस्सा छोड़ते हैं ।

(iii) एकीकरण- नए समाधान की खोज, जो दोनों पक्षों की ‘असली जरूरतें’ पूरी करें और किसी पक्ष को कोई कुर्बानी न देनी पड़े ।

फॉलेट तीनों में एकीकरण को सबसे बेहतर रास्ता मानती थीं क्योंकि इसके निम्न लाभ थे:

(i) यह हमेशा के लिए मूल विरोध मिटा देता है क्योंकि यह समस्या की जड़ तक जाता है ।

(ii) यह बेहतर तकनीक का प्रयोग करता है और समय और संसाधन बचाता है ।

(iii) यह नए मूल्यों के उदय की ओर ले जाता और एक नई परिस्थिति पैदा करता है । फॉलेट ने एकीकरण को प्राप्त करने के लिए विभिन्न कदम उठाने का सुझाव दिया ।

क्रम से वे हैं:

(i) हर पक्ष जाने कि उसकी वास्तविक जरूरतें क्या हैं और मतभेदों को खुला करें,

(ii) पूर्ण माँगों को उनके संघटक तत्वों में तोड़ना,

(iii) प्रतीकों के वास्तविक अर्थों की जाँच और

(iv) दूसरे पक्ष का जवाब देने की तैयारी ।

हालांकि ‘एकीकरण’ विरोधों की समाप्ति का सबसे संतोषजनक रास्ता है किंतु यह सरलतम नहीं है ।

फॉलेट के अनुसार इसमें कई बाधाएँ हैं:

(i) यह समझदारी के ऊँचे स्तर, गहरे बोध, भेद और शानदार रचनात्मकता की माँग करता है जो प्रशासकों के बीच बिरले ही मिलती है,

(ii) ज्यादातर लोगों को दूसरों पर प्रभुत्व बनाए रखने में आनंद आता है,

(iii) सक्रिय कदम बताने की बजाय लोग उन्हें विचारबद्ध करते हैं,

(iv) सत्ता के साथ प्रबंधकों का अति-लगाव होता है और वे सत्ता प्राप्त करने की कोशिश करते हैं,

(v) इस्तेमाल होने वाली भाषा जो शत्रुता को बढ़ावा देती है और

(vi) एकीकरण करने के लिए लोग प्रशिक्षित नहीं होते जो एकीकरण में सबसे बड़ी बाधा है ।

आदेश देना (The Giving of Orders):

टेलर, फेयॉल, गुलिक, अरविक व अन्य क्लासिकीय चिंतकों की तरह फॉलेट ने भी संगठन में आदेश देने की आवश्यकता को समझा ।

दरअसल, उन्होंने आदेश देने के चार कदम भी सुझाए:

(i) एक सोचा-समझा दृष्टिकोण-उन विभिन्न सिद्धांतों को जानने के लिए, जो आदेश देने पर जोर देते हैं ।

(ii) एक जिम्मेदार दृष्टिकोण-उन सिद्धांतों की पहचान करने के लिए जो आदेश देने का आधार होने चाहिए ।

(iii) एक प्रयोगात्मक दृष्टिकोण-आदेश की सफलता या असफलता के विश्लेषण के लिए प्रयोग करने के लिए ।

(iv) एक परिणाम दृष्टिकोण-यदि मौजूदा पद्धतियाँ अपर्याप्त पाई जाएँ तो आदेश देने की सीमा और तरीके को बदलने के लिए परिणामों को इकट्ठा करना ।

फॉलेट के लिए, आदेश देना कोई सीधा-सादा मामला नहीं है क्योंकि लोगों को किसी का बॉस पसंद नहीं होता । अत: श्रेष्ठतर का काम महज आदेश देना नहीं होता, उसे अधीनस्थों का कुशल उपयोग करने आना चाहिए ताकि वे बिना प्रश्न उठाए आदेश स्वीकार करें ।

आदेश देने और लेने को नियंत्रित करने वाले मुख्य परिवर्ती कारक है- आदत के प्रतिरूप, मानसिक रुझान, समय, स्थान और परिस्थितियाँ । फॉलेट के अनुसार आपको दोनों छोरों से बचना चाहिए, अर्थात् आदेश देने में अत्यधिक मुखियागीरी या आदेश ही न देना ।

फॉलेट के अनुसार इस समस्या का जवाब आदेश देने का निर्व्यक्तिकरण (Depersonalization) करने में निहित है । उनके शब्दों में- ”मेरा समाधान आदेश देने की वैयक्तिकता खत्म करना, सभी संबधित लोगों को परिस्थिति के अध्ययन में एकजुट करना, स्थिति के नियम की तलाश करना और उसका पालन करना है ।”

इस तरह कोई किसी को आदेश नहीं देता । दोनों ही स्थिति के आदेशों को स्वीकारते हैं । इसलिए आदेश कार्यवाहियों से आने चाहिएँ न कि कार्यवाहियाँ आदेशों से आनी चाहिएँ । यह ‘आदेशों का निर्व्यक्तिकरण’ या स्थिति के प्राधिकार को लागू करना है ।

हालांकि फॉलेट का आदेशों का निर्व्यक्तिकरण क्लासिकीय विचारकों के यांत्रिक उपागम से अलग नहीं है, किंतु प्रशासन के मानवीय आयाम पर जोर देने के कारण वह उनसे अलग हो जाती हैं । इस विरोधाभास के निवारण के लिए फॉलेट ने ‘पुन:व्यक्तिकरण’ (Repersonalization) की बात की ।

शक्ति की नयी अवधारणा (New Concept of Power):

फॉलेट के अनुसार शक्ति- “चीजों में कटौती करने, एक कारणात्मक अभिकर्ता बनने और बदलाव की शुरुआत करने की क्षमता है ।” उन्होंने ‘शक्ति पर’ और ‘शक्ति के साथ’ में भेद किया । ‘शक्ति पर’ ‘शक्ति के साथ’ से कम लाभदायी है ।

इसका अर्थ है अपने आप पर जोर देना और दूसरे से अपनी इच्छा का पालन करवाना । यह असंतोष और प्रतिक्रिया की ओर ले जाती है । लेकिन इससे छुटकारा नहीं पाया जा सकता इसलिए इसे घटाया जाना चाहिए ।

फॉलेट के अनुसार इसे घटाने के रास्ते हैं:

(i) एकीकरण का उपयोग (ऐसा समाधान जो दोनों पक्षों की असली जरूरतों को पूरा करें),

(ii) चक्रीय व्यवहार का सही उपयोग,

(iii) स्थिति के नियम का उपयोग ।

फॉलेट ने कहा कि एक उच्चतर पदधारी अपने अधीनस्थों के साथ शक्ति साझा नहीं करता, लेकिन वह उन्हें अपनी शक्तियाँ विकसित करने के अवसर दे सकता है । वह उन्हें अपनी गतिविधियों को एकीकृत करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है ताकि ‘सम्मिलित विकसित शक्ति’ प्राप्त की जा सके । इस तरह, सशक्त शक्ति से ज्यादा ‘शक्ति की ओर’ ले जाता है ।

अधिव्याप्त शक्ति से ज्यादा लाभदायी है । यह एक आत्मविकास की गतिविधि है । यह सहकारी प्रयास को प्रोत्साहित करती है, श्रेष्ठ समझदारी को बढ़ावा देती है और विरोध घटाती है । ‘व्याप्त शक्ति’ एक स्वतंत्र शक्ति है जो केवल उसे प्रयुक्त करने वाले व्यक्ति या समूह द्वारा अपने फायदे के लिए इस्तेमाल होती है ।

शक्ति के साथ या संलग्न या सम्बद्ध शक्ति तब पैदा होती है जब दो व्यक्ति या समूह दोनों के लिए संतोषजनक बंदोबस्त तक पहुँचने के लिए अपनी शक्तियाँ इकट्ठा करते हैं । संक्षेप में, ‘व्याप्त शक्ति’ एक पीड़क शक्ति है जबकि ‘सम्बद्ध शक्ति’ एक सम्मिलित रूप से विकसित सह-सक्रिय शक्ति है । फॉलेट ने दलील दी कि ‘सम्बद्ध शक्ति’ को ‘शक्ति पर’ की जगह लेनी ही होगी ।

प्राधिकार और ज़िम्मेदारी (Authority and Responsibility):

शक्ति के मामले की तरह यहाँ भी फॉलेट क्लासिकीय प्रशासनिक चिंतन से आगे जाती हैं और प्राधिकार और जिम्मेदारी की अवधारणा विकसित करती हैं । फॉलेट ने शक्ति और प्राधिकार के बीच भेद किया । उन्होंने प्राधिकार को निहित शक्ति, शक्ति को विकसित करने और लागू करने के अधिकार के रूप में परिभाषित किया । प्राधिकार काम या पूरी की गई जिम्मेदारी से निकलता है न कि पद से । दूसरे शब्दों में- ”प्राधिकार का संबंध कार्य के साथ होता है और यह कार्य के साथ ही रहता है ।”

अत: जो काम करता है उसके पास प्राधिकार होना चाहिए, चाहे यह श्रेष्ठकर को पसंद हो या न हो । चूँकि प्राधिकार कार्य (जिम्मेदारी) से जुड़ा होता है, इसलिए इसे सौंपा नहीं जा सकता । ‘प्राधिकार का प्रत्यायोजन’ एक ‘अर्थहीन अभिव्यक्ति’ है ।

उन्होंने जोर देकर कहा- ”प्राधिकार को कार्यात्मक होना चाहिए और कार्यात्मक प्राधिकार के साथ जिम्मेदारी होती है ।” इस प्रकार उन्होंने ‘कार्यात्मक प्राधिकार’ या ‘बहुलतापूर्ण प्राधिकार’ या ‘संचित प्राधिकार’ की वकालत की और ‘अंतिम प्राधिकार’ के विचार को एक भ्रम के रूप में खारिज किया ।

संगठन में वास्तविक प्राधिकार सभी छोटे प्राधिकारों का योग है क्योंकि प्राधिकार संगठन के विभिन्न स्तरों पर आपस में मिला हुआ होता है । प्राधिकार की तरह जिम्मेदारी भी संगठन में कार्य और स्थिति का गुण है । फॉलेट ने कहा कि सवाल यह है कि कोई ”किस काम के लिए जिम्मेदार है” न कि ”किसके लिए जिम्मेदार है ।”

इस प्रकार उन्होंने ‘कार्यात्मक जिम्मेदारी’ या ‘बहुलतावादी जिम्मेदारी’ या ‘संचित जिम्मेदारी’ की सोच को एक भ्रम के रूप में खारिज किया । बहुलतावादी जिम्मेदारी के दो अर्थ हैं- पहला, नीति निर्धारण में निचले स्तर के कार्यकारियों की भागीदारी; और दूसरा, प्रबंधन में कर्मचारियों की भागीदारी ।

‘नियंत्रण’ पर फॉलेट की राय टेलर फेयॉल, गुलिक, अरविक व अन्य क्लासिकीय विचारकों से भिन्न है । उन्होंने ‘थोपे-हुए-नियंत्रण’ की जगह ‘सहसंबद्ध-नियंत्रण’ और तथ्य नियंत्रण की जगह ‘मनुष्य नियंत्रण’ का समर्थन किया । अत: संगठन में नियंत्रण संचित और बहुलतापूर्ण होता है और शीर्ष स्तर पर केंद्रित नहीं होता ।

नेतृत्व (Leadership):

फॉलेट के अनुसार, कोई नेता विभाग का प्रमुख या संगठन का अध्यक्ष नहीं होता बल्कि वह होता है जो स्थिति को पूर्णता में देखे, इसे उद्देश्यों और नीतियों से जोड़कर देखे, इसे एक नई स्थिति में विकसित होता हुआ देखे और जो यह समझे कि एक स्थिति से दूसरी स्थिति में कैसे जाना है ।

वह ”ऐसा व्यक्ति है जो दिखला सकता है कि व्यवस्था स्थिति से एकबद्ध है ।” फॉलेट ने कहा कि ऐसे व्यक्ति सिर्फ शीर्ष पर ही नहीं बल्कि पूरे संगठन में पाए जाते हैं । फॉलेट ने कहा कि नेता सिर्फ अपने समूह को प्रभावित ही नहीं करता बल्कि उससे प्रभावित भी होता है ।

उन्होंने परस्पर संबंध को ‘आवृतिपूर्ण प्रतिक्रिया’ कहा । नेता को संगठन के विशेषज्ञों से भी प्रभावित होना चाहिए । अंत में नेता का कार्य सामूहिक शक्ति (शक्ति के साथ) की रचना है बजाय व्यक्तिगत शक्ति (शक्ति पर) को लागू करने के ।

फॉलेट ने निम्न तीन प्रकार के नेतृत्वों में भेद किया:

(i) पद का नेतृत्व नेता के पास औपचारिक प्राधिकार का पद है ।

(ii) व्यक्तित्व का नेतृत्व- नेता के पास शक्तिशाली व्यक्तिगत गुण है ।

(iii) कार्य का नेतृत्व- नेता के पास पद और व्यक्तित्व दोनों हैं ।

फॉलेट ने कहा कि केवल वे व्यक्ति जिनके पास कार्यात्मक ज्ञान है, आधुनिक संगठन में नेतृत्व करते हैं न कि ऐसे व्यक्ति जिनके पास औपचारिक पद या शक्तिशाली व्यक्तित्व है । उनका उपागम था कि संगठन की सफलता के लिए- ”यह कार्य के नेतृत्व को काम करने की पूरी इजाजत देने लायक लचीला होना चाहिए तथा ज्ञान और तकनीक के स्वामी व्यक्तियों को स्थिति पर नियंत्रण करने की इजाजत देनी चाहिए ।”

फॉलेट के अनुसार, नेतृत्व के कार्य हैं:

(i) तालमेल- विभिन्न अंगों को जोड़ना और उन्हें प्रभावी एकता देना ।

(ii) उद्देश्य का निर्धारण- संगठन के प्रतिरूप व उद्देश्यों को स्पष्टत: निर्धारित करना ।

(iii) पूर्वानुमान- भविष्य की अंर्तदृष्टि और उस पर भरोसा होना । यह अगली स्थिति का सामना करने की बजाय उसका निर्माण करना है ।

(iv) समूह के अनुभवों को संगठित करना- इसे पूरी तरह और सबसे प्रभारी तरह से उपलब्ध कराना और इसे सामूहिक शक्ति में बदलना ।

(v) अधीनस्थों के बीच नेतृत्व का विकास करना, एक नेता को अपने अधीनस्थों को स्थिति पर स्वयं नियंत्रण करने में शिक्षित होना और शिक्षित करना चाहिए । फॉलेट मानती थीं कि नेता केवल पैदा नहीं होते बल्कि बनाए भी जा सकते हैं । उन्होंने नेता की तथाकथित ‘अमूर्त क्षमता’ को खारिज किया और जोर देकर कहा कि नेतृत्व सीखा जा सकता है ।

नियोजन और तालमेल (Planning and Co-Ordination):

फॉलेट ने नियोजन और तालमेल के बीच करीबी संबंध स्थापित किया । दरअसल उनके कामों में नियोजन के एक सिद्धांत के रूप में तालमेल की काफी चर्चा मिलती है । उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय स्तर से स्थानीय स्तर पर केंद्रीय योजना को थोपने का नतीजा गलत तालमेल और अंगों की असामंजस्यपूर्ण व्यवस्था के रूप में सामने आता है । अत: केंद्रीय नियोजन तालमेल की प्रक्रिया में मदद करने वाला तंत्र होना चाहिए ।

उन्होंने तालमेल के चार बुनियादी सिद्धांतों का प्रतिपादन किया:

(i) प्रत्यक्ष संपर्क द्वारा तालमेल:

जिम्मेदार व्यक्तियों को सांगठनिक पदानुक्रम में अपनी स्थिति से असंबद्ध, हमेशा प्रत्यक्ष संपर्क में रहना चाहिए । तालमेल हासिल करने के लिए क्षैतिज संचार निर्देशों की ऊर्ध्वाधर श्रृंखला जितना ही महत्वपूर्ण है ।

(ii) शुरुआती चरणों में तालमेल:

संबंधित व्यक्तियों को लागू करने के बाद के चरण के बजाय नीति निर्माण में ही जुड़ा होना चाहिए । यह शुरुआती भागीदारी ज्यादा प्रेरणा और उच्च उत्साह में परिवर्तित होती है । केंद्रीय नियोजन में इस महत्वपूर्ण सिद्धांत की उपेक्षा की जाती है ।

(iii) एक निरंतर प्रक्रिया के रूप में तालमेल:

फॉलेट ने तालमेल को एक निरंतर प्रक्रिया के रूप में देखा । यानी, नियोजन से गतिविधि तक और फिर गतिविधि से आगे के नियोजन तक । तार्किक तरीके से समस्याओं के समाधान के लिए एक स्थायी तालमेल यंत्र होना चाहिए ।

(iv) एक परस्पर परिघटना के रूप में तालमेल:

किसी स्थिति के सभी कारकों से जुड़कर एक परिघटना के रूप में तालमेल इसकी प्रक्रिया की ओर संकेत करता है । सभी कारक एक दूसरे से जुड़े होने चाहिए और उनके बीच के संबंधों पर विचार होना चाहिए ।

इस प्रकार फॉलेट ने संगठन को परस्पर जुड़े अंगों की व्यवस्था के रूप में देखा । फॉलेट ने सुझाव दिया कि इन चार सिद्धांतों की निरंतर शोध द्वारा प्राप्त सूचना से परख होनी चाहिए ।