एक संगठन में पर्यवेक्षक की भूमिका | Role of Supervisor in an Organization in Hindi!
यह दो शब्दों- परि (Super) + अवेक्षण (Vision) का योग है । इसका अर्थ है देखने की श्रेष्ठ शक्ति अर्थात् अधिदर्शन या दूसरों के कार्य का अधीक्षण करना । इसकी परिभाषा यह है- ”दूसरों के कार्यों का सत्ता के सहयोग से निर्देशन ।” फिर भी यह शब्द सभी लोगों के लिए समान अर्थ नहीं रखता ।
विलियमसन ने पर्यवेक्षण की परिभाषा इस प्रकार की है- ”यह एक प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत कर्मचारियों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार सीखने, अपने ज्ञान तथा कौशल का सर्वोत्तम प्रयोग करने तथा योग्यताओं का सुधार करने में किसी पदाधिकारी की सहायता प्राप्त होती है ताकि वे अपने कार्य को अधिक प्रभावशाली यंत्रों से कर सके और जिससे स्वयं उन्हें तथा अभिकरण को अधिकाधिक संतोष प्राप्त होता रहे ।” संक्षेप में, पर्यवेक्षण का अर्थ परिणामों का अवलोकन है ।
पर्यवेक्षण निरीक्षण तथा खोजबीन से कहीं अधिक होता है । निरीक्षण और खोजबीन तो पर्यवेक्षण की प्रक्रिया के केवल अंग मात्र हैं । वस्तुतः पर्यवेक्षण किसी प्रशासकीय कृत्य के रूप में अधीक्षण से कहीं अधिक है । इसका एक शिक्षाप्रद रूप भी है । पर्यवेक्षक से यह भी आशा की जाती है कि वह अपने अधीन कार्य करने वाले कर्मचारियों को कार्य करने का सर्वोत्तम तरीका सिखाये ।
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इसके अतिरिक्त, चूंकि कर्मचारी अपने पर्यवेक्षक से मंत्रणा या मार्गदर्शन की आशा रखते हैं, अतः उसका कार्य परामर्श देना भी है । इस प्रकार पर्यवेक्षक का कार्य नेता का कार्य भी होता है ।
संक्षेप में पर्यवेक्षण के अनेक तत्व हैं, जैसे, ”प्रत्येक कृत्य के लिए उपयुक्त व्यक्ति का चयन; प्रत्येक व्यक्ति में उसके कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न करना तथा उसे उस कार्य के करने के ढंग की शिक्षा देना; कार्य सम्पन्न किये जाने की गति तथा कार्यक्षमता को नापना ताकि यह निश्चय हो जाय कि शिक्षण रूप से प्रभावशाली सिद्ध हुआ है ।
जहाँ गलती को सुधारने की आवश्यकता हो वहाँ गलती सुधारना तथा जिन पर इसका प्रभाव न हो उन्हें किसी अन्य अधिक उपयुक्त कार्य में लगा देना, या उनको हटा देना, और अंत में, प्रत्येक व्यक्ति का कार्यरत समूह में ठीक प्रकार से नियत कर देना । ये सभी कार्य धैर्य तथा कौशल के साथ उचित गा से पूरे किये जाने चाहिए, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपना कार्य चतुरता एवं ठीक तरीके से, बुद्धिमानी तथा उत्साह के साथ पूर्णरूपेण कर सके ।
पर्यवेक्षक कौन है? (Who is the Supervisor?):
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सत्ता-प्राप्त सभी व्यक्ति, जो दूसरों के कार्य पर नियंत्रण रखते हैं, पर्यवेक्षक हैं, चाहे परम्परा में उनकी स्थिति ऊँची हो या नीची । फोरमैन (Foreman), हवलदार, मुख्य लिपिक, प्रधानाध्यापक, जिलाध्यक्ष (Collector) आदि सभी पर्यवेक्षक हैं । कभी-कभी यह समझा जाता है कि कोई भी पर्यवेक्षक केवल पर्यवेक्षण करता है और स्वयं सूत्र (क्रियान्वयन) संबंधी कोई कार्य नहीं करता । ऐसा सदैव नहीं होता ।
सामान्यतः पर्यवेक्षक ‘उत्तरदायित्व’ तथा ‘कार्य’ दोनों ही सम्पन्न करते हैं- यद्यपि उनका मुख्य कार्य उत्तरदायित्व के ही ढंग का होता है । पर्यवेक्षक दो प्रकार के होते हैं- सूत्र पर्यवेक्षक तथा कार्यात्मक पर्ववेक्षक । सूत्र पर्यवेक्षक का संबंध उस नियंत्रण से है जो आदेश की पंक्ति के व्यक्तियों के हाथों में होता है ।
उदाहरण के लिए, भारत में राज्यों के पुलिस विभाग में महानिरीक्षक (Inspector General) साथ जिला पुलिस अधीक्षक (District Superintendent of Police) का पर्यवेक्षण करता है । बदले में जिला पुलिस अधीक्षक, निरीक्षकों (Inspectors) का पर्यवेक्षण करता है ।
इस प्रकार यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक हम हवलदार तक नहीं पहुँच जाते हैं, जो पहली पंक्ति का पर्यवेक्षक है । इसके विपरीत कार्यात्मक पर्यवेक्षण किन्हीं विषयों के विशेषज्ञों, जैसे लेखा पर्यवेक्षकों, गणकों, संगठन तथा प्रबंध (O.&.M.) के विशेषज्ञों, सांख्यिकों इत्यादि के द्वारा किया जाता है ।
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जबकि नीति पर्यवेक्षण सीधा एवं प्रशासनात्मक ढंग से होता है । कार्यात्मक पर्यवेक्षण मंत्रालय से संबंधित कार्य है जिसके द्वारा समादेश तो नहीं दिया जाता है, प्रभाव अवश्य डाला जाता है ।
पर्यवेक्षण कैसे करें?
मिलेट ने पर्यवेक्षण की छ: रीतियाँ मानी है:
1. परियोजनाओं का पृथक-पृथक पूर्वानुमोदन;
2. सेवा-स्तर मानदंड की घोषणा;
3. कार्यों की व्यापकता पर बजट संबंधी सीमा;
4. आधारभूत अधीनस्थ कर्मचारी वर्ग का अनुमोदन;
5. कार्य की प्रगति संबंधी प्रतिवेदन प्रणाली; तथा
6. परिणामों का निरीक्षण ।
इन तरीकों में से प्रत्येक की हम अलग-अलग संक्षेप में समीक्षा करेंगे ।
1. पूर्वानुमोदन:
उच्चाधिकारी द्वारा अधीनस्थ इकाइयों पर नियंत्रण रखने का यह एक सामान्य तरीका है । सर्वोच्च सत्ताधारियों द्वारा सामान्यतः नीति तथा उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है, और अलग-अलग कार्यों संबंधी विस्तृत बातों को बाद में तय करने के लिए छोड़ दिया जाता है । भारत में विभागाध्यक्षों द्वारा पूर्वानुमोदन पर्याप्त नहीं है ।
वित्त मंत्रालय/विभाग के अनुमोदन की भी आवश्यकता होती है । इस व्यवस्था के अंतर्गत सूक्ष्म नियंत्रण ही सुनिश्चित नहीं है, अपितु परियोजनाओं में परिवर्तन करके सामान्य योजनाओं को बदलने हेतु वांछित एवं आवश्यक लचीलापन भी आवश्यक होता है । त्रुटियाँ ठीक करने तथा भ्रम निवारण के लिए भी इसमें गुंजाइश होती है । दूसरी ओर, यह प्रक्रिया विलंब उत्पन्न करती है और लालफीताशाही में वृद्धि करती है ।
2. सेवा-स्तर:
पर्यवेक्षण का दूसरा तरीका यह है कि शीर्षस्थ अधिकारी जिस लक्ष्य या स्तर को निर्धारित कर देता है, एक प्रवर्तन की इकाइयों को उसे प्राप्त करना होता है । इससे मार्ग दर्शन के साथ ही उनके कार्य की परिपक्वता भी हो जाती है । इस प्रकार सेवा-स्तर प्रशासकीय कार्य का मापदंड निर्धारित करता है ।
उदाहरण के लिए, किसी स्कूल के सेवा-स्तर में विद्यार्थियों में सामान्य अनुशासन, अध्यापकों में अच्छा नैतिक स्तर, खेल तथा अन्य कार्यकलापों में प्रवीणता तथा शिक्षा के घंटों की संख्या-इनमें से कोई एक, या कुछ, या सब आ जाते हैं । ऐसे मापदंडों को निश्चय करना एक कठिन प्रक्रिया है; और परिणामों तथा उत्कृष्टता और लक्ष्यों की प्राप्ति तथा कार्य-प्रणाली के बीच संतुलन स्थापित करना भी कठिन होता है ।
3. कार्य-बजट:
बजट के बारे में यह ठीक कहा जाता है कि यह अंकों के संकलन से कहीं अधिक है । यह कार्य की एक योजना और प्रशासन पर नियंत्रण का एक शक्तिशाली उपकरण है । इसी प्रकार एक स्कूल के लिए निर्धारित बजट यह निश्चय करता है कि अतिरिक्त अध्यापकों की भर्ती में, नये कमरे के निर्माण में, विद्यार्थियों के दोपहर के जलपान इत्यादि पर कितना धन व्यय किया जाना चाहिए । कार्य करने वाले अधिकारी इस प्रकार बजट द्वारा निर्धारित धनराशि के भीतर ही काम करते हैं, और अपनी इच्छानुसार धन व्यय करने की स्वतंत्रता उन्हें नहीं होती ।
4. कर्मचारी वर्ग का पूर्वानुमोदन:
सरकार का कोई भी अभिकरण अपने कर्मचारियों को भर्ती करने में पूर्णतः स्वतंत्र नहीं होता । उच्चतर कर्मचारी वर्ग सदैव मुख्य कार्यपालिका द्वारा नियुक्त किया जाता है । अधीनस्थ कर्मचारी वर्ग के विषय में भी शीर्षस्थ अधिकारी, कुछ एक महत्वहीन स्थानों को छोड़कर, अन्य सभी पदों के पूर्वानुमोदन पर बल देते हैं । वास्तव में, यह कार्य प्रायः संबंधित अभिकरण के केन्द्रीय सेवि-वर्ग विभाग को सौंप दिया जाता है ।
5. प्रतिवेदन:
प्रशासन का एक सामान्य तरीका यह है कि कार्यरत इकाइयाँ अपने क्रियाकलापों का लेखा केन्द्रीय कार्यालय को प्रस्तुत करती हैं । ऐसे प्रतिवेदन पाक्षिक, साप्ताहिक, अर्द्धमासिक, त्रैमासिक, छमाही या वार्षिक होते हैं । प्रतिवेदन विशिष्ट या तदर्थ (Ad Hoc) भी होते हैं, अर्थात् उनका संबंध किसी विशेष विषय से ही हो सकता है ।
इस शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थों में भी किया जा सकता है, और इसमें संचार के समस्त क्षेत्र को सम्मिलित किया जाता है किंतु यहाँ तो हमारा संबंध केवल आंतरिक प्रबंध की प्रतिवेदन प्रणाली से है । ”ये प्रतिवेदन वर्णनात्मक या कड़े संबंधी होते हैं । वे सभी प्रमुख क्रियाओं के विस्तृत क्षेत्र को अपनी परिधि में समेट सकते है या कमियों पर बल दे सकते हैं ।”
प्रतिवेदन की प्रणाली यदि अच्छी होगी तो उसके अनेक लाभ होते हैं । वरिष्ठ अधिकारियों को इससे यह सूचना प्राप्त होती है कि क्या हो रहा है । यह पर्यवेक्षकों को इस योग? बनाती है कि वे अपने अधीनस्थों के कार्यों का मूल्यांकन कर सके, उनके सामने आने वाली परिस्थिति को समझ सके; और सबसे बडी बात यह है कि संगठन के अंदर कार्य संचालन को नियंत्रित कर सकें ।
6. निरीक्षण:
जितनी शताब्दियों में सरकार का एक संगठित इकाई के रूप में प्रादुर्भाव हुआ है, उतने ही काल में किसी न किसी प्रकार से निरीक्षण लोक-प्रशासन का एक अभिन्न का रहा है ।
सामान्यतः निरीक्षण के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
1. यह देखना कि विद्यमान नियम-विनियम तथा प्रक्रियाओं का पालन किया जा रहा है ।
2. कार्य के संचालन की जाँच करना,
3. संगठन में काम करने वाले व्यक्तियों को अनुदेश देना और उनका मार्गदर्शन करना तथा
4. कार्यकुशलता में सुधार करना ।
यह स्मरणीय है कि निरीक्षण का तात्पर्य केवल छिद्रान्वेषण करना ही नहीं है । निरीक्षण प्रणाली कितनी प्रभावशाली है । यह उपर्युक्त चारों तत्वों के प्रकाश में ही देखना चाहिए । निरीक्षण के क्षेत्र तथा उनकी प्रकृति को ठीक-ठीक समझने के लिए एक ओर निरीक्षण और दूसरी ओर जांच-पड़ताल (Investigation) तथा पर्यवेक्षण (Supervision) के बीच अंतर बनाये रखना आवश्यक है ।
निरीक्षण का कार्य तथा खोजबीन का कार्य एक-दूसरे से बहुत भिन्न है । मिलेट के शब्दों में, ”….. निरीक्षण का प्रयोजन सूचना प्राप्त करना है । यह प्रबंध के प्रयोजनों तथा अभिप्रायों को स्पष्ट करने में सहायता देता है तथा प्रबंध में नीचे के कर्मचारियों के समक्ष आने वाली कार्य संचालन संबंधी समस्याओं से उच्चाधिकारियों को परिचित कराने में सहायक होता है । यह बौद्धिक परिचय तथा विश्वास को व्यक्तिगत संबंधों में बदलने में भी सहायक होता है । इसके विपरीत, खोजबीन का प्रयोजन प्रबंध-सत्ता के दुरुपयोग तथा किसी तथाकथित या सन्देहास्पद घटना की जाँच करना होता है । इसका संबंध प्रायः ऐसी व्यक्तिगत भूलों से है जो आपराधिक प्रवृति की होती हैं ।”
निरीक्षण अनेक प्रकार से किया जाता है । प्रथम तो किसी भी अभिकरण का प्रधान स्वयं अधीनस्थ कार्यालयों तथा कर्मचारियों के निरीक्षण के लिए उत्तरदायी होता है । दूसरे शब्दों में, प्रत्येक वरिष्ठ अधिकारी से यह आशा की जाती है कि वह अपने अधीनस्थों के कार्य का निरीक्षण करे । इसे निरीक्षण की अंत: रचित प्रणाली कहते हैं ।
दूसरे, प्रशासकीय अभिकरण के वरिष्ठ स्तरों का यह कर्तव्य है कि वे अपने अधीनस्थ कार्यालयों के कार्य का निरीक्षण करें । इस प्रकार, संभागीय आयुक्त का कार्य यह है कि वह अपने अधीन जिलाधीश के कार्यालयों का निरीक्षण करे और जिलाधीश तहसीलों-तालुका का निरीक्षण करे ।
निरीक्षण की एक तीसरी प्रणाली भी है । इसके अंतर्गत सरकारी तौर पर एक बाह्य, पृथक एवं स्वतंत्र अभिकरण की रचना की जाती है, और इसे केवल निरीक्षण का काम सौंपा जाता है । ऐसे अभिकरण का एक अच्छा उदाहरण उत्तर प्रदेश में कार्यालयों का निरीक्षणालय ।
पर्यवेक्षकों का चयन (Choice of Supervisor):
पर्यवेक्षण को अब एक पृथक तथा निश्चित कार्य के रूप में मान्यता दी जा चुकी है, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति एक अच्छा पर्यवेक्षक नहीं बन सकता । पर्यवेक्षण के लिए विशेष ज्ञान तथा उसके प्रयोग हेतु कौशल की आवश्यकता को स्वीकार किया जाता है । इसके अतिरिक्त, एक पर्यवेक्षक में कुछ आवश्यक गुण भी होने चाहिए ।
पिफनर ने इसके लिए आठ गुणों की एक सूची प्रस्तावित की है:
1. कार्य की विषय-वस्तु पर अधिकार अर्थात् किये जाने वाले कार्य का विशेष ज्ञान;
2. वैयक्तिक योग्यता, जैसे दृढ़ चरित्र;
3. शिक्षण की योग्यता अर्थात् कर्मचारियों को अपने विचार पहुँचाने तथा उन्हें प्रबंध का दृष्टिकोण समझाने की योग्यता;
4. सामान्य दृष्टिकोण अर्थात् पर्यवेक्षक को अपने कार्य से प्रेम होना चाहिए, उसे उसमें तन्मय रहना चाहिए और अधीनस्थ कर्मचारियों को प्रेरणा देनी चाहिए;
5. साहस और सहनशीलता अर्थात् निर्णय लेने तथा उत्तरदायित्व होने की योग्यता;
6. नैतिकता तथा आचार संबंधी बातों का ध्यान अर्थात् ऐसी बुराइयों से दूर रहना जिन्हें समाज निन्दनीय मानता है;
7. प्रशासकीय तकनीकी अर्थात् प्रबंधकीय योग्यता तथा जिज्ञासा, और बौद्धिक योग्यता अर्थात् बौद्धिक-सतर्कता और नवीन विचारों को ग्रहण करने की क्षमता ।
हाल्से (Halsey) के अनुसार पर्यवेक्षण में निम्नलिखित छह गुणों का उचित रीति से तथा संतुलित ढंग से विकास अपेक्षित है:
1. परिपूर्णता:
पर्यवेक्षक को चाहिए कि वह मामले से संबंधित सारी सूचनाएं एकत्र करें, और प्रत्येक आवश्यक विवरण को ध्यान में रखे ।
2. औचित्य:
इसका तात्पर्य कर्मचारियों के प्रति न्याय, सहानुभूति तथा सत्यता की भावना से है ।
3. पहल:
इसका तात्पर्य तीन गुणों-साहस, आत्मविश्वास तथा निर्णयात्मकता-मिश्रण से है ।
4. चातुर्य:
इसका तात्पर्य बातों और कार्यों द्वारा अन्य लोगों की निष्ठा तथा समर्थन प्राप्त करने से है, जिससे उन्हें ऐसा आभास हो कि जो भी कार्य सम्पन्न किया जा रहा है उसमें वे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं ।
5. उत्साह:
इसका तात्पर्य किसी कर्तव्य, उद्देश्य या आदर्श के प्रति भक्ति, उसमें तीव्र एवं उत्सुकता युक्त रुचि, ज्ञान तथा सफलता से होती है ।
6. भावनात्मक नियंत्रण:
इसका अर्थ भावनाओं को समाप्त नहीं करना बल्कि उन्हें नियंत्रण में करके ठीक तरह से समझना है । कदाचित् पर्यवेक्षण की सफलता बहुत कुछ उसके कर्मचारियों के साथ व्यक्तिगत संबंधों पर निर्भर करती है; अर्थात् उन्हें कर्मचारी ही नहीं बल्कि मनुष्य भी समझा जाना चाहिए ।
यह ठीक ही कहा गया है कि पर्यवेक्षकीय दायित्वों के लिए जिस प्रकार का नेतृत्व वांछनीय है वह सहयोग, परामर्श, साथ-साथ कार्य करने और कर्मचारियों के अहं के संतोष पर बल देने पर निर्भर होता है, चाहे किसी शक्तिशाली नेता को इसके लिए आत्मप्रदर्शन तथा आत्माभिव्यक्ति की अपनी स्वाभाविक इच्छा को ही क्यों न दबाना पड़े ।
हार्वर्ड समूह (एल्टन मायो) के पश्चिमी विद्युत (Western Electric) अनुसंधानों तथा मिशिगन (रेनसिस लेकांट) के अध्ययनों ने यह सिद्ध कर दिया है कि, ”कर्मचारियों को जनता का ध्यान रखने वाले और प्रजातांत्रिक नेतृत्व एवं अनुकूल संस्थागत पर्यावरण द्वारा सबसे अधिक प्रभावशाली ढंग से अभिप्रेरित किया जा सकता है ।”
(अ) पर्यवेक्षण की निकटता और कर्मचारियों के उत्पादन के मध्य विशेष संबंध होते हैं । उत्पादन के तल का पर्यवेक्षण की निकटता के साथ विलोमानुपातीय संबंध होता है । दूसरे शब्दों में, अपेक्षाकृत नरम पर्यवेक्षण से कर्मचारियों द्वारा अधिक उत्पादन किया जाता है चाबुक फटकारना इतना प्रभावशाली साधन सिद्ध नहीं होता जितना उसे समझा जाता है ।
(आ) पर्यवेक्षक अपने अधीनस्थों के साथ वैसा ही व्यवहार करता है जैसा उसके उच्चाधिकारी उसके साथ करते हैं ।
(इ) जहाँ पर्यवेक्षक ‘कर्मचारी केन्द्रित’ होते हैं वहाँ कर्मचारियों द्वारा किया गया कार्य उस स्थान की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ होता है जहाँ पर्यवेक्षक ‘उत्पादन केन्द्रित’ होता है ।
(ई) कम उत्पादन वाले समूहों के पर्यवेक्षकों की तुलना में बहुत अधिक उत्पादन वाले समूहों के पर्यवेक्षक पर्यवेक्षकीय कार्य में अपना अधिक ध्यान तथा समय लगाते हैं लेकिन वे उत्पादन कार्य के संचालन में समय तथा ध्यान कम लगाते हैं । दूसरे शब्दों में, एक सफल प्रबंधक अपना अधिक ध्यान अपने ‘उत्तरदायित्व’ के कार्यों में लगाता है, न कि ‘कार्य’ विशेष में ।
(उ) सहभागी प्रबंध की प्रवृत्ति अधिक उत्पादन की ओर होती है । ऐसे पर्यवेक्षक, जो सामान्य कार्यों में सामूहिक कार्य एवं सहयोग को प्रोत्साहन देते हैं और दोषी कर्मचारियों के प्रति कठोर रुख अपनाने की अपेक्षा सहानुभूति एवं सहायता का रुख अपनाते है, वस्तुतः उच्च उत्पादन श्रेणी में आते हैं ।
(ऊ) सफल पर्यवेक्षक प्रायः अपने कर्मचारियों को कार्य की प्रगति की दिशा में प्रशिक्षित करते हैं, चाहे इसके लिए उन्हें अपनी सेवा से वंचित हो जाने के संकट का ही सामना क्यों न करना पड़े ।
पर्यवेक्षकों के चुनाव के संबंध में दो समस्याएं उत्पन्न होती हैं । पहली यह कि पर्यवेक्षकीय कौशल की तुलना में कार्य संबंधी अनुभव को कितना प्रश्रय दिया जाए । किस सीमा तक पर्यवेक्षक के लिए आवश्यक है कि वह जिन लोगों का पर्यवेक्षण करता है उनके कार्यों में भी वह दक्ष हो? दूसरी समस्या पर्यवेक्षकों को निम्न श्रेणी से ही पदोन्नत किया जाए या उनकी बाहर से सीधी भर्ती की जाय? इसका भी कोई निश्चित उतर नहीं दिया जा सकता । एक अच्छे पर्यवेक्षक में कुछ विशेष गुण होने आवश्यक हैं ।
पर्यवेक्षकों का प्रशिक्षण (Supervisor’s Training):
प्रायः यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या मानव संबंधों में तथा पर्यवेक्षकीय नेतृत्व में कोई कौशल संबंधी शिक्षा दी जा सकती है? ऐसा कहा जाता है कि पर्यवेक्षक पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते, और अच्छा पर्यवेक्षक बनाने का प्रयत्न करने की अपेक्षा एक अच्छे पर्यवेक्षक का चुनाव करना ही उत्तम है ।
उपर्युक्त कथन में सत्य चाहे जितना हो, वास्तविकता यह है कि ”प्रतिभा का 9/10 भाग श्रम है ।” पर्यवेक्षक के गुण स्वाभाविक हो सकते हैं किंतु प्रशिक्षण द्वारा उन्हें विकसित किया जा सकता है ।
हाल्से के शब्दों में- यह कई बार प्रमाणित हो चुका है कि सामान्य बुद्धि के प्रायः सभी व्यक्ति सेवा की सच्ची भावना रखते हैं, वे पर्यवेक्षण की कला में पर्याप्त दक्षता प्राप्त कर सकते हैं, बशर्तें वे इसके सिद्धांतों और रीतियों का अध्ययन करें तथा उनको सोच-समझकर तथा अंतःकरण एवं लगन से लागू करें ।
सफल पर्यवेक्षक का व्यक्तित्व अनेक गुणों से मिलकर बनता है, और ये गुण कुछ निश्चित प्रविधियों के प्रयोग द्वारा प्रभावशाली बनाये जाते हैं । मेरा यह विश्वास है कि पर्यवेक्षण का कार्य सपालतार्पूवक करने के लिए आवश्यक गुण विकसित किये जा सकते हैं; आवश्यक प्रविधियाँ सिखायी जा सकती हैं और उनके प्रयोग की विद्या को अभ्यास द्वारा स्थायी बनाया जा सकता है ।
मैं यह विश्वास करता हूँ क्योंकि मैंने नये और पुराने दोनों प्रकार के पर्यवेक्षकों को ऐसा करते देखा है; और यह भी देखा है कि जैसे-जैसे वे अधिक अच्छे पर्यवेक्षक बनते जाते हैं, उनके विभाग उन्नति करते गये हैं ।