लोक प्रशासन के मानव संबंध सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about the human relations theory of public administration.

मानव संबंध को नवशास्त्रीय दृष्टिकोण भी कहते । वस्तुतः यह लोक प्रशासन के द्वितया चरण में यांत्रिक विचारधारा की प्रतिक्रिया के स्वरूप अस्तित्व में आया । मानव संबंध का अर्थ है, संगठन में कार्यरत मनुष्यों और उनके परस्पर संबंधों को महत्व देना । मानव संबंध दृष्टिकोण ने औपचारिक संगठन के भीतर अनौपचारिक संगठन की खोज एवं स्थापना की । इसका धंधा आशय यह है कि कार्यरत व्यक्तियों का इस प्रकार अध्ययन-विश्लेषण करना कि किसी कार्य अवस्था विशेष में मानवीय आचरण के आधारों का पता लगाया जा सके और यह भी जाना जा सके कि किस प्रकार के आचरण का संगठन के हितों में उपयोग हो सकता है ।

मानव संबंध सिद्धांत का सार इस तथ्य में है कि संगठन में कार्मिक की स्थिति निर्जीव पूर्जे की नहीं अपितु एक चेतन प्राणी की ही है और संगठन का अध्ययन वस्तुत: मानवीय इच्छाओं, समूहजन्य व्यवहारों, मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरणाओं आदि के संदर्भ में करना चाहिए ।

(a) सर्वप्रथम मानव सबंध की चर्चा ओवन ने अपनी पुस्तक “द ह्‌युमन फेक्टर इन वर्क्स मैंनेजमेंट’ (1912) में की थी ।

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(b) कर्टन लेवीन ”समूह गतिशीलता” में मानवीय संबंधों की चर्चा कर चुका था ।

(c) एडिलेड (आस्ट्रेलिया) में जन्में तथा हार्वड विश्व विद्यालय के प्रोफेसर एल्टन मेयो (समाजशास्त्रीय) ने ओवन और जॉन डिवी का अध्ययन किया । मेयो ने हाथार्न प्रयोगों से जिस अनौपचारिक सामाजिक संगठन को खोज निकाला, वही आगे विकसित होकर मानव संबंध विचारधारा के रूप में सामने आया । इसलिए एल्टन मेयो को का मानव संबंध विचारधारा का पितामह कहा जाता है । इन प्रयोगों को मेयो ने क्लिनिकल मेथड कहा ।

(d) फर्स्ट इन्कवायरी- एडिलेड (ऑस्ट्रेलिया) में जन्में एल्टन मेयो ने अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय में ”इण्डस्ट्रउल प्रोफेसर” के रूप में नियुक्त होने के बाद 1923 में फिलाडेल्फिया के निकट की कपडा मिल के बुनाई विभाग में श्रमिकों की अधिक मात्रा में आवाजाही की समस्या पर किया । इस शोध को शीर्षक दिया गया “द फर्स्ट इन्कवायरी” ।

यहां उन्होंने श्रमिकों की ढाइ सौ प्रतिशत से अधिक आवाजाही का मूल कारण (श्रमिकों की पैरों की पीड़ा) ढूंढ निकाला और कुछ उपायों (विशेषकर विश्राम की अवधि में बढ़ोतरी तथा बोनस की विशेष पद्धति लागू करना) से समस्या को हल भी कर दिया ।

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1. हाथार्न प्रयोग (1924-34):

अमेरिका के शिकागो शहर के हार्थान औद्यौगिक क्षेत्र में वेस्टर्न इलेक्ट्रिक कंपनी का एक बड़ा कारखाना अवस्थित है जहां ”नेशनल एकेडमी आफ साइंस” ने पहला प्रयोग किया । मेयो ने भी अपने प्रयोग यहीं किये । ये सब प्रयोग “हार्थान प्रयोग” के नाम से प्रसिद्ध हुए । इन सब प्रयोगों को तीन चरणों में संपादित किया गया था, जिन्हें अलग-अलग नाम दिये गये ।

1. वृहद प्रकाश प्रयोग या जांच कक्ष अध्ययन (1924-27):

मेयो द्वारा जो सिद्धांत “द फर्स्ट इन्कवायरी” के बाद प्रतिपादित किये गये थे, उन्हीं के आधार पर नेशनल एकेडमी आफ साइंस की राष्ट्रीय शोध समिति ने जार्ज पेनाक के नेतृत्व में वेस्टर्न कंपनी के हाथार्न संयंत्र में प्रयोग शुरू किये । यह प्रयोग दो चरणों में हुआ- प्रकाश प्रयोग और अन्य भौतिक चरों पर आधारित प्रयोग ।

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(a) प्रथम चरण (प्रकाश चर परिक्षण):

जार्ज पेनाक ने छह-छह महिलाओं के दो समूह बनाये। इनको प्रकाश के विभिन्न प्रदीप्त स्तरों पर रखा गया। एक समूह को समान प्रकाश, दूसरे को अलग-अलग प्रकाश में परंतु उत्पादन दोनों ने बढ़ाया ।

निष्कर्ष:

भौतिक चर या वातावरण घटक (प्रकाश) उत्पादन को प्रभावित नहीं करते अपितु कुछ अन्य घटक इसका निर्धारण करते है ।

(b) द्वितीय चरण (रिले असेम्बली परीक्षण-अन्य भौतिक चरों में परिवर्तन):

अब इन समूहों को समान प्रकाश व्यवस्था में रखा गया, लेकिन अन्य चरों जैसे विश्राम की अवधि, मजदूरी की दर, काम की अवधि आदि में परिवर्तन किये गये । उत्पादन प्रत्येक अवस्था में बढ़ा । श्रमिकों के विश्राम की अवधि को बढ़ाया-घटाया गया तब भी उत्पादन बढ़ा और जब बिल्कुल भी विश्राम नहीं दिया गया तब भी उत्पादन सामान्य से अधिक हुआ । फिर सभी प्रोत्साहन समाप्त कर दिये, लेकिन उत्पादन प्रारम्भ में गिरने के बाद निरंतर बढता गया । जार्ज पेनाक ने मेयो को हार्थान बुलाया ताकि वह इन अचम्भित परिणामों का विश्लेषण कर सके ।

मेयो द्वारा पूरक प्रयोग:

(i) मेयो टी. नार्थ, रोथलिजबर्गर, लायड वार्नर और हेंडरसन के साथ हाथार्न पहुंचा जहां उसे कंपनी के वरिष्ट अधिकारियों विशेषत: डिक्शन, राइट और स्वयं जार्ज पेनाक का सक्रिय सहयोग मिला ।

(ii) मेयो ने प्रकाश व्यवस्था की जाँच करके पांच परिकल्पनाएं विकसित की थी । अपनी परिकल्पनाओं का परीक्षण करने हेतु उसने कुछ पूरक प्रयोग किये ।

(iii) इन पूरक परीक्षणों के तहत अब छह के स्थान पर पांच-पांच लड़कियों के दो परीक्षण समूह बनाये गये ।

(iv) पहले समूह को व्यक्तिगत प्रोत्साहन योजना (सामूहिक के स्थान पर) के तहत कहा गया कि वे जितना काम करेंगे उतनी अधिक मजदूरी प्राप्त करेंगे । यह उजरती दर पद्दति थी ।

(v) दूसरे समूह को विश्रामकाल, कार्य अवधि आदि में भिन्न-भिन्न परिस्थितिया दी गयी ।

(vi) पहले समूह का उत्पादन बढ्‌कर एक स्तर पर स्थिर हो गया । दूसरे समूह के उत्पादन में चौदह दिनों पश्चात् जाकर वृद्धि हुई ।

(vii) इसने चौथी परिकल्पना अर्थात् प्रतिव्यक्ति मजदूरी व्यवस्था (आर्थिक प्रेरणा) उत्पादन में वृद्धि करती है, उलट दिया । डेविड रिकार्डों की रेबल परिकल्पना ध्वस्त हो गयी ।

निष्कर्ष:

मेयो ने निष्कर्ष दिया कि:

(I) जिन महिला श्रमिकों पर प्रयोग किये जा रहे थे उनके मध्य एक समाज विकसित हो चुका था । यह समाज ही उत्पादन को प्रभावित करता है ।

(II) उन श्रमिकों को पता था कि उन पर प्रयोग हो रहे हैं, अत: उन्होंने विपरित परिस्थितियों में भी उत्पादन बढ़ाया ।

(III) उत्पादन बढ़ाने के लिए वेतन के बजाय अन्य तत्व जिम्मेदार थे ।

(IV) लड़कियों को बातचीत की स्वतंत्रता थी अत: उनके मध्य सामाजिक संबंध विकसित हुए ।

(V) पर्यवेक्षकों के सहानुभूतिपूर्ण रवैये ने भी उन्हें प्रोत्साहित किया ।

(VI) मेयो के इन निष्कर्षों को ”वृहद प्रकाश” की संज्ञा दी गयी क्योंकि उसके निष्कर्षों से सांगठनिक मानव के संबंधों की नई अवधारणाओं पर व्यापक प्रकाश पडा ।

2. साक्षात्कार अध्ययन प्रयोग (1928-31):

मेयो के शोध दल ने हार्थान संयंत्र में ही यह दूसरा परीक्षण किया । यह मानवीय भावनाओं और दृष्टिकोण का पता लगाने वाला सिद्ध हुआ । कार्मिकों से प्रबंध की नीतियों, योजनाओं, कार्य-दशा, प्रबंधकीय बर्ताव आदि बातों पर प्रश्न पूछे गये ।

चूंकि मजदूरों द्वारा व्यक्त विचारों का विषय से भटकाव हो रहा था, अत: इसमें थोड़ा परिवर्तन किया गया । अब साक्षात्कार लेने वाले की भूमिका गौण कर दी गयी, वह मात्र पहल करके चुप हो जाता था, तथा कार्मिकों को अपना पूरा गुबार निकालने का मौका दिया गया । इससे वास्तविक सच्चाई सामने आयी ।

श्रमिकों के न सिर्फ जवाब देने में अधिक समय लिया बल्कि उनके व्यवहार में भी परिवर्तन हुआ । कारण कि वे समझने लगे कि उनके सुझावों के आधार पर वातावरण में परिवर्तन हो गया है (जबकि कोई परिवर्तन नहीं किया गया था) । कार्मिक प्रोत्साहित हुये ।

निष्कर्ष:

21 हजार से अधिक कामगारों का परीक्षण करने के बाद शोध दल ने निष्कर्ष निकाला कि-

(a) शिकायतों और वास्तविकता के बीच कोई स्पष्ट संबंध नहीं है ।

(b) श्रमिकों ने शोधदल द्वारा उनकी समस्याओं को जानने के ढंग की सराहना की । उन्हें लगा कि वे भी प्रबंध के हिस्से हैं और बहुमूल्य सुझाव दे सकते हैं ।

(c) सुपरवाइजरों के व्यवहार में भी इस दौरान बदलाव आया क्योंकि उन पर शोधदल की नजर थी ।

(d) यह निष्कर्ष भी निकाला गया कि व्यक्तियों के साथ अंतरंग संबंध स्थापित करके ही उनकी वास्तविक समस्याओं को जाना जा सकता है ।

(e) शोधदल ने स्वयं के बारे में भी एक निष्कर्ष निकाला कि उन्होंने अपने सहयोगियों को समझने और उनके साथ व्यवहार करने की श्रेष्ठ तकनीक को खोज लिया है ।

3. अंतिम चरण 1931-33 (अवलोकन या Observation):

यह अंतिम प्रयोगात्मक चरण था । इस बार उन्होंने कार्य का सहज वातावरण ही रहने दिया । उन्होंने कामगारों पर बाहर से नजर रखी, अर्थात् उन्हें अपनी उपस्थिति महसूस नहीं होने दी । भौतिक चरों में भी कोई परिवर्तन नहीं किया गया । वे देखना चाहते थे कि कामगार सहज परिवेश में बिना किसी बाहरी कारक से प्रभावित हुए, अपनी परंपरागत कार्य पद्धतियों में कैसा व्यवहार करते है ।

तीन विभिन्न कार्यों में लगे श्रमिकों के स्वाभाविक समूहों का अध्ययन किया गया । इनके काम परस्पर संबंधित थे- सोल्डरिंग, टर्मिनल फिक्सिंग और वायरिंग । इस चरण में मजदूरों से पीस रेट (नगवार दर) के आधार पर समझौता किया गया ।

लेकिन व्यक्तिगत के स्थान पर प्रत्येक समूह के साथ मजदूरी का समझौता किया गया । मजदूरी समूह प्रोत्साहन योजना के आधार पर तय हुई । अर्थात् समूह का जितना अधिक उत्पादन होगा, उतना अधिक वेतन समूह को मिलेगा । समूह के प्रत्येक सदस्य को उसमें बराबर हिस्सा मिलाना था। प्रबंधकों को आशा थी कि मजदूर अधिक लाभ (अधिक मजदूरी) के लिये अधिक उत्पादन करेंगे ।

लेकिन निरीक्षकों ने पाया कि श्रमिक समूहों ने उत्पादन बढ़ाने की कोशिश नहीं की । उलटे उन्होने अपने समूह का अपना उत्पादन मानक (स्टेन्डर्ड) तय कर लिया जो प्रबन्ध द्वारा निर्धारित मानक से कम था । समूह के सदस्यों को अधिक या कम उत्पादन की छूट नहीं थी । श्रमिकों ने क्षमता के बावजूद कम उत्पादन किया जबकि उन्हें पता था कि अधिक उत्पादन से उन्हें अधिक लाभ होगा ।

शास्त्रीय विचारधारा:

1. औपचारिक संगठन ही एकमात्र संगठन

2. आर्थिक मनुष्य की संकल्पना पूर्ण विवेकशीलता या पूर्ण तार्किकता

3. तथ्यात्मक और मूल्यहीनता

मानव संबंध विचारधारा:

1. अनौपचारिक संगठन पर अत्यधिक बल

2. सामाजिक मनुष्य की संकल्पना

3. अविवेकशीलता या अतार्किकता या भावुकता

4. मूल्य प्रधानता

व्यवहारवादी विचारधारा:

1. औपचारिक और अनौपचारिक संगठन दोनों को समान महत्व

2. प्रशासकीय मनुष्य की संकल्पना

3. सीमित विवेकशीलता या सीमित तार्किकता

4. मूल्य और तथ्य का योग

जो सदस्य धक उत्पादन के प्रयास करता, उसका “रेट बस्टर” (दर बिगाड़ने वाला) कह कर मखौल उड़ाया जाता । निर्धारित लक्ष्य से कम उत्पादन करने वाले को “चेसलर” (पिछड़ा हुआ) कहा जाता था । अपने सहयोगियों की प्रबन्ध से शिकायत करने वालों को “स्केअलर” (मुखबिर) कहकर निन्दित किया जाता था । उनकी एकता को बनाये रखने हेतु एक आचार संहिता भी विकसित हो गयी थी ।

निष्कर्ष:

शोध टीम ने निष्कर्ष दिया कि:

(1) एक लम्बे अर्से तक काम करते रहने से कामगारों के मध्य अन्त: सामाजिक संबंध विकसित हो जाते है, जिनका प्रबंध की सामान्य आर्थिक स्थिति से कोई सरोकार नहीं होता । ये सामाजिक संबंध उनके मध्य की अन्त: व्यैक्तिक क्रियाओं के परिणाम होते है ।

(2) इन औपचारिक सामाजिक समूह की स्वयं की आचार संहिता भी निर्मित हो जाती है जिसका पालन सदस्यों से अपेक्षित रहता है ।

(3) इस प्रकार इस शोध दल ने संगठन के भीतर सामाजिक अनौपचारिक संगठन को ढूंढ निकाला ।

हाथार्न प्रयोगों ने मानव सम्बन्ध विचारधारा को जन्म दिया और संगठन की परम्परागत यान्त्रिक विचारधारा को इतना ठेस पहुँचायी कि उसकी लोकप्रियता कम हो गयी ! मेयो के अतिरिक्त उनके साथी रोथलिज बर्गर ने मानव सम्बन्ध आन्दोलन को उसकी श्रेष्ठतम स्थिति में पहुंचाने में सर्वाधिक योगदान दिया था ।

उन्होने अपनी पुस्तक ”मैनेजमेन्ट एण्ड मोराल” में जोर देकर कहा कि संगठन छोटे-छोटे कार्यकारी समूहों का ढेर है । इन समूहों के अन्त: सम्बन्धों का निर्धारण विभिन्न सामाजिक-मनौवैज्ञानिक कारक करते है । चूंकि श्रमिक आर्थिक के साथ सामाजिक प्राणी भी होता है, अत: कार्यदशाओं में परिवर्तन आर्थिक हैसियत के साथ-साथ उसकी सामाजिक हैसियत का भी प्रभावित करता है । वह इनके प्रति प्रतिक्रिया भी अपनी सामाजिक-आर्थिक हैसियत मुताबिक अलग-अलग व्यक्त करता है ।

मानव सम्बन्ध में आगे योगदान करने वालों में उल्लेखनीय है- वॉवलास की पुस्तक ”लीडर शीप-मेन एण्ड फंक्शन” डेविड की ”हूमन रिलेशन्स एट वर्क” सेलेस की “द चेन्ज प्रोसेस इन आर्गेनाइजेशन” आदि । मैस्लो, कार्टराइट, आरगाइटिस ने भी अभिप्रेरण जैसी मनौवैज्ञानिक पद्धतियों के द्वारा मानव सम्बन्ध आन्दोलन को नई दिशा दी ।

मूल्यांकन:

मेयोवादियों को जिस पहली आलोचना का शिकार बनना पड़ा वह यूनियनवादियों की तरफ से आयी। कहा गया कि मेयो सुपरवाइजरों को यूनियन की जगह स्थापित करना चाहता है । लोरेन नारिट्‌स ने मेयोवादियों को यूनियन विरोधी तथा “प्रबन्धकों का पिटटू” कहा । सबसे तीखी प्रतिक्रिया थी- यूनाइटेड आटो वर्क्स (1949) के कार्मिकों की, जिन्होने हाथार्न शोध दल को “काऊ सोशियोलाजिस्ट” (निरीह समाजशास्त्री) कह डाला ।