नया लोक प्रशासन: लक्ष्य और परिप्रेक्ष्य | New Public Administration: Goals and Perspective.

नव  लोक प्रशासन के लक्ष्य (Goals of New Public Administration):

1960 के दशक के उत्तराद्ध में ड्‌वाइट वाल्डो के संरक्षण में हुए मिनोब्रुक सम्मेलन ने ‘नव लोक प्रशासन’ को जन्म दिया ।

नव  लोक प्रशासन के उदय और वृद्धि में मुख्य मील के पत्थर निम्नलिखित हैं:

(i) लोक सेवाओं के लिए उच्चतर शिक्षा पर हनी रिपोर्ट, 1967, अमेरिका ।

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(ii) अमेरिका में लोक प्रशासन के सिद्धांत और व्यवहार पर जेम्स सी. चार्ल्सवर्थ की अध्यक्षता में फिलाडेल्फिया सम्मेलन, 1967 ।

(iii) डवाइट वाल्डो के लेख ‘पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन इन ए टाइम ऑफ रिवोल्युशन’ का 1968 ।

(iv) अमेरिका में मिनोब्रुक सम्मेलन, 1968 ।

(v) फ्रैंक मारीनी के संपादन में ‘टुवार्ड्स न्यू पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन दि मिनोब्रुक पर्सपेक्टिव का प्रकाशन, 1971 ।

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(vi) ड्‌वाइट वाल्डो के संपादन में ‘पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन इन दि टाइम ऑफ टर्ब्युलेंस’ का प्रकाशन, 1971 ।

(vii) जॉर्ज फ्रेडरिकसन की पुस्तक ‘न्यू पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन का प्रकाशन’, 1980 ।

प्रति-लक्ष्य (Anti-Goals):

रॉबर्ट टी. गोलंबीव्स्की के अनुसार नव लोक प्रशासन में तीन प्रति-लक्ष्य महत्वपूर्ण हैं:

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(i) इसका साहित्य प्रत्यक्षवाद-विरोधी है, जिसका अर्थ है, (क) यह ‘मूल्य मुक्त’ रूप वाले लोक प्रशासन की परिभाषा को नकारता है, (ख) मानव जाति के तर्कवादी और संभवत: नियत्ववादी उपागम को नकारना और (ग) लोक प्रशासन की ऐसी किसी भी परिभाषा को नकारना जो नीति में उचित रूप से संलग्न नहीं है (जैसा कि सहज राजनीति-प्रशासन द्विभाजन के मामले में था) ।

(ii) यह तकनीकीवाद-विरोधी है, यानी, यह दोष लगाता है कि भावनात्मक-रचनात्मक मानव जाति को यंत्र और व्यवस्था के तर्क की बलि चढ़ाया जा रहा है ।

(iii) यह कमोबेश नौकरशाही-विरोधी और उच्चानीचक्रम- विरोधी है ।

लक्ष्य या विषयवस्तु (Goals or Themes):

फ्रेंक मारिनी ने नव लोक प्रशासन की विषय वस्तु की पाँच शीर्षकों के अधीन संशोधित किया है:

1. प्रासंगिकता,

2. मूल्य,

3. सामाजिक समता,

4. परिवर्तन और

5. उपभोक्ता संकेन्द्रित ।

रॉबर्ट टी. गोलंम्बीव्स्की के अनुसार, पाँच लक्ष्य (विशेषताएं) एक सकारात्मक परिप्रेक्ष्य (यह किस ओर जाना चाहता है) से नव लोक प्रशासन का एक बोध देते हैं:

(i) यह मानव जाति का एक ऐसा उपागम संप्रेषित करता है जो उसे आघातवर्ध्य और संभावना-संपन्न रूप से पूर्णता प्राप्त करने में सक्षम मानता है । इसकी दृष्टि में, लोग बनने और बढ़ने की प्रक्रिया में रहते हैं । यह उपागम उस उपागम के विपरीत है जो लोगों को उत्पादन के नियम कारक के रूप में देखता है ।

(ii) इसकी सर्वव्यापी विषयवस्तु प्रासंगिकता की माँग है । यह निजी और सांगठनिक मूल्यों और सदाचार की केंद्रीय भूमिका पर बल देता है ।

(iii) यह मानव विकास के काम के मार्गदर्शन के लिए सामाजिक समानता की सबसे सामान्य वाहक के रूप में वकालत करता है । यह मानता है कि प्रशासनिक मूल्य-शून्यता न ही संभव है और न ही वांछित ।

(iv) क्लासिकीय लोक प्रशासन के संगठनों और उनकी आंतरिक प्रक्रियाओं पर जोर के विपरीत यह निर्धारित रूप से संबंधात्मक है ।

(v) यह आविष्कार और परिवर्तन पर निश्चित बल डालता है । राबर्ट टी. गोलंबीव्स्की के अनुसार- ”नव लोक प्रशासन के भाष्यकारों का केंद्रीय निशाना प्रत्यक्षवादी नस्ल का मूल्य-मुक्त विज्ञान है ।”

डवाइट वाल्डो ने नव लोक प्रशासन के सकारात्मक और नकारात्मक लक्षणों की पहचान की है । सकारात्मक रूप से यह नियामक सिद्धांत, दर्शन, सामाजिक सरोकार एवं क्रियावाद की दिशा में एक प्रकार का आंदोलन है जबकि नकारात्मक रूप में यह प्रत्यक्षवाद और विज्ञानवाद से दूर भागता है ।

फ्रेडरिकसन के अनुसार, नव लोक प्रशासन:

(i) कम व्यापक और ज्यादा सार्वजनिक है ।

(ii) कम विवरणात्मक और ज्यादा सुझावात्मक है ।

(iii) जो नहीं बदल सकता उसके प्रति कम सरोकारी और बदलते यथार्थ के प्रति ज्यादा सरोकारी है ।

(iv) कम संस्था-निर्देशित और इस बात के प्रति ज्यादा सरोकारी है कि उपभोक्ता पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ।

(v) कम तटस्थ और ज्यादा आदर्शवादी है ।

(vi) कम वैज्ञानिक नहीं है ।

इस प्रकार, नव लोक प्रशासन के गुण (लक्ष्य, कसौटियाँ, सरोकार) हैं- प्रासंगिकता, मूल्य, सदाचार, आविष्कार, नैतिकता, उपभोक्ता के प्रति सरोकार, सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक समानता, उत्तर-प्रत्यक्षवाद (मूल्य-मुक्त और मूल्य-शून्य शोध को नकारना) ।

निग्रो व निग्रो के शब्दों में- ”सार्वजनिक सेवाओं की अधिक प्रभावी और मानवीय आपूर्ति के लिए विनौकरशाहीकरण, लोकतांत्रिक नीति-निर्माण और प्रशासनिक प्रक्रिया के विकेंद्रीकरण के साथ उपभोक्ता-केंद्रित प्रशासन का सुझाव दिया गया है ।”

नव लोक प्रशासन एक पहलू में विकास प्रशासन के समान है- दोनों ही लक्ष्य-निर्देशित और परिवर्तन-निर्देशित हैं । लेकिन, विकास प्रशासन के विपरीत, इसका सरोकार मुख्य तौर पर पश्चिमी समाजों से है । हालांकि नव लोक प्रशासन आंदोलन लोक प्रशासन को राजनीति विज्ञान के करीब ले आया, मगर प्रत्यक्षवादी विरोधी, वैचारिकता-विरोधी और प्रबंधन-विरोधी होने के लिए इसकी आलोचना हुई ।

कैंपबेल दलील देते हैं कि- ”यह पुराने लोक प्रशासन से सिर्फ इस अर्थ में भिन्न है कि यह अन्य दौरों से अलग समूह की सामाजिक समस्याओं के लिए प्रतिक्रियात्मक है ।”  रॉबर्ट टी. गोलंबीव्स्की वर्णन करते हैं- ”शब्दों में क्रांति या उग्र सुधारवाद, मगर कुशलताओं और तकनीकों में, ज्यादा से ज्यादा यथा-स्थिति ।”

लेकिन नीग्रो व नीग्रो इस राय के हैं कि- ”स्पष्ट रूप से, नव लोक प्रशासन के समर्थकों ने एक रचनात्मक बहस की शुरुआत की और उनका जोर इस बात पर है कि प्रशासन के सकारात्मक और नैतिक लक्ष्यों का प्रभाव दीर्घकालिक होना चाहिए । जब से नव लोक प्रशासन उभरा है, मूल्यों और सदाचार के प्रश्न लोक प्रशासन में प्रमुख मुद्दे बने रहे हैं ।”

मिनोब्रुक-2 (Minnowbrook-II):

शुरुआती मिनोब्रुक सम्मेलन (सितंबर 1968) के ठीक बीस साल बाद दूसरा मिनोब्रुक सम्मेलन सितंबर 1988 में हुआ । फ्रेडरिकसन के अनुसार, दूसरा मिनोब्रुक सम्मेलन लोक प्रशासन के बदलते युगों की तुलना और अंतर करने के लिए निर्धारित था । अपने संघटन, स्तर और दिशा, विषयवस्तु संबंधी जोर और सामाजिक परिवेश के मामले में दोनों मिनोब्रुक सम्मेलनों में अंतर था ।

इनका जिक्र निम्नलिखित तालिका में किया गया है:

लेकिन फिर भी मिनोब्रुक-2 सम्मेलन में ऐसी कई विषय-वस्तुएँ और क्षेत्र शामिल थे जो मिनोब्रुक-1 सम्मेलन के थे जैसे- सामाजिक समानता, सदाचार, मानव संबंध, जवाबदेही, लोक प्रशासन और लोकतंत्र और प्रशासनिक नेतृत्व में मेल करना । इसके अतिरिक्त दोनों ही सम्मेलनों का सांझा सरोकार था- लोक प्रशासन के अनुशासन की स्थिति । इससे चिंतन में निरंतरता सुनिश्चित हुई ।

तालिका 1.3 मिनोब्रुक-1 बनाम मिनोब्रुक-2:

मिनोब्रुक-1 (1968):

1. इसका संघटन इस अर्थ में संकीर्ण था कि अधिकांश प्रतिभागियों की पृष्ठभूमि राजनीति विज्ञान से थी ।

2. इसका मिजाज, स्वर, रुख और दिशा विवादास्पद विरोधी, उग्र और क्रांतिकारी था ।

3. इसका जोर प्रासंगिकता, मूल्य, सामाजिक समानता और परिवर्तन पर था ।

4. यह निर्णायक रूप से व्यवहारवाद का विरोधी था ।

5. इसके सामाजिक परिवेश की पहचान सरकार के प्रति गहरी निंदा से होती है । इसने मुख्य सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय होने की चुनौती लोक प्रशासन को दी ।

मिनोब्रुक-2 (1988):

1. इसका संघटन इस अर्थ में व्यापक था कि इसके प्रतिभागियों का प्रशिक्षण विधि, अर्थशास्त्र, नियोजन, नीति विश्लेषण, नीति अध्ययन और नगरीय अध्ययन में हुआ था ।

2. इसका मिजाज, स्वर, रुख और दिशा अधिक नागरिक, अधिक व्यावहारिक, अधिक प्रयोजनात्मक कम उग्र और वरिष्ठ पेशेवरो के प्रति अधिक सम्मान का

था ।

3. इसका जोर नेतृत्व, संवैधानिक और कानूनी परिप्रेक्ष्य, तकनीक, नीति और आर्थिक परिप्रेक्ष्य पर था ।

4. यह सामाजिक और व्यवहार संबंधी विज्ञानों में लोक प्रशासन के योगदान के प्रति अधिक संवेदनशील था ।

5. इसके सामाजिक परिवेश की पहचान सरकारी कटौती, निजीकरण, स्वयंसेविता, सामाजिक क्षमता निर्माण और तीसरी-पार्टी सरकार के रूप में राज्य के पीछे हटने की बढ़ती माँग से होती है । यह सक्रियता के परिप्रेक्ष्य से पीछे हट गया ।

जन-चयन उपागम (Public Choice Approach):

लोक प्रशासन में जन चयन उपागम लगभग नव लोक प्रशासन के साथ ही 1960 के दशक में अस्तित्व में आया । इस उपागम के प्रमुख भाष्यकार विंसेंट ओस्ट्रोम ने ‘नौकरशाही प्रशासन’ के पारंपरिक सिद्धांत को ‘लोकतांत्रिक प्रशासन’ से बदलने की वकालत की ।

अपनी पुस्तक दि इंटेलेक्चुअल क्राइसिस इन अमेरिकन पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में ओस्ट्रोम लिखते हैं- ”नौकरशाही के ढाँचे जरूरी हैं; मगर वे उत्पादक और प्रतिक्रियाशील लोक सेवा अर्थव्यवस्था के लिए सक्षम ढाँचे नहीं हैं ।”

वे आगे कहते हैं- ”शक्ति के एकमात्र केंद्र के प्रति जिम्मेदार, पेशेवर तौर पर प्रशिक्षित एक लोक सेवा के उच्चानीचक्रम की व्यवस्था में पूर्णता, बड़ी प्रशासनिक व्यवस्था की अलग-अलग सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं की नागरिकों के बीच अलग-अलग परिवेशीय स्थितियों से निपटने की क्षमता को घटाएगी । विभिन्न सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति के लिए अलग-अलग सांगठनिक प्रबंधों का उपयोग किया जा सकता है । ऐसे संगठनों के साथ तालमेल विभिन्न बहुसंगठनीय व्यवस्थाओं के जरिए किया जा सकता है ।”

इस प्रकार, जन चयन उपागम निम्न बातों पर बल देता है:

(i) नौकरशाही-विरोधी उपागम ।

(ii) संस्थागत बहुलवाद यानी, उपभोक्ता प्राथमिकताओं को बढ़ावा देने के लिए एजेंसियों की बहुलता ।

(iii) विविध लोकतांत्रिक निर्णय-निर्माण केंद्र ।

(iv) लोक सेवा वितरण की समस्याओं में आर्थिक तर्क को लगाना ।

(v) विकेंद्रीकरण (विसरित प्रशासनिक प्राधिकार) ।

(vi) प्रशासन में जन भागीदारी ।

वहीं, जन चयन उपागम निम्न बातों का विरोध करता है:

(i) एकल केंद्रित प्रशासनिक शक्ति (एकलकेंद्रण) ।

(ii) प्रशासन का राजनीति से अलगाव ।

(iii) पदानुक्रमिक प्रशासन ।

(iv) तर्कवादी और तटस्थ नौकरशाही ।

जन चयन उपागम के अन्य भाष्यकार हैं- बुकानन, ऑल्सन, टलॉक, मिशेल, निस्कानेन और ओपेन-हाइमर । उन्होंने प्रशासनिक अहंवाद का सिद्धांत निर्धारित किया जो कहता है कि वास्तविक जीवन की नौकरशाही जनहित की विरोधी होती है और संसाधनों के हेर-फेर और आत्म-उत्थान की पक्षधर होती है । वे मानते हैं कि नौकरशाह आत्महित को जन-हित के ऊपर रखते हैं ।

मोहित भट्टाचार्य के शब्दों में अंत करें तो- ”मूलत: प्रशासन के नौकरशाही मॉडल की एक आलोचना के रूप में जन चयन उपागम का नाता सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के वितरण में संस्थागत बहुलवाद की संभावना से है…. इस प्रकार, यह प्रशासन को राजनीति और राजनीतिक संगठन की एक पूर्ण विचारधारा के क्षेत्र के भीतर रखता है ।”

लोक प्रशासन का उभरता अनुशासन जुर्गन हेबरमास द्वारा प्रतिपादित आलोचनात्मक सिद्धांत के प्रभाव में भी आया । एंड्‌यू अराटो और आइक गेबहार्ट द्वारा संपादित पुस्तक दि एसेंशियल फ्रैकफर्ट स्कूल रीडर में लोक प्रशासन के आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य पर कई मुख्य रचनाएँ हैं । लोक प्रशासन का आलोचनात्मक उपागम प्रशासन के मानवीकरण, विनौकरशाहीकरण और लोकतंत्रीकरण की वकालत करता है ।

नव लोक प्रबंधन परिप्रेक्ष्य (Perspective of New Public Management):

‘नव लोक प्रबंधन परिप्रेक्ष्य’ लोक प्रशासन के विकासक्रम में नवीनतम प्रतिमान है । यह 1990 के दशक में अस्तित्व में आया । डेविड ऑस्बोर्न व टेड गैबलर की 1992 में छपी पुस्तक रीइंवेंटिंग गवर्नमेट नव लोक प्रबंधन के जन्म का कारण बनी ।

नव लोक प्रबंधन लोक प्रशासन में दूसरे पुन: आविष्कार का नुमाइंदा है; पहला पुन: आविष्कार 1960 के दशक में आया नव लोक प्रशासन था । ‘न्यू पब्लिक मैनेजमेंट’ शब्द क्रिस्टोकर हुड ने प्रदान किया था । उन्होंने 1991 में प्रकाशित अपने लेख ‘ए पब्लिक मैनेजमेंट फॉर ऑल सीजन’ में इसका प्रयोग किया था । नव लोक प्रबंधन को प्रबंधनवाद (पॉलिट), उद्यमशील सरकार (ओस्बोर्न व जैबलर) बाजार आधारित लोक प्रशासन (लैन व रोजेनब्लूम) तथा लोक प्रशासन एवं निजी प्रशासन के मध्य तीसरा मार्ग (यू.ए.गुन) जैसी अन्य संज्ञाएं भी दी जाती हैं ।

मूल विषयवस्तु (Basic Theme):

नव लोक प्रबंधन का उदय ब्रिटेन (पहला एसा देश जिसने लाकउद्यमों के निजीकरण की पहली की थी) के थैचरवाद और अमेरिका छ रीगलवाद से हुआ । यह लोक प्रशासन और निजी प्रशासन (व्यापार प्रबंधन) के संशलेषण को दर्शाता है ।

यह लोकप्रशासन से ‘क्या’ और ‘क्यों’ तथा निजी प्रशासन से ‘कैसे’ शब्द लता है । नव लोक प्रबंधन का ‘उद्यमशील सरकार’ के रुप में भी जाना जाता है । इसका लक्ष्य 3E है- कुशलता (Efficiency), अर्थव्यवस्था (Economy), और प्रभावशीलता (Effectiveness) ।

यह प्रदर्शन-मूल्यांकन, प्रबंधकीय, स्वायत्तता, कीमत-कटौती, वित्तीय प्रोत्साहन, उत्पादन संबंधी लक्ष्य, आविष्कार, प्रतिक्रियाशीलता, सामर्थ्य, जवाबदेही और बाजार-निर्देशिता पर बल देता है । नव लोक प्रबंधन उपागम समाज और अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को बुनियादी तौर पर बदलने की दृढ़ता से वकालत करता है । यह समाज और अर्थव्यवस्था के प्रमुख नियामक के रूप में ‘राज्य’ का बजाय ‘बाजार’ की केंद्रीय भूमिका पर बल देता है ।

इस प्रकार, इस उपागम में सरकार द्वारा सेवाओं के प्रत्यक्ष उपलब्धकर्ता की बजाय अप्रत्यक्ष तरीकों की और परिवर्तन निहित है, जैसे- नीति-निर्माण, सहायता, ठेका देना, सूचना उपलब्ध करना और अन्य कारकों क साथ तालमेल करना । दूसरे शब्दों में, सरकार को सार्वजनिक गतिविधियों के ‘कर्त्ता’ से सार्वजनिक लाभों का ‘वितरक’ और समाज और अर्थव्यवस्था में परिवर्तन का ‘सहायक’ और ‘प्रोत्साहक’ बन जाना चाहिए ।

इस प्रकार, नव लोक प्रबंधन इस तरीके से अवधारणा में बदलाव की एक श्रृंखला का सुझाव देता है जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र को उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण की नई चुनौतियों का सामना करने के लिए संगठित और प्रबंधित करना चाहिए ।

नव लोक प्रबंधन की केंद्रीय विषय वस्तु का ऑस्बोर्न और गैबलर ने कुछ इस प्रकार से समाहार किया है- ”हम और ज़्यादा सरकार नहीं चाहते हैं; हम बेहतर सरकार चाहते हैं । और ठीक-ठीक कहें तो हम बेहतर शासन चाहते हैं । शासन हमारी समस्याओं को सामूहिक तौर पर हल करने की गतिविधि है । सरकार वह औजार है जिसका हम प्रयोग करते हैं । औजार पुराना हो गया है और अब इसे पुनर्निर्मित करने का समय आ गया है ।”

प्रति-लक्ष्य (Anti-Goals):

नव लोक प्रबंधन पारंपरिक लोक प्रशासन की तमाम अवधारणाओं और सिद्धांतों को खारिज करता है । ये हैं:

(i) राजनीति-प्रशासन द्विभाजन,

(ii) पदानुक्रम प्रभावित संगठन,

(iii) शक्ति का अति-केंद्रीयकरण,

(iv) प्रशासन में नियमों की प्रधानता,

(v) निर्णय-निर्माण में तर्कवादिता,

(vi) प्रशासन का गैर-वैयक्तिक चरित्र,

(vii) प्रशासनिक प्रक्रिया का गैर-लचीलापन,

(viii) अंतर्मुखी दिशा ।

लक्ष्य/विशेषताएं (Goal/Features):

ऑस्बोर्न और गैबलर ने नव लोक प्रबंधन (उद्यमशील सरकार) के दस लक्ष्यों (विशेषताओं या सिद्धांतों) की पहचान की है ।

इनकी व्याख्या नीचे की गई है:

1. उत्प्रेरक सरकार:

सरकार को सेवाएं प्रदान करते रहने की बजाय सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र, निजी क्षेत्र और स्वयंसेवी/गैर-सरकारी क्षेत्र को सक्रिय होने के लिए उत्प्रेरित करना चाहिए । इस प्रकार, सरकार को स्वयं मार्गदर्शन करना चाहिए न कि चप्पू चलाना चाहिए ।

2. समुदाय के स्वामित्व वाली सरकार:

सरकार को नागरिकों, परिवारों और समुदायों इत्यादि को अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करने के लिए सशक्त करना चाहिए । इस प्रकार, सरकार को तमाम सेवाओं को नौकरशाही के नियंत्रण से बाहर ले आना चाहिए ।

3. सक्षम सरकार:

सरकार को कुशलता और किफायत पर ईनाम देकर विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं के दाताओं के बीच प्रतियोगिता पैदा करनी चाहिए । यह प्रदर्शन को बेहतर करता है और लागत को कम करता है ।

4. लक्ष्य-संचालित सरकार:

सरकार को अपने लक्ष्यों से संचालित होना चाहिए न कि कायदे-कानूनों से । दूसरे शब्दों में, इसमें नियम-निर्देशित सरकार को लक्ष्य-निर्देशित सरकार में बदलना शामिल है ।

5. परिणामोन्मुख-निर्देशित सरकार:

सरकार को लक्ष्य प्राप्ति और अभियान-निर्देशित प्रयासों द्वारा परिणाम (नतीजे) हासिल करने चाहिए । इसे अपनी एजेंसियों के प्रदर्शन का मूल्यांकन परिणामों से करना चाहिए न कि आगतों से ।

6. उपभोक्ता-निर्देशित सरकार:

सरकार को अपने आश्रितों को उपभोक्ता समझना चाहिए । इसे उपभोक्ताओं के प्रति प्रयास और कार्य करना चाहिए न कि नौकरशाही के प्रति । इसमें उन्हें कई विकल्प देना, उनके रुखों का सर्वेक्षण करना, सेवाओं को सुविधाजनक बनाना और उन्हें सुझाव देने की अनुमति देना शामिल है ।

7. उद्यमी सरकार:

सरकार को पैसे कमाने पर जोर देना चाहिए न कि पैसे खर्च करने पर । इसे शुल्क, बचत, उद्यम मद इत्यादि का इस्तेमाल कर संसाधन जुटाने में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए ।

8. पूर्वानुमानी सरकार:

सरकार को समस्याओं का समाधान करने की बजाय उन्हें पहचानना और रोकना चाहिए । इस प्रकार, सरकार को जरूरतें पूरी करने से पूर्व उन्हें पैदा होने से रोकना चाहिए ।

9. विकेंद्रित सरकार:

सरकार को प्राधिकार को विकेंद्रीकृत कर देना चाहिए, यानी प्राधिकार को उच्चतर से निम्नतर स्तर पर विसरित कर देना चाहिए । इसमें पदानुक्रम नियंत्रण से भागीदारी प्रबंधन और टीम वर्क की कार्यशैली की ओर परिवर्तन शामिल है ।

10. बाजारोन्मुख:

सरकार को बाजार-पद्धति चुननी चाहिए न कि नौकरशाही पद्धति । इसे न केवल नियंत्रण और निर्देश से लक्ष्य हासिल करने चाहिए बल्कि बाजारों की संरचना को बदलकर भी लक्ष्य हासिल करने चाहिए । इसे बाजार की शक्तियों के जरिए भी बदलाव को नियंत्रित करना चाहिए ।

प्रभाव (Impact):

उपरोक्त लक्ष्यों का पीछा करने में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में सरकारों ने की पद्धतियों का प्रयोग किया है ।

ये हैं:

1. स्वायत्त सार्वजनिक संगठनों का निर्माण,

2. सरकार के आकार को घटाना,

3. सरकारी संगठनों का निगमीकरण,

4. बजट और कल्याण व्यय को घटाना,

5. लोकसेवा संरचना को सुधारना,

6. प्रदर्शन माप और मूल्यांकन,

7. सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण,

8. निम्नतर स्तरों पर प्राधिकार का विकेंद्रीकरण,

9. निजी एजेंसियों को सेवाओं का ठेका देना,

10. प्रशासन में खुलेपन और पारदर्शिता को प्रोत्साहन देना,

11. प्रशासन में जनता की भागीदारी को प्रोत्साहन देना,

12. नागरिक अधिकार-पत्रक आदि की घोषणा करना ।