सार्वजनिक क्षेत्र: अर्थ, उद्देश्यों, उद्देश्यों और विस्तार | Public Sector: Meaning, Motives, Objectives and Expansion.
Essay # 1. सार्वजनिक क्षेत्र का अर्थ (Meaning of Public Sector):
भारत जैसे विकासशील देशों में व्यवस्थित एवं नियोजित विकास की प्राप्ति के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण स्थान है । ये देश प्रायः निर्धनता के दुष्चक्र की पकड़ में होते हैं । इससे छुटकारा पाने के लिए आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने और पूजी संचयन की दर को बढ़ाने की तुरन्त आवश्यकता होती है ।
निजी क्षेत्र, औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक साधन बड़े स्तर पर जुटाने में असमर्थ होता है । परन्तु दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र अर्थव्यवस्था को स्व-निर्भर विकास के मार्ग पर लाने के लिए आवश्यक न्यूनतम संवर्धन उपलब्ध करवाता है ।
यह भली प्रकार जाना पहचाना तथ्य है कि जब तक सार्वजनिक क्षेत्र अथवा राज्य औद्योगिक विकास के लिए सकारात्मक भूमिका नहीं निभाता तब तक इन देशों में औद्योगिक संरचना की सुदृढ़ नींव नहीं रखी जा सकती है । जे. एम. केन्त ने भी आर्थिक व्यवस्था में राज्य की भागीदारी का समर्थन किया, इसलिए राज्य को उनकी निर्विघ्न क्रियाशीलता का दायित्व लेना चाहिए ।
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इस प्रकार उनसे न केवल यह आशा की जाती है कि वह आर्थिक विकास की गति को तेज करने के लिए सरकार को पर्याप्त मात्रा में अतिरिक्त धन जुटायें बल्कि एक अर्थव्यवस्था के निजी क्षेत्र में सन्तुलित विकास की प्राप्ति में सहायता भी करें ।
Essay # 2. सार्वजनिक क्षेत्र के लक्ष्य अथवा प्रयोजन (Motives or Purposes of Public Sector):
सार्वजनिक क्षेत्र अथवा उद्यमों का विकास कई लक्ष्यों एवं प्रयोजनों से होता है जो भिन्न स्थानों एवं भिन्न सरकारों में भिन्न होते हैं ।
विकासशील देशों में उनकी आवश्यकता निम्नलिखित आधारों पर होती हैं:
1. प्राकृतिक साधनों के विकास के लिए ।
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2. लोक उपयोगी सेवाओं का उचित प्रयोग करने के लिए ।
3. मौलिक एवं आवश्यक उद्योगों के विकास के लिए ।
4. शोषण को समाज करने के लिए ।
5. सीमित साधनों के दुरुपयोग एवं व्यर्थ व्यय को समाप्त करके राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना ।
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6. आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं से सम्बन्धित उपभोक्ता के हितों की रक्षा करना ।
7. आकस्मिक चक्रीय उतार-चढ़ावों से बचना ।
8. अस्पष्ट लाभ पहुँचाना जिससे अर्थव्यवस्था के विकास को प्रोत्साहन मिले ।
9. उत्पादक कौशलता का संवर्धन ।
10. क्षेत्रीय विकास तथा सहायक उद्योगों का विकास ।
सार्वजनिक उद्योगों को कई स्थानों खतरे की घंटी माना जाता है तथा इसे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए खतरे की घंटी माना जाता है । परंतु यहाँ तक कि पूंजीवादी देशों जैसे यू.एस.ए. में भी जहां निजी क्षेत्र उत्पादन के साधनों के बड़े भाग रखता है ।
फ्रांस में भी सार्वजनिक उद्यम अर्थव्यवस्था के बड़े भाग को प्रच्छन्न्ता प्रदान करते हैं । इसी प्रकार ब्रिटेन में वर्ष 1945-50 के दौरान बैंक ऑफ इंग्लैंड, कोयला, गैस, बिजली, वायु मार्ग, लोहा एवं स्टील का राष्ट्रीकरण किया गया था ।
भारत में स्वतन्त्रता से पहले वास्तव में कोई सार्वजनिक क्षेत्र नहीं था केवल रेलवे, डाक एवं तार विभाग, बन्दरगाह संघ तथा अनुष्ठान और वायुमान के कारखाने तथा प्रांतीय प्रबंधन में अन्य उद्योग ही सार्वजनिक क्षेत्र के उदाहरण थे । परन्तु सार्वजनिक क्षेत्र का विचार बहुत पहले कांग्रेस पार्टी द्वारा वर्ष 1931 में सोचा गया था ।
श्रीमती इंदिरा गाँधी (Smt. Indira Gandhi) के विचार सार्वजनिक क्षेत्र के पक्ष में थे । उन्होंने उचित ही लिखा था, ”हम सार्वजनिक क्षेत्र का समर्थन सामाजिक लाभ अथवा युक्तिपूर्ण मूल्यों के संवेदनशील विकास के संवर्धन के लिए, अर्थव्यवस्था की ऊंचाइयां के नियन्त्रण की प्राप्ति के करते हैं न कि मुख्य रूप में लाभ के विचार से तथा व्यापारिक अतिरिक्तता के लिए जिससे कि आर्थिक विकास की वित्तीय सहायता हो सके ।”
यहाँ तक कि सार्वजनिक क्षेत्र की धारणा तथा कार्य की योजना भी औद्योगिक नीति 1948 और 1956 के प्रस्तावों में सम्मिलित किये गये हैं । औद्योगिक नीति 1956 का प्रस्ताव अन्य विषयों में कहता है कि, ”समाज के समाजवादी स्वरूप को राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में अपनाया जाना तथा नियोजित विकास की आवश्यकता मांग करती है कि मौलिक एवं युक्ति-संगत महत्व वाले अथवा लोक उपयोगी सेवाओं वाले उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में होने चाहिए । अन्य उद्योग जो आवश्यक हैं तथा जिनमें बड़े स्तर पर निवेश की आवश्यकता है जोकि वर्तमान स्थितियों में केवल राज्य ही उपलब्ध करवा सकता है वो भी सार्वजनिक क्षेत्र में होने चाहिएं । इसलिए राज्य को उद्योगों के विस्तृत क्षेत्र में विकास के लिए सीधा दायित्व लेना चाहिए ।”
इसी प्रकार संविधान में सम्मिलित राज्य नीति के निर्देशात्मक नियम भी चाहते हैं कि राज्य सुनिश्चित करें कि ”समाज के भौतिक साधनों के स्वामित्व एवं नियन्त्रण को इस प्रकार वितरित किया जाये कि वह सांझे भले में सहायक हो ताकि आर्थिक व्यवस्था का परिणाम धन का केन्द्रीकरण न हो तथा उत्पादन के साधन सांझे निर्धारक हों ।” केवल यह विचार कि उत्पादन को निजी पूंजीवादियों के हाथी से स्थानान्तरित करके सार्वजनिक स्वामित्व में लाना चाहिये, कम से कम उतना पुराना है जितना कि मार्कसवादी सिद्धान्त ।
Essay # 3. सार्वजनिक क्षेत्र के लक्ष्य (Objectives of Public Sector):
ए. एन. बैनर्जी के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र के लक्ष्य निम्नलिखित प्रकार हैं:
1. औद्योगिक संरचना में अन्तर को समाप्त करके तीव्र आर्थिक विकास का संवर्धन करना ।
2. अर्थव्यवस्था की वृद्धि के लिए संरचनात्मक सुविधाओं को बढ़ाना ।
3. देश के विकास के लिए युक्ति अनुसार महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियां आरम्भ करना, ताकि निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिये जाने पर राष्ट्रीय भावना का लक्ष्य न बिगड़ जाये ।
4. संतुलित क्षेत्रीय विकास का संवर्धन करना तथा प्राकृतिक साधनों एवं अन्य संरचना को कम विकसित क्षेत्रों में प्रयोग करना
5. एकाधिकार को रोकना तथा शक्ति का कुछ हाथों में केन्द्रीकरण समाप्त करना ।
6. सार्वजनिक वित्त संस्थाओं द्वारा सामाजिक नियन्त्रण तथा नियमन का अभ्यास करना ।
7. समृद्ध एवं निर्धन के बीच का अन्तराल समाज करना तथा आय और सम्पत्ति में असमानताओं को कम करना ।
8. भारी निवेश द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार के साधन उत्पन्न करना और बढ़ाना ।
9. विभिन्न तकनीकों में आत्म-निर्भरता प्राप्त करना ।
10. विदेश सहायता तथा विदेशी तकनीक पर निर्भरता को समाप्त करना ।
11. क्षेत्र जैसे वितरण प्रणाली, दुर्लभ आयात की गई वस्तुओं के निर्धारण को नियन्त्रित करना ।
12. निर्यात का संवर्धन और आयात का घटाना ताकि भुगतानों के सन्तुलन पर से दबाव कम हों ।
Essay # 4. सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के विस्तार के कारण (Causes for Expansion of Public Sector Enterprises):
सार्वजनिक क्षेत्र का विकास, आर्थिक वृद्धि के आधार पर विकास की सीमा पर निर्भर करता है । पूंजीवादी एवं विकसित देशों में सन्तुलित आर्थिक वृद्धि की प्राप्ति के लिए निजी उद्योग मुख्य भूमिका निभाते हैं जबकि विकासशील देशों में स्थिति बिल्कुल अलग है क्योंकि कई बार निजी क्षेत्र एक अर्थव्यवस्था की वृद्धि की गति के लिए हानिकारक प्रतीत होता है ।
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का समर्थन निम्नलिखित तथ्यों के कारण किया जाता है:
1. अर्थव्यवस्था की प्रभावशाली ऊंचाइयों का नियन्त्रण प्राप्त करने के लिए ।
2. मुख्यतः लाभ के विचार के स्थान पर, सामाजिक लाभों के रूप में युक्ति-संगत मूल्यों के गम्भीर विकास का संवर्धन करना ।
3. वाणिज्यात्मक अतिरिक्त उपलब्ध कराना जिससे आर्थिक विकास के लिए वित्तीय सहायता मिल सके ।
1. आर्थिक विकास की दर (Rate of Economic Development):
सार्वजनिक क्षेत्र की वृद्धि दर निजी क्षेत्र की तुलना में बहुत तेज है । सार्वजनिक क्षेत्र हर क्षेत्र में लक्ष्य तक पहुँचने का आवश्यक यन्त्र है । रामानाथन (Ramanathan) ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है ”साधनों को एकत्रित करने के पश्चात सरकार तथा अन्य नीति निर्माण करने वाली संस्थाएं जैसे योजना आयोग, सामान्य प्रलोभन के अधीन कोष का सरकार के अपने संरक्षण में प्रयोग करना चाहती है तथा प्रशासन के लिए यह एक परिहार्य असुविधा प्रतीत होती है कि पहले तो निजी क्षेत्र को धन दें और फिर धन की सुरक्षा एवं उचित प्रयोग के लिए आवश्यक निरीक्षण एवं जांच प्रबन्ध करें । इसके स्थान पर यह उचित प्रतीत होता है कि संसद एवं प्रशासनिक संस्थाएं स्वयं सार्वजनिक उद्यम आरम्भ करें।”
2. साधन निर्धारण का ढंग एवं सार्वजनिक उद्यम (Pattern of Resource Allocation and Public Enterprises):
सार्वजनिक उद्यमों में अपने वित्तीय प्रबन्धन सम्बन्धी अधिक लोचपूर्णता होती है तथा बदलती बाजार स्थितियों के प्रकाश में अधिक औचित्यपूर्ण निर्णय ले सकते हैं । दूसरे शब्दों में, व्यापारिक लाभ मूल्य नीति अनुसार कमाये जा सकते है जिनका प्रयोग अगले विकास के लिए हो सकता है । इस सम्बन्ध में रामानाथन (Ramanathan) ने सच ही कहा है, ”सार्वजनिक क्षेत्र के विकास का मुख्य कारण योजनाओं के अन्तर्गत साधनों के निर्धारण के ढंग में निहित हैं ।”
दूसरी पंचवर्षीय योजना के उद्योगों, खानों, मौलिक एवं आवश्यक उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित करने पर बल दिया । इसलिए ”यह आवश्यक है कि सार्वजनिक क्षेत्र अवश्य बड़े परन्तु इसके साथ निजी क्षेत्र में विकास भी आवश्यक है ।”
3. क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करना (Removal of Regional Disparities):
भारत में निरन्तर आर्थिक विकास के मार्ग में क्षेत्रीय असमानताएँ गम्भीर समस्या बनी हुई हैं । इसका अर्थ है देश के विभिन्न भागों में ‘वृद्धि दर में असमानता’ । इसलिए अल्प विकसित देशों में सार्वजनिक उद्यमों के विकास की बहुत आवश्यकता है । उदाहरण के रूप में इस्पात परियोजनाओं का विकास अपने आस-पास के क्षेत्रों में उद्योगीकरण को बढ़ावा देता है । इसी प्रकार विभिन्न क्षेत्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । इससे बड़ी सीमा तक क्षेत्रीय असन्तुलन समाप्त हो सकता है ।
योजना आयोग के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र आय की असमानताओं को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
जैसे:
(i) सार्वजनिक क्षेत्र के लाभों का प्रयोग पूंजी निर्माण के लिए हो सकता है ।
(ii) सार्वजनिक क्षेत्र उच्च प्रबन्धकीय कौशल बनाये रखने में सहायक होते हैं ।
(iii) मूल्य नीतियां निम्न आय वर्ग के हित में निश्चित की जाती हैं ।
4. आर्थिक विकास के लिए कोष के साधन (Sources of Funds for Economic Development):
अर्थव्यवस्था के विकास के लिए सार्वजनिक क्षेत्र कोष का एक महत्त्वपूर्ण साधन है । निःसन्देह निजी क्षेत्र भी विकास में भूमिका निभाता है परन्तु यह लोगों में असमानताएं उत्पन्न करता है ।
दूसरी ओर, सार्वजनिक उद्यमों के साधन स्पष्ट रूप में पूजी निर्माण के लिए प्रयोग हो सकते हैं जिससे नये उद्यम स्थापित किये जा सकते हैं तथा अन्य उद्योगों को विकास हो सकता है । सार्वजनिक क्षेत्र का लाभ अर्थव्यवस्था की वृद्धि का मुख्य साधन है जबकि निजी क्षेत्र के लाभ अंशधारकों में वितरित कर दिये जाते हैं ।
5. समाज का सामाजिक ढांचा (Socialistic Pattern of Society):
सामाजिक ढांचे का अर्थ है, अर्थव्यवस्था का वृद्धि की आवश्यकताओं पर निर्भर आवश्यकता अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार । वृद्धि का यह ढंग केवल सार्वजनिक क्षेत्र से सम्भव है न कि निजी क्षेत्र से ।
दूसरी पंचवर्षीय योजना के अनुसार, ”समाज के समाजवादी ढंग को राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में अपनाये जाने से तथा नियोजित एवं तीव्र गति विकास के लिए आवश्यक है कि मौलिक एवं युक्ति संगत महत्व वाले उद्योगों अथवा जन-उपयोगी सेवाओं के स्वरूप वाले उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में होने चाहिएं । अन्य उद्योग जो आवश्यक हैं और जिन्हें वर्तमान स्थितियों में राज्य के निवेश की आवश्यकता है, को भी सार्वजनिक क्षेत्र में होना चाहिए ।”
6. निजी क्षेत्र के दुरूपयोग से सुलझना (To Tackle the Abuses of Private Sector):
निजी क्षेत्र में उचित योजनाबन्दी तथा प्रबन्धन का अभाव होता है जबकि सार्वजनिक क्षेत्र इन बुराइयों से मुक्त है । इस प्रकार यह निजी क्षेत्र के दुरुपयोग को बडी सीमा तक रोकता है ।