भगवान श्रीकृष्ण का जीवन इतिहास | Life History of Lord Shree Krishna in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. श्रीकृष्णा का प्रादुर्भाव एवं जीवन चरित्र ।

3. श्रीकृष्ण की अलौकिक लीलाएं ।

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4. श्रीकृष्णा एवं रुक्मिणी का विवाह प्रसंग ।

5. श्रीकृष्ण और नरकासुर प्रसंग ।

6. शिशुपाल वध और श्रीकृष्ण ।

7. शान्तिदूत श्रीकृष्ण ।

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8. द्रौपदी के चिररक्षक श्रीकृष्ण ।

9. पाण्डवों के रक्षक श्रीकृष्ण ।

10. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

भगवान् राम और भगवान कृष्ण हमारे लिए एक चारित्रिक आदर्श ही नहीं हैं, वरन् मनुज अवतारों में भी दिव्य और अलौकिक शक्तियों के पुंज हैं । वे दोनों भारतीय जीवन का आदर्श हैं । हमारी महान् धार्मिक, सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक हैं ।

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राम अपने समूचे स्वरूप में मर्यादा पुरुषोतम हैं, तो कृष्ण लीला पुरुषोतम हैं । यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि भारतीय जनमानस में भगवान श्रीकृष्ण की लौकिक एवं अलौकिक छवि इतनी अधिक विमोहित कर देने वाली है कि समूचा जनमानस उन्हें “लोकनायक”, “लोकरंजक”, लोककल्याणकारी एवं दिव्य रूप में उन्हें अपार श्रद्धा से पूजता है । वे योगेश्वर हैं, अर्थात् सम्पूर्ण योगों के स्वामी हैं ।

अपनी योगशक्ति से क्षणभर में समस्त जगत् की उत्पत्ति, पालन एवं संहार करते हैं । ”हरि” के रूप में उनका गुण-प्रभाव, लीला, ऐश्वर्य, महिमा, नाम और स्वरूप का श्रवण, मनन, कीर्तन, दर्शन और स्पर्श आदि से पापों का नाश हो जाता है । वे मनुष्य के समरत पापों, अज्ञानता और दु:ख को हर लेते है ।

वे भक्तों के हृदय को हर (चुरा) लेते हैं । भक्तों के चित्त को आकर्षित करने के कारण ही उनका नाम कृष्ण है । वे ऋषीकेश हैं, हर्ष, सुख और सुखमय ऐश्वर्य को विधान कहते हैं । चराचर जीव, आकाश, दसों दिशाएं, पर्वत, द्वीप, समुद्र, पृथ्वी, वायु, अग्नि, चन्द्रमा, तारे, इन्द्रियां, मन, सब विषय, शब्द, माया के तीनों गुण, समस्स जीव आदि उनमें समाहित हैं ।

वे सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एव परम दयालु हैं । वे राधा के प्रेमी है । अर्जुन के सखा एवं गुरु हैं । सम्पूर्ण गोप-गोपियों में वे अत्यन्त प्रिय हैं । यशोदा और नन्द के दुलारे हैं । देवकी और वसुदेव के पुत्र हैं । बलराम के भाई हैं । द्रौपदी के चीररक्षक हैं । पाण्डवों के मित्र हैं । अपने समस्त रूपों में वे सर्वाधिक सुन्दर हैं ।

2. श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव एवं जीवन चरित्र:

द्वापर काल में यमुना के तट पर यादवों का छोटा-सा राज्य था । ययाति के वंशज यादवों ने अपनी वीरता, परिश्रम एवं साहसपूर्ण कार्यो से काफी समृद्धि अर्जित की । उत्तर भारत में उस समय गणतान्त्रिक व्यवस्था के तहत अन्धक, वृष्णि, भोजकुल संगठित रूप में शासन करते थे ।

इन कुलों के वीरों के बीच आये दिन झड़पें हुआ करती थीं । अत: इनको संगठित बनाये रखने के लिए शुरकुल के नायक वसुदेव का विवाह अन्धक कुल के राजा उग्रसेन के छोटे भाई देवक की कन्या देवकी से करा दिया गया । वसुदेव की पांच बहिनों में से एक का विवाह हस्तिनापुर के राजा पाण्डु से हुआ ।

वसुदेव की एक बहिन श्रुतश्रुवा का विवाह दमघोष से हुआ । शिशुपाल इसी श्रुतश्रुवा का पुत्र था । अन्धकों के राजा उग्रसेन के पांच पुत्रों और नौ पुत्रियों में कंस सबसे बड़ा था । उग्रसेन अत्यन्त सीधे, शान्त, धर्मप्रिय व्यक्ति थे । कंस बड़ा ही अहंकारी एवं क्रूर था ।

उसने पिता की दुर्बलता का लाभ उठाकर उनके साम्राज्य पर कब्जा कर लिया । देवकी के आठवें पुत्र के हाथों मारे जाने की आकाशवाणी सुनकर कंस ने देवकी तथा वसुदेव को बंदीगृह में डाल दिया । कंस ने एक-एक करके देवकी के छह पुत्रों को मार दिया । सातवां पुत्र देवकी के गर्भ में सात महीने ही रह सका ।

वसुदेव की दूसरी पत्नी का जो पुत्र हुआ, वह बलराम के नाम से प्रसिद्ध हुआ । निरंकुश तथा अत्याचारी कंस को प्रतीक्षा थी देवकी के आठवें पुत्र की । कंस द्वारा पहरेदारों की संख्या बढ़ा दी गयी, ताकि जन्म लेते ही उसका अन्त कर दिया जाये । अर्द्धरात्रि को एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ । पहरेदार सोते रह गये ।

कारागार के समस्त द्वार खुल गये । वसुदेव जन्मे शिशु को लेकर ब्रजग्राम अपने मित्र नन्द के यहां पहुंचे । उसके एवज में वे यशोदा की कन्या को लेकर आये । कंस पुत्री को मारने हेतु उद्यत हो उठा, तभी उसे सुनायी पड़ा: ”अरे मूर्ख ! तू मुझे क्या मारता है, तुझे मारने वाला तो पृथ्वी पर जन्म ले चुका है ।”

नन्द-यशोदा के यहां पलने वाले इसी तेजस्वी पुंज का नाम कृष्ण था, जिनका जन्म ही अत्याचारियों का अन्त करने के लिए हुआ था । नन्द और यशोदा के लाडले बाल कृष्ण की बाल-लीलाओं से सम्पूर्ण ब्रजमण्डल मोहित और रोमांचित होता था ।

कभी वे घुटनों के बल दौड़ते हैं और किलकारियां मारते हैं, तो माखन चोरी करते हुए गोप-गोपिकाओं, नन्द, यशोदा का मन मोहते हैं । गो-चारण, मुरली वादन, वनविहार के समय वे ब्रज के नायक होते हैं और आम व्यक्ति की तरह ही सभी को चमत्कृत करते हैं । कालिया मर्दन कर ब्रज की रक्षा करते हैं ।

3. श्रीकृष्ण की अलौकिक लीलाएं:

कालिया मर्दन तथा कंस द्वारा भेजे गये पूतना, बकासुर, अघासुर, केशी जैसे दुष्ट दानवों को मार डालते हैं । इन्द्र के कोप से सम्पूर्ण ब्रजवासियों को बचाते हैं । कंस के प्राणघाती वार से अपनी तथा दाऊ बलराम की रक्षा करते हुए अपनी अलौकिक शक्तियों से सभी को अचम्भित करते हैं ।

चाणूर, मुष्टिक जैसे पहलवानों के साथ-साथ कुट, शल, तोषक से सामना करते हुए उनका वध करते हैं । कंस तो कृष्ण की शक्ति से इतना घबरा गया था कि वह श्रीकृष्ण के साथ-साथ सम्पूर्ण ब्रज और गोप-ग्वालों की हत्या करना चाहता है । वह श्रीकृष्ण पर अचानक वार कर देता है ।

निहत्थे किशोर कृष्ण शक्तिशाली कंस का साहस से सामना करते हैं और उसका वध कर देते हैं । मथुरा की प्रजा खुशी से झूम उठती है । देवकी, वसुदेव, उग्रसेन को कारावास से मुक्त कर पुन: उग्रसेन को राज्य सौंपकर चले जाते हैं । इधर कंस की मृत्यु से बौखलाये श्वसुर जरासंध कृष्ण और बलराम को मारने हेतु मथुरा को घेर लेते है ।

इस युद्ध में जरासंध पराजित हो जाता है । वह कालवयन के साथ मिलकर यादवों का नाश करना चाहता है । रातो-रात कृष्ण सम्पूर्ण यादवों, गाय-बैलों को द्वारिकापुरी भेज देते हैं । जरासंध और कालवयन की सेना हाथ मलती रह जाती है । कालवयन कृष्ण को अकेले पाकर उनका वध करने झपट पड़ता है ।

कृष्ण, मुचकुंद योगी की गुफा में छिप जाते हैं और मुचकुंद पर पीताम्बर डाल देते हैं । पीछा करता हुआ कालवयन, मुचकुंद को कृष्ण समझकर पदाघात करता है । मुचकुंद की योगाग्नि में जलकर वह भस्म हो जाता है । इसी प्रकार वे अपनी योगमाया से कौरवों का वध कर द्रौपदी के चीरहरण से उसकी रक्षा करते हैं ।

4. श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी का विवाह प्रसंग:

रुक्मिणी कुण्डीनपुर के राजा भीष्मक की बेटी थीं । जरासंध चाहता था कि रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से हो और रुक्मणी यह चाहती थीं उनका विवाह कृष्ण से हो । अत: कृष्ण को उन्होंने सन्देशा भेजा कि वह उनके सिवा किसी और से विवाह नहीं करेगी । उस दुष्ट शिशुपाल से तो सौ जन्मों में यीईा नहीं ।

कृष्ण का धड़धड़ाता हुआ रथ राजगार्ग से निकलकर उस मन्दिर की ओर मुड़ गया, जहां से रुक्मिणी पूजन कर बाहर निकल रही थीं । सैनिकों के घेरे के बीच रुक्मिणी को अपने रथ में बिठाकर कृष्ण पूरे वेग से निकल चले ।

रास्ते में रुक्मिणी के भाई राक्मा ने विरोध किया, तो श्रीकृष्ण ने उसका वध इसलिए नहीं किया, क्योंकि वे रुक्मिणी को दु:ख नहीं पहुंचाना चाहते थे । द्वारिका में रुक्मिणी और कृष्ण का विवाह हुआ जिनका पुत्र पराक्रमी प्रद्युम्न था । कालिंदी, मित्रविंदा, सत्या, जाश्वकती, भद्रा, लक्ष्मणा, सत्यभामा, रुक्मिणी-इन आठों से श्रीकृष्णा ने विवाह किया । इन आठों विवाह के प्रसग अत्यन्त रोचक हैं ।

सत्राजीत यादव को जब स्यमंतक मणि प्राप्त हुई, तो कृष्ण ने उसे उग्रसेन को दिया । उस मणि को सत्राजीत का बडा भाई प्रसेनजीत पहनकर आखेट चला गया । सिंह ने उसे मार डाला । उस मणि को सिंह से जाम्यवान ने प्राप्त किया । जाम्बवान ने अपनी पुत्री जाम्बवती से वृाष्ण का विवाह तय किया और वह मणि कृष्ण को अर्पित कर दी ।

सत्राजीत को अपनी शूल का ज्ञान हुआ, तो उसने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह   कृष्ण से  कर दिया । कालिंदी ने तपस्या करके कृष्ण को प्राप्त किया, तो मित्रविंदा और लक्षणा को रुक्मिणी की तरह तथा सुभद्रा से विवाह अपने परिजनों के आग्रह के फलस्वरूप किया । उद्दण्ड बैलों पर नियन्त्रण करने की शर्त पर सत्या से विवाह करना पडा ।

5. श्रीकृष्ण और नरकासुर प्रसंग:

इन आठों विवाह के पश्चात् कृष्ण की अगली मुठभेड प्रागज्योतिषपुर के राजा नरकासुर से हुई । नरकासुर ने द्वारिका में आतंक मया रखा था । कृष्ण ने सर्वप्रथम नरकासुर के पुत्रों के साथ ही उसके साथी मूर का सफाया किया ।

युद्ध में नरकासुर के वध के बाद अपार धन तथा सोलह हजार स्त्रियां कैद में मिलीं । इन अभागी स्त्रियों ने अपना तन-मन कृष्ण पर न्योछावर करना चाहा । कृष्ण ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर उन्हें पति जैसा सम्मान देते हुए द्वारिका में स्थान दिया ।

6. शिशुपाल वध और श्रीकृष्ण:

इन्द्रप्रस्थ नगरी में युधिष्ठिर के राजसूय यहा की तैयारियों एवं भव्य आयोजनों में भीष्म की आज्ञानुसार युधिष्ठिर और सहदेव ने श्रीकृष्ण का रवागत किया, तो यह बात चेदिराज शिशुपाल को नागवार गुजरी । वह रुक्मणी के कारण कृष्ण के प्रति वैरभाव रखता था ।

वह यज्ञ मण्डप में चिल्लाकर वोला: ”यहां ऐश्वर्यशाली कृपाचार्य, अश्करथामा, दुर्योधन, शल्य, कर्ण के होते हुए कृष्णा का कैसा सम्मान ? अरे ! कुन्ती के डरपोक पुत्रों, तुमने इसका सम्मान क्यों किया ? यह इसके योग्य नहीं ।

जैसे कुत्ता पृथ्वी पर गिरे हुए हविष्य सागग्री को चाटकर अपने आपको धन्य समझता है, जिस तरह विवाह की वेदी पर नपुंसक को ले जाना अन्धे को आईना दिखाना होता है, वैसे ही इस अयोग्य कृष्ण का तुम सम्मान कर रहे हो ।”

भीष्म को शिशुपाल ने कुलक-लकी, नपुंसक बूढ़ा कहा । भीम ने जब शिशुपाल को ऐसा करते रोकना चाहा, तो श्रीकृष्ण ने कहा: ”शिशुपाल मेरी बुआ का बेटा है । यदुवंशी है, मैं उराके सौ अपराध क्षमा कर सकता

हूं ।

इसके बाद एक भी अपशब्द कहा, तो मैं सुदर्शन से इसका वध कर दूंगा ।” शिशुपाल कृष्ण को पुन: अपशब्द कहता हुआ ललकारने लगा । श्रीकृष्ण ने चमचमाते हुए सुदर्शन चक्र से उसका वध कर दिया । श्रीकृष्ण ने उसकी सौ गालियों को बर्दाशत किया था ।

7. शान्तिदूत श्रीकृष्ण:

जब पाण्डव बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास व्यतीत करके आये, तो धृतराष्ट्र के समक्ष पाण्डवों ने अपना हा योजकर अनुरोध किया कि उन्हें आधा राज्य देकर न्याय करें । धृतराष्ट्र ने संजय को दूत बनाकर पाण्डवों के पास इसे अस्वीकार करते हुए भेजा । अब युद्ध निश्चित था ।

इधर युधिष्ठिर ने  कृष्ण से युद्ध की विभीषिका को टालने हेतु कहा । कौरवों से पांच गांव गांगे, तो कौरव पांच गाव तो क्या, सुई की नोक के बराबर तक की जमीन भी देने को तैयार नहीं थे । इधर द्रौपदी चाहती थी कि युद्ध हो ना हो, किन्तु उसके अपमान का बदला अवश्य मिलना चाहिए ।

कृष्ण हरितनापुर शान्ति का सन्देशा लेकर पहुंचे और कौरवों की सभा में बोले: ”आपका मन सभी राजवंशों से श्रेष्ठ है । युद्ध में आपके सामने ही आपके पुत्रों व भतीजों तथा रिश्तेदारों का विनाश होगा । बारह वर्ष और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद पाण्डव जो चाहते हैं, दे दीजिये ।”

धृतराष्ट्र ने इस पर अपनी लाचारी जतायी और दुर्योधन ने लाख समझाने पर यह कहा: “हम युद्ध से नहीं डरते ।” शान्तिदूत कृष्ण के समझाने पर भी कौरव नहीं माने । परिणामरचरूप, महाभारत का भयानक युद्ध हुआ ।

8. द्रौपदी के चीररक्षक श्रीकृष्ण:

दु:शासन ने एकवस्त्रा द्रौपदी को खींचकर सभा भवन में ला पटका था । केशों सहित उसे घसीटता हुआ चिल्लाने लगा: “पांच पतियों वाली द्रौपदी, तुम तो वेश्या हो । तुम्हें इस सभा में निर्वस्त्र करके हम अपने अपमान का बदला लेंगे ।” कारुणिक स्वर में द्रौपदी भीष्म, धृतराष्ट्र आदि से लाज बचाने हेतु गुहार कर रही थी ।

किसी ने उसकी गुहार न सुनी, तो उसने कातर स्वर में योगेश्वर कृष्ण को पुकारा: “हे मेरे भैया केशव ! तुम कहा हो ? अपनी बहिन की लाज बचाओ !” अन्तर्रात्मा से द्रौपदी की पुकार सुनकर श्रीकृष्ण ने साड़ी का छोर इतना बढ़ाया कि दु:शासन खींचता-खींचता थककर चूर हो गया । हारकर वह जमीन पर बैठ गया ।

9. पाण्डवों के रक्षक श्रीकृष्णा:

श्रीकृष्णा पाण्डवों के परम हितैषी थे । कृष्ण पर उनका प्रेम भी सामान्य नहीं, अपितु विशिष्ट था । अर्जुन के तो सखा, गुरु, ईश्वर कृष्ण ही थे । यहां तक कि कुरुक्षेत्र के मैदान में उनका रथ भी श्रीकृष्ण ने हांका था । अर्जुन को जन्म और मृत्यु का रहस्य समझाते हुए कर्मयोग की शिक्षा दी, वही गीता है ।

जयद्रथ के वध के समय उसके मायाजाल से अर्जुन की सहायता की । अर्जुन, नकुल, भीम, सहदेव को दिव्यास्त्र दिये । चीरहरण के समय द्रौपदी की लाज बचायी । लाखा महल में कौरवों द्वारा पाण्डवों को जलाकर मारने की योजना को निष्फल किया । अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी के पंचपुत्रों को मारने के षड्‌यन्त्र से बचाया ।

धृतराष्ट्र के लौह आलिंगन से भीम को बचाया । गांधारी द्वारा दिये गये श्राप को अपने ऊपर लेकर को बचाया । कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध के समय पाण्डवों की समय-समय पर रक्षा की ।

10. उपसंहार:

श्रीकृष्ण का चरित्र भारतीय हिन्दू संस्कृति में ऐसा चरित्र है, जो लोकनायक, नरनारायण के रूप में जन-जन में असीम आस्था और श्रद्धा का प्रेरणास्त्रोत है । निराकार और साकार सभी रूपों में वे ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं । यशोदाजी ने उनके छोटे से मुख में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्तियों को एकाकार होते हुए देखा था ।

वे अलोकिक शक्तियों के पुंज हैं । लौकिक रूप में वे माता यशोदा के पुत्र के रूप में अपनी बाल-लीलाओं से सबको चमत्कृत करते हैं । महाभारत के युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाने वाले कृष्ण रक्षक, मित्र, संकटमोचन, उपदेशक, गुरु, ईश्वर, कर्म तथा योग की शिक्षा देने वाले योगेश्वर हैं । सम्पूर्ण संसार उनकी योगमाया से उत्पन्न है । वे कालजयी अवतारी पुरुष हैं ।

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