ग्रामीण समाज में महिलाओं की स्थिति | Status of Women in Rural Society in Hindi.
ग्रामीण समाज एक ऐसी पितृ सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था वाली मनोवृत्ति पर विद्यमान है जो मानकर चलती है कि महिलाएँ दोयम दर्जे की नागरिक है तथा उन्हें संपत्ति, स्वास्थ्य, शिक्षा यहीं तक कि स्वयं के शरीर पर प्राकृतिक अधिकार से वंचित कर दिया जाता है ।
ग्रामीण समाज की महिलाओं की समस्याएँ कुछ अलग प्रकृति की हैं । ग्रामीण समाज में 90 प्रतिशत महिलाएं खेती पर निर्भर है तथा असंगठित क्षेत्रा में 98 प्रतिशत महिलाएँ है । ग्रामीण महिलाओं को लगातार 16-18 घण्टे कार्य करना पड़ता है ।
सुबह आटा पीसने से लेकर रात में बचा हुआ खाने का निवाला खाने तक उन्हें हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है । महिलाओं को दिनभर खेत में खपना पड़ता है, पानी लेने के लिए 4-4 मील पैदल जाना पड़ता है, घास काटनी पड़ती है और फिर घर का सारा काम खाना बनाना, बच्चों को पालना उनकी प्रमुख भूमिकाओं में से है फिर भी उनके श्रम को पितृसता महत्वपूर्ण नहीं मानती तथा यह कहते सुना जाता है कि तुम तो घर में पड़ी रहती हो यही मानसिकता महिलाओं को आज तक गरिमा पूर्ण जीवन नहीं दे पाया है ।
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महिला आंदोलनों ने महिलाओं की सत्ता में भागीदारी के लिए अपनी आवाज को बुलंद किया जिसके फलस्वरूप 73वां संविधान संशोधन लागू हुआ और पंचायती राज व्यवस्था में एक तिहाई, अब 50 प्रतिशत: महिला आरक्षण का प्रावधन लागू किया गया ।
जिसके फलस्वरूप वर्तमान में लगभग 14 लाख महिला जन प्रतिनिधि है । परंतु वास्तविकता में पुरूषों ने यह मौका उनसे छीन लिया तथा पंचायतों में चुनकर आयी महिला जनप्रतिनिधि के अधिकारों का उपयोग उसके पति, पिता अथवा भाइयों द्वारा किया जा रहा है और ग्रामीण महिला आज भी घर की चारदीवारी में अपने पारंपरिक घरेलू कार्य निपटा रही ३ ।
महिला आंदोलनों में ग्रामीण महिला की आवाज दबकर रह गयी है । आज जो कुछ भी अधिकार मिल रहे है वे सिर्फ शहरी मध्यम वर्ग की महिलाएं प्राप्त कर रही है तथा संगठित श्रम बाजार में ग्रामीण महिलाएं अनुपस्थित है जिससे वे अपने शोषण व अभय अत्याचार के खिलाफ भी खड़ी नहीं हो पा रही है ।
ग्रामीण महिलाओं के स्वास्थ्य. शिक्षा की स्थिति तो सोचनीय है भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की माने तो ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की ड्रॉप आउट रेट दर 2007-08 में कक्षा 5 में 24.4 प्रतिशत, कक्षा 8 में 41.3 प्रतिशत तथा कक्षा 10वीं में 57.3 प्रतिशत थी ।
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ग्रामीण क्षेत्रों में 53 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल से पहले हो जाती है । महिलाओं को शिक्षा के पात्र नहीं समझा जाता तथा लड़कियों को स्कूल न भेजने के पीछे सोच यह रहती है कि लड़कियों पढ़कर करेगी क्या उन्हें आखिर में चूल्हा ही तो संभालना है ।
अगर स्वास्थ्य की बात करें तो लड़कियों में आज ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर एनीमिया, कुपोषण अस्वच्छता, खुले में शांच जैसी समस्याएं व्याप्त है । समाज में यह सोच है कि लड़कियाँ कठजीवी होती है वे बीमार होने पर अपने आप ठीक हो जाएगी अतः उनका इलाज नहीं करवाया जाता । जिसका परिणाम यह है कि आज मातृत्व मृत्युदर 212 प्रतिलाख पहुंच चुकी है ।
ग्रामीण क्षेत्रों में कई स्थानों पर लड़कियों से देह व्यापार करवाया जाता है । जैसे राजस्थान, म.प्र. में काल-बेडियाँ व साँसी जनजातियों में वैश्यावृत्ति बड़े पैमाने पर प्रचलित है इसके अतिरिक्त संगठित गिरोह द्वारा लड़कियों का अपहरण करके अथवा नौकरी के बहाने बहला-फुसलाकर शहरों में वैश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है ।
गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 2004-05 से 2009 तक 5 हजार लड़कियाँ गायब हुई । पितृ सत्तात्मक सोच भारतीय ग्रामीण समाज में अपने प्रभावी रूप में विद्यमान है । यहां नारी को अपना झूठा सम्मान व इज्जत से जोड़कर देखा जाता है । अतः उसे किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं प्रेम विवाह करने वाली लड़कियों को ‘ऑनर किलिंग’, यानी सम्मान के नाम पर मौत के घाट उतार दिया जाता है ।
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यहां महिलाओं को अगर कोख से जिंदगी मिल गयी तो जीवन के किसी भी पड़ाव पर उसकी सीसे छीन ली जाती है जिसे हम भ्रूण हत्या, ऑनर किलिंग या दहेज हत्या के रूप में देख सकते है । अन्त में यही कहा जा सकता है कि ग्रामीण महिलाओं की समस्याओं को संवेदन शीलता के साथ समझने की जरूरत है तथा घरेलू हिंसा अधिनियम, संपत्ति के अधिकार के कानूनों से ग्रामीण महिलाओं को जागरूक करने की आवश्यकता है ताकि सदियों से पितृसत्ता की जकड़न से घुट रही ‘स्त्री शक्ति’ को इस सबसे बड़े लोकतंत्र का भाग्य तय करने में अपने अधिकार मिलें । क्योंकि देश की आधी आबादी को सशक्त किए बिना ना तो हम विकास को समावेशी बना सकते और ना ही भारत को महाशक्ति के रूप में देख सकते है, क्योंकि देश की महाशक्ति का रास्ता नारी शक्ति के द्वारा ही तय कर सकते है ।