वैज्ञानिक प्रबन्ध: विशेषताएँ, उद्देश्य और लाभ! Read this article in Hindi to learn about:- 1. वैज्ञानिक प्रबन्ध का अर्थ (Meaning of Scientific Management) 2. वैज्ञानिक प्रबन्ध की परिभाषाएँ (Definition of Scientific Management) 3. लक्षण या विशेषताएँ (Characteristics or Features) and Other Details.

Contents:

  1. वैज्ञानिक प्रबन्ध का अर्थ (Meaning of Scientific Management)
  2. वैज्ञानिक प्रबन्ध की परिभाषाएँ (Definition of Scientific Management)
  3. वैज्ञानिक प्रबन्ध के लक्षण या विशेषताएँ (Characteristics or Features of Scientific Management)
  4. वैज्ञानिक प्रबन्ध के उद्देश्य (Objects of Scientific Management)
  5. वैज्ञानिक प्रबन्ध के लाभ (Advantages of Scientific Management)
  6. टेलर एवं वैज्ञानिक प्रबन्ध (Taylor and Scientific Management)


1. वैज्ञानिक प्रबन्ध का अर्थ (Meaning of Scientific Management):

वैज्ञानिक प्रबन्ध दो शब्दों का योग है- विज्ञान तथा प्रबन्ध । ‘विज्ञान’ शब्द में ‘वि’ का अर्थ अधिक अथवा विशिष्ट से है और ज्ञान का अर्थ जानकारी से है । इस प्रकार ‘विज्ञान’ का अर्थ विशिष्ट जानकारी अथवा ज्ञान की अभिवृद्धि से है जो नये प्रयोगों द्वारा हमारे सामान्य ज्ञान में जुड़ जाती है ।

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‘प्रबन्ध’ किसी कार्य को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने की क्रिया को कहते हैं । इन दोनों शब्दों के समावेश से एक नये शब्द का बोध होता है ‘लक्ष्य’ । किसी भी कार्य को अभिवृद्धित ज्ञान के साथ सुव्यवस्थित रूप से चलाने की आवश्यकता तभी अधिक पड़ती है जब हमारे सामने कोई निश्चित लक्ष्य हो और हम उसकी अनुकूल प्राप्ति करना चाहते ही ।

इस प्रकार ‘वैज्ञानिक प्रबन्ध’ से आशय किसी भी कार्य को अभिवृद्धित ज्ञान की सहायता से योजनाबद्ध तरीके से किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सुव्यवस्थित रूप से चलाने से है ।

इसी को टेलर ने इस प्रकार व्यक्त किया है कि ‘वैज्ञानिक प्रबन्ध सही रूप से यह जानने की कला है कि क्या कार्य किया जाना है तथा उसके करने का सवोंत्तम तरीका कौन सा है? इस प्रणाली के अन्तर्गत कर्मचारियों का चयन तथा प्रशिक्षण वैज्ञानिक तरीके से किया जाता है ।’

स्पष्ट है कि टेलर ने, जिन्हें ‘वैज्ञानिक प्रबन्ध का जनक’ (Father of Scientific Management) कहा जाता है, वैज्ञानिक प्रबन्ध का आशय एक ऐसी प्रणाली से लिया है जिसमें- (i) उस कार्य का निर्धारण किया जाता है, जिसे कि करना है, (ii) उस सर्वोत्तम विधि का निर्धारण किया जाता है जिसे अपनाकर कार्य को कम से कम समय में मितव्ययतापूर्वक करना है, (iii) कार्य को करने के लिए योग्य व्यक्तियों का वैज्ञानिक ढंग से चयन किया जाता है और उन्हें वैज्ञानिक तरीकों से प्रशिक्षित किया जाता है ।


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2. वैज्ञानिक प्रबन्ध की परिभाषाएँ (Definition of Scientific Management):

वैज्ञानिक प्रबन्ध को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न रूपों एवं अर्थों में परिभाषित किया है ।

कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं:

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एच.एस.पर्सन (H.S. Person) के अनुसार- ”वैज्ञानिक प्रबन्ध से आशय ऐसे संगठन से है जो वैज्ञानिक अनुसन्धान तथा विश्लेषण द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों तथा नियमों पर आधारित हो न कि मनमाने तौर पर या परम्परागत त्रुटि सुधार प्रणाली के आधार पर ।”

एफ.डब्ल्यू.टेलर (F.W. Taylor) के अनुसार- ”वैज्ञानिक प्रबन्ध आपके यह जानने की कला है कि आप लोगों से यथार्थ में क्या कराना चाहते है तथा यह देखना चाहते हैं कि वे उसको सुन्दर से सुन्दर तथा मितव्ययतापूर्ण ढंग से कैसे करें ।”

ऑलिवर शेल्डन (Oliver Sheldon) के अनुसार- ”वैज्ञानिक प्रबन्ध से आशय किसी उद्योग में उसके प्रबन्धकों द्वारा निर्धारित योजना को इस प्रकार संचालित करना है कि उनके उद्देश्य सुविधापूर्वक प्राप्त किये जा सकें ।”

मार्शल (Marshall) के अनुसार- ”वैज्ञानिक प्रबन्ध का आशय स्व बड़े व्यवसाय के कार्मिक प्रशासन की उस विधि से है जिसका उद्देश्य उसके अधिकतम कर्मचारियों के दायित्वों की सीमा को कम करते हुए उनकी कार्य-क्षमता में वृद्धि करना है और सरलतम शारीरिक क्रियाओं के बारे में दिये गये निदेशों का विवेकपूर्ण अध्ययन करना है ।”

डीमर (Diemer) के अनुसार- ”वैज्ञानिक प्रबन्ध से आशय प्रबन्ध के क्षेत्र में कार्य की दशाओं पद्धतियों व विधियों से संबंधित ज्ञान प्राप्त करना व उनको समायोजित करके उपयोगी रूप में संगठित सिद्धान्तों की तरह विकसित करने से है ।”

पी.एफ.ड्रकर (P.F. Drucker) के अनुसार- ”वैज्ञानिक प्रबन्ध का तात्पर्य कार्य का संगठित अध्ययन कार्य का सरलतम भागों में विश्लेषण और प्रत्येक भाग का श्रमिक द्वारा श्रेष्ठ प्रकार से निष्पादन हो सके इसके लिए व्यवस्थित सुधार करना है ।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर सरलतम शब्दों में यह कह सकते हैं कि ‘वैज्ञानिक प्रबन्ध’ प्रबन्धकीय समस्याओं के हल का वह मानवीय दृष्टिकोण है जो कि वैज्ञानिक अनुसन्धान तथा विश्लेषण से प्राप्त नियमों, सिद्धान्तों स्व परिणामों पर आधारित होता है और जिसका उद्देश्य न्यूनतम व्यय पर अधिकतम लाभों की प्राप्ति करना होता है ।


3. वैज्ञानिक प्रबन्ध के लक्षण या विशेषताएँ (Characteristics or Features of Scientific Management):

वैज्ञानिक प्रबन्ध के मुख्य लक्षण/विशेषताएँ इस प्रकार है:

i. निश्चित लक्ष्य एवं योजना:

प्रबन्धक के पास जो पहले से निश्चित लक्ष्य उपलब्ध होते है, उन्हें प्राप्त करने के लिए आवश्यक साधन कैसे जुटाये जायें साधनों का कैसे प्रयोग किया जाये तथा न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन हेतु कौन-कौन सी विधियाँ संभव है आदि के लिए योजना का अग्रिम निर्माण करना होता है ।

ii. वैज्ञानिक विश्लेषण तथा प्रयोग:

लक्ष्य प्राप्ति के लिए योजना तथा योजना का आधार लक्ष्य होते हैं । विभिन्न तथ्यों का विश्लेषण करना तथा विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्षों को प्रयोग करके उनके गुण-दोष जाँचना वैज्ञानिक प्रणाली है ।

वैज्ञानिक प्रबन्ध में योजना का प्रायोगिक महत्व, उपयोगिता तथा उपलब्ध परिस्थितियों में उसकी उपयुक्तता जाँचने के पश्चात ही योजना का क्रियान्वयन किया जाता है ।

iii. सुनिश्चित नियम:

विश्लेषण तथा प्रयोग के पश्चात उपयुक्त ठहराये गये निष्कर्षों को क्रियान्वित करने के लिए नियम बनाये जाते हैं । नियमों का पालन प्रत्येक कर्मचारी के लिए आवश्यक होता है जिससे अनुशासन बना रहे । नियमों का प्रयोग सामूहिक रूप से किया जाना चाहिए ।

iv. मितव्ययता:
वैज्ञानिक प्रबन्ध का आधार ही मितव्ययता है । साधनों के अपव्यय को कम करने के लिए सूझबूझ पूर्ण आयोजन, योजना का सफल क्रियान्वयन, अनुशासन तथा अच्छे नियोक्ता-कर्मचारी संबंध आवश्यक है । सहयोग मितव्ययता की कुंजी है ।

v. अनुसन्धान में निरन्तरता:

वैज्ञानिक प्रबन्ध, सुधरी हुई क्रियाओं का प्रबन्ध में प्रयोग है । अतः इसे जीवित रखने के लिए आवश्यक है कि समयानुसार अध्ययन किया जाता रहे । अनुसन्धान एवं शोष में निरन्तरता के बिना वैज्ञानिक प्रबन्ध सफल नहीं हो सकता क्योंकि औद्योगिक वातावरण व समाज कभी जड़ नहीं हो सकता ।

vi. दक्षता में वृद्धि:

वैज्ञानिक प्रबन्ध का मुख्य लक्षण दक्षता में वृद्धि है । समय बचाने, लागत कम करने तथा शीघ्र कार्य सम्पन्न करने वाली प्रणालियों के निरन्तर प्रयोग से दक्षता में वृद्धि स्वाभाविक है । दक्षता घटाने वाली किसी योजना को वैज्ञानिक योजना नहीं कहा जा सकता है ।

vii. सामूहिक हित के लिए सामूहिक प्रयास:

कार्य विभाजन, बड़े पैमाने पर उत्पादन, सामूहिक कार्य आदि वैज्ञानिक प्रबन्ध के प्रतीक है । वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत प्रबन्धक का कार्य सभी कर्मचारियों में टीम भावना उत्पन्न करना है तथा उन्हें लक्ष्य प्राप्ति के लिए सामूहिक रूप से प्रेरित करना है ।

viii. उत्तरदायित्व निर्धारण:

कर्मचारियों को सौंपा गया कार्य उचित अध्ययन व परीक्षण के पश्चात करना होता है । प्रत्येक कार्य के प्रमाप निश्चित होते है तथा उसका निष्पादन समय किस्म लागत अपव्यय आदि सभी पूर्व नियोजित होते है । अतः उत्तरदायित्व का निर्धारण अधिक निश्चितता पूर्वक किया जा सकता है ।

वैज्ञानिक प्रबन्ध में व्यक्ति अपना उत्तरदायित्व किसी अन्य व्यक्ति पर नहीं डाल सकता है और न ही किसी को अपनी सीमा से अधिक उत्तरदायी ठहराया जा सकता है ।

ix. नियंत्रण:

योजनाबद्ध विधि से कार्य होने पर तथा पूर्व निश्चित नियमों के अनुकूल कार्य- अपेक्षा किये जाने पर नियन्त्रण अधिक प्रभावी हो सकता है । बीच के अनुसार ”योजना से उपलब्धियों की जांच करना ही नियन्त्रण है ।”

x. ढिलमिल नीति का अभाव:

नियमबद्ध कार्य प्रणाली अपनाये जाने से प्रबन्धकीय स्तर पर, कर्मचारी स्तर पर, पर्यवेक्षकीय स्तर पर तथा अन्य किसी भी स्तर पर ढिलाई नहीं बरती जा सकती । कार्य निष्पादन कार्य समाप्ति आदि के बारे में दृढ़ निश्चय एवं संकल्प किये जा सकते हैं ।

xi. श्रम एवं पूंजी में समन्वय:

वैज्ञानिक प्रबन्ध से ज्ञात हुआ है कि पूंजी तथा श्रम दोनों का उद्देश्य एक ही है । यदि दोनों मिलकर कार्य करें तो लक्ष्यों की प्राप्ति आसानी से हो सकती है ।


4. वैज्ञानिक प्रबन्ध के उद्देश्य (Objects of Scientific Management):

वैज्ञानिक प्रबन्ध, प्रबन्ध क्षेत्र की समस्याओं को हल करने के लिए अपनाया गया एक ऐसा वैज्ञानिक दृष्टिकोण है जिसके प्रमुख उद्देश्य डॉ. जोन्स के अनुसार निम्नलिखित हैं:

i. कार्य की सभी क्रियाओं में अधिक दक्षता की दृष्टि से प्रशिक्षित व्यक्ति उपलब्ध कराना ।

ii. उपकरण कच्ची सामग्री कार्य विधि तथा कार्य दशा में सुधार और मानकीकरण करना ।

iii. कार्य विन्यास, मार्ग निर्धारण, समय-क्रम निर्धारण उत्पादकीय सामग्री का नियोजन क्रम भण्डारण तथा लेखा विधियों में सुधार करना ।

iv. संस्थानों तथा विभागों में समन्वय स्थापित करना और उस पर पर्याप्त नियन्त्रण रखना जिससे कार्य-विलम्ब त्रुटियां दुर्घटना तथा कार्य के प्रति उपेक्षा कम हो सके ।

v. सामयिक प्रशिक्षण निरन्तर मार्गदर्शन और तत्काल पुरस्कार की व्यवस्था करना ।

vi. अनुमान और पूर्वधारणाओं के आधार पर बने हुए नियमों के स्थान पर तथ्यों तथा विश्लेषण के आधार पर नियम बनाना ।

vii. विशेषज्ञ तथा सलाहकार व्यवस्था द्वारा व्यक्तिगत निर्णय के क्षेत्र को सीमित करना ।

viii. प्रचार की व्यवस्था करना ।

ix. श्रमिकों को अत्यधिक कार्य भार, थकान व दुर्घटना पूर्ण कार्यों से सुरक्षित रखना ।

x. श्रमिकों को योग्यता के अनुसार काम उपलब्ध कराना उन्हें प्रशिक्षण द्वारा उन्नति के अवसर प्रदान करना और कार्यक्षमता में वृद्धि करना ।

xi. मजदूरी बढ़ाने कार्य के घण्टे कम करने अधिक लाभ के उपाय करने तथा कम कीमत पर उपभोक्ताओं को वस्तुएँ उपलब्ध करने का प्रयास करना तथा

xii. श्रम व पूंजी में समन्वय स्थापित करना ।


5. वैज्ञानिक प्रबन्ध के लाभ (Advantages of Scientific Management):

टेलर ने वैज्ञानिक प्रबन्ध से होने वाले लाभों के संबंध में कहा है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध का सामान्य अनुकरण औद्योगिक कार्यों में लगे व्यक्तियों की औसत उत्पादकता को भविष्य में दुगुना कर देगा । टेलर का उपरोक्त कथन वैज्ञानिक प्रबन्ध को उत्पादकों/नियोक्ताओं श्रमिकों उपभोक्ताओं और राष्ट्र सभी के लिए एक वरदान मानता है ।

इस प्रबन्ध व्यवस्था से प्रत्येक वर्ग को होने वाले लाभ इस प्रकार हैं:

I. उत्पादकों/नियोक्ताओं को लाभ:

वैज्ञानिक प्रबन्ध से सर्वाधिक लाभ उत्पादक/नियोक्ता को होता है:

(i) साधनों का पूर्ण उपयोग;

(ii) उत्पादन में मितव्ययता;

(iii) औद्योगिक संबंधों में सुधार तथा शांतिपूर्ण वातावरण;

(iv) वस्तुओं की गुणवत्ता में सुधार;

(v) पर्यवेक्षण व नियंत्रण लागत कम;

(vi) श्रमिकों की कुशलता में वृद्धि;

(vii) श्रम-विभाजन के लाभ;

(viii) प्रतियोगिता के लिए सक्षम;

(ix) समय तथा उत्पादन की मात्रा का पूर्ण आयोजन सम्भव;

(x) आधुनिक मशीनों तथा प्रशिक्षित व्यक्तियों का उपयोग संभव;

(xi) उत्पादन की प्रतिष्ठा में वृद्धि;

(xii) व्यवसाय के स्थायित्व में वृद्धि;

(xiii) शोध एवं अनुसन्धान को स्थान;

(xiv) व्यवसाय की प्रतिष्ठा में वृद्धि ।

II. श्रमिकों को लाभ:

(i) रुचि का कार्य उपलब्ध होना;

(ii) कार्य क्षमता वृद्धि के लिए प्रशिक्षण की सुविधा;

(iii) प्रगति के उचित अवसर;

(iv) उपयुक्त मजदूरी एवं अभिप्रेरण;

(v) समय की बचत;

(vi) अच्छी कार्य दशाएँ;

(vii) जीवन स्तर में वृद्धि;

(viii) मानसिक क्रान्ति से स्वतन्त्र चिन्तन का अवसर तथा मनोबल में वृद्धि;

(ix) रोजगार में स्थायित्व;

(x) समाज में प्रतिष्ठा ।

III. उपभोक्ताओं को लाभ:

(i) सस्ती वस्तुएँ उपलब्ध होना;

(ii) अच्छी गुणवत्ता की प्रमाणित वस्तुएँ उपलब्ध होना;

(iii) चयन के लिए अधिक वस्तुएँ उपलब्ध होना;

(iv) वास्तविक आय में वृद्धि से रहन-सहन के स्तर में सुधार ।

IV. राष्ट्र को लाभ:

(i) देश का औद्योगिक विकास;

(ii) राष्ट्रीय उत्पादन एवं आय में वृद्धि;

(iii) सामाजिक स्तर में वृद्धि;

(iv) औद्योगिक क्रान्ति;

(v) श्रमिक आन्दोलन से होने वाली क्षति से बचाव;

(vi) कर क्षमता में वृद्धि;

(vii) रोजगार में वृद्धि ।

इस प्रकार व्यापारिक प्रबन्ध सभी क्षेत्रों में लाभकारी है । थॉम्पसन के अनुसार- ”वैज्ञानिक प्रबन्ध” ने घाटे में चलने वाले उद्योगों को लाभ दिलाया जो लाभ में चल रहे थे उनका लाभ बढ़ाया तथा इस बात के पर्याप्त प्रमाण है कि उसका समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा ।


6. टेलर एवं वैज्ञानिक प्रबन्ध (Taylor and Scientific Management):

प्रबन्धकीय उद्देश्यों एवं औद्योगिक प्रगति के मार्ग में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों का सर्वप्रथम अध्ययन श्री चार्ल्स बैवेज ने किया था जिन्होंने 1870- 71 में लागत एवं समय आदि के प्रयोग किये ।

लेकिन वैज्ञानिक प्रबन्ध को सर्वाधिक सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय श्री एफ. डब्ल्यू, टेलर को जाता है, जिन्होंने सन् 1911 में ‘Principles and Methods of Scientific Management’ नामक पुस्तक लिखी और प्रबन्ध को वर्तमानकाल के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा उपयोगी विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित किया । इसी कारण इन्हें ‘वैज्ञानिक प्रबन्ध के जनक’ के नाम से भी जाना जाता है ।

टेलर का जन्म अमरीका के फिलाडेलफिया के जार्जटाउन में 1856 कह में हुआ था । ये मध्यम परिवार से संबंधित थे । इन्होंने हार्वर्ड की एण्ट्रेन्स परीक्षा पास की लेकिन अस्त्रों में दर्द के कारण अपने अध्ययन को आगे जारी न रख सके । इन्होंने 19 वर्ष की आयु में फिलाडेलफिया की एक कम्पनी में एप्रेंटिस के रूप में कार्य करना प्रारम्भ किया ।

लगभग तीन वर्षों के बाद 1878 में अमरीका की मिडवेल स्टील कम्पनी में एक श्रमिक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया । अपने परिश्रम एवम् लगन के कारण इस कम्पनी में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुये 1884 में मुख्य अभियन्ता के पद पर पहुँच गये ।

टेलर ने इस कम्पनी में लगातार 20 वर्षों तक कार्य करने के पश्चात 1898 में बेथलहेम स्टील कम्पनी में मुख्य अभियन्ता पद पर कार्य आरम्भ किया । टेलर इस कम्पनी में भी अपने वैज्ञानिक विचारों को लागू करना चाहते थे, लेकिन सभी प्रबन्धकों ने इनके विचारों का विरोध किया ।
फलस्वरूप 1901 में उन्हें बेथलहेम स्टील कम्पनी को छोडना पडा । इनका स्वर्गवास 1915 में हुआ । बेथलहेम स्टील कम्पनी छोड़ने के पश्चात इन्होंने कई पुस्तकें व लेख लिखे, जिनके माध्यम से अपने विचारों को उद्योगपतियों व प्रबन्धकों के सम्मुख रखने का प्रयास किया ।

वैज्ञानिक प्रबन्ध के जनक टेलर ने स्वयं अपनी विचारधारा को व्यक्त करते हुए वैज्ञानिक प्रबन्ध के मूलाधारों का उल्लेख किया है तथा कहा है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध आवश्यक रूप से किसी महान् आविष्कार या नवीन अपूर्ण तथ्यों की खोज नहीं है, अपितु यह तो कुछ ऐसे तत्वों का संयोजन है जो कि विगत काल में विद्यमान नहीं थे, जैसे पूर्व तथ्यों के विश्लेषण, एवं वर्गीकरण के आधार पर निर्मित कानून तथा नियम, जो कि विज्ञान का निर्माण करते ।

वैज्ञानिक प्रबन्ध उद्योगपतियों, प्रबन्धकी एवम् श्रमिकों के विचारों में मानसिक परिवर्तन की अपेक्षा रखता है तथा वह पारस्परिक दायित्वों एवं कर्तव्यों के नवीन विभाजन को प्रस्तुत करता है और मैत्रीपूर्ण सहयोग के वातावरण की आवश्यकता तथा स्थितियों को प्रकट करता है ।

टेलर के शब्दों में वैज्ञानिक प्रबन्ध को निम्नलिखित द्वारा समझा जा सकता है:

a. वैज्ञानिक प्रबंध का दर्शन:

वैज्ञानिक प्रबन्ध कोई एक तत्व नहीं वरन् एक सम्पूर्ण संयोजन है, जिसका निर्माण निम्नांकित तत्व करते है:

(i) विज्ञान न कि अंगूठा नियम:

यह इस तथ्य को बतलाता है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध की विचारधारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर चलती है । यह परम्परागत प्रबन्ध की विचारधारा के विपरीत है तथा परम्परागत पद्धतियों, विधियों और दृष्टिकोणों के स्थान पर वैज्ञानिक पद्धतियों, विधियों और दृष्टिकोणों को अपनाने पर बल देती है ।

यह परम्परा अन्तर्ज्ञान तथा अन्य-विश्वास पर आधारित न होकर विज्ञान पर आधारित है । इस प्रबन्ध-व्यवस्था में प्रत्येक क्रिया का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है । इसलिए टेलर के अनुसार ”वैज्ञानिक प्रबन्ध 75% विश्लेषण तथा 25% सामान्य बुद्धि है ।”

(ii) समन्वय न कि संघर्ष:

यह इस तथ्य को बतलाता है कि संगठन की समृद्धि में सबकी समृद्धि है । यहां परस्पर तालमेल की आवश्यकता है किसी प्रकार के विवाद की नहीं । सभी के लक्ष्य एक है व श्रमिक एवं मालिक एक ही पथ के पथिक है । इसमें कच्ची सामग्री, मशीनों, कार्य पद्धतियों आदि का मानकीकरण तथा सरलीकरण कर दिया जाता है, जिससे समन्वय व एकरूपता आ जाती है ।

(iii) सहयोग, न कि व्यक्तिवाद:

यह विचार बतलाता है कि सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सभी वर्गों का सहयोग आवश्यक है । व्यक्तिवाद सामूहिक प्रयासों को विफल बनाता है, इसलिए व्यक्तिगत लक्ष्यों के स्थान पर सामूहिक लक्ष्यों को एवम् व्यक्तिगत प्रयासों के स्थान पर सामूहिक प्रयासों को सही दिशा प्रदान करना प्रबन्ध का आधार है ।

(iv) अधिकतम उत्पादन, न कि सीमित उत्पादन:

यह विचार अन्य उपरोक्त तत्वों के अनुरूप ही संगठन से संबंधित सभी वर्गों में वैचारिक क्रान्ति की आवश्यकता पर बल देता है । यह तत्व बतलाता है कि उत्पादन अधिकतम होना चाहिए, न कि सीमित । अधिकतम उत्पादन संस्था के सभी वर्गों के सामूहिक हितों व समृद्धि में वृद्धि करेगा तथा उद्योग के सभी वर्गों के लिए लाभकारी होगा ।

(v) प्रत्येक व्यक्ति का उसकी अधिकतम कुशलता एवं समृद्धितक विकास:

यह तत्व बतलाता है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति का विकास उसकी अधिकतम कुशलता तक किया जाता है तथा उसे उच्चतम समृद्धि तक पहुंचने का अवसर प्रदान किया जाता है । इसके लिए उनका वैज्ञानिक चयन किया जाता है, उन्हें योग्यतानुसार कार्य सौंपा जाता है, अनुकूल कार्य दशाएं प्रदान की जाती है तथा प्रेरणादायक मजदूरी आदि देकर उचित प्रोत्साहन दिया जाता है ।

b. मानसिक क्रान्ति:

टेलर के मतानुसार, वैज्ञानिक प्रबन्ध की योजना को सफल बनाने के लिए श्रमिकों एवं प्रबन्धकों की मान्यताओं तथा विचारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन आना आवश्यक है । सुन्दर, वैज्ञानिक तथा नवीनतम मशीनों तथा औजारों का प्रयोग तभी सुखद परिणाम दे सकता है जबकि उद्योगपति तथा श्रमिकों के मानवीय संबंध सुदृढ़ हों, तथा इनके बीच की विचार-विषमता को दूर किया जा सके ।

टेलर ने इसी प्रकार के रचनात्मक परिवर्तन को मानसिक क्रान्ति की संज्ञा दी है । उनके मतानुसार श्रमिक तथा प्रबन्धक एक ही कार्य के दो पहलू हैं जब तक उनके विचारों में सामंजस्यता नहीं आयेगी तब तक कोई योजना सफल नहीं हो सकेगी ।

c. प्रबन्धकों के कर्तव्य:

टेलरने प्रबन्ध के निम्न चार कर्तव्यों का उल्लेख किया है, जिन्हें उन्होंने वैज्ञानिक प्रबन्ध के आधारभूत सिद्धान्त के नाम से पुकारा है:

(i) प्रबन्धकों का कर्तव्य है कि वे कर्मचारियों के कार्य के प्रत्येक तत्व के लिए विज्ञान का विकास करे जिससे कि परम्परागत अंगूठा नियम को बदला जा सके ।

(ii) प्रबन्धकों को चाहिए कि वे वैज्ञानिक आधार पर कर्मचारियों का चयन करें और तत्पश्चात उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था करें जिससे कि कर्मचारियों का अधिकतम बिकास हो सके ।

(iii) प्रबन्धकों को चाहिए कि कर्मचारियों के साथ पूर्ण सहयोग करें, जिससे कि प्रत्येक कार्य विकसित किये गये वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार किया जा सके ।

(iv) प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों के मध्य कार्य एवं उत्तरदायित्व का समुचित विभाजन किया जाना चाहिए ।

इस प्रकार वैज्ञानिक प्रबन्ध में वैज्ञानिक विधियों द्वारा प्रत्येक कार्य के करने की विधि तय की जाती है । इसके लिए समय व गति का अध्ययन किया जाता है जिससे कार्य को करने के लिए अनावश्यक समय व गति को हटाकर कार्य को पूरा करने के लिए कम से कम समय लगे ताकि लागत कम करके उत्पादन बढ़ाया जा सके ।

कार्य के लिए मानक तय किये जाते है तथा उपकरणों, मशीनों व कच्ची सामग्री का मानकीकरण किया जाता है । कार्य के अनुसार श्रमिकों का चयन करके उन्हें प्रशिक्षण व शिक्षा देकर तैयार किया जाता है । इससे प्रति श्रमिक उत्पादन बढता है तथा श्रमिकों को प्रेरणादायी मजदूरी प्रणाली द्वारा अधिक वेतन प्राप्त होता है ।

इसके द्वारा अच्छी कार्यकारी दशाएँ प्रदान की जाती हैं । इससे औद्योगिक विवाद के कारणों को समाप्त किया जाता है जिससे नियोजकों व श्रमिकों के बीच मधुर व घनिष्ठ संबंध स्थापित होते हैं । नियोजकों को अधिक उत्पादन से अधिक लाभ प्राप्त होता है तथा समाज को अच्छी किस्म की अधिक वस्तुएँ कम मूल्य पर मिल जाती है । इससे सामाजिक स्तर में वृद्धि होती है तथा राष्ट्रीय उत्पादन बद जाता है ।