सामाजिक आन्दोलन! Read this article in Hindi to learn about:- 1. सामाजिक आन्दोलन की परिभाषा 2. सामाजिक आन्दोलन की विशेषतायें 3. तत्व 4. अवस्थायें 5. कारण.

Contents:

  1. सामाजिक आन्दोलन की परिभाषा
  2. सामाजिक आन्दोलन की विशेषतायें
  3. सामाजिक आन्दोलन के तत्व
  4. सामाजिक आन्दोलन की अवस्थायें
  5. सामाजिक आन्दोलन के कारण


1. सामाजिक आन्दोलन की परिभाषा:

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सामाजिक प्ररूपों में एक मुख्य प्ररूप सामाजिक आन्दोलन है । इसकी परिभाषा करते हुये हरबर्ट ब्लूमर ने लिखा है- ”सामाजिक आन्दोलन जीवन की एक नई व्यवस्था स्थापित करने के लिए एक सामूहिक प्रयास माने जा सकते हैं ।”

स्पष्ट है कि सामाजिक आन्दोलनों का उद्देश्य समाज के वर्तमान जीवन में कोई न कोई परिवर्तन लाना है । इस प्रकार सामाजिक आन्दोलन परिवर्तन करने का सामूहिक प्रयास है । आरनोल्ड एम. रोज के शब्दों में ”सामाजिक आन्दोलन व्यक्तियों की एक बड़ी संख्या के एक अनौपचारिक संगठन को कहते हैं जो सामाजिक लक्ष्य लिये होता है, अनेक व्यक्तियों का प्रभावशाली संस्कृति संकुलों संस्थाओं अथवा विशिष्ट वर्गों को समाज में संशोधित या स्थानान्तरित करने का एक सामूहिक प्रयास है ।”

इस प्रकार सामाजिक आन्दोलन सामाजिक लक्ष्य को लेकर किये जाते हैं । ये किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि अनेक व्यक्तियों के सामूहिक प्रयास का परिणाम होते हैं । इनमें संस्कृति संकुलों संस्थाओं अथवा विशिष्ट वर्गों को परिवर्तित करने का प्रयास किया जाता है ।

सामाजिक आन्दोलन प्रारम्भ में एक छोटे रूप में शुरू होता है किन्तु क्रमशः बढ़ते हुए वह समस्त समाज पर छा जाता है, उसकी अपनी प्रथायें और परम्परायें होती है उसमें एक संगठन होता है, उसमें नेता होते है और श्रम विभाजन होता है तथा उसमें कुछ सामाजिक नियम और मूल्य होते हैं ।

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इस प्रकार प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन की एक अपनी संस्कृति एक सामाजिक संगठन और जीवन की एक योजना होती है । इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए बेरी ने लिखा है- ”जैसे-जैसे एक सामाजिक आन्दोलन विकसित होता है वह एक समाज का रूप ग्रहण कर लेता है । उसमें संगठन और रूप प्रथाओं और परम्पराओं की व्यवस्था स्थापित नेतृत्व और स्थायी श्रम विभाजन सामाजिक नियम और सामाजिक मूल्य संक्षेप में एक संस्कृति एक सामाजिक संगठन और जीवन की एक नई योजना बन जाती हैं ।”

बरनार्ड फिलिप्स के शब्दों में- ”हम एक सामाजिक आन्दोलन की परिभाषा एक समूह द्वारा वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को परिवर्तित करने अथवा प्रभावित करने के स्पष्ट उद्देश्य से एक सामूहिक कार्य के रूप में कर सकते हैं ।”


2. सामाजिक आन्दोलन की विशेषतायें:

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सामाजिक आन्दोलन की उपरोक्त परिभाषाओं से उसकी निम्नलिखित विशेषतायें स्पष्ट होती हैं:

(i) सामाजिक लक्ष्य:

सामाजिक आन्दोलन जैसा कि इनके नाम से स्पष्ट है, किसी न किसी सामाजिक लक्ष्य को लेकर उत्पन्न होते हैं और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही कार्य करते हैं । सामाजिक लक्ष्य से तात्पर्य सामाजिक संरचना सामाजिक संस्था अथवा सामाजिक जीवन में परिवर्तन के लक्ष्य से है ।  जोसेफ गसफील्ड के अनुसार- सामाजिक आन्दोलन ”सामाजिक व्यवस्था के किसी पहलू में परिवर्तन की माँग की ओर निर्देशित सामाजिक रूप से स्वीकृत क्रियायें और विश्वास हैं ।”

(ii) सामाजिक परिवर्तन:

सामाजिक आन्दोलन का उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन लाना है । इस सामाजिक परिवर्तन का प्रकार और मात्रा भिन्न-भिन्न सामाजिक आन्दोलनों में भिन्न-भिन्न होती है । हार्टन और हन्ट के अनुसार- ”समाजशास्त्री सामाजिक आन्दोलनों का परिवर्तन को आगे बढ़ाने या रोकने के प्रयास मानते है ।”

इसी बात को भिन्न शब्दों में रखते हुए जेम्स मैक्की ने लिखा है- “सामाजिक आन्दोलन जनसमुदाय के सामूहिक कार्य के द्वारा सामाजिक संरचना में जान-बूझकर परिवर्तन लाने के चेतन प्रयास हैं ।” अचेतन रूप में सामाजिक परिवर्तन सदैव होता रहता है । सामाजिक आन्दोलनों के द्वारा जान-बूझकर परिवर्तन करने का प्रयास किया जाता है ।

(iii) विरोधी प्रवृत्ति:

प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन किसी न किसी वर्तमान स्थिति, सामाजिक व्यवस्था अथवा सामाजिक संस्था के रूप, प्रथा या परम्परा के विरोध में उत्पन्न होता है और उसमें परिवर्तन करना चाहता है । इस प्रकार सामाजिक आन्दोलन में विरोधी प्रवृत्ति होती है ।

(iv) संगठन:

सामाजिक आन्दोलन आरम्भ में छोटे रूप में शुरू होकर क्रमशः संगठित रूप ग्रहण कर लेते हैं । इस संगठन के बिना वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकते । इस तथ्य को स्पष्ट करते हुये हाइम्स ने लिखा है- ”एक सामाजिक आन्दोलन सामूहिक व्यवहार की एक जटिल गतिशील व्यवस्था है जिसके सबसे अधिक विशिष्ट घटक एक सामाजिक समष्टि, एक सामाजिक विचारधारा, और एक सामाजिक संरचना होते है ।”

(v) प्रासंगिक:

मूक सामाजिक आन्दोलन किसी न किसी बात के विरोध में उत्पन्न होते हैं इसलिए ये प्रासंगिक होते हैं । विशेष प्रसंग के कारण ही उनका जन्म होता है और यह प्रसंग बदल जाने पर ये समाज हो जाते हैं । अस्तु किसी भी सामाजिक आन्दोलन को स्थायी नहीं माना जाना चाहिये ।

(vi) भौगोलिक क्षेत्र:

न्यूनाधिक रूप से प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन किसी न किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में सीमित होता है । उदाहरण के लिए भारतवर्ष में कुछ सामाजिक आन्दोलन किसी विशेष राज्य और कुछ सम्पूर्ण देश में सीमित रहे हैं । शायद ही कोई सामाजिक आन्दोलन समस्त विश्व में फैला हो ।

(vii) कालावधि:

सामाजिक आन्दोलन क्रमश: विकसित होते हैं । इस प्रकार इनके विकास की एक कालावधि होती है । इस अवधि के समाप्त हो जाने के पश्चात् ये दिखायी नहीं पड़ते ।

(viii) गतिशीलता:

सामाजिक आन्दोलन सामाजिक लक्ष्यों को लेकर उत्पन्न होते हैं । इन सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ये आन्दोलन सदैव गतिशील रहते हैं और देशकाल के परिवर्तन के साथ-साथ बदलते जाते है । जो आन्दोलन इस प्रकार गतिशील नहीं होते वे अपने सामाजिक लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहते है ।

(ix) नेता की भूमिका:

सामाजिक आन्दोलनों का जन्म आरम्भ में किसी न किसी नेता के विचार में होता है । बाद में प्रत्येक आन्दोलन में छोटे-बड़े अनेक नेतागण दिखायी पड़ते हैं । सामाजिक आन्दोलनों को निर्देशन देने के लिए इन नेताओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है ।

(x) साहित्य:

चूंकि सामाजिक आन्दोलन विशेष प्रकार की सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए उत्पन्न होते हैं इसलिए वे अपने विचारों को किसी न किसी प्रकार के साहित्य के माध्यम से फैलाने का प्रयास करते हैं इस साहित्य में जहां एक ओर वे अपना मत उपस्थित करते हैं वहां दूसरी ओर वे विरोधी मतों की आलोचना भी करते हैं ।


3. सामाजिक आन्दोलन के तत्व:

विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक आन्दोलन के जो विभिन्न तत्व बतलाये हैं उनसे भी सामाजिक आन्दोलन की विशेषतायें स्पष्ट होती हैं । वैन्डल किंग के अनुसार सामाजिक आन्दोलन में 5 मुख्य तत्व होते हैं- लक्ष्य, विचारधारा, सामूहिक संश्लिष्टता, संगठन और स्थिति व्यवस्था तथा कार्यविधि ।

ब्रूल और सेल्जनिक ने सामाजिक आन्दोलन में तीन तत्व माने हैं-एक विशेष परिप्रेक्ष्य और विचारधारा संगठन और आदर्शवाद की तीव्र भावना तथा कार्य की प्रवृत्ति । जेम्स गसफील्ड सामाजिक आन्दोलनों में 5 तत्व मानता है- सामूहिक प्रघटन क्रियायें और विश्वास, माँग, परिवर्तन और सामाजिक व्यवस्था । इसी प्रकार अन्य समाजशास्त्रियों ने भी सामाजिक आन्दोलनों में विभिन्न तत्व दिखलाये हैं ।

प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन किसी विशेष स्थिति के विरोध में जन्म लेता है, क्रमशः संगठित रूप ग्रहण करता है, लम्बे समय तक निरन्तर गतिशील रहता है, सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करता है और इसके बाद समाप्त हो जाता है । इस प्रकार सामाजिक आन्दोलन के जीवन में अनेक चरण अथवा अवस्थायें पाई जाती है ।

हाईम्स ने सामाजिक आन्दोलन के विकास में निम्नलिखित चार अवस्थायें मानी हैं:

(A) प्राथमिक अवस्था:

यह प्राथमिक अवस्था जनप्रतिक्रियाओं की अवस्था होती है । इसमें बेरोजगार और असन्तुष्ट तथा पीड़ित व्यक्ति अपने विचारों और शिकायतों के द्वारा गम्भीर स्थिति का दृश्य उपस्थित कर देते हैं ।

(B) द्वैतीयक अवस्था:

वह भीड़ व्यवहार की अवस्था है । इसमें आन्दोलन फैल जाता है, उत्तेजना बढ़ती । जन प्रदर्शन, जुलूस, सभायें और हड़तालें संगठित की जाती हैं और कभी-कभी हिसांत्मक दंगे भी होते हैं ।

(C) औपचारिक आन्दोलन:

यह लोक आचरण की अवस्था है । इसमें सामूहिक असन्तोष के लक्ष्य परिभाषित होकर विचारधारा का रूप ले लेते हैं और आन्दोलन औपचारिक रूप से संगठित हो जाता है ।

(D) क्रान्ति:

आन्दोलन की अन्तिम अवस्था में वह क्रान्ति का रूप ग्रहण कर लेता है जिसमें एक ओर केन्द्रीय लक्ष्य घोषित किए जाते हैं और दूसरी ओर साधन के रूप में हिंसा के प्रयोग के लिए भी तैयारी होती है ।


4. सामाजिक आन्दोलन की अवस्थायें:

बैन्डल किंग ने सामाजिक आन्दोलन के विकास को दो अवस्थाओं में विभाजित किया है । आन्तरिक विकास की अवस्था में तीन अवस्थायें होती हैं-प्रारम्भिक अवस्था संगठनात्मक अवस्था और स्थायी अवस्था । बाहरी विकास की अवस्था में भी तीन सोपान होते हैं- अन्वेषण, चुनाव और एकीकरण ।

इसी प्रकार अन्य समाजशास्त्रियों ने भी सामाजिक आन्दोलन में विभिन्न चरण दिखलाये हैं । यहाँ पर यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई भी दो आन्दोलन बिल्कुल एक से नहीं होते और न समान अवस्थाओं से गुजरते हैं ।

फिर भी सामान्य रूप से सामाजिक आन्दोलन के विकास में निम्नलिखित चरण अथवा अवस्थायें दिखलायी जा सकती हैं:

(I) असन्तोष की स्थिति:

प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन किसी न किसी सामाजिक असन्तोष के कारण उत्पन्न होता है । जब लोग सामाजिक संरचना, संस्था, प्रथा, परम्परा अथवा नियम आदि में से किसी से अत्यधिक असन्तुष्ट हो जाते हैं तो किसी सामाजिक आन्दोलन के जन्म की भूमिका तैयार होती है ।

(II) सार्वजनिक उत्तेजना:

सामाजिक आन्दोलन सामूहिक अथवा जन आन्दोलन होते हैं । अस्तु, आरम्भिक अशान्ति की स्थिति से वे शीघ्र ही सार्वजनिक उत्तेजना की स्थिति में आ जाते हैं । इसमें असन्तोष एक बड़े समूह में फैल जाता है, अनेक विषयों पर बहस होने लगती है, उत्साह दिखलायी पड़ता है और लोग भड़के हुए होते हैं ।

(III) औपचारिक संगठन:

किन्तु उत्तेजित समूह सामाजिक लक्ष्यों को प्रान्त नहीं कर सकता । अस्तु, सामाजिक आन्दोलन में तीसरी अवस्था औपचारिक संगठन की अवस्था होती है । इसमें आन्दोलन कुछ नेताओं के नेतृत्व में एक औपचारिक संगठन प्राप्त करता है । इस संगठन के माध्यम से आन्दोलन को दूर-दूर तक फैलाने का प्रयास किया जाता है ।

(IV) संस्थाकरण:

औपचारिक संगठन के पश्चात् सामाजिक आन्दोलन का संस्थाकरण होता है । अब वह एक स्थायी संस्था अथवा तंत्र का रूप धारण कर लेता है और उसके लक्ष्यों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो जाती है ।

(V) समापन:

लक्ष्यों को प्राप्त करने के पश्चात् सामाजिक आन्दोलन समाप्त हो जाते हैं । इस स्थिति में कुछ आन्दोलन किसी विशेष मठ या सम्प्रदाय का रूप ग्रहण कर लेते हैं और उसी में सीमित होकर समाप्त हो जाते हैं । कुछ अन्य औपचारिक रूप से समाप्त कर दिए जाते हैं ।


5. सामाजिक आन्दोलन के कारण:

सामाजिक आन्दोलनों की विशेषताओं और प्रकार के विवेचन से उनके कारण स्पष्ट होते है । साधारणतया सामाजिक आन्दोलनों के समाजशास्त्रीय, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण दिये जाते हैं । इन स्पष्टीकरणों में सामाजिक आन्दोलनों के सामाजशास्त्रीय, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक कारण पर बल दिया गया है इनकी व्याख्या से सामाजिक आन्दोलन के कारण स्पष्ट होंगे ।

(i) समाजशास्त्रीय स्पष्टीकरण:

समाजशास्त्रियों ने सामाजिक आन्दोलनों के कारणों में निम्नलिखित को महत्त्वपूर्ण माना है:

(अ) सामाजिक विघटन:

सामाजिक विघटन समाज के विभिन्न वर्गों की स्थितियों और कार्यों की अव्यवस्था को कहते हैं । इससे असन्तोष उत्पन्न होता है जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक आन्दोलन जन्म लेते हैं ।

(ब) स्थिति की विषमता:

जब समाज में विभिन्न व्यक्तियों की स्थितियों में अत्यधिक विषमता दिखलायी पड़ती है तो निम्न स्थिति के लोगों में असन्तोष उत्पन्न होता है और वामपंथी तथा दक्षिणपंथी आन्दोलन जन्म लेते हैं ।

(स) वर्ग चेतना:

कार्ल मार्क्स के अनुसार सामाजिक विकास का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है । वह आन्दोलन को वर्ग संघर्ष कहता है जो कि वर्ग चेतना का परिणाम है । जब शोषित वर्ग में वर्ग चेतना तीव्र हो जाती है तो वह शोषक वर्ग के उन्मूलन के लिये क्रान्तिकारी आन्दोलन छेड़ देता है ।

(द) सामाजिक आदर्श:

प्रत्येक सामाजिक आन्दोलन कुछ सामाजिक आदर्शों को स्थापित करना चाहता है । इस प्रकार सामाजिक आदर्श, सामाजिक आन्दोलन के महत्वपूर्ण कारण हैं ।

उपरोक्त समाजशास्त्रीय स्पष्टीकरण सामाजिक आन्दोलन के समाजशास्त्रीय पहलू को स्पष्ट करता है किन्तु इससे अन्य पहलुओं की व्याख्या नहीं होती । अस्तु यह स्पष्टीकरण संसार के सभी देशों में सभी आन्दोलनों की व्याख्या नहीं कर सकता ।

(ii) ऐतिहासिक स्पष्टीकरण:

इतिहासकार सामाजिक आन्दोलनों के मूल में किसी न किसी ऐतिहासिक घटना को कारण मानते हैं । इससे यह तो अवश्य पता चलता है कि कोई आन्दोलन किस प्रकार जन्म लेता है किन्तु इससे यह पता नहीं चलता कि एक सी परिस्थितियों में किसी समाज में विभिन्न प्रकार के आन्दोलन क्यों उत्पन्न होते हैं । अस्तु ऐतिहासिक स्पष्टीकरण आन्दोलन के कारणों की पर्याप्त व्याख्या नहीं है ।

(iii) मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण:

समाज मनोवैज्ञानिक आन्दोलनों के मूल में सामूहिक तनावों जैसे मनोवैज्ञानिक कारणों की ओर संकेत करते हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं कि मनोवैज्ञानिक असन्तोष ही प्रत्येक प्रकार के आन्दोलन के जन्म में मुख्य कारण है किन्तु इसे आन्दोलन का पर्याप्त कारण नहीं कहा जा सकता ।

वास्तव में सामाजिक आन्दोलनों के कारणों की व्याख्या करने के लिये समाजशास्त्रीय, ऐतिहासिक अथवा मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरणों में से कोई एक पर्याप्त नहीं है, इन सभी को ध्यान में रखने से सामाजिक आन्दोलन के कारण अधिक आसानी से समझ में आ सकते है ।

उदाहरण के लिये भारतवर्ष में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में जो राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ हुआ उसके कुछ ऐतिहासिक कारण थे, उसके मूल में भारतवासियों में बढ़ता हुआ तनाव और निराशा थी किन्तु इनके अतिरिक्त उसके अनेक समाजशास्त्रीय कारण भी थे ।


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