सामाजिक परिवर्तन के कारक! Read this article in Hindi to learn about the factors of social change. The factors are:- 1. सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors) 2. आर्थिक कारक (Economic Factors) 3. जैविकीय कारक (Biological Factors).
सामाजिक परिवर्तन में अनेक कारक काम करते है जिनमें सांस्कृतिक, प्रौद्योगिक, जैविकीय आर्थिक, भौगोलिक परिवेश सम्बन्धी, मनोवैज्ञानिक तथा विचारधारात्मक कारक मुख्य कारक हैं । भारतवर्ष में सामाजिक परिवर्तन का सर्वेक्षण करने से इन सभी कारकों का प्रभाव स्पष्ट होगा ये सभी कारक परस्पर निर्भर हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं ।
किसी भी विशिष्ट परिवर्तन के कारणों का विश्लेषण करने से उसके मूल में अनेक कारक उलझे हुए मिलते हैं । ये सभी कारक मिलकर सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न करते है । और विशिष्ट परिवर्तन में किस कारक का कितना योगदान है यह पता लगाना सदैव सरल नहीं होता संक्षेप में भारत में सामाजिक परिवर्तन में निम्नलिखित मुख्य कारक देखे जा सकते है ।
1. सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors):
संस्कृति मूल्यों शैलियों भावात्मक लगावों और बौद्धिक अभियानों का क्षेत्र है ये मूल्य, शैलियाँ और विचार आदि सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करते हैं । मूल्य से यहाँ तात्पर्य उस लक्ष्य से है जिसको प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति अथवा संस्था प्रयत्नशील रहती हैं ।
ADVERTISEMENTS:
उदाहरण के लिए हिन्दू विवाह की संस्था का लक्ष्य धर्म-पालन, प्रजोत्पत्ति और रति हैं । आधुनिक काल में धर्म का महत्व घट जाने से और परिवार नियोजन पर जोर दिए जाने के कारण रति ही विवाह की संस्था का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य रह गया है ।
मूल्यों में इस परिवर्तन से विवाह की संस्था अस्थिर हुई है । इससे पारिवारिक विघटन बड़ा है । प्राचीन परिवारों में पिता का बड़ा सम्मान था । परिवार के सभी सदस्य उसकी आज्ञा मानना अपना परम कर्तव्य समझते थे । आधुनिक काल में पिछली और नई पीढ़ियों के मूल्यों में अत्यधिक अनार होने के कारण उनके सम्बन्ध टूटते जा रहे है ।
भारतीय समाज में परिवर्तन करने वाले सांस्कृतिक कारकों में मुख्य निम्नलिखित हैं:
ADVERTISEMENTS:
(अ) संस्कृतिकरण:
भारतीय सामाजिक संरचना जाति-व्यवस्था पर आधारित है । इन जातियों में उतार-चढ़ाव का एक क्रम माना जाता है जिसमें कुछ जातियाँ अन्य जातियों से ऊँची समझी जाती हैं । वर्ण-व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण सामाजिक संरचना में सबसे ऊँचे थे क्योंकि वे ही समाज की संस्कृति को जीवित रखते थे ।
उनके बाद क्षत्रिय, फिर वैश्य और तब शूद्रों का नम्बर आता था अन्य जातियाँ-वर्ण व्यवस्था से बाहर गिनी जाती थीं । यह वर्ण-व्यवस्था सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित थी । जो वर्ण जितना ऊँचा था वह सांस्कृतिक दृष्टि से भी उतना ही ऊँचा था ।
जाति-व्यवस्था में वर्ण-व्यवस्था के अनुसार यह सामाजिक क्रम नहीं बना रह सका । कहीं पर ब्राह्मण ऊँचे माने गए तो कहीं आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली होने के कारण कोई क्षत्रिय जाति ही प्रमुख जाति मानी गई ।
ADVERTISEMENTS:
प्रमुख जाति जहाँ अन्य जातियों पर सामाजिक नियन्त्रण करती है और उनके परस्पर सम्बन्धों को व्यवस्थित करती है वहाँ अन्य जातियाँ उसका अनुकरण करने का प्रयास करती है । प्रमुख जाति का अनुकरण करने की यह प्रवृत्ति ही संस्कृतिकरण कहलाती है । डॉ. एम.एन. श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतिकरण का अर्थ केवल नए रिवाजों और आदतों को ग्रहण करना नहीं है बल्कि नए विचारों और मूल्यों को भी अभिव्यक्त करना है । संस्कृतिकरण से विशिष्ट जाति को सामाजिक संस्तरण में ऊँचा स्थान मिलता है ।
किन्तु ऊँची जाति का अनुकरण करने में नीची जाति सावधानी से काम लेती है क्योंकि अधिक स्पष्ट रूप से अनुकरण करने के कभी-कभी बुरे परिणाम भी होते हैं जैसा कि डॉ. मजूमदार ने दिखलाया है, भारतीय जातियों में जहाँ एक ओर संस्कृतिकरण की प्रक्रिया दिखलाई पड़ रही है वहाँ दूसरी ओर असंस्कृतिकरण की प्रक्रिया भी देखी जा सकती है ।
(ब) पश्चिमीकरण:
आधुनिक काल में भारत में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से व्यापक सामाजिक परिवर्तन हुए है । इस प्रकार पश्चिमीकरण सामाजिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारक है । पश्चिमीकरण के द्वारा भारतीय समाज में परिवार की संस्था, विवाह की संस्था, समाज के विभिन्न सदस्यों के परस्पर सम्बन्ध यौन-सम्बन्धी मूल्य, स्त्रियों की शिक्षा और गतिशीलता, वेशभूषा, मूल्य और विचार, सामाजिक नियन्त्रण के साधन इत्यादि विभिन्न तत्वों में महत्वपूर्ण परिवर्तन दिखलाई पड़ता है ।
पश्चिमीकरण के साथ-साथ पश्चिम का भौतिकवाद, विज्ञानवाद, उपयोगितावाद, व्यवहारवाद, व्यक्तिवाद इत्यादि विभिन्न प्रवृतियाँ पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित भारतीय नर-नारियों में देखी जा सकती हैं । फिर भी पाश्चात्य सभ्यता से जितना अधिक ग्रहण किया गया है उसकी तुलना में सांस्कृतिक प्रभाव अभी बहुत कम है । इस क्षेत्र में सांस्कृतिक विडम्बना दिखलाई पड़ती है ।
(स) लौकिकीकरण:
प्राचीन भारतीय संस्कृति धर्मप्राण संस्कृति कहलाती है किन्तु आधुनिक काल में पश्चिमीकरण के प्रभाव से देश में लौकिकीकरण बढ़ता जा रहा है । लौकिकीकरण से सामाजिक संस्थाओं रीति-रिवाजों और व्यवहारों के तरीकों में धर्म का प्रभाव कम होता जा रहा है और उसके स्थान पर उपयोगिता या व्यक्तिगत रुचि के आधार पर काम होता है । स्वतन्त्रता के बाद से भारत सरकार ने धर्मनिरपेक्षता का आदर्श अपनाया है । इससे भी भारत में लौकिकीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई है ।
(द) जनतन्त्रीकरण:
आधुनिक काल में पश्चिम के अधिकतर देशों में राजनीतिक व्यवस्था में जनतन्त्र को ही सर्वोत्तम प्रणाली माना जाता है । इसका मुख्य कारण यह है कि जनतन्त्र के मूल तत्व ‘स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व’ आधुनिक मानव-चेतना के अनुकूल हैं ।
देश को स्वतन्त्रता मिलने के बाद से भारतवर्ष में भी जनतन्त्रीय सरकार की स्थापना हुई है । यद्यपि अभी सामाजिक क्षेत्र में जनतन्त्रीकरण बहुत दूर की बात है किन्तु फिर भी अनेक क्षेत्रों में इस दिशा में प्रगति हो रही है । राजनीतिक सत्ता के अधिकाधिक विकेन्द्रीकरण और जनतन्त्रीय मूल्यों को मान्यता दिए जाने से जात-पात, धर्म, क्षेत्र, लिंग, आयु आदि के आधार पर व्यक्तियों में भेदभाव कम होता जा रहा है ।
जनतन्त्रीय आदर्श के अनुसार भारत सरकार ने अस्पृश्यता को अपराध घोषित कर दिया है तथा समाज के अन्य अंगों के समकक्ष में लाने में सहायता देने के लिए समाज के पिछड़े वर्गों को विशेष अधिकार दिए गए हैं । देश के प्रत्येक नागरिक को कानून की दृष्टि में अन्य नागरिकों के समान माना जाता है ।
प्रत्येक को व्यवसाय विवाह, शिक्षा, विचारों की अभिव्यक्ति, शासन में भाग लेने, समिति बनाने आदि की पूरी स्वतन्त्रता है । इससे समाज के पिछड़े वर्गों और स्त्रियों की स्थितियों और कार्यों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए है । स्त्रियों की दशा में सामाजिक परिवर्तन होने से परिवार और विवाह की संस्था में महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन हुए हैं ।
(य) राजनीतिकरण:
भारत को स्वतन्त्रता मिलने के बाद से और देश में वयस्क मताधिकार दिए जाने से छोटे-से-छोटे गाँव से लेकर बड़े-से-बड़े नगर तक सब कहीं राजनीति का बोलबाला है । गाँव-गाँव में रेडियो पहुंच जाने से बहुत से लोग राजनीतिक गतिविधियों में रुचि लेने लगे है ।
चुनाव के दिनों में यह रुचि और भी बढ़ जाती है । चुनाव जीतने के लिए विभिन्न राजनीतिक दल और उनके द्वारा खड़े किए गए उम्मीदवार समाज में सब प्रकार से अपनी सत्ता बनाए रखने का प्रयास करते है । बड़े-बड़े जमींदारों और रियासतों के राजाओं के समाप्त हो जाने के बाद अब अधिकतर शक्ति राजनीतिक नेताओं के हाथ में आ गई है, इसलिए अब राजनीति ही अनेक सामाजिक परिवर्तनों का निर्णय करती है राजनीतिक कारणों से ही कुछ लोग अस्पृश्यता उन्मूलन के पक्ष में और कुछ विपक्ष में बोलते देखे जाते हैं ।
राजनीतिक कारणों से ही जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि विभिन्न विघटनकारी शक्तियाँ बड़ी हैं । दूसरी ओर राजनीतिक कारणों से अनेक सामाजिक समूहों में सुदृढ़ता और संगठन भी बढ़ा है । आज देश का इतना राजनीतिकरण हो गया है कि छोटे-से-छोटे गाँव से लेकर बड़े-से-बड़े नगर में अधिकतर गतिविधियाँ राजनीतिक कारणों से निर्धारित होती हैं ।
2. आर्थिक कारक (Economic Factors):
समकालीन समाज में सामाजिक परिवर्तन में विभिन्न कारकों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारक आर्थिक हैं केवल भारत में ही नहीं बल्कि संसार के सभी समाजों में आधुनिक काल में आर्थिक कारकों से ही सबसे अधिक सामाजिक परिवर्तन हुआ है ।
संक्षेप में ये आर्थिक कारक निम्नलिखित हैं:
(अ) औद्योगीकरण:
औद्योगीकरण संसार में सामाजिक परिवर्तन का सबसे अधिक प्रमुख कारण है । औद्योगीकरण ही आधुनिकता का आधार है और संसार का कोई भी देश इसकी अवहेलना नहीं कर सकता क्योंकि इसी से मनुष्य और प्रकृति का सम्बन्ध निश्चित होता है ।
इस दृष्टि से यह सांस्कृतिक प्रगति का एक मापदण्ड है और बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण कोई भी देश इसके बिना प्रगति नहीं कर सकता । सच तो यह है कि जिस देश में औद्योगीकरण जितना ही अधिक हुआ है वह देश अन्य देशों की तुलना में सब प्रकार से उतना ही आगे दिखलाई पड़ता है ।
भारतवर्ष में औद्योगीकरण से नगरीकरण बढ़ा, व्यापार बढ़ा, लोगों के मिलने-जुलने के अवसर बड़े, आर्थिक क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन हुए और सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में संस्थाओं और मूल्यों का रूप बदल गया ।
(ब) नगरीकरण:
यद्यपि नगरों का विकास आर्थिक के अलावा अन्य कारणों से भी हुआ है किन्तु आर्थिक कारण और उनमें भी औद्योगीकरण नगरीकरण का प्रमुख कारण है । संसार में सब-कहीं नगरों की संख्या और बडे-बडे नगरों का विस्तार बढता जा रहा है । भारतवर्ष भी इसका उपवाद नहीं है ।
नगरों की संख्या और विस्तार बढ़ने से देश में नगरीय समाज की विशेषताएँ जैसे भौतिकवाद व्यक्तिवाद, जीवन की तीव्र गति निर्वैयक्तिक सामाजिक सम्बन्ध, सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि, स्त्री-पुरुष का अधिक सामाजिक सम्पर्क, बड़े परिवारों का विघटन और संयुक्त परिवार के स्थान पर केन्द्रक परिवार की स्थापना, विवाह-पूर्व और विवाह से बाहर यौन-सम्बन्धों में वृद्धि इत्यादि अनेक सामाजिक लक्षण दिखलाई पड़ते हैं ।
प्रौद्योगिक परिवर्तन:
सामाजिक परिवर्तन के कारकों में आधुनिक युग में प्रौद्योगिकी का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है । भारतवर्ष में बिजली, भाप तथा पैट्रोल से चलने वाले उत्पादन के यन्त्रों यातायात और सन्देशवहन के साधन तथा दैनिक जीवन के सैकड़ों कामों के लिए नई-नई मशीनों के आविष्कार से समाज का रूप बदलता जा रहा है और परिवार तथा विवाह जैसी संस्थाओं पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है ।
औद्योगिक विकास के प्रत्यक्ष प्रभाव श्रम संगठन, श्रम विभाजन, विशेषीकरण, जीवन की तीव्र गति तथा उत्पादन में वृद्धि आदि हैं । अप्रत्यक्ष रूप से देश में नगरीकरण और उससे बढ़ने वाली बेकारी, अपराध, किशोरापराध, वर्ग-संघर्ष आदि भी प्रौद्योगिकी के परिणाम हैं उद्योगों में मशीनों के प्रयोग से देश में नगरीकरण बढ़ा और कारखाना-पद्धति का उदय हुआ ।
इससे नए वर्गों की उत्पत्ति हुई और नवीन विचारधाराएँ तथा आन्दोलन दिखलाई पड़ने लगे । स्त्रियों की स्थिति में भारी परिवर्तन हुआ । मूल्यों पर व्यापक प्रभाव पड़ा । भौतिकवाद, व्यक्तिवाद, विशेषीकरण आदि आधुनिक प्रौद्योगिकी का ही परिणाम है ।
नगरीय जीवन में प्रौद्योगिकी का प्रभाव साम्प्रदायिक भावना में कमी, समय का मूल्य बढ़ जाना सामाजिक नियन्त्रण की न्यूनता, नैतिकता का निम्न स्तर, अपराधों की संख्या में वृद्धि तथा सामाजिक और व्यक्तिगत विघटन के रूप में देखा जा सकता है । प्रौद्योगिकी से सामाजिक परिवर्तन को एक छोटे से उदाहरण से समझाया जा सकता है ।
पहले जब कार को स्टार्ट करने के लिये हैण्डिल घुमाने की जरूरत पड़ती थी तब स्त्रियाँ कार नहीं चलाती थीं जब से कारों में स्वयंचालक यन्त्र का प्रयोग होने लगा तब से समृद्ध स्त्रियाँ बड़ी संख्या में कार स्वयं चलाने लगीं इससे उनकी वेशभूषा, गतिशीलता, रहन-सहन, विचार, मूल्य तथा सामाजिक सम्बन्धों में व्यापक परिवर्तन हुये ।
3. जैविकीय कारक (Biological Factors):
सामाजिक परिवर्तन के जैविकीय कारकों में जनसंख्या का गुणात्मक पहलू आता है । जनसंख्या के गुण-दोष, आकार वितरण, रचना आदि में परिवर्तन से व्यापक सामाजिक परिवर्तन होते हैं । उदाहरण के लिये भारत में बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों में लाखों की संख्या में मजदूर पुरुषों के बाहर से नगर में आने से नगर में स्त्री-पुरुष की संख्या का अनुपात बिगड़ जाता है जिसका परिणाम वेश्यावृत्ति और वेश्यागमन, अपराध, मानसिक रोग किशोरापराध आदि में वृद्धि के रूप में दिखलाई पड़ता है ।
देश में जनसंख्या अत्यधिक बढ़ जाने पर समाज का स्वास्थ्य नीचे गिरता और निर्धनता बढ़ती है । यह भारत में सब कहीं दिखलाई पड़ता है । जनसंख्या अत्यधिक बढ़ने से सामाजिक मूल्यों में भी परिवर्तन हुआ है । भारत में घड़े-बड़े नगरों में अत्यधिक भीड़-भाड़ और गन्दी बस्तियों की समस्या है जिनसे लोगों के चरित्र और स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।
इसीलिये सरकार परिवार नियोजन के लिये जोर शोर से प्रयत्नशील है । गर्भ-निरोधक उपायों का विज्ञापन किया जा रहा है । इससे यौन-सम्बन्धी मूल्यों में परिवर्तन हुआ है क्योंकि अवैध यौन-सम्बन्ध पहले से अधिक सम्भव हो गये हैं । बढ़ती हुई जनसंख्या की भोजन और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये देश में नित्य नये आविष्कार हो रहे हैं और नई-नई चीजों के कारखाने खुल रहे हैं ।
खेती को अलग प्रोत्साहन दिया जा रहा है । इन सबसे भी सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं । भारतीय जनसंख्या में अनेक गुणात्मक दोष हैं जैसे-नगरीय जनसंख्या की तुलना में ग्रामीण जनसंख्या का अधिक होना अधिक जन्मदर अधिक मृत्युदर इत्यादि । इन सब दोषों से विभिन्न सामाजिक संस्थाओं पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है ।
परम्परा और आधुनिकता:
भारतीय समाज में सामाजिक परिवर्तन में परम्परा और आधुनिकता दोनों की ओर प्रवृति दिखाई पड़ती है । परम्परावादी प्रवृति पश्चिमीकरण, लौकिकीकरण, जनतन्त्रीकरण नगरीकरण और औद्योगीकरण में बाधा पहुँचाती है जबकि आधुनिकतावादी प्रवृति इनमें सहायक है । आधुनिकतावाद विज्ञान, प्रौद्योगिकी और पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है ।
परम्परावाद के पीछे स्वदेशी की प्रवृत्ति है । इन दोनों ही प्रवृत्तियों को लेकर देश में विभिन्न प्रकार के राजनीतिक दल दिखलाई पड़ते हैं जो अपने-अपने समाज-दर्शन के अनुसार समाज के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं । अधिकतर आधुनिक विचारक देश में वांछित परिवर्तन लाने के लिये परम्परा और आधुनिकता के समन्वय के पक्षपाती हैं ।
भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्ति, दिशाओं और कारकों के उपरोक्त संक्षिप्त दिग्दर्शन से यह स्पष्ट होता है कि देश में पश्चिम के देशों के नमूने के अनुरूप सामाजिक परिवर्तन हो रहा है । यह ठीक है कि इस सामाजिक परिवर्तन को स्थानीय परिस्थितयों के अनुसार अधिक से अधिक मोड़ना वांछनीय है परन्तु परिवर्तन के मार्ग की बाधाओं विशेष रूप से परम्परागत अन्धविश्वासों, रूढ़ियों और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण को बदले बिना परिवर्तन की गति पर्याप्त रूप से तीव्र नहीं की जा सकती ।
समकालीन भारतीय समाज और संस्कृति एक संक्रमणकालीन स्थिति से गुजर रहे हैं । भविष्य की रूपरेखा क्या होगी यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता किन्तु यदि देश की समस्याओं के अनुसार सामाजिक परिवर्तन की दिशाओं को नियन्त्रित करना है तो परिवर्तन की वांछित दिशाओं और लक्ष्यों को पहले से निश्चित करके नियोजनपूर्वक परिवर्तन लाना होगा ।
इसमें सरकार और जनता दोनों के सहयोग की आवश्यकता है किन्तु सबसे अधिक महत्वपूर्ण योगदान समाज के पढ़े-लिखे और बौद्धिक वर्ग का होगा क्योंकि वे ही अन्य लोगों का मार्ग-दर्शन करते है, अन्य लोग उन्हीं का अनुकरण करते हैं ।
देश में इस प्रकार के सुदृढ़ बौद्धिक वर्ग का निर्माण नहीं हो सका है । बौद्धिक वर्ग में वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों ही प्रकार की प्रवृतियाँ दिखलाई पड़ रही है । इनका कहाँ तक सन्तुलन बना रहेगा और कौन सी प्रवृत्ति कहां तक दूसरी प्रवृत्ति पर हावी हो जायेगी-इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता ।