सामाजिक परिवर्तन के प्रतिरोध! Read this article in Hindi to learn about the restraints to social change.

यहां पर कुछ ऐसे कारकों का विवेचन भी प्रासंगिक होगा जो कि सामाजिक परिवर्तन की गति को कम करते हैं, रोकने हैं, अथवा उसमें प्रतिरोध उत्पन्न करते है ।

मुख्य प्रतिरोध निम्नलिखित हैं:

(1) आविष्कारों की कमी:

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आगबर्न और निमकॉफ के अनुसार सामाजिक परिवर्तन में आने वाले प्रतिरोध का एक मुख्य कारण आविष्कारों की सापेक्षिक अनुपस्थिति अर्थात् उनका अपेक्षाकृत कम होना है ।

Encyclopedia Americana के अनुसार- “एक आविष्कार कोई भी नवीन अथवा उपयोगी यान्त्रिक उपकरण अथवा वस्तु, प्रणाली खोज जड़ पदार्थ की रचना अथवा व्यवस्था है जो कि पहले ज्ञात अथवा प्रयुक्त नहीं होती है, अथवा वह किसी भी ज्ञात यन्त्र कला पद्धति या व्यवस्था में कोई भी उन्नति है ।”

इस प्रकार आविष्कार या तो किसी नई वस्तु यन्त्र, उपकरण, प्रणाली अथवा व्यवस्था का पता लगाना है या किसी पहले से ही मौजूद यन्त्र, वस्तु, उपकरण, प्रणाली अथवा व्यवस्था में कोई उन्नति करना है । दोनों ही दशाओं में आविष्कार सदैव नया होता है और उपयोगी भी होता है । कहा जाता है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है ।

इसका आशय भी यही है कि प्रत्येक आविष्कार किसी न किसी रूप में उपयोगी होता है । आविष्कारों से परिवर्तन-इस प्रकार आविष्कार का मानव समाज में परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान है । आविष्कारों के द्वारा मनुष्य अपने पर्यावरण से सामंजस्य करने के नये-नये उपाय निकालता है जिससे उसके जीवन और सामाजिक सम्बन्धों पर भी प्रभाव पड़ता है ।

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यदि यह कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि मनुष्य का समस्त सांस्कृतिक विकास आविष्कारों पर आधारित है । यदि उसमें आविष्कार करने की सामर्थ्य न होती तो वह आदिम अवस्था से सभ्य समाज की स्थिति तक न पहुँचता । आविष्कारों ने मानव जीवन के भौतिक पक्ष को ही नहीं बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक पक्ष को प्रभावित किया है ।

मनुष्य का रहन-सहन ही नहीं बल्कि उसकी कला, साहित्य, धर्म मनोरंजन आदि के क्षेत्र में भी नये-नये आविष्कार होते हैं जिनसे महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन हुये है । अतः आविष्कारों की कमी से सामाजिक परिवर्तनों का मन्द होना अनिवार्य है ।

वास्तव में आविष्कार स्वयं परिवर्तन का प्रतीक है । जिस समाज में आविष्कार बहुत कम होते है उसमें परिवर्तन भी बहुत कम दिखलाई पड़ता है । परन्तु आविष्कार के अपेक्षाकृत कम होने के कारण क्या है ? कुछ समाजों में आविष्कार इतने कम क्यों होते है ?

स्थूल से इसके लिए तीन कारण दिये गये हैं:

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आविष्कारों की कमी के कारण:

(अ) किसी भी नये आविष्कार के लिये समाज में कुछ आवश्यक तत्वों का होना जरूरी है । इन तत्त्वों की अनुपस्थिति में आविष्कार नहीं हो सकते । उदाहरण के लिये आविष्कार के लिए परिश्रम के साथ-साथ मानसिक योग्यता और बौद्धिक स्तर की उच्चता भी आवश्यक है जिस समाज के लोगों में ये गुण अधिक होते हैं वहाँ आविष्कार भी अधिक दिखलाई पड़ते हैं ।

(ब) आविष्कार तब होते हैं जबकि उनकी मांग अधिक होती है अत: ऐसे समाजों में आविष्कार बहुत कम होंगे जहाँ पर कि जनता गतिशील न हो अथवा जीवन के विभिन्न पहलुओं में परिवर्तन न चाहती हो ।

(स) समूह के व्यक्तियों में उपलब्ध आविष्कारों को स्वीकार करने की तत्परता का यदि अभाव है तो उन आविष्कारों का प्रचार नहीं हो पाता और फलत: उनसे होने वाले सामाजिक परिवर्तन भी नहीं हो पाते इसलिये केवल आविष्कार होना ही सामाजिक परिवर्तन के लिए काफी नहीं है ।

आवश्यकता इस बात की है कि समूह के सदस्य इन आविष्कारों को स्वीकार भी करें । अनेक देशों में तरह-तरह के आविष्कारों का घोर विरोध किया गया है उदाहरण के लिये भारतवर्ष में जब शुरु-शुरु में रेल चली तो जनता ने उसका घोर विरोध किया लोगों का विचार था कि उससे वायु दूषित होगी । इसी प्रकार अन्य आविष्कारों का भी विरोध किया गया है ।

जांच से पता चला है कि मद्यपान स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है परन्तु इस खोज को विभिन्न समाजों के सभी व्यक्तियों ने नहीं अपनाया अनेक समाजों में मद्यनिषेध का विरोध किया गया । अतः उससे जो सामाजिक परिवर्तन होते वे न हो सके ।

आविष्कार केवल भौतिक क्षेत्र में ही नहीं होते बल्कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी उनका उतना ही महत्व है उदाहरण के लिये भारतवर्ष में वेश्यावृति के विरुद्ध कानून एक वैधानिक आविष्कार था परन्तु क्योंकि जनता ने इसको अभी तक पूरी तरह स्वीकार नहीं किया है ।

अतः देश में वेश्यावृत्ति की दशा में होने वाले परिवर्तन अभी नहीं हो पा रहे हैं इस प्रकार जब समाज के सदस्य नये-नये सामाजिक विचारों अनुसंधानों और आविष्कारों को ग्रहण करने के लिए तत्पर नहीं होते तो उनसे होने वाले सामाजिक परिवर्तनों में बाधा पड़ती है और वे सम्भव नहीं हो पाते ।

(2) मनोवैज्ञानिक प्रतिरोध:

सामाजिक परिवर्तन के कुछ प्रतिरोध मनोवैज्ञानिक भी है । मनुष्य का स्वभाव है कि वह नई चीजों से डरता है और उसमें सन्देह करता है । मनुष्य स्वभाव से ही पुराने रीति-रिवाजों । प्रथाओं तौर तरीकों के अनुसार चलना चाहता है क्योंकि वे आजमाये जा चुके है और उनमें खतरा कम है मनुष्य की यह प्रवृत्ति परिवर्तन की विरोधी है ।

अतः जब तक पर्याप्त विचार और शिक्षा के द्वारा किसी विशेष परिवर्तन के प्रति सन्देह और भय मिटा नहीं दिया जाता तब तक लोग उस परिवर्तन को अपनाने से डरते हैं । वास्तव में परिवर्तन के विरोधी भय और विश्वास के मूल में मनुष्य का अज्ञान ही है ।

जब यह अज्ञान दूर कर दिया जाता है तो यह भय और अविश्वास भी दूर हो जाता है । इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन के प्रतिरोधक मनौवैज्ञानिक कारक ऐसे नहीं हैं जिनको उचित शिक्षा से बदला न जा सकता हो ।

(3) सामाजिक परिस्थितियाँ:

कुछ सामाजिक परिस्थितियाँ भी सामाजिक परिवर्तन में प्रतिरोध उत्पन्न करती हैं । उदाहरण के लिए भारतवर्ष में जातिप्रथा अनेक प्रकार के सामाजिक परिवर्तनों को रोकती है । रूढ़ियाँ सभी जगह पर सामाजिक परिवर्तनों का प्रतिरोध करती हैं ।

सामाजिक परिवर्तन करने के लिये इन रूढ़ियों को बदलना पड़ता है । सामाजिक प्रथायें और संस्थायें भी सामाजिक परिवर्तन की प्रतिरोधी हैं । सामाजिक परिवर्तन से इनमें परिवर्तन होता हैं परन्तु सामाजिक परिवर्तन को सफल बनाने के लिये इनमें परिवर्तन करने की दशायें उत्पन्न करना भी आवश्यक है ।

(4) राजनैतिक परिस्थितियाँ:

कुछ राजनैतिक परिस्थितियां भी सामाजिक परिवर्तन में प्रतिरोध उत्पन्न करती है । उदाहरण के लिये निरंकुश राजतन्त्र में राजा लोग ऐसे परिवर्तन नहीं होने देना चाहते जिनसे उनकी अपनी कुछ भी हानि होती हो ।

भारतवर्ष में राजाओं और बड़े-बड़े जमींदारों ने जनता में समानता लाने वाले अनेक परिवर्तनों का घोर विरोध किया । सर्वसत्ताधिकारी राज्य में राज्य की ओर से ऐसे सामाजिक परिवर्तनों को रोका जाता है जिनसे राज्य को हानि पहुँचने की सम्भावना हो चाहे उसमें जनता को लाभ ही क्यों न होता हो ।

(5) आर्थिक परिस्थितियाँ:

कुछ आर्थिक परिस्थितियाँ भी सामाजिक परिवर्तन में बाधा डालती हैं । उदाहरण के लिए निर्धनता सामाजिक परिवर्तन में सबसे बड़ी बाधा है । भूखे आदमी को रोटी के अलावा कुछ नहीं सूझता । जिस देश में लोग दोनों समय पेट भर भोजन भी नहीं प्राप्त कर सकते उस देश में सामाजिक परिवर्तनों की बात करना अज्ञान दिखाता है ।

परन्तु यदि निर्धनता लोगों में क्रान्ति की आग भडका दे तो कभी-कभी ऐसे सामाजिक परिवर्तन सम्भव हो पाते है जो आर्थिक स्थिति अच्छी न होने पर कभी नहीं हो सकते यहाँ यह ठीक है कि निर्धन व्यक्ति को कुछ नहीं सूझ पड़ता वहीं यह भी ठीक है कि धन की अधिकता मनुष्य को आलसी और स्थिर बना देती हे ।

अतः अत्यधिक निर्धनता और अत्यधिक धन दोनों ही दशायें परिवर्तन में बाधक कहा जा सकती हैं यद्यपि इस नियम के अपवाद भी देखे जा सकते है सच तो यह है कि यह निश्चित करना बहुत कठिन है कि कौन सी आर्थिक दशा किस तरह के सामाजिक परिवर्तन में बाधा पहुंचायेगी और किस तरह के सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करेगी परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि आर्थिक अवस्थायें जहाँ सामाजिक परिवर्तन को उकसाती भी है वहाँ कभी-कभी उसमें भारी प्रतिरोध उत्पन्न करती हैं ।

(6) सांस्कृतिक परिस्थितियाँ:

कुछ सांस्कृतिक परिस्थितियाँ भी सामाजिक परिवर्तन का प्रतिरोध करती है । उदाहरण के लिए भारत में दक्षिण में मन्दिरों में देवदासी की प्रथा से वेश्यावृति के उन्मूलन के सामाजिक परिवर्तन में बाधा पड़ती है इसी प्रकार देश में भिक्षावृत्ति को समाज करने में हिन्दू धर्म की अनेक मान्यतायें बाधा डालती है ।

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