सामाजिक प्रगति: अर्थ, विशेषतायें और सिद्धान्त! Read this article in Hindi to learn about:- 1. सामाजिक प्रगति का अर्थ (Meaning of Social Progress) 2. सामाजिक प्रगति की विशेषतायें (Importance of Social Progress) 3. सिद्धान्त (Principle) 4. सामाजिक मूल्य (Social Value).
सामाजिक प्रगति का अर्थ (Meaning of Social Progress):
प्रगति का शाब्दिक अर्थ किसी लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना है या केवल आगे बढ़ना है । परन्तु आगे बढ़ना या पीछे हटना प्रगति या अवनति सापेक्षिक शब्द है । यदि यह कहा जाय कि यह देश आगे बढ़ा तो इस बात का तब तक कोई अर्थ समझ में नहीं आ सकता जब तक यह न मालूम हो कि किस तरफ आगे बढ़ा अथवा उसने किस मूल्य या लक्ष्य को प्राप्त करने में प्रगति की ।
इस प्रकार प्रगति केवल परिवर्तन मात्र नहीं है । वह किसी विशेष दिशा में परिवर्तन है । प्रत्येक दिशा में परिवर्तन को प्रगति नहीं कहा जा सकता । उदाहरण के लिये यदि किसी देश में खेती की दशा खराब हो गई और अकाल पड़ गया तो यह परिवर्तन तो हुआ परन्तु इसे प्रगति कोई नहीं कहेगा ।
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अतः प्रगति का अर्थ किसी लक्ष्य को प्राप्त करने में आगे बढ़ना है । इस प्रकार इसका अर्थ उद्विकास से संकीर्ण है । मोटे रूप में उस परिवर्तन को प्रगति कहा जा सकता है जिससे किसी व्यक्ति संस्था अथवा समूह के जीवन में सहायता मिले क्योंकि जीवित रहना यद्यपि सर्वोच्च नहीं परन्तु सर्वप्रथम और अनिवार्य मूल्य है । जब जीवन ही नहीं रहा तब फिर मूल्य किस का और कैसा ? अतः प्रगति का नाम पाने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक परिवर्तन को कम से कम जीवनदायक तो होना ही चाहिये ।
I. वार्ड का मत:
लैस्टर वार्ड के अनुसार- ”प्रगति वह है जो कि मानव सुख में वृद्धि उत्पन्न करती है ।” जैसा कि वार्ड ने ठीक ही कहा है समाज के सदस्यों के सुख में उत्तरोत्तर वृद्धि सामाजिक प्रगति की एक निश्चित पहचान है और इसकी अनुपस्थिति में किसी भी परिवर्तन को प्रगति नहीं कहा जा सकता ।
मानव सुख की वृद्धि सामाजिक प्रगति की एक कसौटी है । यदि समाज के लोग अधिक सुखी है तो स्पष्ट है कि समाज प्रगति की ओर जा रहा है । यदि समाज के लोग दुखी हैं तो प्रगति नहीं मानी जा सकती । यहाँ पर यह ध्यान रखने की बात है कि सामाजिक सुख एक सापेक्ष शब्द है ।
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प्रगति की कसौटी के रूप में सामाजिक सुख का अर्थ केवल यह है कि लोग पहले की अपेक्षा अधिक सुखी हैं, यह सुख कितना कम है या अपर्याप्त है यह दूसरी बात है ।
यहां पर यह भी ध्यान रखने की बात है कि यदि समाज के थोड़े से लोग ही सुखी दिखाई पड़ते हैं तो उसको प्रगति की अवस्था नहीं माना जा सकता क्योंकि वे घोड़े से लोग ही तो समाज नहीं बनाते सामाजिक प्रगति के लिये यह आवश्यक है कि समाज के अधिकतर सदस्यों के सुख में वृद्धि हो ।
II. ग्रोब्ज और मूर का मत:
ग्रोब्ज और मूर के अनुसार- “प्रगति स्वीकृत मूल्यों के आधार पर एक वांछित लक्ष्य की ओर गति को कहते है ।” जैसा कि प्रगति के नाम से स्पष्ट है प्रगति का निश्चय किसी न किसी लक्ष्य के प्रसंग में ही किया जा सकता है । प्रगति वह गति है जो किसी लक्ष्य की ओर होती है ।
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परन्तु सभी तरह के लक्ष्य की ओर गति को भी प्रगति नहीं कहेंगे क्योंकि इनमें से कुछ लक्ष्य वांछनीय हो सकते है जबकि अन्य कुछ लक्ष्य अवांछनीय भी हो सकते है । अवांछनीय लक्ष्यों की गति को कोई भी प्रगति नहीं कहेगा इसलिये प्रगति के लिये किसी वांछनीय लक्ष्य की ओर गति आवश्यक है ।
यहाँ एक प्रश्न उठा है कि वांछनीय अथवा अवांछनीय की कसौटी क्या है ? उसका निश्चय कैसे किया जाय ? यह एक तथ्य है कि भिन्न-भिन्न मानव समाजों में और एक ही समाज में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न तरह की चीजों को वांछनीय कहा जाता है । कभी-कभी जो चीज एक समाज में वांछनीय मानी जाती है वही दूसरे समाज में अवांछनीय मानी जाती है ।
केवल यही क्यों बल्कि एक ही समाज में भी एक समय में जो चीज वांछनीय मानी जाती है वही चीज दूसरे समय में अवांछनीय मानी जाती है इसी तरह एक ही समाज में उसी समय में समाज के भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न समय में और कभी परस्पर विरोधी चीजों को वांछनीय मानते है ये सब मतभेद भिन्न-भिन्न समाजों में और भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में तथा एक ही समाज में भिन्न-भिन्न कालों में मूल्यों के भेद के कारण हैं इस तरह सामाजिक मूल्य यह निश्चित करते हैं कि क्या वांछनीय है और क्या अवांछनीय तथा वांछनीय का विचार सामाजिक लक्ष्य सिद्ध करता है जिनकी ओर गति से सामाजिक प्रगति मानी जाती है । स्पष्ट है कि सामाजिक प्रगति मूल्यों के अनुसार सापेक्ष है । मूल्य बदलने के साथ प्रगति की धारणा भी बदलती है ।
यहाँ पर यह कठिनाई हो सकती है कि मूल्यों के इस भेद में आखिरकार किन मूल्यों को ऊँचा माना जाय । इसके विषय में भिन्न-भिन्न समाजशास्त्री एक मत नहीं हैं । यद्यपि सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक मूल्य मानसिक मूल्यों से और मानसिक मूल्य भौतिक मूल्यों से ऊंचे है ।
उदाहरण के लिये मानसिक दृष्टिकोण से प्रगति यद्यपि भौतिक प्रगति का स्थान नहीं ले सकती परन्तु फिर भी इसको भौतिक प्रगति से ऊंचा माना जाता है । मूल्यों के संस्तरण में इस क्रम को मानने का आधार स्वयं मनुष्य की अपनी संरचना है । जहाँ तक भौतिक लक्ष्यों का सवाल है मनुष्य और पशु में अधिक अन्तर नहीं है ।
मानसिक लक्ष्य, कला, विज्ञान, साहित्य आदि और आध्यात्मिक मूल्य धर्म नीति आदि मनुष्य को पशु से ऊपर उठाते है । यदि भौतिक मूल्य प्राप्त कर लिये गये तो इसमें कोई मानवोचित श्रेष्ठता नहीं है उनको तो पशु भी प्राप्त कर सकते है । मानवोचित श्रेष्ठता तो तभी होगी जबकि मानसिक अथवा आध्यात्मिक मूल्य प्राप्त किये जायें ।
इस प्रकार मूल्यों में ऊंचे नीचे का निश्चय मनुष्य की श्रेष्ठता के आधार पर किया जाता है । दूसरे जैसे-जैसे मूल्य सूक्ष्म, जटिल और व्यापक होते जाते है वैसे-वैसे ही उनको ऊंचा मानना पड़ेगा । भौतिक मूल्यों से मानसिक मूल्य अधिक अध्यापक, जटिल और सूक्ष्म है तथा मानसिक मूल्यों से आध्यात्मिक मूल्य अधिक व्यापक, जटिल और सूक्ष्म हैं ।
इस प्रकार उपरोक्त परिभाषा में यह बात ठीक नहीं जंचती कि किसी भी समाज के समकालीन लोगों द्वारा माने गये मूल्यों से ही प्रगति की परीक्षा कर ली जाये । जैसा कि मूल्यों के उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है स्वयं मूल्यों में उतार चढ़ाव का एक क्रम है । अत: यह कहना अधिक बेहतर होगा कि निम्न से उच्चतर मूल्यों को प्राप्त करने की ओर गति को प्रगति कहा जा सकता है ।
III. मैकाइवर का मत:
मैकाइवर के अनुसार- “जब हम प्रगति की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य किसी भी दिशा से नहीं होता बल्कि किसी परम शुभ, किसी गन्तव्य स्थान से होता है जो कि आदर्श रूप में निर्धारित होता है और केवल काम करती हुई शक्तियों के विचार से नहीं निर्धारित होता ।”
इस परिभाषा में मैकाइवर ने यह ठीक ही कहा है कि प्रगति का लक्ष्य आदर्श रूप में निश्चित होता है । मूल्यों के क्रम के अनुसार प्रगति का विचार निश्चित होगा मूल्यों के इस सलारण को आदर्श रूप में ही निश्चित किया गया है समाज किस ओर जा रहा है अथवा उसमें कौन सी शक्तियां कार्य कर रही हैं इससे यह निश्चय नहीं होगा कि उसको किस ओर जाना चाहिये ।
जो कुछ है वह जो कुछ होना चाहिये उसका निश्चय नहीं कर पाता । इसलिये सामान्य शुभ क्या है, अथवा मूल्य क्या है इनका निश्चय विज्ञान के क्षेत्र में न आकर नीति और दर्शन के क्षेत्र में आता है । वास्तव में जैसा कि प्लेटो ने हजारों साल पहले ठीक ही कहा था जगत के वैषयिक तत्व अपने आदर्श रूपों की भद्दी प्रतिलिपि मात्र है ।
किस वस्तु को क्या होना चाहिये, किस व्यक्ति को क्या करना चाहिये यह एक आदर्श की बात है । वह वस्तु क्या है अथवा वह व्यक्ति क्या है इससे इस आदर्श में कोई अन्तर नहीं पड़ता । परन्तु आदर्श का तात्पर्य यह नहीं है कि वह कभी यथार्थ हो ही न सके ।
सच तो यह है कि यद्यपि यथार्थ और आदर्श का अनार पूरी तरह नहीं मिटता परन्तु ये दोनों सापेक्ष है और आदर्श अधिकाधिक यथार्थ बनाया जा सकता है । इसीलिये आदर्श रूप में निर्धारित लक्ष्य यथार्थ रूप में प्राप्त किये जा सकते हैं ।
IV. पार्क और बर्गेस का मत:
पार्क और बर्गेस के अनुसार- ”किसी उपस्थित पर्यावरण के प्रति अनुकूलन के लिये कोई भी परिवर्तन जो कि एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह अथवा जीवन के अन्य संगठित रूप के लिये जीवन आसान बना देता है प्रगति का प्रतिनिधित्व करता हुआ कहा जा सकता है” पीछे दिये गये विश्लेषण की पृष्ठभूमि में यह स्पष्ट है कि प्रगति की परिभाषा एकांगी और अपूर्ण है ।
वास्तव में यह प्रगति के जैवकीय विचार को उपस्थित करती है यह ठीक है कि मनुष्य के सामने सबसे बड़ी समस्या जीवन का संघर्ष है और इस संघर्ष में सहायता देने वाली हर चीज आमतौर से वांछनीय है परन्तु यदि मानव जीवन के लक्ष्य को यहीं तक सीमित कर दिया जाये तो मनुष्य और पशु में अनार ही क्या है ।
कोई भी विचारक जिसने मनुष्य और पशु के अन्तर पर विचार किया है केवल अस्तित्व के लिये संघर्ष मात्र ही मानव जीवन का लक्ष्य नहीं मान सकता मनुष्य का लक्ष्य जीना है । परन्तु यह जीना कीड़े-मकोड़े की तरह जीना न होकर मनुष्य की तरह जीना है मनुष्य की तरह जीने का अर्थ कोई आसान या सरल जीवन न होकर एक ऐसा जीवन है जिसमें मानव सुलभ मूल्यों का समुचित विकास हो सके और ये मानव सुलभ मूल्य, जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है, मानसिक और आध्यात्मिक मूल्य है ।
दूसरे, मनुष्य केवल पर्यावरण से अनुकूलन ही नहीं करता बल्कि पर्यावरण को भी अपने अनुकूल बदल देता है । यही मानवीय अनुकूलन और पाश्विक अनुकूलन में अनार है । अत: केवल अनुकूलन मात्र में सहायता देने वाली चीज को वांछनीय नहीं कहा जा सकता । फिर भी प्रगति की उपरोक्त परिभाषा से इतना सत्य अवश्य है कि पर्यावरण से अधिक से अधिक अनुकूलन प्रगति की एक महत्वपूर्ण कसौटी है ।
V. लम्ले का मत:
सामाजिक उद्विकास और सामाजिक प्रगति में अनार बतलाते हुए लम्ले ने लिखा है । ”प्रगति एक अधिक संकीर्ण प्रत्यय है । वह परिवर्तन है, परन्तु वह किसी भी दिशा में परिवर्तन न होकर एक वांछित अथवा स्वीकृत दिशा में परिवर्तन है ।” प्रगति की यह परिभाषा सामाजिक उद्विकास से उसका अनार स्पष्ट करती है । प्रगति का जो विश्लेषण पीछे दिया गया है उससे इस परिभाषा को समझने में कठिनाई नहीं होगी ।
सामाजिक प्रगति की विशेषतायें (Importance of Social Progress):
प्रगति की सामान्य विशेषताओं को जानने से प्रगति का विचार और भी स्पष्ट होगा ।
प्रगति की मुख्य सामान्य विशेषतायें निम्नलिखित हैं:
(i) प्रगति में परिवर्तन है:
प्रगति जैसा कि उसके नाम से स्पष्ट है किसी न किसी दिशा में गति अथवा परिवर्तन है । अतः परिवर्तन उसकी अनिवार्य विशेषता है ।
(ii) प्रगति में वांछित उद्देश्य की पूर्ति होती है:
परन्तु केवल परिवर्तन मात्र को प्रगति नहीं कहा जा सकता । प्रगति कहलाने के लिये परिवर्तन वांछित उद्देश्य की पूर्ति करने वाला भी होना चाहिये । वह वांछित उद्देश्य कुछ भी हो सकता है परन्तु यह कल्याणकारी और लाभदायक तो होगा ही क्योंकि कोई भी अपना अकल्याण अथवा हानि नहीं चाहता ।
(iii) प्रगति सामूहिक होती है:
प्रगति नैतिक अथवा अन्य अर्थों में व्यक्तिगत भी होती है । परन्तु समाजशास्त्र में प्रगति के इस अर्थ को नहीं लिया जाता है क्योंकि समाजशास्त्र समाज का शास्त्र है और उसमें व्यक्ति को समाज के एक अंग के रूप में ही स्थान दिया जाता है । अत: समाजशास्त्र के अनुसार प्रगति सामूहिक होती है अर्थात् उसमें समस्त समूह किसी वांछित दिशा में आगे बढ़ता है ।
(iv) प्रगति में हानि लाभ दोनों सम्भव हैं:
ऐसा नहीं है कि प्रगति में केवल लाभ ही लाभ हो और हानि बिल्कुल नहीं परन्तु हाँ इतना अवश्य है कि अन्त में हानि की अपेक्षा लाभ अवश्य ही अधिक होता है । लाभ से हानि अधिक होने पर सामाजिक परिवर्तन को प्रगति नहीं कहा जा सकता ।
हर एक प्रगति में समूह को कुछ न कुछ कष्ट उठने पड़ते हैं और त्याग करने पड़ते हैं । स्वतन्त्रता प्राप्त करने में भारत को भारी कष्ट उठाने पड़े और कितनी हानि सहन करनी पड़ी । परन्तु फिर भी स्वतन्त्रता के इतिहास में प्रत्येक संघर्ष प्रगति की ओर ही एक कदम था ।
(v) प्रगति ऐच्छिक होती है:
प्रगति अपने हाथ पर हाथ धर कर बैठने से नहीं होती । उसके लिये इच्छा और संकल्प की आवश्यकता है वह ऊपर चढ़ने का काम है, उसके लिये कोशिश करनी पड़ती है और जब उस कोशिश में सफलता मिलती है तब उसे प्रगति कहते हैं । ध्यान रहे कि यह आवश्यक नहीं है कि प्रयत्न प्रगति हो क्योंकि बहुधा प्रयत्न व्यर्थ भी जाते हैं और भरसक कोशिश करने पर भी कभी-कभी हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाते ।
(vi) प्रगति की धारणा परिवर्तनशील है:
सभी देश कालों में प्रगति की धारणा एक ही नहीं होती आज जो प्रगति का चिन्ह माना जाता है वही कल अवनति का प्रतीक माना जा सकता है । भारत में एक ही बात को अवनति माना जा सकता है जबकि पश्चिमी समाज में उसे ही प्रगति माना जा सकता है ।
आगबर्न और निमकॉफ लिखते है- ”हमारा देश एक शताब्दी पहले से अधिक धनी है । परन्तु क्या धन की प्राप्ति प्रगति है ? हम शीघ्रतापूर्वक संसार में भ्रमण कर सकते है परन्तु क्या इससे अधिक सुख या स्वास्थ्य या आराम या मानसिक शान्ति प्राप्त होती है ? पूर्व की प्राचीन सभ्यताओं से आने वाले व्यक्ति और सुदूर स्थानों के कम उन्नतिशील व्यक्ति हमारी भौतिक सफलता पर आश्चर्य करते हैं और बहुधा पूछते हैं कि क्या यह वास्तव में प्रगति है ।”
सामाजिक प्रगति के सिद्धान्त (Principle of Social Progress):
सामाजिक प्रगति के विचार और आधार की पृष्ठिभूमि में अब उसके विषय में प्रचलित कुछ मुख्य सिद्धान्तों का विवचेन किया जा सकता है:
i. कार्ल मार्क्स का सिद्धान्त:
सामाजिक प्रगति के विषय में सबसे प्रसिद्ध सिद्धान्त कार्ल मार्क्स ने उपस्थित किया है । कार्ल मार्क्स ने मानव इतिहास की आर्थिक व्यवस्था उपस्थित की । उनके अनुसार मानव समाज के लक्ष्य आर्थिक है और इन आर्थिक लक्ष्यों की ओर विकास को देखकर ही समाज की प्रगति का निश्चय किया जा सकता है ।
मार्क्स के अनुसार सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं के स्वरूप आर्थिक कारकों द्वारा निर्धारित होते हैं । उत्पादन और वितरण का प्रकार सामाजिक संरचना और सामाजिक संस्थाओं का स्वरूप निश्चित करता है । इस प्रकार कार्ल मार्क्स के अनुसार मानव सभ्यता की व्याख्या आर्थिक शब्दों में की जा सकती है ।
मार्क्स के इस सिद्धान्त में यह सत्य है कि सामाजिक प्रगति आर्थिक प्रगति के बिना असम्भव है । परन्तु फिर आर्थिक प्रगति स्वयं कोई साध्य नहीं है । व्यक्ति और समाज दो, के जीवन में आर्थिक विकास एक साधन मात्र है जिससे कि वे मानसिक और आध्यात्मिक विकास करते है ।
यह ठीक है कि आर्थिक कारक मानव जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं परन्तु फिर दूसरी ओर यह भी गलत नहीं है कि आर्थिक से अधिक मानव जीवन को मनोवैज्ञानिक कारक प्रभावित करते है । अतः सामाजिक प्रगति के विषय में कार्ल मार्क्स का आर्थिक सिद्धान्त एकांकी है ।
ii. मानवशास्त्रीय भौगोलिक सिद्धान्त:
सामाजिक प्रगति के विषय में दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त मानवशास्त्रीय भौगोलिक सिद्धान्त है । बकल के अनुसार सामाजिक प्रगति में दो कारक कार्य करते हैं एक तो बाहरी अथवा भौगोलिक कारक और दूसरे आन्तरिक अथवा मनुष्य से सम्बन्धित कारक । इन दोनों ही कारकों ने मनुष्य की प्रगति में हाथ बंटाया है । मनुष्य की बौद्धिक श्रेष्ठता और प्रकृति की उदारता दोनों ही मिलकर महान् सभ्यताओं का सूत्रपात करते है ।
बकल का यह सिद्धान्त बहुत ठीक मालूम पड़ता है परन्तु इस सिद्धान्त से यह नहीं मालूम पड़ता कि सामाजिक प्रगति की कसौटियाँ क्या-क्या हैं ? यह तो केवल यही बतलाता है कि सामाजिक प्रगति की दशायें क्या हैं अथवा किन हालतों में सामाजिक प्रगति होती है और इस दृष्टि से भी इस सिद्धान्त में सभी कारकों का उल्लेख नहीं किया गया है । मानव समाज इतना जटिल है और मानव इतिहास में इतने विविध कारकों का महत्व रहा है कि उसको इस प्रकार दो कारकों में बाँट देना अथवा दो प्रकार की दशाओं के कारण मान लेना अति सरलीकरण है ।
iii. मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त:
सामाजिक प्रगति के विषय में एक अन्य सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक कहलाता है । इस सिद्धान्त को मानने वाले विचारकों ने सामाजिक प्रगति में मनोवैज्ञानिक तत्वों पर जोर दिया है । इस मत के अनुसार सामाजिक जीवन के विकास में स्थायी भावों का महत्वपूर्ण योगदान है ।
मानव समाज की वर्तमान प्रगति मनुष्य की श्रेष्ठ बौद्धिक सामर्थ्य के कारण है । अपनी बौद्धिक सामर्थ्य से ही मनुष्य ने प्रकृति के रहस्यों का पता लगाया और उनका अपनी प्रगति के लिए उपयोग किया इस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक विकास में मनोवैज्ञानिक कारण प्रधान होते हैं और प्राकृतिक कारण गौण होते हैं ।
मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के बारे में भी वही कहा जा सकता है जो पिछले दोनों सिद्धान्तों के बारे में कहा गया है । यह सिद्धान्त गलत नहीं है परन्तु एकांगी और अपर्याप्त है यह सामाजिक प्रगति की कुछ थोड़ी सी दशाओं को बतलाता है जबकि अन्य बहुत सी दशायें इससे छूट जाती है । इससे सामाजिक लक्ष्यों के विषय में अन्तदृष्टि नहीं मिलती ।
iv. मनोवैज्ञानिक समाजशास्त्रीय सिद्धान्त:
सामाजिक प्रगति का एक अन्य सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक समाजशास्त्रीय सिद्धान्त कहलाता है । इसमें मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण का समन्वय किया गया है । यह सिद्धान्त सामाजिक प्रगति के लिए अनेक कारकों को महत्वपूर्ण मानता है ।
इनमें भौगोलिक, आर्थिक, जैवकीय, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक सभी कारक आ जाते है । सामाजिक प्रगति के आधार के विषय में जिन सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है उनको इसी वर्ग में रखा जा सकता है । इस दिशा में अन्तिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । इस सिद्धान्त का दृष्टिकोण अन्य सिद्धान्तों से कहीं अधिक व्यापक और संतुलित है ।
सामाजिक प्रगति और सामाजिक मूल्य (Social Progress and Social Value):
प्रगति की परिभाषा करते हुए लम्ले ने लिखा है, ”प्रगति हमारे सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति है ।” इस प्रकार प्रगति सामाजिक मूल्यों द्वारा निर्धारित होती है । जिस देश काल में जो सामाजिक मूल्य होंगे उसी के अनुसार उनका प्रगति का विचार होगा । समाजशास्त्र में मूल्य शब्द का प्रयोग विशेष अर्थों में किया गया है ।
Patterns of Culture में गिलिन और गिलिन लिखते है- ”एक वस्तु का मूल्य किसी अन्य वस्तु की तुलना में उसका महत्व या वांछनीयता है । मूल्य (1) समूह अथवा समूह की एक बड़ी संख्या या बड़े भाग की आवश्यकताओं को पूरा करने वाली क्रियाओं और रूखों के चारों ओर, अथवा (2) जीवन के उन तरीकों के चारों ओर केन्द्रित है जो कि आदत या प्रथा बन चुकी हैं और इसलिये रोज-रोज बहुत कम चेतन अवधान चाहती हैं, अथवा (3) वे संस्कृति के अन्य तत्वों से इतने घुल-मिल गये हैं कि संकुल के किसी एक भाग में विघ्न अन्य सभी में भी विघ्न का खतरा उत्पन्न कर लेते हैं ।”
इस प्रकार मूल्य वह है जो वांछनीय है । वह उन क्रियाओं या विचारों पर आधारित होता है जो सामूहिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करती हैं । मूल्य उन क्रियाओं से सम्बन्धित है जो हमारी आदत बन चुकी है तथा संस्कृति में घुल-मिल गये है । इस प्रकार स्पष्ट है कि मूल्य सामाजिक हैं और हम उनकी वृद्धि चाहते हैं अथवा समूह को उनकी वृद्धि की आवश्यकता है ।
अत: जितनी ही अधिक मूल्यों की प्राप्ति होगी समूह उतना ही वांछित दिशा में बढ़ेगा । स्पष्ट है कि प्रगति सामाजिक मूल्यों पर ही आधारित है । किसी परिवर्तन को प्रगति कहा जायेगा या अवनति, यह उस समाज के सामाजिक मूल्यों पर निर्भर है और ये मूल्य सदा बदलते रहते है अतः कोई भी चीज ऐसी नहीं है जो सभी देश काल में एक ही रूप में मूल्यवान मानी जाय ।
इसीलिये मैकाइवर और पेज ने लिखा है- ”प्रगति का विचार एक गिरगिट है जब हम पर्यावरण के अनुकूल होते है तब उसका रंग ग्रहण कर लेता है और जब हम अनुकूलन नहीं कर पाते तब विपरीत रंग ग्रहण कर लेता है ।” इस प्रकार प्रगति का विचार गिरगिट के समान रंग बदलता रहता है ।
यहाँ पर यदि कुछ लोग यह कहें कि प्रगति के कुछ विचार सदैव एक से रहते है जैसे चोरी न करना, हिंसा न करना, शोषण न करना आदि प्रगति के चिन्ह है । परन्तु गौर करने से यह स्पष्ट हो जायेगा कि इन शब्दों के अर्थ भिन्न-भिन्न देश काल में भिन्न-भिन्न होते है ।
उदाहरण के लिये जैन धर्म में कीड़े या मच्छर को मारना भी हिंसा माना जाता था जबकि राजनैतिक क्षेत्र में शत्रु को मार डालना भी हिंसा नहीं माना जाता है इसी प्रकार किसी समय में दास प्रथा तक को शोषण नहीं माना जाता था आज भी साम्यवादी और पूंजीवादी देशों में शोषण के अर्थ भिन्न-भिन्न है ।
इस प्रकार प्रगति का अर्थ विशिष्ट सामाजिक मूल्यों पर निर्भर है मूल्यों की इस परिवर्तनशीलता का अर्थ यह नहीं है कि प्रगति का विचार निश्चित ही नहीं है । इसका अर्थ केवल यह है कि प्रगति का विचार सब देश कालों में एक सा नहीं होता और सामाजिक मूल्यों के अनुसार निर्धारित होना है ।
ये सामाजिक मूल्य बदलते रहते है परन्तु इनके बदलने की गति बहुत मन्द होती है और बहुत से मूल्यों में तो सैकड़ों सालों में भी बहुत कम अन्तर पड़ता है । अत: उस सीमा तक प्रगति का विचार स्थिर रहता है । अत: यह स्पष्ट है कि प्रगति का विचार सामाजिक मूल्यों से निर्धारित होता है ।