सामाजिक परिवर्तन के कारक! Read this article in Hindi to learn about the four important factors of social change. The factors are:- 1. जैवकीय कारक (Biological Factors) 2. प्रौद्योगिक कारक (Technological Factors) 3. आर्थिक कारक (Economic Factors) 4. सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors).
1. जैवकीय कारक (Biological Factors):
सामाजिक परिवर्तन में जैवकीय कारकों का बड़ा महत्व है । मानव समाज में ये जैवकीय कारक जनसंख्या के गुण दोषों के रूप में दिखाई पड़ते है । जनसंख्या के गुण दोष जन्मदर, मृत्युदर, जनसंख्या में स्त्री पुरुष का अनुपात, जनंसख्या में अस्वस्थ मस्तिष्क वाले लोगों का अनुपात जनसंख्या में प्रौढ़ों और वृद्धों की संख्या, बालकों की संख्या, प्रति माता बालकों की संख्या, विधुर और विधवाओं की संख्या आदि अनेक तत्वों से मालूम पड़ते है ।
जनसंख्या के ये सभी तत्व सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करते हैं । जनसंख्या का सामाजिक परिवर्तन पर क्या प्रभाव पड़ता है इसको अति जनसंख्या की स्थिति से भली-भांति समझा जा सकता है । जब किसी देश की जनसंख्या अत्यधिक बढ़ जाती है अर्थात् इतनी बढ़ जाती है कि देश में पोषण के लिये खाद्यान्न की कमी हो जाती है तो उस दशा में सामाजिक जीवन में अव्यवस्था उत्पन्न होने लगती है ।
परन्तु दूसरी ओर जनसंख्या बढ़ने से जनशक्ति बढ़ती है और राष्ट्र शक्तिशाली बनता है । स्मिथ के शब्दों में- ”एक नियम के रूप में अधिक जनसंख्या का अर्थ शक्तिशाली राष्ट्र है जबकि कम जनसंख्या का परिणाम एक अपेक्षाकृत कमजोर राष्ट्र है ।” यहाँ पर यह ध्यान रखने की बात है कि कम या अधिक जनसंख्या राष्ट्र के भौतिक साधनों को देखकर निश्चित की जाती है ।
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उदाहरण के लिये भारत में जितनी जनसंख्या है यह यहां के आर्थिक और औद्योगिक विकास को देखते हुए बहुत अधिक है जबकि अन्य समृद्ध और विकासशील देशों के विषय में इतनी जनसंख्या होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता है । इस प्रकार अधिक जनसंख्या किसी देश को बलवान तभी तक बनाती है जब तक कि वह अत्यधिक न हो जाय ।
जैसे ही जनसंख्या उचित सीमा को पार करने लगती है वैसे ही वह देश को सबल बनाने की अपेक्षा निर्बल बनाती जाती है । अत्यधिक जनसंख्या होने पर प्रति व्यक्ति आय कम होती जाती है और गरीबी बढती है । उदाहरण के लिये भारतवर्ष में सन् 1921 से देश की जनसंख्या बराबर बढ़ रही है और इसी प्रकार से गरीबी भी बराबर बढ़ती जा रही है ।
2. प्रौद्योगिक कारक (Technological Factors):
कार्ल मार्क्स के शब्दों में- ”प्रौद्योगिकी प्रकृति के साथ मनुष्य के व्यवहार करने का प्रकार और उत्पादन की उस प्रक्रिया को प्रकट करती है जिससे वह अपना पालन करता है और इस प्रकार सामाजिक सम्बन्धों के बनने का प्रकार तथा उनसे उत्पन्न होने वाले मानसिक प्रत्ययों के प्रकार को व्यक्त करती है ।”
इस प्रकार प्रौद्योगिकी यन्त्र अथवा उपकरण से भिन्न है । वह ऐसा व्यवस्थित ज्ञान है जिसमें यन्त्रों या उपकरणों का प्रयोग किया जाता है । उदाहरण के लिये रेल का इन्जन एक यन्त्र है और उसका प्रयोग करने की प्रक्रिया प्रौद्योगिकी है इस प्रकार मनुष्य प्रकृति से अपना व्यवहार एक पशु के समान सीधे-सीधे अथवा निश्चेष्ट रूप में न करके अपने ज्ञान और बुद्धिबल के सहारे उसके गुप्त भेदों का उपयोग करते हुये एक विशेष पद्धति से करता है ।
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यही प्रौद्योगिकी है । इसके सहारे वह जमीन से अपने खाने पीने की तथा जीवन के अन्य उपयोग की वस्तुयें उत्पन्न करता है । कार्ल मार्क्स के अनुसार सामाजिक सम्बन्ध और मानसिक धारणाओं का बनना तक इसी पर निर्भर रहता है प्रौद्योगिक वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से भिन्न है ।
वैज्ञानिक प्रक्रियायें सत्य की खोज करती हैं प्रौद्योगिकी में उसका उपयोग किया जाता है इस प्रकार प्रौद्योगिकी व्यावहारिक है । उसमें मानव आदर्शों और आवश्यकताओं का ध्यान रख कर साधनों को विकसित किया जाता है इस प्रकार प्रौद्योगिकी मनुष्य का प्रकृति से व्यवहार करने का ‘साधन’ है ।
इस साधन पर पूंजीवादी देशों में पूंजीपतियों का और साम्यवादी देशों में राज्य का अधिकार रहता है । प्रौद्योगिकी पर अधिकार रहने से ही आर्थिक हित सुरक्षित रह सकते है इस प्रकार प्रौद्योगिकी आर्थिक उत्पादन के साध्य का ‘साधन’ है ।
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प्रौद्योगिकी का विकास:
इस प्रौद्योगिकी में बराबर विकास होता रहा है और इसके विकास के साथ-साथ समाज का ढांचा भी बदलता जाता है । उदाहरण के लिये प्रौद्योगिकी के सतत विकास से श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण बढ़ता जाता है जिससे समाज में प्रत्येक विषय के विशेषज्ञ दिखाई पड़ते हैं । मानव सभ्यता के विकास में प्रौद्योगिकी के विकास का बड़ा हाथ रहा है ।
आज यातायात और संदेशवहन के साधन डाक तार, टेलीफोन, रेल, हवाई जहाज, जलपोत, मोटरें और बाइसिकिल, खेती के यन्त्र तथा जीवन की अन्य उपयोगी वस्तुओं को निर्माण करने की जो हजारों मशीनें दिखाई पड़ती हैं वे प्रौद्योगिकी के विकास का ही फल है ।
प्रौद्योगिक कारक:
प्रौद्योगिक कारकों में मुख्य निम्नलिखित हैं:
(a) उद्योगों में मशीनों का प्रयोग:
प्रौद्योगिकी का विकास उद्योगों में मशीनों के प्रयोग से ही प्रारम्भ हुआ । यह प्रौद्योगिकी का सबसे महत्वपूर्ण कारक है ।
(b) संदेशवहन के साधनों का विकास:
संदेशवहन के साधनों के विकास से औद्योगीकरण और परिणामस्वरूप प्रौद्योगिकी का विकास हुआ ।
(c) आवागमन के साधनों का विकास:
आवागमन के साधनों के विकास से व्यापार में अभूतपूर्व उन्नति हुई ।
(d) नवीन कृषि सम्बन्धी प्रविधियों का विकास:
कृषि के क्षेत्र में तो प्रौद्योगिक कारकों ने क्रान्ति ही कर दी ।
प्रौद्योगिक कारकों के प्रभाव:
इन चारों प्रौद्योगिक कारकों ने सामाजिक जीवन में भारी परिवर्तन उत्पन्न कर दिया हैं ।
उद्योगों में मशीनों के प्रयोग ने सामूहिक ढांचे में मौलिक परिवर्तन उत्पन्न कियें हैं इस विषय में मुख्य परिवर्तन निम्नलिखित हैं:
(I) उद्योगों में मशीन का प्रयोग:
(i) कारखाना पद्धति का उदय:
उद्योगों में मशीनों के प्रयोग का सबसे मुख्य प्रभाव व्यक्तिगत उत्पादन के स्थान पर कारखाना पद्धति का उदय है । मशीनों के आविष्कार से ही आज इतने बड़े-बड़े विशाल कारखाने बन गये है जिनमें हजारों लोग काम करते हैं और प्रत्येक काम यन्त्रवत् होता है ।
भारतवर्ष में पहले जुलाहे लोग अपने-अपने घरों में हाथ करघों पर कपड़ा तैयार करते थे और किसानों के घर में गन्ने के रस से राब और गुड बनाया जाता था आज देश में कपड़े और चीनी की सैकड़ों मिलें है जिनमें लाखों मजदूर काम करते है ।
(ii) नगरीकरण:
औद्योगीकरण तथा बड़े-बड़े कारखानों के उदय से नगरीकरण हुआ और बड़े-बड़े नगर बन गये । प्रारम्भ में गांवों से आने वाले हजारों श्रमिक कारखाने के आसपास रहने लगे फिर उनके लिये दुकानें खुला बाजार बने, स्कूल खुले फिर होटल कालेज दफ्तर और व्यापारिक कम्पनियां बनीं और इस प्रकार जहां-जहां बड़े-बड़े कारखाने थे वहाँ बड़े-बड़े नगर बस गये भारतवर्ष में जमशेदपुर कानपुर मोदीनगर अहमदाबाद आदि सैकड़ों छोटे-बड़े नगरों का उद्गम उनके कारखानों से ही हुआ है ।
(iii) नये वर्गों की उत्पत्ति:
औद्योगीकरण और नगरीकरण से समाज का ढांचा बदल गया । सामाजिक संगठन वर्गों में बंट गया जिनमें परस्पर घोर प्रतिद्वन्द्विता दिखलाई पड़ने लगी पूंजीपति और श्रमिक वर्ग में नित नये झगड़े बढ़ने लगे । बाबू लोगों का एक मध्यम वर्ग भी विकसित हो गया ।
(iv) नई विचारधारायें और नये आन्दोलन:
इन सब कारकों से नवीन विचारधाराओं का उदय हुआ । भारत में साम्यवादी आन्दोलन अधिकतर औद्योगिक नगरों में ही दिखाई पड़ता है । साम्यवाद और समाजवाद की विचारधाराओं के प्रचार के साथ-साथ व्यापारिक संघ आन्दोलनों की भी धूम हुई । आये दिन वर्गगत हितों को लेकर तालेबन्दी हड़तालों और जलूसों तथा सभाओं का बाजार गर्म रहने लगा ।
(v) स्त्रियों की स्थिति में सुधार:
मशीनों के प्रचार से परिवारों में स्त्रियों के काम का बोझ हलका हो गया । कपड़ा धोने, प्रेस करने, बर्तन साफ करने आदि की सुविधाओं से उनको मानसिक तथा व्यावसायिक कार्यों के लिये पर्याप्त समय मिलने लगा और वे भी आर्थिक क्षेत्र में पुरुषों का मुकाबला करने लगी ।
भारतवर्ष में पारिवारिक कार्यों में भी मशीनों का प्रचार हो गया है । अतः इस विषय में भारतीय नारी की स्थिति पाश्चात्य नारी के समान हो गई है । वास्तव में मशीनों के प्रयोग के सामाजिक प्रभावों को गिनाने के लिये तो एक पूरा ग्रंथ होना चाहिये । इस विषय में स्वतन्त्र रूप से अनेक ग्रंथ लिखे भी गये हैं ।
(II) संदेशवहन के साधनों का विकास:
उद्योगों में मशीनों के प्रयोग से बड़े पैमाने पर व्यापार का विकास हुआ जिससे दूर-दूर के व्यापारियों से बातचीत करने की आवश्यकता हुई । इस दिशा में डाक, तार बेतार का तार टेलीफोन आदि से बड़ा लाभ हुआ । समाचार पत्रों रेडियो, टेलीविजन आदि की सहायता से दूर-दर के समाचार घर बैठे ज्ञात होने लगे ।
इन साधनों से विभिन्न संस्कृतियों का परस्पर आदान-प्रदान भी प्रारम्भ हुआ । इससे नये सिद्धान्तों के प्रचार तथा राजनैतिक दलों के प्रीपेगैन्डा का भी सुभीता हुआ । विभिन्न समाज एक दूसरे के निकट आने लगे और मानव में एकता की भावना बढ़ने लगी ।
(III) आवागमन के साधनों का विकास:
सन्देशवहन के साधनों के साथ-साथ आवागमन के साधनों का भी आश्यर्चजनक विकास हुआ और 500 मील फी घण्टे की रफ्तार से उड़ने वाले जेट वायुयानों से लोग कुछ ही घण्टों में एक देश से दूसरे देशों में पहुंचने लगे । साइकिल, मोटर, रेल, जहाज और वायुयानों के आविष्कार से माल के एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने में सुविधा हो गई । इससे राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का अभूतपर्व विकास हुआ ।
विभिन्न देशों के लोगों के परस्पर मिलने-जुलने से उनमें आपस में भेदभाव दूर होने लगे और घृणा तथा द्वेष का स्थान सहानुभूति और सहयोग ने ले लिया । विभिन्न जातियों और प्रजातियों में सहिष्णुता बढ़ने लगी । इससे एक विश्व राष्ट्र की भावना के विकास में सहायता मिली ।
(IV) खेती की नवीन प्रविधियों का विकास:
प्रौद्योगिक विकास का एक महत्वपूर्ण कारक खेती की नवीन प्रविधियों का विकास है । इससे खेती करने के नये-नये यन्त्रों का आविष्कार हुआ । बड़े-बड़े विशाल खेतों में टैक्टरों की सहायता से खेती की जाने लगी । नई-नई रासायनिक खादों के प्रयोग से विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाया गया ।
उत्तम बीजों के प्रयोग से उपज की किस्म में भी उन्नति हुई । इन सब बातों से खेती में कम परिश्रम से अधिक उत्पादन होने लगा । खेती के काम के लिये कम लोगों की आवश्यकता पड़ने लगी । इससे बहुत से लोग कल-कारखानों में काम करने लगे और व्यापार आदि में लगे । भारत में तो इस दिशा में प्रौद्योगिकी का प्रभाव सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है और कृषि की उन्नति पर ही देश का भविष्य निर्भर है ।
3. आर्थिक कारक (Economic Factors):
i. उत्पादन प्रणाली का जीवन पर प्रभाव:
उत्पादन प्रणाली का जीवन की आर्थिक, राजनैतिक तथा आचरण संबन्धी सभी क्रियाओं पर कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य पड़ता है । सभ्यता के आदि काल में जब मनुष्य के पास खेती करने के यन्त्र और भिन्न-भिन्न वस्तुयें बनाने की मशीनें नहीं थीं तब वह सारे काम हाथ से करता था । ऐसी स्थिति में मनुष्य अपनी जरूरत की लगभग सभी चीजें खुद ही पैदा करता था ।
वह घास-फूंस इकट्ठा करके झोपड़ी बनाता या पहाड़ों की गुफाओं में रहता खाने पीने की चीजें और शिकार की तलाश में जंगल में घूमता तथा खाल व छाल आदि से स्वयं कपड़े बनाकर पहनता । इस स्थिति में राजनैतिक संगठन बहुत ही न्यून था । अक्सर सबसे बलवान व्यक्ति ही औरों पर शासन करता था ।
आचरण के विषय में विशेष नियम नहीं थे । स्त्री-पुरुष सभी काम करते थे दोनों की स्थिति में अधिक अनार न था मध्ययुग में जब मनुष्य स्थायी रूप से खेती करने लगे तथा चीजें उत्पन्न करने लगे तब क्रमशः छोटे-छोटे राज्य स्थापित हुये ।
समुदाय ने व्यवहार के नियम बनाए, शारीरिक दृष्टि से कमजोर होने के कारण स्त्री-पुरुष के आधीन हो गई और क्रमशः आर्थिक तथा राजनैतिक स्वतन्त्रता खो बैठी । मशीनों के आधुनिक युग ने उत्पादन की प्रणाली में क्रान्ति कर दी जिसमें मनुष्य की शक्ति से अधिक शक्तिशाली मशीनों के बन जाने से मशीनों का महत्व बढ़ गया । यन्त्र स्वामी बन बैठे ।
मशीनों पर अधिकार रखने वाले कारखानेदार और पूंजीपति ही राजनीति की बागडोर सम्भालने लगे । मशीनें, भाप या बिजली से चलने लगीं जिससे स्त्री बच्चे तक उत्पादन कार्य में हाथ बँटाने लगे । सरसरी नजर से उत्पादन प्रणाली के परिवर्तन के इतिहास पर दृष्टि डालने से जीवन के विभिन्न पक्षों में उसका प्रभाव साफ दिखाई पड़ता है । अब वर्तमान यन्त्र युग की उत्पादन प्रणाली के जीवन के आर्थिक, राजनैतिक तथा आचरण सम्बन्धी प्रक्रियाओं पर पड़ने वाले प्रभावों का विवेचन करने से यह बात और भी स्पष्ट होगी ।
ii. आर्थिक प्रक्रियाओं पर प्रभाव:
वर्तमान उत्पादन प्रणाली का सबसे बड़ा आर्थिक प्रभाव यह हुआ कि उत्पादन की इकाइयों का आकार बढने लगा । बड़े-बड़े विशालकाय कारखाने स्थापित हुये जिनमें हजारों लोग काम करते थे । इन लोगों की सत्ता उस बड़े कारखानें में मशीन के एक पुर्जे के समान है जो यनत्रवत् अपना कार्य करता है ।
इस प्रकार उत्पादन के कार्य में से मानवीय तत्व निकल गया है और वह यान्त्रिक हो गया है । इससे जहां एक ओर कलात्मकता कम हुई है वहां दूसरी ओर कुशलता बड़ी है । मशीनों के कारण कम दामों में अधिक चीजें बनाई जा सकती है । इस प्रकार नवीन उत्पादन प्रणाली के प्रभाव से उत्पादन बराबर बढ़ता जा रहा है ।
उत्पादन के साथ-साथ वितरण की प्रक्रिया में भी तेजी आई है क्योंकि यातायात और संदेशवहन के साधनों में अभूतपूर्व उन्नति होने से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बड़ी प्रगति हुई । व्यापार बड़े पैमाने पर होने लगा है । बड़े पैमाने पर उद्योग और व्यापार होने के कारण विनिमय मुद्रा के माध्यम से होने लगा है ।
कागजी मुद्रा का प्रचार बढ़ गया है इस प्रकार नवीन उत्पादन प्रणाली के आविष्कार से आर्थिक क्षेत्र में क्रान्ति ही हो गई है । अप्रत्यक्ष रूप में इससे वर्गवाद को जबर्दस्त प्रोत्साहन मिला है क्योंकि मशीन मिल मालिक और मजदूर के मानवीय सम्बन्धों के बीच की एक ऐसी खाई है जो बराबर चढ़ती जा रही है ।
उत्पादन में मशीन का महत्व बढ़ने से मजदूर का महत्व कम से गया है जिससे शोषण बढ़ गया है । बड़े पैमाने पर उत्पादन से बर्बादी भी बड़े पैमाने पर होती है बाजारों में एकाधिकार की सहायता से चीजों के भाव कृत्रिम रूप से उतारे चढ़ाये जाते हैं । इस प्रकार वर्तमान आर्थिक ढांचा बड़ा पेचीदा हो गया है ।
iii. राजनैतिक संस्थाओं पर प्रभाव:
आर्थिक उत्पादन के प्रकार में परिवर्तन से अब उद्योग और व्यापार बड़े विशाल पैमाने पर होने लगे हैं और उनको चलाने के लिये अपेक्षाकृत कम व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ती है इस प्रकार बड़े-बड़े पूंजीपतियों का अभ्युदय होने लगा है जो राजनैतिक सत्ता भी हथियाते जा रहे हैं ।
आधुनिक जगत के जनतन्त्रीय देशों की सरकारों में इनका बड़ा भारी प्रभाव है और ये कानून तथा कभी-कभी न्यायपालिका को भी प्रभावित करते हैं इससे जहाँ शोषण बढ़ा है वहाँ वर्ग संघर्ष को भी प्रोत्साहन मिला है जिससे साम्यवादी और समाजवादी विचारधारायें फैलने लगी हैं और अनेक देशों में सरकारों के रूप बदल कर साम्यवादी सरकारों की स्थापना की गई है । श्रमिक संगठन बनने लगे है ।
राज्यों की सत्ता के लिये राजनैतिक दलों में जबर्दस्त प्रतिद्वन्द्वीता रहती है । राज्य कल्याणकारी हो गये है और उनका प्रभाव तथा आकार बढ़ता जाता है । व्यापार तथा उद्योग की दृष्टि से विभिन्न देशों के एक दूसरे पर आश्रित होने से अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना बढ़ रही है ।
iv. राजनैतिक प्रक्रियाओं पर प्रभाव:
वर्तमान उत्पादन प्रणाली की विशेषता यह है कि उसमें मशीनों की सहायता से और पैसे के प्रभाव से व्यक्ति बड़े से बड़े कारखाने का काम सम्भाल सकता है । मशीनें पैसे से आती हैं और मशीनें शक्ति है । इसलिये आजकल पैसा शक्ति है उसी का सम्मान है ।
इसी कारण संसार के अधिकांश देशों में पूंजीपति लोग राजनैतिक प्रक्रियाओं पर बड़ा प्रभाव रखते हैं । अमरीका जैसे व्यापारी देश में तो सरकार करीब-करीब पूंजीपतियों के हाथ में ही है । इससे राज्यों का रूप बदल गया है । समाजवादी विचारधारा के प्रभाव से राज्य कल्याणकारी कार्यों को महत्व देने लगे हैं ।
v. सामाजिक संस्थाओं पर प्रभाव:
आर्थिक जीवन में उत्पादन के प्रभाव से समाज में सामाजिक संस्थाओं पर बड़ा प्रभाव पड़ता है । इस तथ्य की परीक्षा किसी भी समाज की औद्योगिक क्रांति के पूर्व और पश्चात् की सामाजिक और राजनैतिक संस्थाओं की स्थिति का मुकाबला करने से हो सकती है । भारतवर्ष का उदाहरण लीजिये, भारतवर्ष में आर्थिक उत्पादन में यन्त्रों का बड़े पैमाने पर प्रयोग पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से और शुरू-शुरू में अंग्रेजों के प्रयास से शुरू हुआ ।
उसके पहले के भारत में और बाद के भारत में सामाजिक संस्थाओं में मुख्य रूप से निम्नलिखित अन्तर देखे जा सकते है:
(a) परिवार:
पहले संयुक्त परिवार की प्रथा थी । जीवन की अधिकांश आवश्यकताओं को परिवार ही पूरा करता था, व्यक्ति पर परिवार का दृढ़ नियंत्रण था परिवार संगठित था और उत्पादन के कार्यों की इकाई था । अब संयुक्त परिवारों का सब कहीं तेजी से विघटन हो रहा है ।
खेती में मशीनों के प्रयोग से उसमें पूरे परिवार को लगने की आवश्यकता नहीं पड़ती । अतः परिवार के अन्य व्यक्ति नौकरी अथवा अन्य व्यवसाय करते हैं जिसमें बहुधा उनको घर छोड़कर अन्य स्थान पर जाकर बसना पड़ जाता है । इससे परिवार छोटे होते जा रहे हैं । उत्पादन के बड़े-बड़े कारखानों के बन जाने से हजारों ग्रामीण श्रमिक अपने गांवों से आकर शहर में कभी अकेले और कभी सपरिवार रहते हैं ।
इससे गांवों में भी संयुक्त परिवार समाप्त होते जा रहे है । मशीनों के आविष्कार से स्त्रियों और बच्चों के लिये भी काम निकलने लगे हैं । इससे वे भी कमाई करने लगे है । इससे जहां वैयक्तिकता की भावना और आत्म विश्वास बढ़ा है वहां पारिवारिक नियन्त्रण भी ढीला पड़ा है ।
मशीनों के आविष्कार से पुस्तकों का मिलना सुलभ हो गया है जिससे शिक्षा का प्रचार बढ़ रहा है । सिनेमा यन्त्र युग की देन है । आधुनिक शिक्षा और सिनेमा के प्रभाव का पारिवारिक विघटन में भारी हाथ है । इस प्रकार मध्यकालीन और आधुनिक परिवारों में अन्तर बहुत कुछ आर्थिक जीवन में यन्त्रों के प्रयोग की देन है ।
(b) विवाह की संस्था में परिवर्तन:
आर्थिक उत्पादन के प्रचार में आधुनिक परिवर्तन से आर्थिक क्षेत्र में स्त्रियाँ धीरे-धीरे पुरुषों का मुकाबला करने लगी है । आर्थिक समानता के साथ-साथ वे अन्य क्षेत्रों में भी समानता लेती जा रही हैं । इससे वैवाहिक सम्बन्धों में स्त्री पुरुष की समानता स्थापित होने लगी है विवाह अब धार्मिक संस्कार न रह कर सामाजिक समझौता मात्र रह गया है जिसको इच्छा होने पर तोड़ा जा सकता है ।
आर्थिक स्वाधीनता प्राप्त कर लेने से स्त्रियां अब केवल प्रेम अथवा यौन सुख भोग आदि कारणों से विवाह करती है इस प्रकार विवाह का आधार परिवर्तित हो गया है । इससे विवाह-पूर्व तथा विवाह से बाहर यौन सम्बन्धों की संख्या बढ़ने लगी है । बच्चों की संख्या कम होती जा रही है और तलाकों की संख्या बढ़ती जा रही है ।
(c) सामाजिक स्थितियों में परिवर्तन:
इस प्रकार आर्थिक उत्पादन के प्रकार में परिवर्तन से स्त्री पुरुष की सामाजिक स्थितियों में परिवर्तन हो गया है । जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में दोनों एक दूसरे के समकक्ष आते जा रहे हैं । आजकल सामाजिक स्थिति को निश्चित करने में धन का बड़ा महत्व है । सामाजिक मूल्यों के परिवर्तन तथा विशेषीकरण के प्रभाव से लोगों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन हो गया है ।
(d) सामाजिक स्तरों में परिवर्तन:
आर्थिक उत्पादन के प्रकार में परिवर्तन होने के साथ-साथ सामाजिक स्तरों में भी परिवर्तन हुआ है । वर्तमान युग में किसान और जमींदार वर्गों के स्थान पर पूंजीपतियों और श्रमिकों के वर्ग दिखाई पड़ते हैं । ये दो वर्ग एक दूसरे के जबर्दस्त प्रतिद्वन्द्वी है ।
(e) धार्मिक संस्था में परिवर्तन:
आर्थिक उत्पादन में मशीनों के प्रयोग तथा नवीन अनुसंधानों के कारण मानव के आर्थिक जीवन पर प्रकृति का प्रभाव बहुत कम हो गया है और अनेक अन्धविश्वास दूर होते जा रहे हैं । इससे प्राकृतिक शक्तियों का भय घटने लगता है धर्म को निजी मामला समझा जाने लगा है और उसकी उपेक्षा होने लगी है ।
vi. आचरण सम्बन्धी प्रतिक्रियाओं पर प्रभाव:
वर्तमान उत्पादन प्रणाली में स्त्रियाँ भी उत्पादन में महत्वपूर्ण भाग ले सकती हैं, क्योंकि मशीनों की सहायता से काम हल्के हो गये हैं । इस परिवर्तन से आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियाँ पुरुषों के साथ काम करती दिखाई पड़ती है इससे जहाँ स्त्रियों की स्थिति पुरुष के समकक्ष आने लगी है वहाँ यौन सम्बन्धों के विषय में विचार अधिक उदार होने लगे है ।
विवाह-पूर्व और विवाह के बाहर यौन सम्बन्धों की संख्या बढ़ने लगी है । विवाह में प्रेम पर जोर दिया जाने लगा है । विवाह अब एक सामाजिक समझौता है जिसको कभी भी तोड़ा जा सकता है । अतः तलाकों की संख्या बढ़ रही है । उत्पादन के क्षेत्र में स्त्री-पुरुष सभी के काम करने से परिवार के काम कम हो गये है और अनेक काम दूसरी ऐजेन्सियाँ करने लगी हैं ।
व्यक्ति पर परिवार का नियन्त्रण कम हो गया है । जीवन यन्त्रवत् होते जाने के कारण जहां एक ओर नवीनता और परिवर्तन की प्यास रॉक एन रोल और जाज की ओर ले जा रही है वहाँ दूसरी ओर मनोरंजन तक निष्क्रिय और यन्त्रवत् होते जा रहे है ।
उदाहरण के लिये सिनेमा आज के प्रमुख मनोरंजन के साधनों में से है जिसमें आपको केवल आँख खोलकर सिनेमा हाल में दो तीन घण्टे बैठ जाना भर पड़ता है । वर्तमान उत्पादन प्रणाली के परिणाम औद्योगीकरण और नगरीकरण के प्रभाव भी अप्रत्यक्ष रूप में वर्तमान उत्पादन प्रणाली के ही प्रभाव हैं ।
परन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि आर्थिक उत्पादन प्रणाली से परिवर्तन ही आर्थिक राजनैतिक और आचरण सम्बन्धी प्रक्रियाओं के एक मात्र निर्णायक है । इस विषय में अनेक कारक भी महत्त्वपूर्ण काम करते है इस प्रकार मार्क्स तथा वैबलन आदि निर्णायकवादियों का मत एकागी है ।
आर्थिक, राजनैतिक तथा आचरण सम्बन्धी क्रियायें इतनी सरल नहीं है कि उन्हें किसी एक कारक से समझाया जा सके । वे जटिल प्रक्रियायें हैं । अतः उनकी व्याख्या के लिये व्यापक दृष्टिकोण से काम लेना पड़ेगा ।
4. सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors):
साधारण बोलचाल में संस्कृति का अर्श सुन्दर, परिष्कृत, रुचिकर या कल्याणकारी व्यवहार या गुणा से लिया जाता है । परन्तु यह संस्कृति की शास्त्रीय परिभाषा नहीं है । समाजशास्त्र में संस्कृति की निश्चित परिभाषा की जाती है ।
कुछ परिभाषायें निम्नलिखित हैं:
(i) टायलर- “संस्कृति एक जटिल सम्पूर्ण है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कलायें नीति विधि, रीति-रिवाज और समाज के सदस्य होकर मनुष्य द्वारा अर्जित अन्य योग्याताएँ और आदतें शामिल है ।”
(ii) रेडफील्ड- ”संस्कृति कला और उपकरणों से जाहिर परम्परागत ज्ञान का वह संगठित रूप है जो परम्परा के द्वारा संगठित होकर मानव समूह की विशेषता बन जाता है ।”
(iii) जोसेफ पीपर- ”संस्कृति प्राणी की तमाम कुदरती चीजों और उन उपहारों तथा गुणों का सार है जो मनुष्य से सम्बन्ध रखते हुये भी उनकी जरूरतों और आवश्यकताओं के तात्कालिक क्षेत्र से परे हैं ।”
(iv) ह्वाइट- “संस्कृति एक प्रतीकात्मक, निरन्तर, संचयी और प्रगतिशील प्रक्रिया है ।”
इस प्रकार संस्कृति में वह सब शामिल है जो मानव ने अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के मानसिक और आध्यामिक क्षेत्र में आज तक अर्जित किया है । मैकाइवर और पेज के शब्दों में- ”यह मूल्यों शैलियों भावात्मक लगावों तथा बौद्धिक अभियानों का क्षेत्र है । इस तरह संस्कृति सभ्यता का बिल्कुल प्रतिवाद है । वह हमारे रहने और सोचने के दंगों में, दैनिक कार्य कलापों में, कला में, साहित्य में, धर्म में, मनोरंजन और सुखोपभोग में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है ।”
संस्कृति की आवश्यक विशेषतायें:
(a) संस्कृति में मनुष्य निर्मित और वे चीजें शमिल है जिनमें मनुष्य संशोधन कर सकता है ।
(b) नये तत्वों के समावेश से संस्कृति की जटिलता और गुण बढ़ते है ।
(c) यह पीढ़ी दर पीढ़ी मानसिक रूप से संचारित होती रहती है ।
(d) संस्कृति केवल मानव समाजों में पाई जाती है ।
संस्कृति की प्रकृति:
संस्कृति की प्रकृति के बारे में महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित हैं:
(I) संस्कृति सीखे हुए गुण हैं:
संस्कृति जन्मजात नहीं है । सामाजीकरण के द्वारा सीखे हुए गुण, आदतें तथा विचार आदि ही संस्कृति कहलाती है । मनुष्य में प्रतीकात्मक संचार की योग्यता होने के कारण वह सांस्कृतिक व्यवहार को ग्रहण कर लेता है ।
(II) संस्कृति संचारशील है:
इस प्रकार संस्कृति का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संचार होता है । इससे संस्कृति में बराबर वृद्धि होती रहती है । संचार के कारण नई पीढ़ी पिछली पीढ़ी के अनुभवी से लाभ उठती है । इस प्रकार संस्कृति अर्द्धस्थायी हो जाती है और किसी व्यक्ति या समूह के रहने से उस पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता ।
(III) संस्कृति वैयक्तिक नहीं बल्कि सामाजिक है:
संस्कृति के सम्बर्द्धन और संचार में हर एक व्यक्ति कुछ न कुछ भाग लेता है परन्तु संस्कृति वैयक्तिक न होकर सामाजिक है । उसमें समूह के सदस्यों की सामान्य अपेक्षतायें शामिल होती हैं । समूह से बाहर रहकर व्यक्ति संस्कृति की सृष्टि नहीं कर सकता ।
(IV) संस्कृति आदर्शात्मक हैं:
संस्कृति में व्यवहार के वे आदर्श प्रतिमान या आदर्श नियम शामिल हैं जिनके अनुसार समाज के सदस्य आचरण करने की चेष्टा करते हैं । इन आदर्श नियमों तथा प्रतिमानों को समाज स्वीकार करता है ।
(V) संस्कृति कुछ आवश्यकताओं को पूरा करती है:
संस्कृति मनुष्य की उन नैतिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करती है जो स्वयं साध्य हैं । संस्कृति में सामूहिक आदतें शामिल है । आदतें उन्ही कामों की पड़ती है जिनसे कुछ न कुछ आवश्यकतायें पूरी होती हों । इन आवश्कताओं को पूरा किये बिना संस्कृति का जीवित रहना असम्भव है । संस्कृति का जो अंश सामाजिक सन्तोष में सहायक नहीं होता वह गायब हो जाता है ।
(VI) संस्कृति में उपयोजन की योग्यता होती है:
पर्यावरण के अनुसार संस्कृति बराबर बदलती रहती है और इस परिवर्तन से बाहरी शक्तियों से उसका उपयोजन होता रहता है । परन्तु विकसित होने पर प्राकृतिक पर्यावरण का प्रभाव घटता जाता है । इसके अलावा संस्कृति के विभिन्न अंगों का भी विकास होता रहता है और उनमें आन्तरिक उपयोजन की जरूरत पड़ती है ।
(VII) संस्कृति में एकीभूत होने का गुण है:
संस्कृति में एक क्रम और एक संगठन होता है । उसके भिन्न-भिन्न भाग आपस में एकीभूत रहते हैं और जो भी नया तत्व आता है वह भी उनमें मिल जाता हैं । जिन संस्कृतियों पर बाहरी प्रभाव अधिक पड़ता है वे अधिक विजातीय होती है । परन्तु सभी संस्कृतियों में कुछ न कुछ एक भूतता की प्रवृत्ति अवश्य दिखाई पड़ती है ।
इस प्रकार संस्कृति सामाजिक, आदर्शात्मक और सीखी हुई होती है तथा मनुष्य की बहुत सी आवश्यकताओं को पूर्ण करती है । उसमें संचार, उपयोजन तथा एकभूतता के गुण होते हैं । वह मनुष्य का विशेष गुण है, उसकी सामाजिक विरासत है, उसकी श्रेष्ठता का सबूत है ।
संस्कृति की अन्तर्वस्तु:
संस्कृति के तत्व क्या है ? संस्कृति में क्या-क्या शामिल है ? साधारण बोलचाल की भाषा में समूह के विश्वासों आदर्शों, विचारों व्यवहारों रीति-रिवाजों आदि व्यवहार के अनेक उपकरणों तथा साधनों को संस्कृति कहा जाता है । बोगार्डस के अनुसार- ”संस्कृति एक समूह से सम्बद्ध रीति-रिवाजों परम्पराओं और चालू व्यवहार प्रतिमानों से बनती है । संस्कृति एक समूह का मूलधन है । वह मूल्यों की एक ऐसी पूर्ववर्ती समष्टि है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति पैदा होता है । वह एक माध्यम है जिससे व्यक्ति पैदा होते और विकसित होते हैं ।”
अलैग्जैण्डर ए. गोल्डनवाइजर ने संस्कृति में निम्नलिखित तत्व माने है- ”हमारी प्रवृत्तियां, विश्वास और विचार, हमारे निर्णय और मूल्य हमारी संस्थायें-राजनैतिक और कानूनी धार्मिक और आर्थिक हमारी नैतिक संहितायें और शिष्टाचार के नियम, हमारी पुस्तकें और मशीनें हमारे विज्ञान दर्शन और दार्शनिक, ये सब और दूसरी बहुत सी चीजें तथा प्राणी, स्वयं भी और अपने विविध सम्बन्धों में भी ।”
जे. एल. गिलिन तथा जे. पी. गिलिन ने एक सामाजिक समूह के सामान्य सीखे हुए व्यवहार को संस्कृति कहा है । इस तरह मोटे तौर से संस्कृति में यह सब कुछ शामिल है जो कुछ मनुष्य समाज में सीखता है जैसे ज्ञान, धार्मिक विश्वास कला कानून नैतिकता रीति-रिवाज व्यवहार के तौर-तरीके साहित्य संगीत भाषा इत्यादि ।
सहज व्यवहार को संस्कृति नहीं कहा जायेगा । स्वाभाविक तथा जन्मजात व्यवहार जैसे सांस लेना आदि संस्कृति में शामिल नहीं किये जाते । ए. डबल्यू. ग्रीन के शब्दों में ”संस्कृति ज्ञान व्यवहार विकास की उन आदर्श पद्धतियों को तथा ज्ञान और व्यवहार से उत्पन्न हुए साधनों की व्यवस्था को कहते हैं जो सामाजिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती है ।” इस प्रकार संस्कृति में वह सब शामिल है जो कि सामाजिक विरासत में गिना जाता है ।
संस्कृति के प्रकार:
समाजशास्त्रियों ने संस्कृति के दो प्रकार माने हैं:
(A) भौतिक संस्कृति और
(B) अभौतिक संस्कृति ।
(A) भौतिक संस्कृति:
इसमें भौतिक या पार्थिव वस्तुएं आती हैं जो कि मनुष्य के व्यवहार में आती हैं जैसे रहने के मकान, घरों का सामान, विविध प्रकार के उपकरण औजार हथियार बर्तन आवागमन के साधन इत्यादि ।
(B) अभौतिक संस्कृति:
इसमें अमूर्त, वस्तुएं शामिल हैं जैसे समाज के विभिन्न रीति-रिवाज, रूढ़ियों, विधियाँ कलाएं, ज्ञान और धर्म आदि ।
संस्कृति के सार्वभौम तत्व:
क्लार्क विजलर ने मानव जाति के प्रत्येक समूह की संस्कृति में ये सार्वभौम तत्व माने हैं:
(i) बोली,
(ii) पार्थिव उपकरण जैसे भोजन मकान आवागमन के साधन वेशभूषा हथियार बर्तन वस्त्र उद्योग और धन्धे,
(iii) कलायें,
(iv) पौराणिक और वैज्ञानिक ज्ञान,
(v) धार्मिक रीतियाँ और अन्य-विश्वास,
(vi) कुटुंब और विवाह, सामाजिक नियन्त्रण खेल-कूद जैसी सामाजिक संस्थायें,
(vii) सम्पति मूल्य विनिमय और व्यापार,
(viii) सरकार और विधि,
(ix) युद्ध ।
संस्कृति के ये सार्वभौम तत्व सभी संस्कृतियों में पाये जाते हैं परन्तु इनके रूप भिन्न-भिन्न होते हैं । भिन्न-भिन्न समाजों में विवाह के भिन्न-भिन्न रूप पाये जाते है जैसे बहुपति विवाह, बहुपत्नी विवाह, समूह विवाह, एक विवाह इत्यादि । खान-पान में तो भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में भारी भेद दिखाई पड़ता है ।
North West Amazons में विफेन ने लिखा है कि पश्चिमी अमेजन प्रदेश की इस्साजपुरा नामक जाति के बोरो तथा विटोटो लोग बन्दर मेंढक और छिपकली को बड़ा स्वादिष्ट भोजन समझते हैं । ये बर्रे, मधु-मक्खियों की इल्लियाँ और पड़ोसियों के सर की जूएँ भी खा जाते हैं । गोरर के अनुसार दक्षिणी पूर्वी एशिया की कुछ जातियों के लोग कोबरा आदि विषैले सापों और अजगर की कड़ी बड़े शौक से खाते हैं ।
संस्कृति और प्रौद्योगिकी:
संस्कृति का प्रौद्योगिकी से बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध में दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते है ।
इस प्रकार इस परस्पर प्रभाव के दो पहलू हैं:
(a) प्रौद्योगिकीय परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन को जन्म देते हैं ।
(b) सांस्कृतिक स्थिति प्रौद्योगिकीय दिशा एवं रूप को प्रभावित करती है । अब इन दोनों पहलुओं का विस्तृत विवेचन किया जायेगा ।
(a) प्रौद्योगिकीय परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन को जन्म देने हैं:
मैकाइवर ने कहा है कि मनुष्य जिन उपकरणों का उपयोग करता है, केवल उनके लाभदायक होने से ही सन्तोष नहीं कर लेता बल्कि वह उनकी लाभप्रदता में सौंदर्य भी देखना चाहता है । इस प्रकार प्रौद्योगिकीय परिवर्तन सांस्कृतिक परिवर्तन को जन्म देते हैं । एक उदाहरण लीजिये ।
पहले मोटर का इन्जन स्टार्ट करने के लिये उसके सामने हैण्डल लगाकर जोर से घुमाना पड़ता था । यह काम कठिन और कष्ट-साध्य था । अत: स्त्रियां मोटर बहुत कम चलाती थीं । अब मोटर में इस हैंडिल के स्थान पर स्वयंचालक यंत्र होता है जिससे गाड़ी आसानी से स्टार्ट की जा सकती है ।
इस सुविधा से अब स्त्रियाँ खूब मोटर चलाने लगी है । इस साधारण प्रौद्योगिक परिवर्तन का केवल इतना ही प्रभाव नहीं पड़ा । इससे स्त्रियों पर और भी सांस्कृतिक प्रभाव पड़े । इससे उनकी गतिशीलता, आदतों, गृह-जीवन, संतान के पालन-पोषण होटलों के प्रयोग, अवकाश मनाने के तरीकों में भी जबर्दस्त अनार हुआ है ।
इस एक उदाहरण से स्पष्ट है कि एक साधारण से प्रौद्योगिक परिवर्तन से भी कितने दूरवर्ती सांस्कृतिक परिवर्तन हो सकते है । ऑगबर्ग और निमकॉफ के शब्दों में- “कभी-कभी यह अनेक प्रभाव डालता है जो विभिन्न दिशाओं में एक पहिये की तीली के समान फैल जाते है ।”
प्रौद्योगिक परिवर्तन से सांस्कृतिक परिवर्तन का एक और भी उत्तम और जीता जागता उदाहरण रेडियो और टेलीविजन का आविष्कार है इनकी सहायता से मामूली हैसियत के लोग भी घर बैठे विभिन्न देशों और अलग-अलग संस्कृतियों के विचारों कहानियों लोक गीतों समाचारों साहित्य, संगीत तथा रहन-सहन, रीति रिवाज आदि का परिचय पाते रहते है ।
जिन घरों में ये साधन उपलब्ध है उनके सांस्कृतिक वातावरण में स्पष्ट अन्तर दिखाई पड़ता है । यह बात दूसरी है कि उस परिवर्तन को आप प्रगति कहना चाहें या अवनति परन्तु परिवर्तन से कोई इन्कार नहीं कर सकता । यह परिवर्तन केवल उनके रहन-सहन, तौर-तरीके बोलचाल में ही नहीं बल्कि विचारों और जीवन के मूल्यों तक में देखा जा सकता है ।
इसी प्रकार का जबर्दस्त सांस्कृतिक परिवर्तन सिनेमा के आविष्कार से हुआ है । सिनेमा के द्वारा यह परिवर्तन एक साधारण रिक्शे वाले के जीवन तक में देखा जा सकता है । सिनेमा के प्रभाय से वह अधिक साफ सुथरा, तन्दुरुस्त, चुस्त और ”सुन्दर” दिखाई पड़ने की कोशिश करता है । उसको अपने जीवन में रस आने लगता है । उसके सोचने समझने, बोलने, भावभंगिमा आदि सभी पर सिनेमा का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पडता है ।
इस प्रकार के उदाहरण आपको राह चलते मिल जायेंगे । यातायात और सन्देशवहन के साधनों के विकास से भी भारी सांस्कृतिक परिवर्तन हुए है । इनके प्रभाव से विभिन्न संस्कृति के व्यक्तियों को एक दूसरे से मिलने-जुलने, बोलने-चालने, समझने-पहचानने के अवसर मिले जिससे एक विश्व संस्कृति की भावना क्रमशः बढ़ रही है ।
इस प्रकार प्रौद्योगिकी ने हमें यातायात और सन्देशवहन के साधन, उद्योगों में प्रयोग होने वाली मशीनें और कृषि सम्बन्धी प्रविधियां दी हैं जिनसे हमें नाना प्रकार के यन्त्रों और उपकरणों को नए-नए रूपों में प्रयोग करने का अवसर मिला है ।
ये यन्त्र, उपकरण तथा इनसे सम्बन्धित अन्य क्रियायें मानव की संस्कृति की अभिव्यक्ति करते है । वन्य जातियों के लोग अब भी हाथ की बनाई ‘डोंगियो’ में नदियाँ पार करते है, सभ्य देशों में स्टीमरों का प्रयोग होता है । नाव और स्टीमर के अन्तर से संस्कृति का अन्तर स्पष्ट दिखाई पड़ता है इस प्रकार प्रौद्योगिकी में परिवर्तन के साथ-साथ संस्कृति में भी परिवर्तन हो जाता है क्योंकि प्रौद्योगिकी से सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के उपकरण मिलते है ।
आजकल जो संस्कृति में तेजी से परिवर्तन दिखाई पड़ता है उसका कारण प्रौद्योगिकी का तीव्र परिवर्तन है । जब प्रौद्योगिकी के परिवर्तन की गति धीमी होती है तब सांस्कृतिक परिवर्तन की गति भी कुछ न कुछ मन्द हो जाती है । प्रौद्योगिक परिवर्तन सांस्कृतिक प्रतिमानों के स्वरूपों को बदलते रहते है । केवल व्यक्तियों पर ही नहीं बल्कि सामूहिक जीवन में संस्थाओं और समितियों पर भी प्रौद्योगिक परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है ।
(b) सांस्कृतिक स्थिति प्रौद्योगिकीय दिशा एवं रूप को प्रभावित करती है:
डासन और गेटिस ने लिखा है कि- ”संस्कृति में सामाजिक परिवर्तन की दिशा निश्चित करने और उसे गति प्रदान करने तथा उन सीमाओं को निश्चित करने की प्रवृत्ति होती है जिनके परे सामाजिक परिवर्तन नहीं जा सकता ।”
मैकाइवर ने सभ्यता के उपकरणों में प्रौद्योगिकी की एक जहाज से उपमा देते हुये कहा है कि जहाज स्वयं यह निश्चित नहीं करता कि वह कहां जायेगा । मैकाइवर और पेज के शब्दों में- ”वह बन्दरगाह जहां की हम यात्रा करते हैं एक सांस्कृतिक चुनाव रहता है ।”
यह ठीक है कि जहाज के बिना यात्रा नहीं की जा सकती और यात्रा का तीव्र या मध्यम गति से होना भी जहाज की प्रकृति पर निर्भर है परन्तु जहाज का डिजाइन यह निश्चय नहीं करता कि यह कहां पहुंचेगा । जहाज जितना अच्छा होगा उतने ही अधिक बन्दरगाह चुने जाने के लिये उसकी सीमा में आयेंगे, परन्तु कौन सा बन्दरगाह चुना जायेगा यह संस्कृति पर आधारित है ।
इस प्रकार सांस्कृतिक स्थिति प्रौद्योगिकीय परिवर्तन की दिशा और प्रकृति को प्रभावित करती है । विज्ञान के आविष्कारों का किस दिशा में प्रयोग किया जायेगा यह संस्कृति पर निर्भर है, क्योंकि मानव के चालक कारक संस्कृति में हैं ।
अंग्रेजी में एक कहावत है कि ”It is not the gun which fights but the man who fights. It is not the man who fights but the tiny heart in him which fights.” अर्थात् ”बंदूक नहीं लड़ती, मनुष्य लडते हैं, मनुष्य नहीं लड़ते दिल लड़ते हैं ।”
आज के विज्ञान ने अणुशक्ति को मानव के हाथ में रख दिया है । उसका उपयोग रचनात्मक कार्यों में होगा या विनाश की दिशा में, इसका निश्चय स्वयं अणुशक्ति या विज्ञान नहीं करेगा बल्कि राजनीतिज्ञों के मूल्य करेंगे, उनकी नैतिकता तथा विचारशीलता करेगी ।
मैकाइवर ने ठीक ही लिखा है कि “सभ्यता की सामग्री का हम अभीष्ट उपयोग कर सकते है, उत्पादक उद्देश्यों में लगाई गई शक्तियों से हम जो चाहें पैदा कर सकते है । हमारे औद्योगिक कारखाने जीवन के लिये आवश्यक वस्तुयें तैयार कर सकते हैं, भोग विलास की सामग्री घना सकते है और युद्ध की सामग्री का भी निर्माण कर सकते है । हमारे कारखाने इनमें क्या तैयार करें इसका निर्णय और निर्धारण हमारी संस्कृति करती है ।”
वास्तव में प्रौद्योगिकी एक साधन मात्र है । उसको स्वयं साध्य नहीं माना जा सकता और न उससे साध्य का कुछ पता ही लगता है । साध्य का निश्चय मूल्यों और विचारधाराओं से होता है जो कि संस्कृति के अंग है । अतः संस्कृति से प्रौद्योगिकी के विकास का मानव के विनाश के लिये भी प्रयोग हो सकता है ।
प्रौद्योगिक परिवर्तन के रूप को भी संस्कृति ही निश्चित करती है । प्रौद्योगिक परिवर्तन किस प्रकार का होगा यह मूल्यों और विचारधाराओं पर निर्भर है रूम में प्रौद्योगिकी की दिशा और रूप पर मार्क्स के विचारों और आदर्शों की स्पष्ट छाप है ।