सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त! Read this article in Hindi to learn about the five important theories of social change. The theories are:- 1. सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त (Cyclical Theories of Social Change) 2. सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त (Linear Theories of Social Change) and a Few Others.
समाज में सामाजिक परिवर्तन किन कारणों से तथा किन नियमों के अन्तर्गत होता है, उनकी गति एवं दिशा क्या होती है, इन प्रश्नों को लेकर प्राचीन समय से आज तक विद्वान अपने-अपने मत व्यक्त करते रहे हैं । 16वीं सदी में जीन बोडिन ने विश्व की विभिन्न सभ्यताओं के ऐतिहासिक अध्ययन के आधार पर यह मत व्यक्त किया कि समाज में परिवर्तन चक्रीय रूप में घटित होते हैं ।
यद्यपि उनकी यह बात उस समय पूर्णतया स्वीकार नहीं की गयी किन्तु बाद में कुछ विद्वानों ने परितर्वन के चक्रीय सिद्धान्तों को स्वीकार किया । 16वीं सदी में फ्रांस में यह मत प्रचलित हुआ कि विचार और चिन्तन समाज में परिवर्तन उत्पन्न करते है ।
19वीं सदी में कॉम्टे, हीगल एवं कार्ल मैनहीम ने सामाजिक परिवर्तन में विचारों की भूमिका को बहुत महत्व दिया । कॉम्टे, स्पेंसर एवं हॉबहाउस आदि विद्वानों ने कहा कि सामाजिक परिवर्तन एक सीधी रेखा में कुछ निश्चित स्तरों से होकर गुजरता है और प्रत्येक समाज को इन स्तरों से गुजरना होता है । ये स्तर कौन से होंगे, इस बारे में उनमें मतभेद है ।
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बाद में आने वाले समाज वैज्ञानिकों जैसे मॉर्गन, टायलर, हेनरीमेन वेस्टरमार्क हेड्डन एवं लोविब्रुहल आदि ने भी यह मत स्वीकार किया और इस आधार पर परिवार, विवाह, धर्म, कला एवं संस्कृति में परिवर्तन की उद्विकासीय प्रवृति का उल्लेख किया । उस समय यह अवधारणा बनी कि परिवर्तन सदैव सरलता से जटिलता समानता से असमानता तथा बुराई से अच्छाई की ओर होता है ।
परिवर्तन की उद्विकासीय एवं चक्रीय व्याख्या के बाद कुछ विद्वानों ने किसी एक ही कारक को परिवर्तन के लिए उत्तरदायी ठहराकर परिवर्तन की निर्धारणवादी व्याख्या प्रस्तुत की । मार्क्स एवं वेबलिन ने प्रौद्योगिक एवं आर्थिक कारकों को, ऑगबर्न ने संस्कृति को, मैक्स वेबर ने धर्म को तथा माल्थस एवं सैडलर ने जनसंख्यात्मक कारकों को सामाजिक परिवर्तन के लिए उतरदायी ठहराया ।
1. सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त (Cyclical Theories of Social Change):
चक्रीय सिद्धान्तकारों के अनुसार समाज में परिवर्तन का एक चक्र चलता है । हम जहाँ से प्रारम्भ होते हैं, घूम-फिर कर पुन: वहीं पहुँच जाते हैं । इस प्रकार के विचारों की प्रेरणा इन विद्वानों को प्रकृति से मिली । प्रकृति में ऋतु का एक चक्र चलता है और सर्दी, गर्मी एवं वर्षा की ऋतुएं एक के बाद एक पुनः-पुन: आती हैं । इसी प्रकार से रात के बाद दिन एवं दिन के बाद रात का चक्र चलता रहता है ।
प्राणी भी जन्म लेते हैं, युवा होते हैं, वृद्ध होते है और मर जाते है । मरकर फिर जन्म लेते है, और पुन: वही क्रम दोहराते हैं । परिवर्तन के इस चक्र को कई विद्वानों ने समाज पर भी लागू किया और कहा कि परिवार, समाज और सभ्यताएं उत्थान और पतन के चक्र से गुजरते हैं ।
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इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने विश्व की अनेक सभ्यताओं का उल्लेख किया और कहा कि इतिहास इस बात का साक्षी है कि जो सभ्यताएँ आज फल-फूल रही हैं और प्रगति के उच्च शिखर पर हैं, वे कभी आदिम और पिछड़ी अवस्था में थीं और आज जो सभ्यताएँ नष्ट प्रायः दिखायी दे रही है, वे भूतकाल में विश्व की श्रेष्ट सभ्यताएँ रह चुकी हैं । इस प्रकार चक्रीय सिद्धान्तकार सामाजिक परिवर्तन को जीवन-चक्र के रूप में देखते हैं । चक्रीय सिद्धान्तकारों में स्पेंग्लर, टॉयनबी, पेरेटो एवं सोरोकिन प्रमुख है ।
(i) स्पेंगलर का सिद्धान्त:
सामाजिक परिवर्तन के बारे में अपना चक्रीय सिद्धान्त जर्मन विद्वान ओस्वाल्ड स्पेंगलर ने सन् 1918 में अपनी पुस्तक ‘The Decline of the West’ में प्रस्तुत किया । इस पुस्तक में उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के उद्विकासीय सिद्धान्तों की आलोचना की । उन्होंने कहा कि परिवर्तन कभी भी एक सीधी रेखा में नहीं होता है । सामाजिक परिवर्तन का एक चक्र चलता है, हम जहाँ से प्रारम्भ होते हैं, घूम-फिर कर पुन: वहीं पहुँच जाते हैं ।
जैसे मनुष्य जन्म लेता है, युवा होता है, वृद्ध होता है और मर जाता है तथा फिर जन्म लेता है, यही चक्र मानव समाज एवं सभ्यताओं में भी पाया जाता है । मानव की सभ्यता एवं संस्कृति भी उत्थान और पतन, निर्माण और विनाश के चक्र से गुजरती है । वे भी मानव शरीर की तरह जन्म, विकास और मृत्यु को प्राप्त होती हैं ।
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अपनी बात को सिद्ध करने के लिए स्पेंगलर ने विश्व की आठ सभ्यताओं यथा अरब, मिश्र, मेजियन, माया, रूसी एवं पश्चिमी संस्कृतियों आदि का उल्लेख किया और उनके उत्थान एवं पतन को दर्शाया । पश्चिमी सभ्यता के बारे में स्पेंगलर ने कहा कि यह अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गयी है ।
उद्योग एवं विज्ञान के क्षेत्र में उसने अभूतपूर्व प्रगति की है किन्तु अब वह धीरे-धीरे क्षीणता एवं स्थिरता की स्थिति में पहुँच रही है, अत: इसका विनाश अवश्यम्भावी है । उन्होंने जर्मन संस्कृति के बारे में भी ऐसे ही विचार प्रकट किये और कहा कि यह भी अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी है और अब इसका पतन निकट है ।
स्पेंगलर की भविष्यवाणी उस समय सही प्रतीत हुई जब द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मनी का पतन हुआ । स्पेंग्लर ने कहा कि युद्ध एवं शहरों का निर्माण सभ्यता के पतन के सूचक हैं । उनके अनुसार पश्चिमी समाजों का आज जो दबदबा है, वह भविष्य में समाप्त हो जायेगा और उनकी सभ्यता एवं शक्ति नष्ट हो जायेगी । दूसरी ओर एशिया के देश जो अब तक पिछड़े हुए कमजोर एवं सुस्त हैं वे अपनी आर्थिक एवं सैन्य शक्ति के कारण प्रगति एवं निर्माण के पथ पर बढेंगे तथा पश्चिमी समाजों के लिए एक चुनौती बन जायेंगे ।
समालोचना:
स्पेंग्लर के इस सिद्धान्त ने बहुत समय तक लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया किन्तु इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सका स्पेंग्लर ने संस्कृति एवं सभ्यता की तुलना सावयव से की जिसे आज कोई स्वीकार नहीं करता ।
ऐतिहासिक तथ्यों को तोड-मरोड कर उन्होंने अपने पक्ष की पुष्टि की तथा युद्धों से पश्चिमी समाज के विनाश की घोषणा की उन्होंने यह नहीं बतलाया कि किसी सभ्यता, समाज व संस्कृति का अन्तिम बिन्दु कौन सा है जिसके बाद हरा प्रारम्भ हो जाता है उनका यह कहना भी त्रुटिपूर्ण है कि पश्चिमी समाज विकास के चरम स्वरूप को प्राप्त कर चुका है क्योंकि अब भी उसके विकास का कार्य जारी है । स्पेंग्लर के सिद्धान्त को वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता । उनके सिद्धान्त से उनका निराशावाद प्रकट होता है ।
(ii) टॉयनबी का सिद्धान्त:
अंग्रेज इतिहासकार अर्नाल्ड जे. टॉयनबी ने विश्व की 21 सभ्यताओं का अध्ययन किया तथा अपनी पुस्तक ‘A Study of History’ में सामाजिक परिवर्तन का अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया । टॉयनबी के सिद्धान्त को ‘चुनौती एवं प्रत्युतर का सिद्धान्त’ भी कहते है ।
उनके अनुसार प्रत्येक सभ्यता को प्रारम्भ में प्रकृति एवं मानव द्वारा चुनौती दी जाती है । इस चुनौती का सामना करने के लिए व्यक्ति को अनुकूलन की आवश्यकता होती है इस चुनौती के प्रत्युत्तर में व्यक्ति सभ्यता व संस्कृति का निर्माण करता है ।
जब भौगोलिक चुनौतियों के स्थान पर सामाजिक चुनौतियाँ दी जाती हैं तो ये चुनौतियाँ समाज की भीतरी समस्याओं के रूप में अथवा बाहरी समाजों द्वारा दी जाती हैं । जो समाज इन चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक कर लेता है, वह जीवित रहता है और जो ऐसा नहीं कर सकता, वह नष्ट हो जाता है ।
इस प्रकार एक समाज निर्माण एवं विनाश तथा संगठन एवं विघटन के दौर से गुजरता है । सिन्ध व नील नदी की घाटियों में ऐसा ही हुआ । प्राकृतिक पर्यावरण ने वहां लोगों को चुनौती दी जिसका प्रत्युत्तर उन्होंने निर्माण के द्वारा दिया । गंगा व वोल्गा नदी ने भी ऐसी चुनौती दी किन्तु वहाँ के लोगों ने प्रत्युत्तर नहीं दिया, अत: वहाँ की सभ्यताएँ नहीं पनपी ।
समालोचना:
टॉयनबी का सिद्धान्त वैज्ञानिकता से दूर एक दार्शनिक सिद्धान्त है । किन्तु टॉयनबी स्पेंग्लर की तुलना में अधिक आशावादी है । उन्होंने परिवर्तन की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने का प्रयास किया ।
(iii) पेरेटो का सिद्धान्त:
बिलफेडो पेरेटे ने सामाजिक परिवर्तन का वह चक्रीय सिद्धान्त दिया जिसे अभिजात वर्ग के परिभ्रमण का सिद्धान्त कहते हैं । उन्होंने इसका प्रतिपादन अपनी पुस्तक ‘Mind and Society’ में किया । सामाजिक परिवर्तन को उन्होंने वर्ग व्यवस्था में होने वाले चक्रीय परिवर्तनों के आधार पर समझाया है प्रत्येक समाज में दो वर्ग दिखायी देते हैं- उच्च या अभिजात वर्ग तथा निम्न वर्ग ।
ये दोनों वर्ग स्थिर नहीं है वरन् इनमें परिवर्तन का चक्रीय क्रम पाया जाता है । निम्न वर्ग के व्यक्ति अपने गुणा एवं कुशलता में वृद्धि करके अभिजात वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं । अभिजात वर्ग के लोगों की कुशलता एवं योग्यता में धीरे-धीरे हास होने लगता है और वे अपने गुणों को खो देते हैं तथा भ्रष्ट हो जाते है । इस प्रकार वे निम्न वर्ग की ओर बढ़ते है ।
उच्च या अभिजात वर्ग में रिक्त स्थानों को भरने के लिए निम्न वर्ग के बुद्धिमान, चरित्रवान, कुशल, योग्य एवं साहसी व्यक्ति ऊपर की ओर जाते हैं । इस प्रकार उच्च वर्ग से निम्न वर्ग में तथा निम्न वर्ग से उच्च वर्ग में जाने की प्रक्रिया चलती रहती है ।
इस चक्रीय गति के कारण सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आता है । चूंकि यह परिवर्तन चक्रीय गति से होता है, इसलिए इसे सामाजिक परिवर्तन का ‘चक्रीय सिद्धान्त’ अथवा ‘अभिजात परिभ्रमण का सिद्धान्त’ कहते हैं ।
पेरेटो ने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त का उल्लेख राजनीतिक, आर्थिक एवं आदर्शात्मक तीनों क्षेत्रों में किया है:
(a) राजनीतिक क्षेत्र:
इसमें दो प्रकार के व्यक्ति दिखाई देते हैं-शेर तथा लोमड़ियाँ ‘शेर’ लोगों का आदर्शवादी लक्ष्यों में दृढ़ विश्वास होता है जिन्हें प्राप्त करने के लिए वे शक्ति का सहारा लेते हैं । ‘शेर’ वे लोग हैं जो सत्ता में होते है । चूंकि ‘शेर’ लोग शक्ति का प्रयोग करते हैं अत: समाज में भयंकर प्रतिक्रिया हो सकती है ।
अत: वे कूटनीति का सहारा लेते हैं और शेर से अपने को ‘लोमड़ियों’ में बदल लेते हैं तथा लोमड़ियों की तरह चालाकी से शासन चलाते है एवं सत्ता में बने रहते है । किन्तु निम्न वर्ग में भी कुछ लोमड़ियां होती है जो सत्ता को हथियाने की फिराक में होती है ।
एक समय ऐसा अवसर आता है कि उच्च वर्ग की लोमड़ियों से सत्ता निम्न वर्ग की लोमड़ियों के हाथ में आ जाती है । ऐसी स्थिति में सत्ता परिवर्तन के कारण राजनीतिक व्यवस्था एवं संगठन में भी परिवर्तन आता है । पेरेटो का मत है कि सभी समाजों में शासन के लिए तर्क के स्थान पर शक्ति का प्रयोग अधिक होता है ।
शासन करने वाले लोगों में जब बल का प्रयोग करने की इच्छा व शक्ति कमजोर हो जाती है तब वे शक्ति के स्थान पर लोमड़ियों की तरह चालाकी से काम लेते हैं शासित वर्ग की लोमड़ियाँ उनसे अधिक चतुर होती हैं, अतः वे उच्च वर्ग की लोमड़ियों से सत्ता छीन लेती हैं । अतः जब शासन बदलते है एवं सत्ता परिवर्तित होती है तो समाज में परिवर्तन आता है ।
(b) आर्थिक क्षेत्र:
इसमें भी पेरेटो ने दो वर्गों-सट्टेबाजों तथा निश्चित आय वर्ग का उल्लेख किया है । पहले वर्ग के लोगों की आय अनिश्चित कभी कम तो कभी ज्यादा होती है । इस वर्ग के लोग अपनी बुद्धि के द्वारा धन कमाते है । इसके विपरीत, दूसरे वर्ग की आय निश्चित होती है ।
प्रथम वर्ग के लोग आविष्कारक, उद्योगपति एवं कुशल व्यवसायी होते हैं । इस वर्ग -के लोग अपने हितों की रक्षा के लिए शक्ति एवं चालाकी का प्रयोग करते हैं । भ्रष्ट तरीके अपनाते है । इस कारण उनका पतन हो जाता है और उनका स्थान दूसरे वर्ग के लोग ले लेते है जो ईमानदार होते है । इस वर्ग परिवर्तन के साथ-साथ समाज की अर्थ-व्यवस्था में भी परिवर्तन आता है ।
(c) आदर्शात्मक क्षेत्र:
इसमें भी दो प्रकार के व्यक्ति पाये जाते हैं- विश्वासवादी एवं अविश्वासी । कभी समाज में विश्वासवादियों का प्रभुत्व होता है किन्तु जब वे रूढ़िवादी हो जाते है तो उनका पतन हो जाता है और उनका स्थान दूसरे वर्ग के लोग ले लेते है ।
समालोचना:
पेरेटो ने अपने चक्रीय सिद्धान्त को व्यवस्थित एवं बुद्धिमतापूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है फिर भी ये उन कारणों को स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं जो वर्गों की स्थिति को परिवर्तित करते है ।
(iv) सोरोकिन का सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धान्त:
सोरोकिन ने अपनी पुस्तक ‘Social and Cultural Dynamics’ में सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया ।
2. सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त (Linear Theories of Social Change):
सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्तकार उद्विकासवादियों से प्रभावित थे । वे यह नहीं मानते थे कि परिवर्तन चक्रीय गति में होता है । उनके अनुसार परिवर्तन सदैव एक सीधी रेखा में नीचे से ऊपर की ओर विभिन्न चरणों में होता है ।
रेखीय सिद्धान्तका, में कॉम्टे, स्पेंसर, हॉबहाउस, मार्क्स तथा वेबलिन आदि प्रमुख हैं । कॉम्टे समाज के उदविकासीय रूप को तीन स्तरों (धार्मिक से वैज्ञानिक तक) सपेन्सर चार स्तरों (शिकारी से औद्योगिक तक) तथा मार्क्स पाँच स्तरों (आदिम साम्यवादी से आधुनिक साम्यवादी तक) के रूप में मानते है । मार्क्स एवं वेबलिन दोनों ही आर्थिक एवं प्रौद्योगिक कारकों को अधिक महत्व देते है, अत: इनके सिद्धान्तों को निर्धारणवादी सिद्धान्त भी कहते हैं ।
(i) कॉम्टे का सिद्धान्त:
कॉम्टे ने सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध मानव के बौद्धिक विकास से जोड़ा है ।
उन्होंने बौद्धिक विकास एवं सामाजिक परिवर्तन के तीन स्तर माने हैं:
(a) धार्मिक स्तर (Theological State),
(b) तात्विक स्तर (Metaphysical Stage),
(c) वैज्ञानिक स्तर (Positive State) ।
(a) धार्मिक स्तर:
यह समाज की प्राथमिक अवस्था थी । इसमें मानव प्रत्येक घटना को ईश्वर एवं धर्म के सन्दर्भ में समझने का प्रयत्न करता था विश्व की सभी क्रियाओं का आधार धर्म और ईश्वर को ही माना जाता था उस समय अलग- अलग स्थानों पर धर्म के विभिन्न रूप जैसे बहुदेतवाद, एकदेववाद अथवा प्रकृति पूजा प्रचलित थे ।
(b) तात्विक स्तर:
इसमें घटनाओं की व्याख्या उनके गुणों के आधार पर की जाती थी । इस अवस्था में अलौकिक शक्ति में विश्वास कम हुआ और प्राणियों में विद्यमान अमूर्त शक्ति को ही समस्त घटनाओं के लिए उत्तरदायी माना गया ।
(c) वैज्ञानिक स्तर:
यह वर्तमान में विद्यमान है । इसमें मानव सांसारिक घटनाओं की व्याख्या धर्म ईश्वर एवं अलौकिक शक्ति के आधार पर नहीं करता वरन् वैज्ञानिक नियमों एवं तर्क के आधार पर करता है । वह कार्य और कारण के सह-सम्बन्धों को ज्ञात कर नियमों एवं सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है ।
वह घटनाओं का अवलोकन कर उनकी तार्किक एवं वैज्ञानिक व्याख्या करके सत्य तक पहुँचने का प्रयास करता है । इस प्रकार चिन्तन के विकास के साथ-साथ सामाजिक संरचना संगठन एवं व्यवस्थाओं का भी विकास एवं परिवर्तन हुआ है ।
समालोचना:
समाज में होने वाले परिवर्तनों की एक योजनाबद्ध एवं क्रमबद्ध व्याख्या में कटे का प्रयास सराहनीय है किन्तु उनके इस सिद्धान्त को पूरी तरह सही नहीं माना जा सकता । उन्होंने चिन्तन और सामाजिक विकास के जिन तीन स्तरों का उल्लेख किया है उन स्तरों से विश्व के सभी समाज गुजरें हों यह आवश्यक नहीं है ये स्तर किसी समाज में पहले व किसी में बाद में अथवा दो सार साथ-साथ भी चल सकते हैं । कॉम्टे के इस समरेखीय विकास के विचार से स्पेन्सर, दुर्खीम एवं अन्य उद्विकासवादी प्रभावित हुए और उन्होंने समाज संस्कृति और इसके विभिन्न पक्षों का उद्विकासीय क्रम प्रस्तुत किया ।
(ii) स्पेन्सर का सिद्धान्त:
स्पेन्सर ने सामाजिक परिवर्तन को प्राकृतिक प्रवरण के आधार पर समझाया है । स्पेन्सर डार्विन के उद्विकास से प्रभावित थे । डार्विन ने जीवों के उद्विकास का सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिस स्पेन्सर ने समाज पर भी लागू किया । डार्विन के अनुसार जीवों में अस्तित्व के लिए संघर्ष पाया जाता है । इस संघर्ष में वे ही प्राणी बचे रहते है जो शक्तिशाली होते हैं और प्रकृति से अनुकूलन कर लेते हैं, कमजोर इस संघर्ष में समाप्त हो जाते है ।
चूंकि प्रकृति भी ऐसे जीवों का वरण करती है जो योग्य एवं सक्षम होते है अतः इस सिद्धान्त को प्राकृतिक प्रवरण का सिद्धान्त कहते हैं । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः उसके प्रवरण अथवा जन्म और मृत्यु-दर पर सामाजिक कारकों जैसे प्रथाओं मूल्य एवं आदर्शों का भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है ।
इस प्रवरण में श्रेष्ठ मनुष्य ही बचे रहते है जो समाज का निर्माण करते और उसमें परिवर्तन लाते हैं । ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में हर नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से अधिक उन्नत होती है और समाज को आगे की ओर बढ़ती है ।
इस प्रकार समाज क्रमशः आगे बढ़ता और परिवर्तित होता जाता है । इस प्रकार स्पेन्सर सामाजिक परिवर्तन के लिए अप्राकृतिक एवं सामाजिक प्रवरण को आधार मानते हैं । स्पेन्सर के अतिरिक्त जैविकीय कारकों को सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी मानने वालों में गोबिन्यू व लापोज आदि प्रमुख है ।
इन विद्वानों की मान्यता है कि समाज का निर्माण और प्रगति उन लोगों द्वारा सम्भव है जो प्रजातीय दृष्टि से श्रेष्ठ होते हैं जब किसी समाज में प्रजातीय दृष्टि से हीन व्यक्ति होते है तो वह समाज पतन की ओर जाता है और जब उसमें शारीरिक व मानसिक दृष्टि से श्रेष्ठ व्यक्ति होते हैं तो वह समाज प्रगति करता है ।
स्पेन्सर आदि जीववादियों के सिद्धान्तों की अनेक विद्वानों ने यह कहकर आलोचना की कि मानव समाज में प्राकृतिक प्रवरण को लागू नहीं किया जा सकता तथा इन्होंने परिवर्तन के अन्य सिद्धान्तों की अवहेलना की है ।
(iii) कार्ल मार्क्स का सिद्धान्त:
कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन को प्रौद्योगिक एवं आर्थिक कारकों से जनित माना है । अतः उनके सिद्धान्त को आर्थिक निर्धारणवाद अथवा सामाजिक परिवर्तन का प्रौद्योगिक सिद्धान्त कहा जाता है । इस सिद्धान्त का सविस्तार उल्लेख आगे दिया गया है ।
(iv) थॉर्सटीन वेबलिन का सिद्धान्त:
वेबलिन भी सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रौद्योगिक दशाओं को उत्तरदायी मानते है । उनका मत है कि प्रौद्योगिक दशाएँ प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है । इसलिए उनके सिद्धान्त को ‘प्रौद्योगिक निर्णयवाद’ कहा जाता है ।
3. सामाजिक परिवर्तन का कार्ल मार्क्स का आर्थिक सिद्धान्त (Economic Theories of Social Change):
कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन को आर्थिक कारकों से जनित माना है । अतः उनके सिद्धान्त को आर्थिक निर्धारणवाद अथवा सामाजिक परिवर्तन का आर्थिक सिद्धान्त कहा जाता है । इनका सिद्धान्त वर्तमान समय में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं क्रांतिकारी सिद्धान्त माना जाता है ।
उन्होंने इतिहास की भौतिक व्याख्या की और कहा कि मानव इतिहास में अब त क जो परिवर्तन हुए है वे उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के कारण ही हुए हैं जनसंख्या भौगोलिक परिस्थितियों एवं अन्य कारकों का मानव के जीवन पर प्रभाव तो पड़ता है किन्तु वे परिवर्तन के निर्णायक कोरक नहीं हैं । निर्णायक कारक तो आर्थिक कारक अर्थात् उत्पादन-प्रणाली ही है ।
मनुष्य को जीवित रहने के लिए भौतिक मूल्यों (जैसे रोटी कपड़ा और निवास आदि) की आवश्यकता होती है । इन मूल्यों या आवश्यकताओं को जुटाने के लिए मानव को उत्पादन करना होता है । उत्पादन करने के लिए उत्पादन के साधनों की आवश्यकता होती है जिन साधनों के द्वारा व्यक्ति उत्पादन करता है, उन्हें प्रौद्योगिकी कहते हैं इस में छोटे-छोटे औजार तथा बड़ी-बड़ी मशीनें सम्मिलित हैं ।
प्रौद्योगिकी में जब परिवर्तन आता है तो उत्पादन-प्रणाली में भी परिवर्तन आता है । मानव अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किसी न किसी उत्पादन-प्रणाली को अपनाता है । उत्पादन प्रणाली दो पक्षों से मिलकर बनी होती है, एक उत्पादन के उपकरण या प्रौद्योगिकी श्रमिक, उत्पादन का अनुभव एवं श्रम-कौशल और दूसरा उत्पादन के सम्बन्ध ।
किसी भी वस्तु के उत्पादन के लिए औजार श्रम, अनुभव एवं कुशलता की आवश्यकता होती हे । जो लोग उत्पादन के कार्य में लगे होते हैं, उनके बीच कुछ आर्थिक सम्बन्ध भी पैदा हो जाते हैं, जैसे किसान कृषि क्षेत्र में उत्पादन करने के दौरान मजदूरों, लुहार एवं उसके द्वारा उत्पादित वस्तु के खरीददारों से सम्बन्ध बनाता है ।
जब उत्पादन प्रणाली में परिर्वतन होता है तो समाज में भी परिवर्तन आता है । उत्पादन प्रणाली किसी भी अवस्था में स्थिर नहीं रहती सदैव बदलती रहती है वह समाज का मूल है और उसी पर समाज की सामाजिक सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक संरचनाएँ, विश्वास, कला, साहित्य प्रथाएँ, विज्ञान एवं दर्शन टिके हुए हैं ।
जिस प्रकार की उत्पादन प्रणाली होती है समाज की ऊपरी संरचना अर्थात् धर्म, प्रथाएँ, राजनीति, साहित्य, कला, विज्ञान एवं संस्कृति भी उसी प्रकार की बन जाती है । जब उत्पादन प्रणाली बदलती है तो समाज की ऊपरी संरचना में भी परिवर्तन आता है समाज की संस्थाएँ बदलती हैं तथा सामाजिक परिवर्तन घटित होता है जब हाथ की चक्की से उत्पादन किया जाता था तो दूसरे प्रकार का समाज था और आज जब बिजली की चक्की है तो दूसरे प्रकार का समाज है ।
इसी प्रकार कृषि का कार्य जब हल बैलों की सहायता से तथा उत्पादन का कार्य कुटीर उद्योगों में छोटे-छोटे औजारों से किया जाता था तो एक दूसरे प्रकार का समाज, संस्कृति, धर्म एवं राजनीति थी और आज जबकि कृषि में ट्रैक्टर एवं वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग किया जाता है तथा बड़ी-बड़ी मशीनों एवं कारखानों द्वारा औद्योगिक उत्पादन हो रहा है तो एक भिन्न प्रकार का समाज पाया जाता है ।
इन दोनों अवस्थाओं की राजनीति, धर्म संस्कृति, कला, साहित्य, दर्शन, प्रथा नैतिकता एवं लोकाचारों में बहुत अन्तर है उत्पादन-प्रणाली में परिवर्तन होने पर उत्पादन में लगे लोगों के पारस्परिक सम्बन्धों में भी परिवर्तन आ जाता है आज के युग में पूँजीपति व श्रमिकों में जो सम्बन्ध पाये जाते हैं, वे कृषि युग के भूस्वामियों एवं मजदूरों के सम्बन्धों से भिन्न हैं ।
उत्पादन के सम्बन्धों के सम्पूर्ण योग से ही समाज की आर्थिक सरंचना का निर्णय होता है उदाहरण के लिए, कृषि युग में जमीदारों कृषकों एवं कृषि-श्रमिकों के बीच पाये जाने वाले सम्बन्धों से एक विशेष प्रकार की आर्थिक संरचना का निर्माण हुआ जिसे कृषि अर्थव्यवस्था कहते है वर्तमान समय में पूँजीपतियों कारखानों के स्वामियों एवं श्रमिकों के सम्बन्धों से मिलकर बनने वाली आर्थिक संरचना कृषि युग की आर्थिक संरचना से भिन्न है, इसे औद्योगिक आर्थिक संरचना या औद्योगिक अर्थव्यवस्था कहा जाता है ।
संक्षेप में उत्पादन-प्रणाली में परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है जब उत्पादन के उपकरणों (प्रौद्योगिकी) उत्पादन के कौशल, ज्ञान उत्पादन के सम्बन्ध आदि में परिवर्तन आता है तो सम्पूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक अधि-संरचना में भी परिवर्तन आता है जो सामाजिक परिवर्तन कहलाता है ।
मार्क्स के अनुसार इतिहास के प्रत्येक युग में दो वर्ग रहे है । मानव समाज का इतिहास इन दो वर्गों के संघर्ष का ही इतिहास है । उन्होंने समाज के विकास को पाँच युगों में बाँटा और प्रत्येक युग में पाये जाने वाले दो वर्गों का उल्लेख किया एक वह वर्ग जिसका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रहा है और दूसरा वह जो श्रम के द्वारा जीवनयापन करता है ।
इन दोनों वर्गों में अपने-अपने हितों को लेकर संघर्ष होता रहा है । प्रत्येक वर्ग-संघर्ष का अन्त नये समाज एवं नये वर्गों के उदय के रूप में हुआ है । वर्तमान में भी पूँजीपति और श्रमिक दो वर्ग हैं जो अपने अपने हितों को लेकर संघर्षरत है ।
वर्गों की रचना एवं प्रकृति ही सामाजिक-व्यवस्था का निर्धारण करती है एक युग के वर्ग-संघर्ष के परिणामस्वरूप नये वर्गों का जन्म होता है जो नयी समाज व्यवस्था को जन्म देता है । इस प्रकार वर्ग-संघर्ष एवं उसके परिणामस्वरूप नये वर्गों के जन्म के कारण ही समाज में परिवर्तन होते हैं इस तरह मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन में वर्ग-संघर्ष की भूमिका को महत्वपूर्ण माना है ।
समालोचना:
(i) मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन के लिए केवल एक ही कारक आर्थिक कारक (उत्पादन-प्रणाली) को उत्तरदायी मानकर परिवर्तन के अन्य कारकों की अवहेलना की है सामाजिक, धार्मिक भौगोलिक एवं जनसंख्यात्मक कारकों का भी सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण हाथ होता है और स्वयं आर्थिक कारक भी अन्य कारकों से प्रभावित होते है ।
(ii) मार्क्स कहते हैं कि सामाजिक परिवर्तन प्रौद्योगिकी, आर्थिक सम्बन्ध एवं आर्थिक संरचना में परिवर्तन के कारण आते है किन्तु वे यह स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं कि प्रौद्योगिकी आदि में परिवर्तन क्यों होता है या उसे परिवर्तित करने वाले कौन से कारक है ?
(iii) मार्क्स द्वारा प्रयुक्त अनेक शब्दों जैसे आर्थिक कारक, उत्पादन की शक्तियाँ तथा सम्बन्ध आर्थिक आधार, प्रौद्योगिकी आदि की स्पष्टतः व्याख्या नहीं की गयी है । कुछ विद्वान् इसमें केवल आर्थिक प्रविधियों को ही सम्मिलित करते हैं जबकि ऐन्जिल एवं सैलिगमैन आदि ने उत्पादन से सम्बन्धित सभी दशाओं को आर्थिक कारकों में सम्मिलित किया है ।
(iv) मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष पर अधिक जोर दिया है किन्तु समाज की नींव संघर्ष पर नहीं वरन् सहयोग पर आधारित है ।
मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को वैज्ञानिक व ठोस बनाने का पूरा प्रयास किया फिर भी उन्होंने आर्थिक कारकों पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है । सोरोकिन कहते हैं कि “मार्क्स एवं एन्जिल्स ने सामाजिक विज्ञान को प्रगतिशील बनाने के स्थान पर इसके विकास में अनेक बाधाएं उत्पन्न की है ।”
मैक्स वेबर ने मार्क्स के सिद्धान्त की आलोचना की है क्योंकि वे इन आर्थिक कारकों के स्थान पर धर्म को सामाजिक परिवर्तन का आधार मानते हैं मैकाइवर एवं पेज के अनुसार मार्क्स के सिद्धान्त की सच्ची शक्ति केवल इस बात में है कि उसने संसार को पूँजीवादी सभ्यता के गम्भीर आन्तरिक दोषों से परिचित कराया है ।
4. सामाजिक परिवर्तन का प्रौद्योगिक सिद्धान्त (Technological Theories of Social Change):
वेबलिन सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रौद्योगिक दशाओं को उत्तरदायी मानते हैं । प्रौद्योगिक दशाएं प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है । इसलिए उनके सिद्धान्त को ‘प्रौद्योगिक निर्णयवाद’ भी कहा जाता है ।
वेबलिन ने मानवीय विशेषताओं को दो भागों में विभाजित किया है:
(i) स्थिर विशेषताएँ- जिनका सम्बन्ध मानव की मूल प्रवृत्तियों और प्रेरणाओं से है जिनमें बहुत कम परिवर्तन होता है ।
(ii) परिवर्तनशील विशेषताएँ- जैसे आदतें, विचार एवं मनोवृत्तियाँ आदि । सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध मानव की इन दूसरी विशेषताओं विशेष रूप से मानव की विचार करने की आदतों से है ।
मनुष्य अपनी आदतों द्वारा नियन्त्रित होता है और उनका दास है । ये आदतें किस प्रकार की होंगी यह मानव के भौतिक पर्यावरण विशेषकर प्रौद्योगिकी पर निर्भर है जब भौतिक पर्यावरण अर्थात् प्रौद्योगिकी में परिवर्तन आता है तो मानव की आदतें भी बदलती है मानव जिस प्रकार के कार्य तथा प्रविधि द्वारा जीवनयापन करता है, उसी प्रकार की उसकी आदतें एवं मनोवृतियाँ होती हैं जीवनयापन के लिए मनुष्य जिस प्रकार की प्रविधि को अपनाता है, अपनी आदतों को भी वह उनके अनुकूल ढालता है ।
ये आदतें व्यक्ति को एक निश्चित प्रकार का जीवन व्यतीत करने को बाध्य करती है और उसके द्वारा किया जाने वाला कार्य उसके विचारों को प्रभावित करता है मानव जिस प्रकार का कार्य करता है, वैसा ही सोचता भी है ।
उदाहरण के लिए, सैनिक, कृषक, डॉक्टर, इंजीनियर आदि जिस प्रकार का कार्य करते हैं उनके विचार एवं आदतें भी वैसी ही हो जाती है । भौतिक पर्यावरण मानव के कार्य को एवं कार्य मानव के विचारों एवं आदतों को निश्चित करता है । उदाहरण के लिए- कृषि कार्य के आधार पर ही मानव जीवनयापन के लिए एक विशेष प्रौद्योगिकी को काम में लाता था, उसी के अनुसार उसका भौतिक पर्यावरण भी बना हुआ था ।
कृषि कार्य के आधार पर ही मानव की आदत एवं मनोवृत्तियाँ बनी हुई थीं । किन्तु जब मशीनों का आविष्कार हुआ तो मानव का भौतिक पर्यावरण बदला प्रौद्योगिकी बदली, काम की प्रकृति बदली और उसके साथ-साथ मानव की आदतों एवं मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन आया ।
आदतें ही धीरे-धीरे स्थापित एवं सुदृढ़ होकर संस्थाओं का रूप ग्रहण करती हैं संस्थाएँ ही सामाजिक ढाँचे का निर्माण करती हैं । अतः आदतों में परिवर्तन होता है तो सामाजिक संस्थाओं एवं ढाँचे में परिवर्तन आता है जिसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं ।
सामाजिक संरचना में परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन है । इस प्रकार वेबलिन सामाजिक परिवर्तन को नवीन प्रविधियों एवं प्रौद्योगिक कारकों से उत्पन्न मानते हैं । इसलिए उन्हें प्रौद्योगिक निश्चयवादी कहा जाता है ।
समालोचना:
(i) वेबलिन के सिद्धान्त में भी लगभग वहीं कमियाँ हैं जो मार्क्स के सिद्धान्त में हैं क्योंकि उन्होंने भी मार्क्स की तरह प्रौद्योगिकी को ही सामाजिक परिवर्तन का कारक माना है
(ii) वेबलिन ने मानव को अपनी आदतों दारा नियन्त्रित प्राणी माना है, लेकिन यह सही नहीं है । मानव उग्रदत के बजाय अपने विवेक से अधिक नियन्त्रित होता है
(iii) प्रौद्योगिकी परिवर्तन से ही सामाजिक परिवर्तन आता है, यह कहना उचित नहीं है क्योंकि कभी -कभी भौतिक पर्यावरण बिल्कुल नहीं बदलता फिर भी नैतिक, धार्मिक एवं अन्य कारकों के कारण समाज में परिवर्तन आ जाता है ।
(iv) वेबलिन का सिद्धान्त एक पक्षीय है । सामाजिक परिवर्तन किसी एक ही कारक का प्रतिफल न होकर कई कारकों का परिणाम है यह एक जटिल प्रक्रिया है जिसे वेबलिन ने अति सरल रूप में प्रस्तुत किया है ।
मार्क्स एवं वेबलिन के सिद्धान्तों की तुलना:
(1) मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का प्रतिपादन एक विशेष उद्देश्य को लेकर किया थे । पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त करके उसके स्थान पर समाजवादी एवं वर्ग विहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे । इस कारण उनका सिद्धान्त पक्षपातपूर्ण एवं अवैज्ञानिक भी बन गया । इसके विपरीत वेबलिन का ऐसा कोई लक्ष्य नहीं था वे तो परिवर्तन को एक निरन्तर प्रक्रिया के रूप में प्रकट करना चाहते थे । साथ ही वे सामाजिक उद्विकास तथा प्रौद्योगिकी के प्रभाव को भी बताना चाहते थे ।
(2) मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन के लिए वर्ग-संघर्ष को आवश्यक माना है जबकि वेबलिन ने नहीं ।
(3) मार्क्स ने प्रौद्योगिकी को सामाजिक परिवर्तन का अप्रत्यक्ष कारक माना है जबकि वेबलिन ने नहीं माना ।
(4) मार्क्स आर्थिक संरचना को सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना का आधार मानते हैं जबकि वेबलिन भौतिक पर्यावरण एवं प्रौद्योगिक दशाओं को आदतों एवं संस्थाओं को निर्धारित करने वाला कारक ।
(5) वेबलिन सामाजिक परिवर्तन के लिए आदतों में परिवर्तन को महत्वपूर्ण मानते हैं जबकि मार्क्स ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य की अवहेलना की है ।
वेबर का सांस्कृतिक सिद्धान्त:
वेबर में सामाजिक परिवर्तन के लिए सांस्कृतिक कारक विशेषतया धर्म को उत्तरदायी माना है । विश्व के प्रमुख धर्मों का विशद् अध्ययन करके वेबर ने यह स्नानने का प्रयत्न किया कि धर्म व आर्थिक-सामाजिक घटनाओं में क्या सम्बन्ध है ।
उन्होंन अध्ययन के आधार पर यह दर्शाने का प्रयत्न किया कि आधुनिक पूंजीवाद केवल पश्चिमी देशों में सबसे पहले क्यों आया, अन्य देशों में क्यों नहीं ? इसके लिए आपने विभिन्न धर्मों में पाये जाने वाले धार्मिक आधारों का तुलनात्मक अध्ययन किया और उनका आर्थिक व सामाजिक संगठनों से सम्बन्धों का विश्लेषण किया ।
धर्म एवं आर्थिक जीवन के सम्बन्धों के अध्ययन को आपने ‘दी प्रोटेस्टेण्ट स्प्रिट एण्ड इथिक दि ऑफ कैपिटलिज्म’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया है धर्म मन्त्रन्धी अपने अन्वेषण के आधार पर वेबर ने यह बतलाया कि किस प्रकार कुछ धार्मिक सिद्धांत के प्रभाव से आर्थिक जीवन की तार्किकता बड़ी और कुछ के प्रभाव से घटी ।
वेबर ने धर्म की समाजशास्त्रीय विवेचना में निम्नांकित तीन प्रमुख समस्याओं को लेकर अध्ययन आरम्भ किया:
(a) एक औसत अनुयायी की धर्म निरपेक्ष नीति और आर्थिक व्यवहार पर प्रमुख धार्मिक विचारों का प्रभाव ।
(b) समूह की रचना पर धार्मिक विचारों का प्रभाव ।
(c) विभिन्न सभ्यताओं में धार्मिक सभ्यता के कारणों और प्रभाव की तुलना के बाद पश्चिमी सभ्यता के तत्वों का निर्णय करना ।
वेबर ने पश्चिमी पूँजीवाद के विकास का अध्ययन किया । उन्होंने यह जानने का प्रयत्न किया कि पूँजीपति लोगों में धार्मिक रूझान का प्रारूप क्या है । उन्होंने यह पाया कि सभी समाजों में बड़े व्यापारियों के मस्तिष्क में यह नैतिक कल्पना होती है कि देवता व्यक्ति से अच्छे कार्य की अपेक्षा करते है तथा उसे समुचित पुरस्कार भी देते है तथा बुरे कार्यों के लिए व्यक्ति को दण्ड दिया जाता है ।
वेबर के अनुसार मनुष्य धार्मिक विश्वासों के अनुसार इसलिए कार्य करता है जिससे उसकी उन्नति हो तथा वह दीर्घायु हो । वेबर ने अपने इस अध्ययन में धार्मिक कारकों को परिवर्तनीय तत्व माना है और उनका आर्थिक तथा सामाजिक घटनाओं पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका कार्य-कारण के आधार पर विश्लेषण किया है ।
अपनी पद्धतिशास्त्रीय अन्तर्दृष्टि के द्वारा वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट धर्म के उन आचारों को ढूँढा जिन्होंने आधुनिक पूंजीवाद की आत्मा को विकसित किया । उन्होंने धर्म को एक परिवर्तनीय तत्व माना और यह दर्शाया कि धर्म किस प्रकार मानव के सामाजिक और आर्थिक जीवन को प्रभावित करता है ।
अपने अध्ययन के आधार पर वेबर ने निम्नांकित निष्कर्ष दिये:
(a) धार्मिक एवं आर्थिक घटनाएँ परस्पर एक दूसरे से सम्बन्धित और एक दूसरे पर निर्भर है । इनमें से किसी एक को दूसरे का निर्णायक मानना उचित नहीं है । वास्तव में ये दोनों एक दूसरे को प्रभावित करती रहती हैं ।
(b) घटनाओं के विश्लेषण में एकतरफा दृष्टिकोण नहीं अपना लेना चाहिए । केवल आर्थिक या धार्मिक आधार पर ही किसी घटना की विवेचना नहीं करनी चाहिए वरन् अन्य कारकों के प्रभाव को भी ध्यान में रखना चाहिए
(c) धार्मिक कारक को एक परिवर्तनीय तत्व मानकर वेबर उसका आर्थिक तथा अन्य सामाजिक घटनाओं पर प्रभाव मालूम करने का प्रयत्न करते है ।
(d) वेबर ने सभी धर्मों के सभी तत्वों का उल्लेख न करके उनके केवल आदर्श प्रारूपों का ही उल्लेख किया है । इसी प्रकार से आपने आर्थिक कारकों के भी आदर्श प्रारूपों को ज्ञात किया धर्म के अध्ययन में उन्होंने आदर्श-प्रारूपों के अवधारणा का प्रयोग किया है ।
धार्मिक और आर्थिक कारकों के सम्बन्धों को जानने के लिए वेबर ने विश्व के छ: प्रमुख धर्मों (हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कन्फ्युशियस, इस्लाम तथा यहूदी धर्म) का अध्ययन किया और प्रत्येक धर्म में पाये जाने वाले उन आर्थिक विचारों को ज्ञात किया जो उस धर्म से सम्बन्धित लोगों के आर्थिक व सामाजिक जीवन को प्रभावित करते हैं अपने अध्ययन के आधार पर वेबर ने यह प्रकट किया कि केवल प्रोटेस्टेण्ट धर्म में ही कुछ ऐसे आर्थिक विचार पाये जाते है जिन्होंने आधुनिक पूँजीवाद को जन्म दिया, यद्यपि इसके लिए अन्य कारक भी उत्तरदायी रहे है ।
वेबर कहते है कि यूरोप में जब रोमन कैथोलिक धर्म प्रचलित था तो पूँजीवाद नहीं पनपा किन्तु धार्मिक सुधार आन्दोलन के कारण जब प्रोटेस्टैण्ट धर्म का उदय हुआ तो आधुनिक पूँजीवाद का भी उदय हुआ ।
वेबर ने अपनी पुस्तक ‘द प्रोटेस्टेण्ट इथिक एण्ड दि स्प्रिट ओंफ कैपीटलिज्म’ में धर्म सम्बन्धी, विचारों की विवेचना में ‘पूँजीवाद’ तथा ‘प्रोटेस्टेण्ट नीति’ को विशेष महत्व दिया है ।
इन दोनों की संक्षिप्त व्याख्या निम्नलिखित है:
पूँजीवाद का सार:
मानव के आर्थिक आचरणों पर धार्मिक प्रभावों को स्पष्ट करने के लिए वेबर ने 1904 और 1905 में जो लेख लिखे उन्हीं के आधार पर उनकी सबसे प्रसिद्ध विवादग्रस्त पुस्तक ‘दि प्रोटेस्टेण्ट इथिक एण्ड दि स्पिरिट ऑफ केपिटलिज्म’ प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में वेबर ने इस समस्या पर प्रकाश डाला है कि किस प्रकार प्रोटेस्टेण्ट धर्म की नीतियाँ पूँजीवाद के विकास को प्रभावित करती हैं ।
वेबर को अपने पारिवारिक जीवन में ही व्यक्तिवाद तथा आर्थिक आचरणों से सम्बद्ध नैतिकता का एक अनूठा समिश्रण देखने को मिला । वेबर के चाचा कार्ल डेविड एक ऐसे उद्यम के संस्थापक थे जो गांव के घरेलू उद्योग पर आधारित था ।
वेबर ने देखा कि उनके रहन-सहन के तरीकों में कठिन परिश्रम, दिखावे का अभाव, दयालुता और तर्कनापरकता के गुण थे जो आधुनिक पूँजीवाद के प्रारम्भिक भाग के बड़े उद्यमकर्त्ताओं में झलकते थे । इस बात से वेबर को यह विश्वास हो गया कि पूंजीवाद एक विशेष प्रकार की नैतिकता है जिसमें अनेक विचारों का समावेश देखा जा सकता है ।
वेबर के अनुसार आधुनिक औद्योगिक जगत के मनुष्य की एक विशेषता यह है कि वह कठोर परिश्रम करता है । कठोर कार्य एक कर्तव्य है और इसका फल इसी में निहित है । मनुष्य अपने व्यवसाय में अच्छी तरह काम करें, इस भावना से नहीं कि उसे यह काम करना पड़ रहा है वरन् इसलिए कि वह भी ऐसा चाहता है ।
यही मनुष्य के शील और वैयक्तिक सन्तुष्टि का आधार है । अमरीका में एक कहावत प्रसिद्ध है- “यदि कोई काम करने योग्य है तो उसे सबसे अच्छे ढंग से पूरा करना चाहिए ।” वेबर के अनुसार यह कहावत पूँजीवाद का सार है क्योंकि इस धारणा का सम्बन्ध व्यक्ति को आर्थिक जीवन में मिलने वाली सफलता से है ।
परंपरावाद से तुलना:
पूँजीवाद के सार को स्पष्ट करने के लिए वेबर ने इसकी तुलना एक अन्य आर्थिक क्रिया से की है जिसका नाम उसने ‘परम्परावाद’ रखा । आर्थिक क्रियाओं में परम्परावाद वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति कम काम और प्रतिफल अधिक चाहता है, काम के दौरान आराम अधिक पसन्द करता है, कार्य की नई प्रविधियों से अनुकूलन करने की इच्छा नहीं करता, कम आय से सन्तुष्ट हो जाता है, अकस्मात लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करता है तथा सिद्धान्तहीन रूप से धन का संचय करता है ।
ये सभी विशेषताएं पूँजीवाद के सार के विपरीत हैं । आधुनिक पूँजीवाद अन्तर्सम्बन्धित संस्थाओं का एक ऐसा संकुल है जिसका आधार तार्किक आर्थिक प्रयत्न है न कि सटोरियों की तरह के प्रयत्न । पूँजीवाद के अन्तर्गत व्यापारिक निगमों का कानूनी रूप, संगठित विनिमय केन्द्र सरकारी ऋण पत्रों के रूप में सार्वजनिक ऋण देने की प्रणाली तथा ऐसे उद्यमों के संगठनों का समावेश है जिसका उद्देश्य वस्तुओं का तार्किक आधार पर उत्पादन करना होता है, न कि उनका व्यापार करना ।
वेबर ने दक्षिण यूरोप, एशिया के विशेषाधिकार सम्पन्न समूह, चीन के अधिकारियों, रोम के अभिजात वर्ग तथा एल्वी नदी के पूर्व के जमींदारों की आर्थिक क्रियाओं को अकस्मात लाभ की क्रियाएं माना है । क्योंकि उनमें नैतिक विचारों तथा आर्थिक लाभ के तार्किक प्रयत्नों का अभाव था, इसलिए उन्हें पूंजीवाद के समकक्ष नहीं रखा जा सकता । जिन पूँजीवादी विशेषताओं का उल्लेख ऊपर किया गया है, वे पश्चिमी समाजों में ही अधिक पायी जाती है । पश्चिमी समाजों में यह एक व्यक्तिगत गुण न होकर जीवनयापन का एक सामान्य तरीका हो गया ।
इस प्रकार जनसामान्य में व्याप्त कठोर परिश्रम, व्यापारिक आचार सार्वजनिक ऋण व्यवस्था, पूँजी का निरन्तर विनियोजन तथा परिश्रम के प्रति स्वैच्छित प्रवृत्ति पूँजीवाद का सार है, इसके विपरीत अकस्मात आर्थिक लाभ पाने का प्रयत्न, परिश्रम को बोझ और अभिशाप समझकर उससे दूर भागना सिद्धान्तहीन रूप से पूंजी का संचय करना तथा जीवनयापन के लिए साधारण आय से सन्तुष्ट हो जाना, सामान्य आर्थिक परिस्थितियाँ अथवा ‘परम्परावाद’ है ।
प्रोटेस्टेण्ट नीति:
पूँजीवाद के सार को स्पष्ट करने के बाद वेबर ने ऐसे कारणों को प्रस्तुत किया जिनके आधार पर इनकी उत्पत्ति को धार्मिक सुधार आन्दोलनों के विचारों में खोजा जा सके । वेबर से पूर्व पेटी, माण्टेस्क्यू, बकल, कीय, आदि ने प्रोटेस्टेण्ट धर्म तथा व्यापारिक प्रवृत्ति के विकास के सह-सम्बन्धों पर अपने विचार प्रकट किये थे वेबर ने अनेक अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष दिया कि धार्मिक नीति आर्थिक क्रियाओं व आर्थिक विकास के बीच एक सहसम्बन्ध पाया जाता है ।
वेबर ने यह भी देखा कि जिन प्रदेशों और नगरों ने प्रोटेस्टेण्ट धर्म स्वीकार कर लिया था, वे आर्थिक लाभ के प्रयत्नों को बढ़ावा दे रहे थे वेबर ने यह भी गवेषणा की कि प्रोटेस्टेण्ट धर्म की नीतियाँ किस प्रकार उन लोगों के लिए प्रेरणा-स्रोत बन गयीं जो तार्किक दृष्टि से आर्थिक लाभों को प्राप्त करने के पक्ष में थे ।
प्रोटेस्टेण्टवाद वह धार्मिक विचारधारा है जो पोप के अधिकार को स्वीकार नहीं करता और जिसमें विवेक का तत्व विशेष रूप से पाया जाता है । नैतिकतावादी दृष्टिकोण संग्रह की प्रवृत्ति ईमानदारी, श्रम के प्रति निष्ठा, ये सभी प्रोटेस्टेट धर्म के प्रमुख तत्व हैं जिनके कारण यूरोप के विभिन्न देशों में आर्थिक विकास, विशेषत: पूँजीवाद का विकास हुआ ।
प्रोटेस्टेण्ट धर्म की नीति के रूप में सेण्ट पॉल के इस आदेश को व्यापक रूप से ग्रहण किया गया- “जो व्यक्ति काम नहीं करेगा, वह रोटी नहीं खायेगा तथा निर्धन की तरह धनवान भी ईश्वर के गौरव को बढ़ाने के लिए किसी न किसी व्यवसाय में अवश्य जुटे ।”
इस कथन में प्रोटेस्टेण्ट धर्मावलम्बियों को परिश्रम की प्रेरणा दी गयी है । ऐसे ही कुछ अन्य वाक्य और भी है जैसे रिचार्ड वैकस्टर ने कहा था- ”केवल कर्म के लिए ही ईश्वर हमारी और हमारी क्रियाओं की रक्षा करता है, परिश्रम ही शक्ति का नैतिक तथा प्राकृतिक उद्देश्य है केवल परिश्रम से ही ईश्वर की सबसे अधिक सेवा तथा सम्मान हो सकता है ।”
सेण्ट जॉन बनियन ने भी कहा था- “यह नहीं कहा जायेगा कि तुम क्या विश्वास करते थे, केवल यह कहा जायेगा कि क्या तुम कुछ परिश्रम भी करते थे, या केवल बातूनी ही थे ।” इस प्रकार प्रोटेस्टेण्ट धर्म में सक्रिय जीवन, परिश्रम, समय का सदुपयोग, व्यर्थ की बातचीत न करना, अधिक न सोना तथा ईश्वर के ध्यान के स्थान पर कार्य करना आदि को व्यक्ति के जीवन की नियमावली के अन्तर्गत रखा गया है जिन्हें प्रोस्टेस्टेण्ट नीति कह सकते हैं और इसी नीति ने आर्थिक विकास में योग किया ।
वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट धर्म में पाये जाने वाले उन आचारों का भी उल्लेख किया है जिन्होंने आधुनिक पूँजीवाद को जन्म दिया बेंजामिन फ्रेंकलिन ने आधुनिक पूँजीवाद की उन शिक्षाओं एवं उपदेशों का उल्लेख किया है जो सफल व्यवसायी एवं पूँजीपति बनने के लिए आवश्यक हैं ।
वे हैं- “समय ही धन है” “धन से धन कमाया जाता है”, “एक पैसा बचाना एक पैसा कमाना है”, “ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है”, “जल्दी सोना और जल्दी उठना व्यक्ति को स्वस्थ, धनी और बुद्धिमान बनाता है”, “कार्य ही पूजा है ।” प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों की तुलना दुनियाँ के दूसरे धर्मों से करके वेबर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि केवल प्रोटेस्टेण्ट धर्म ही ऐसा हे कि जिसके, आर्थिक परिणाम अधिक स्पष्ट एवं दूरगामी हैं ।
यह धर्म लोगों को ईमानदार एवं उत्साही होने, परिश्रम करने, मितव्ययिता बरतने एवं पैसा बचाने पर जोर देता है जो पूँजीवाद लाने के लिए आवश्यक है । यदि ये सिद्धान्त एवं उपदेश न होते तो आधुनिक पूँजीवाद भी सम्भव नहीं होता ।
अपनी बात की पुष्टि करने के लिए वेबर ने यूरोप के विभिन्न देशों से ऐतिहासिक प्रमाण जुटाये । इटली व स्पेन में जहाँ पर कैथोलिक धर्म के अनुयायी अधिक हैं, पूँजीवाद का विकास इंग्लैण्ड, अमेरीका व हालैण्ड की अपेक्षा कम हुआ ।
इंग्लैण्ड, अमरीका व हालैण्ड में प्रोटेस्टेण्ट धर्म के अनुयायी अधिक है । वेबर ने गैर-पश्चिमी देशों में प्रचलित धर्मों जैसे कन्फ्युशियस, बौद्ध, हिन्दू, इस्लाम और यहूदी धर्मों का अध्ययन किया और कहा कि इन धर्मों के आर्थिक आचारों में वे तत्व नहीं है जो आधुनिक पूँजीवाद को जन्म दे पाते । उदाहरण के लिए, इस्लाम में ब्याज लेना अनुचित माना गया है ।
हिन्दू धर्म भौतिकवाद के स्थान पर आध्यात्मवाद पर अधिक जोर देता है । कर्मवाद के सिद्धान्त के आधार पर पिछले जन्म के कर्म के आधार पर ही इस जन्म में फल मिलता है । इसी प्रकार से, जाति के कठोर नियम व्यक्ति को अपनी जाति के व्यवसाय को त्यागने की इजाजत नहीं देते और प्रत्येक जाति के लिए एक व्यवसाय भी निश्चित है ।
हिन्दू धर्म एक ऐसी समाज-व्यवस्था को जन्म देता है जिसमें सामाजिक गतिशीलता सम्भव नहों है । आजकल आधुनिकीकरण के प्रभाव से भारत आर्थिक विकास की दिशा में तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है । आजकल धर्म और आर्थिक विकास के बीच सम्बन्ध कमजोर पड़ता जा रहा है ।
वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट आचार और आधुनिक पूँजीवाद के विकास को कार्य-कारण के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयत्न किया और प्रोटेस्टेण्ट आचारों को पूँजीवाद के विकास के लिए एक प्रभावशाली कारक माना यद्यपि अन्य कारक भी इसके विकास के उतरदायी रहे है ।
पूँजीवाद एवं प्रोटेस्टेण्ट आचार का सम्बन्ध:
‘पूँजीवाद के सार’ तथा ‘प्रोटेस्टेण्ट’ नीतियों के अध्ययन से वेबर को इनके आधारों में कई समानताएँ ज्ञात हुईं इसी आधार पर आपने प्रोटेस्टेण्ट नीति के कारण और पूँजीवाद को परिणाम माना । वेबर ने सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में धर्म संघों तथा उनकी मान्यताओं में होने वाले परिवर्तनों के मानव व्यवहार पर प्रभाव का अध्ययन किया ।
प्रारम्भ में तो कई धर्म संघों ने धन और भौतिक वस्तुओं के संग्रह को उचित माना किन्तु बाद में इसे अधार्मिकता की श्रेणी में रखा गया और वैराग्य को उचित ठहराया गया वैराग्य की इस धारणा ने आधुनिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित किया ।
वेबर ने ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि यूरोप के कई देशों में पूँजीवाद के आरम्भ और विकास के लिए प्रोटेस्टेण्ट धर्म की नीतियाँ सहायक रही हैं । प्रोटेस्टेण्ट धर्म, नैतिक शिक्षाएँ धीरे-धीरे इसके सभी अनुयायियों के जीवन में ढल गयी । वे परिश्रम से आजीविका कमाने को उचित मानने लगे । इस धारणा ने पूँजीवाद के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी ।
वेबर की रूचि धार्मिक नीतियों का आर्थिक क्रियाओं पर पड़ने वाले प्रभावों को ज्ञात करने में थी । उन्होंने धार्मिक नीतियों और आर्थिक क्रियाओं के पारस्परिक सम्बन्धों को ही स्पष्ट नहीं किया वरन् धार्मिक विचारों के सामाजिक संस्तरण पर पड़ने वाले प्रभावों को भी ज्ञात किया उन्होंने यह बताया कि विभिन्न धर्मों के पैगम्बरों प्रचारकों और विद्वानों आदि की एक विशेष जीवन-शैली थी और उन्होंने अपनी धार्मिक नीतियों का प्रचार करके सामाजिक संस्तरण तथा आर्थिक क्रियाओं को एक विशेष रूप देने का प्रयत्न किया ।
इस सम्पूर्ण विवेचन के द्वारा वेबर ने मार्क्स से पूर्णतया भिन्न धार्मिक आचारों की भिन्नता को ही विभिन्न समाजों की आर्थिक अभिवृत्तियों की भिन्नता का कारण मान लिया है । पारसन्स का कथन है कि धर्म के समाजशास्त्र की व्याख्या में वेबर का महत्वपूर्ण योगदान एक व्यवस्थित पद्धति शास्त्रीय अर्न्तदृष्टि है जिसके द्वारा उन्होंने विभिन्न कारकों को एक-दूसरे से पृथक् करके उनके कारण और प्रभावों को एक दूसरे की तुलना में स्पष्ट किया ।
5. सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक सिद्धान्त (Cultural Theories of Social Changes):
अपनी पुस्तक ‘Social and Cultural Dynamics’ में सोरोकिन ने सामाजिक परिवर्तन व सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया । उन्होंने मार्क्स, पेरेटो एवं वेबलिन के परिवर्तन सम्बन्धी सिद्धान्तों की आलोचना की । उनका मत है कि सामाजिक परिवर्तन उतार-चढाव के रूप में घड़ी के पेण्डुलम की भांति एक स्थिति से दूसरी स्थिति के बीच होता रहता है उन्होंने प्रमुख रूप से दो संस्कृतियों- भावात्मक एवं चेतनात्मक का उल्लेख किया ।
प्रत्येक समाज संस्कृति की इन दो धुरियों अर्थात् चेतनात्मक से भावात्मक की ओर तथा भावात्मक से चेतनात्मक की ओर आता जाता रहता है । एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाने के दौरान मध्य में एक स्थिति ऐसी भी होती है । जिसमें चेतनात्मक एवं भावात्मक संस्कृति का मिश्रण होता है । इसे सोरोकिन आदर्शात्मक संस्कृति कहते हैं । विभिन्न संस्कृतियों के दौर से गुजरने पर समाज में भी परिवर्तन आता है ।
(1) चेतनात्मक संस्कृति:
चेतनात्मक संस्कृति को भौतिक संस्कृति भी कहते हैं । इस संस्कृति का सम्बन्ध मानव चेतना अथवा इन्द्रियों से होता है अर्थात् इसका ज्ञान देखकर, सूँघकर एवं छूकर कर सकते हैं ऐसी संस्कृति में ऐन्द्रिक आवश्यकताओं व इच्छओं की पूर्ति पर अधिक जोर दिया जाता है ।
इस संस्कृति में वैज्ञानिक आविष्कारों, प्रौद्योगिकी, भौतिक वस्तुओं एवं विलास की वस्तुओं का अधिक महत्व होता है । इसमें धर्म, नैतिकता, प्रथा, परम्परा एवं ईश्वर आदि को अधिक महत्व नहीं दिया जाता है । व्यक्ति एवं सामूहिक पक्ष भी चेतनात्मक संस्कृति के रंग में रंगे होते है । पश्चिम समाज चेतनात्मक संस्कृति का उदाहरण है
(2) भावात्मक संस्कृति:
यह चेतनात्मक संस्कृति के बिल्कुल विपरीत होती है । इसका सम्बन्ध भावना, ईश्वर, धर्म, आत्मा व नैतिकता से होता है । यह संस्कृति आध्यात्मवादी संस्कृति कही जा सकती है इसमें इन्द्रिय सुख के स्थान पर आध्यात्मिक उन्नति, मोक्ष एवं ईश्वर प्राप्ति को अधिक महत्व दिया जाता है ।
इसमें सभी वस्तुओं को ईश्वर कृपा का फल माना जाता है विचार, आदर्श कला, साहित्य, दर्शन एवं कानून सभी में धर्म एवं ईश्वर की प्रमुखता पायी जाती है । प्रथा और परम्परा पर अधिक बल दिया जाता है । इस संस्कृति में प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान पिछड़ जाता है ।
(3) आदर्शात्मक संस्कृति:
संस्कृति चेतनात्मक एवं भावात्मक दोनों का मिश्रण होती है, अत: इसमें दोनों विशेषताएँ पायी जाती है । इसमें धर्म एवं विज्ञान, भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख दोनों का संतुलित रूप पाया जाता है । सोरोकिन इस प्रकार की संस्कृति को ही उत्तम मानते है । वे इसे आदर्शात्मक संस्कृति कहते हैं । सोरोकिन के अनुसार विश्व की सभी संस्कृतियाँ चेतनात्मक से भावात्मक के झूले में झूलती रहती है । प्रत्येक संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुंचकर पुन: दूसरे प्रकार की संस्कृति की ओर लौट जाती है ।
चेतानात्मक एवं भावात्मक संस्कृतियाँ केवल परिवर्तन की सीमाएँ हैं, समाज में अधिकांश समय तो आदर्शवादी संस्कृति ही प्रचलित रहती है संस्कृति में इस परिवर्तन के लिये सोरोकिन ने प्राकृतिक नियमों एवं संस्कृति के आन्तरिक कारणों को उत्तरदायी माना है । परिवर्तन प्रकृति का नियम है । संस्कृति भी इसी नियम के कारण परिवर्तित होती है । संस्कृति की आन्तरिक परिस्थितियाँ भी उसमें परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं ।
सोरोकिन के अनुसार बीसवीं सदी की पश्चिमी सभ्यता चेतनात्मक संस्कृति की चरम सीमा पर पहुँच गयी है, अब वह पुन: भावात्मक संस्कृति की ओर लौट जायेगी । चूंकि संस्कृति का समाज से घनिष्ट सम्बन्ध है, अतः जब संस्कृति में परिवर्तन होता है तो समाज में भी परिवर्तन आता है ।
समालोचना:
सोरोकिन ने अपने सिद्धान्त को वैज्ञानिक बनाने का प्रयत्न किया है ।
फिर भी उसमें निम्नलिखित दोष हैं:
(I) संस्कृति को एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक पहुँचने में इतना लम्बा समय लग जाता है कि इस आधार पर सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति को प्रकट करना कठिन है ।
(II) ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर इस बात को सिद्ध करना सम्भव नहीं कि सभी समाज एक प्रकार की संस्कृति से दूसरे प्रकार की संस्कृति के बीच परिवर्तन के दौर से गुजरते हैं ।
(III) सोरोकिन सांस्कृतिक परिवर्तन के बीच कारकों को भी स्पष्ट करने में असमर्थ रहे है । यह कह देना एक वैज्ञानिक के लिए पर्याप्त नहीं है कि परिवर्तन प्राकृतिक कारणों से होते हैं ।