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लोक प्रशासन के विषय के रूप में चतुर्थ चरण अनेक उथल-पुथल से भरा रहा । चतुर्थ चरण (1947-1970) के दौरान अमेरिकी प्रशासन और सरकार के प्रति गहरा असंतोष व्याप्त था । यह समय वह था, जब वियतनाम युद्ध में अमेरिका असफल हो गया था ।
अमेरिका में प्रशासनिक अव्यवस्था और आर्थिक मंदी का वातावरण था । प्रशासन पर असफल होने के आरोप लग रहे थे । लोक प्रशासन विषय के विकास संबंधी दूसरे और तीसरे चरण के द्वन्द ने इसकी अब तक की उपलब्धियों पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया था । ऐसे समय में लोक प्रशासन के सामने एक विषय के रूप में स्वरूप का संकट खड़ा हो गया ।
अनेक विद्वान राजनीति शास्त्र की तरफ हो गये और जो शेष बचे उन्होंने इसे ”प्रशासनिक विज्ञान” की तरफ ले जाने का निश्चय किया । ये युवा पीढ़ी के विद्वान थे जिनकी आयु 40 वर्ष के भीतर थी । औसत आयु 35 वर्ष से भी कम थी । ये युवा विद्वान लोक प्रशासन को एक प्रक्रिया के रूप में ‘सामाजिक न्याय और परिवर्तन’ की नयी भूमिका में उतारना चाहते थे ।
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ड्वाइट वाल्डो इनका पथ-पदर्शक था । इसी अवधि में कई घटनाएं हुई, जिन्होंने इन युवाओं को सक्रिय होने की प्रेरणा प्रदान की । ये घटनाएं थी- हनी प्रतिवेदन, फिलाडेल्फिया सम्मलेन और डवाइड वाल्डो का लेख ”क्रांति काल में लोक प्रशासन” ।
संकट समाधान के प्रयास: विद्वानों, प्रशासकों और अन्य बुद्धि जीवियों नें सामाजिक असंतोष और तकनीकी समस्याओं के समाधान के लिये लोक प्रशासन के पुनर्गठन पर बल दिया । एफ.सी. मोशर ने “गवर्ममेन्टल री-आर्गेनाइजेशन-केसेज एण्ड कमेन्टरीज” (1967) संपादित की जिसमें प्रशासनिक क्षमता और उत्तरदायित्व को मजबूत करने की आवश्यकता और उपाय सुझाये ।
1. हनी प्रतिवेदन (अप्रैल-मई 1967) [Honey Report (April-May 1967)]:
प्रो. हनी सिराक्यूज विश्वविद्यालय में उपकुलपति थे । इन्हें अमरीका की लोक प्रशासन सोसायटी ने ”लोक सेवाओं के लिये उच्च शिक्षा” नामक विषय पर एक समिति (1966) का अध्यक्ष बनाया जिसका उद्देश्य विश्वविद्यालय में लोक प्रशासन को पड़ाने से संबंधी विकल्पों पर विचार करना था ।
1967 में प्रो. हनी ने अपना प्रतिवेदन सौपा, जिसकी मुख्य विशेषता यह थी कि इसमें लोक प्रशासन की वास्तविक स्थिति को उजागर किया गया था । यह प्रतिवेदन एक लेख के रूप में पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन रिव्यू (नव 1967) में प्रकाशित भी हुआ ।
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इसके प्रतिवेदन को निम्न दो भागों में देख सकते हैं:
i. विश्वविद्यालयों में एक विषय के रुप में लोक प्रशासन के सामने समस्यायें:
(क) विषय संकाय की स्थापना एवं शोध हेतु पर्याप्त धन का अभाव,
(ख) यह बौद्विक वाद-विवाद कि लोक प्रशासन एक अनुशासन (विषय) है, विज्ञान है या व्यवसाय मात्र है,
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(ग) लोक प्रशासन के वर्तमान विभागों (एजुकेशनल डिपार्टमेन्टस) में अपूर्णता,
(घ) इस विषय के विद्वानों और सेवारत प्रशासकों में दूरी ।
ii. उपर्युक्त चुनौतियों से निपटने हेतु उपाय:
उपर्युक्त चुनौतियों से निपटने और लोक प्रशासन में अध्ययनगत रूचि बढ़ाने हेतु प्रतिवेदन में निम्नलिखित सुझाव दिये गये:
1. ”लोक सेवा शिक्षा” पर राष्ट्रीय आयोग की स्थापना जो सरकार को प्रशासनिक रूप से आवश्यक शिक्षित मानव उपलब्ध कराये ।
2. लोक प्रशासन के स्नातकोत्तर विधार्थियों और लोक प्रशासन के अध्यायकों को छात्रवृत्तियाँ दी जायें ।
3. उक्त अध्यापकों को सरकारी काम-काज का व्यवहारिक ज्ञान कराया जाये ।
4. सरकारी और अन्य सार्वजनिक मामलों से संबंधित शोध कार्यों में लगे शोधकर्ताओं को आर्थिक सहायता दी जाये।
5. उक्त शोध कार्यों को संचालित करने हेतु विश्वविद्यालयों को अनुदान दिया जाये ।
6. संघीय, प्रान्तीय और स्थानीय सरकारें भी सरकारी प्रशासन और सार्वजनिक मामलों से संबंधित शैक्षणिक संस्थाओं और कार्यक्रमों को वित्तीय सहायता प्रदान करें ।
7. संघीय, प्रान्तीय और स्थानीय शासन के सरकारी कार्मिकों को पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाये ।
8. नवीन लोक प्रशासन कार्यकम हेतु एक नयी परामर्शदात्री सेवा शुरू की जाये, ताकि प्रशासन के विधार्थियों को नवीनतम सूचनाएं प्राप्त होती रहें ।
9. लोक सेवा और सार्वजनिक मामलों से संबंधित शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के क्रियान्वयन और प्रगति की निरन्तर समीक्षा हो ।
हनी प्रतिवेदन की समीक्षा:
हनी प्रतिवेदन पर मिश्रित प्रतिक्रियायें हुई अर्थात इसका स्वागत भी हुआ और आलोचना भी ।
इसका सर्वाधिक रेखाँकित करने योग्य तथ्य यह है कि इसने दो महत्वपूर्ण कमजोरियों को उजागर किया:
1. प्रशासन और शोधकर्ताओं के मध्य विचारविमर्श का अभाव ।
2. प्रशासन पढ़ाने वालों और प्रशासन करने वालों के मध्य विचारविमर्श का अभाव ।
उक्त कारणों से प्रशासन को सामाजिक परिवर्तनों, अपेक्षाओं का पता नहीं चल पाता और नये विधार्थियों को प्रशासनिक समस्याओं का ज्ञान नहीं हो पता। प्रतिवेदन ने ”राजनीति-प्रशासन” की प्रतिद्वन्दिता का मुद्दा उठाया, जिसने प्रशासन के विकास को बाधित किया है । प्रतिवेदन ने इसीलिये ”राजनीति-प्रशासन” की निकटता पर बल दिया ताकि दोनों मिलकर समाज की नयी मांगों को पूरा कर सकें ।
उक्त नयीं मांगों में लोक प्रशासन की संस्थाओं को बढ़ाना, प्रशासन को अधिक वित्तीय आँवटन और वित्तीय स्वायत्ता प्रदान करना और प्रशासन-राजनीति-नागरिक के त्रिविमिय परस्पर सहयोग को सुनिश्चित करना शामिल थे । परन्तु इसकी सबसे बडी कमी थी कि प्रो. हनी ने लोक प्रशासन को एक अनुशासन के रूप में ही देखा, उसकी राज्य में भूमिका के संदर्भ में कुछ नहीं कहा । लोक प्रशासन के युवा विद्वानों ने इसी कमी के कारण हनी प्रतिवेदन की गम्भीर आलोचना की ।
2. फिलाडेल्फिया सम्मेलन (दिसम्बर 1967) [Philadelphia Conference (December 1967)]:
इस सम्मेलन के अध्यक्ष चाल्सबर्थ थे । अमेरीका की ”राजनीति शास्त्र एवं समाज शास्त्र समिति” ने इसका आयोजन करवाया था । इसका विषय था, ”लोक प्रशासन के सिद्धान्त एवं व्यवहार-क्षेत्र, उद्देश्य और पद्धति ।”
1. प्रशासन के कार्य-क्षेत्र का निरंतर विकास हुआ है, अत: लोक प्रशासन की परिभाषा और क्षेत्र दोनों का निर्धारण कठिन है । अत: इसके क्षेत्र का स्वरूप लचिला रखा जाये ।
2. नीति निर्माण और नीति क्रियान्वयन अर्थात राजनीति-प्रशासन द्विभाजकता गलत है । प्रशासन नीतियों के निर्माण में भी भाग लेता है ।
3. राजनीति शास्त्र और लोक प्रशासन दोनों पृथक और स्वायत्त विषय हैं ।
4. लोक प्रशासन के अध्ययन में सभी प्रचलित दृष्टिकोणों को समान रूप से लागू नहीं किया जा सकता । कुछ ही भाग का अध्ययन वैज्ञानिक पद्धति से किया जा सकता है । जिस भाग का अध्ययन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नहीं किया जा सकता वह लोक प्रशासन का सबसे महत्वपूर्ण भाग है ।
5. एक विषय के रूप में अमेरिकी लोक प्रशासन का सम्बन्ध केवल अमेरीका में लोक प्रशासन से ही होना चाहिये ।
6. संगठन की पदसोपानिक अवधारणा तर्क संगत नहीं है । क्योंकि कार्य और संबंधों में यह कठोरता उत्पन्न करती है । उच्च अधिकारी को अपने कार्मिक गणों को सहयोगी मानना चाहिये, अधीनस्थ या निम्न नहीं ।
7. लोक प्रशासन में प्रबन्धकीय मामलों का स्थान अब नीति या राजनीति से संबंधित बातें लें रही हैं ।
8. लोक प्रशासन में कार्यकुशलता मितव्ययिता उत्तरदायित्वता आदि के साथ ”सामाजिक समानता” को भी प्रमुख स्थान दिया जाना चाहिये ।
9. लोक प्रशासन न सिर्फ सामाजिक समस्याओं से निपटनें में असफल रहा है बल्कि वह अनेक सामाजिक समस्याओं विशेषकर विकासशील देशों की गरीबी, बेकारी, दंगा-फसाद, साम्प्रदायिक समस्याएं, झुग्गी-गंदी बस्तियां आदि के बारे में उदासीन है, जो अनुचित है ।
10. भावी प्रशासकों को निजी प्रबन्ध के स्कूलों में प्रशिक्षण दिया जायेगा । यद्धपि दोनों के प्रशिक्षण की विषयवस्तु अपनी विशेष हो (पृथक-पृथक) ।
11. लोक प्रशासन में शिक्षण-प्रशिक्षण का उद्देश्य प्रबन्धकीय कार्यकुशलता के साथ सामाजिक संवेदना का विकास भी होना चाहिये । इस हेतु प्रशिक्षण विषयों में मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, मानव शास्त्र आदि भी शामिल किये जाये ।
12. लोक प्रशासन विषय में आदर्शात्मक प्रशासनिक सिद्धान्तों के साथ वर्णनात्मक और विश्लेषणात्मक सिद्धान्त भी अस्त-व्यस्त अवस्था की स्थिति में हैं ।
13. नौकरशाही से संबंधित अध्ययन संरचनात्मक और कार्यात्मक दोनों प्रकार से किये जायें ।
फिलाडेल्फिया की समीक्षा:
फिलाडेल्फिया में प्रशासन के बुजुर्ग-चिंतकों (जिनकी औसत उम्र 35 वर्ष से ऊपर थी) ने जो विचार किया वह युवा विद्वानों के अनुरूप भले ही नहीं था, लेकिन भावी नव लोक प्रशासन की चिंताएं उसमें स्पष्ट रूप से रेखांकित हुई थी । हनी प्रतिवेदन के अनुरूप ही यह भी राजनीति-प्रशासन की निकटता पर बल देता है । सम्मेलन ने अपने शीर्षक के अनुरूप लोक प्रशासन के सिद्धान्त और व्यवहार की एकरूपता पर बल दिया ।
एसी ही निकटता पर जोर सामान्यज्ञों-विशेषज्ञों के मध्य और सूत्र-स्टाफ के मध्य दिया गया क्योंकि ये अब तक गंभीर तनावों के बिन्दु बने हुए थे । स्पष्ट है कि फिलड़ेल्फिया का उद्देश्य लोक प्रशासन के सैद्धान्तिक स्वरूप का व्यवहारिकीकरण करना था, न कि कोई क्रांतिकारी परिवर्तन करना । ये विचारक समस्याओं का समाधान प्रचलित तरीकों में ही खोज रहे थे और यही कारण है कि युवा विद्वान इससे भी असंतुष्ट रहे ।
नव लोक प्रशासन का जन्म (1968):
इसके पीछे दो प्रमुख बातें है:
1. वाल्डो का ”लोक प्रशासन रिव्यू” में छपा प्रसिद्ध लेख “क्रांतिकाल में लोक प्रशासन” (1968) जिसमें ‘उथल-पुथल के काल’ को क्रांतिकाल की संज्ञा दी और कहा कि, यह लोक प्रशासन के सामने चुनौती भी है और एक अवसर भी । इसमें उन्होंने लोक प्रशासन की नयी भूमिका क्या हों ? इस पर विचार प्रकट किए थे ।
2. मिन्नीब्रुक सम्मेलन ।
यूँ तो 1967 में एफ. सी. मोशर की पुस्तक “गवर्नमेन्टल रि-आर्गेनाइजेशन-केसेज एण्ड कमेन्टरीज” (जिसे नव लोक प्रशासन का पहला वैचारिक प्रयास माना जाता है) से भी ये युवा चिंतक प्रेरित हुऐ लेकिन विद्वानों को वाल्डों के लेख ने काफी प्रभावित किया । इन युवा चिंतको ने वाल्डों को ही पकड़ा और मिन्नोबुक में उनकें निर्देशन में जिस नवीन प्रशासनिक धारा की रूपरेखा रखी, वही ”नव लोक प्रशासन” बन गयी ।
पुराना लोक प्रशासन और नया लोक प्रशासन-एक तुलना:
पुराना लोक प्रशासन (1887-1970):
i. उद्देश्य:
मितव्ययिता और कार्यकुशलता प्रशासन में सुनिश्चित करना
ii. क्षेत्रमात्र:
नीति क्रियान्वयन तक सीमित ।
iii. सत्ता संबंध:
मात्र प्रबन्धकों के कार्य को ही प्रशासन मानना ।
iv. राजनीति प्रशासन संबंध:
राजनीति-प्रशासन की द्विभाजकता |
v. मूल्य और नैतिकता:
कोई स्थान प्राप्त नहीं ।
vi. स्वरूप:
संस्थागत, औपचारिक ।
vii. अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ संबंध:
लोक प्रशासन मात्र प्रबन्ध है और एकाकी है ।
viii. परिभाषा:
इसमें मात्र सरकारी प्रशासन के कार्य शामिल है ।
ix. ढांचा गत:
पदसौपानिक, कठोर और केन्द्रीत ढाँचा ।
नया लोक प्रशासन (1970 से बाद का):
i. उद्देश्य:
सामाजिक न्याय की प्राप्ति प्रमुख यद्धपि कार्यकुशलता और मितव्ययिता के साथ ।
ii. क्षेत्रमात्र:
नीति, क्रियान्वयन. नीति निर्माण और नीति मूँल्याकन तक विस्तृत ।
iii. सत्ता संबंध:
सभी कार्मिकों के कार्य प्रशासन है और अधीन स्तरीय गतिविधियां जनहित की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण हैं ।
iv. राजनीति प्रशासन संबंध:
राजनीति-प्रशासन के एकीकरण पर बल ।
v. मूल्य और नैतिकता:
मूल्य-नैतिकता को महत्वपूर्ण स्थान देता है ।
vi. स्वरूप:
संस्थागत, औपचारिक के साथ अनौपचारिक ।
vii. अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ संबंध:
लोक प्रशासन समाकलित प्रशासन है और विभिन्न सामाजिक विषयों के साथ संबंधित है ।
viii. परिभाषा:
इसमें सरकार के साथ निजी क्षेत्रों की अनुबंध आधारित सार्वजनिक सेवाएं, स्वयं सेवी संस्थाओं के सार्वजनिक कार्य आदि शामिल हैं ।
ix. ढांचा गत:
पदसौपानिक, कठोर और केन्द्रीत ढाँचा । लचीला पदसौपान जो विकेन्द्रीत हो ।
3. मिन्नोब्रुक सम्मेलन-I (1968) [Minnobroque Conference-I (1968)]:
मिन्नाब्रुक सम्मेलन का प्रारंभ ही इस मांग के साथ हुआ कि परम्परागत लोक प्रशासन अप्रसांगिक है, अब नये लोक प्रशासन की जरूरत है ।
चार क्रांतिकारी नारे:
इस सम्मेलन के निष्कर्षों को मैथ्यू केनसन ने समेटा है । इस सम्मेलन में जो चार प्रमुख नारे गुंजे और जिन्होंने आम सहमति पायी, वे ही नव लोक प्रशासन के अधारभूत बिन्दु बन गये ।
ये चार सिद्धान्त है:
i. प्रासंगिकता:
यह पहला नारा था । इससे आशय है, नया लोक प्रशासन समसामयिक बने । उसे ज्वलन्त जन-समस्याओं और उनकी प्राथमिकताओं पर ध्यान देना चाहिये । परम्परागत लोक प्रशासन उत्पन्न समस्याओं की तरफ अपेक्षित ध्यान नहीं देता, उनकी प्राथमिकता पर ध्यान नहीं देता और जनता की समस्याओं की आवश्यक समझ-बूझ का भी उसमें अभाव था ।
इससे सामाजिक असंतुलन, जन-असंतुष्टि और जनाक्रोश उत्पन्न होता है और समाज में उथल-पुथल शुरू हो जाती है । कहा गया कि कार्यकुशलता और मितव्ययिता ही लोक प्रशासन नहीं है अपितु उसे समकालीन समस्याओं की जड़ों तक पहुंचना चाहिये ।
ii. मूल्य:
प्रशासन मूल्योन्मुखी बने, यह दूसरा प्रमुख नारा था । प्रशासन में मूल्य से तात्पर्य है, पूर्वाग्रही प्रशासन । यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16(4) से उद्भूत सकारात्मक भेदभाव के अनुरूप है और उसे प्रशासन का एक आवश्यक अस्त्र मानता है, जिसके द्वारा समाज में गरीब, वंचित, दलित लोगों की स्थिति में तेजी से सुधार लाया जा सके । इनका तर्क है कि जब समाज स्वयं अमीर और गरीब, सम्पन्न और विपन्न में बँटा है, तब प्रशासन की तटस्थता इस खाई को बढ़ाने में ही मदद करेगा ।
अत: प्रशासन को गरीबों, विपन्नों, दलितों के प्रति विशेष झुकाव रखना चाहिये और यही लोक कल्याणकारी राज्य की वास्तविक पहचान और आवश्यकता है । प्रशासन को जनता की आवश्यकता और पसन्दानुसार प्राथमिकताएं तय करनी होंगी, तभी कल्याण पर खर्च ”कल्याणकारी” होगा । स्पष्ट है कि ”मूल्य” का नारा व्यापक अर्थ वाला है और यह जिस संवेदनशील प्रशासन की मांग करता है उसे व्यवहारिक रूप में प्राप्त करना एक चुनौती है, विशेषकर विकासशील देशों में ।
इस प्रकार नवलोक प्रशासन प्रबंधान्मुखी (तकनीक प्रधान) लोक प्रशासन और मूल्य रहित राजनीतिक दृष्टिकोण दोनों को अस्वीकार करता है । वह लोक प्रशासन को निर्देशात्मक, अनुशासनात्मक और वैज्ञानिक भूमिका प्रदान करता है ।
iii. सामाजिक समानता:
युवा चिन्तकों ने समाजवादी क्रांति का आव्हान किया । पूंजीवादी-लोकतांत्रिक अमेरिकी समाज में सामाजिक समानता का नारा आश्चर्यजनक जरूर था, लेकिन परिस्थितियों पर नजर डाले तो यह उस समय की विषम सामाजिक-आर्थिक जरूरतों के अनुकूल था ।
फिर इसका आशय इसके सामान्य आशय से अधिक व्यापक लगाया गया । सामाजिक आर्थिक असमानता को दूर करने के लिये न सिर्फ मजबूत वितरण प्रणाली की जरूरत होती है, अपितु इसका क्रियान्वयन करने वाले लोक प्रशासन में भी उतनी ही मजबूत भावना होना जरूरी है ।
नव लोक प्रशासन का यह सिद्धान्त विकासशील देशों में अत्यधिक प्रासंगिकता और महत्व रखता है’ मोहित भट्टाचार्य के अनुसार इस नारे से ही नव-बैंथमवाद निकला है जिसके अनुसार लोक प्रशासन में सबसे अहम मसला सरकारी संस्थाओं के कार्यों और उनके परिणामों का मूल्यांकन है । यदि लोक प्रशासन समानता के लिये आवश्यक परिवर्तन सुनिश्चित नहीं कर रहा तो इस बात की पूरी संभावना कि वह वंचितों के शोषण में सम्पन्नों का साथ दे ।
फ्रेडरिक्सन ”नव लोक प्रशासन” (1990) नामक अपनी पुस्तक में कहते है कि, ”जो लोक प्रशासन अल्पसंख्यक पिछड़ों के पिछड़ेपन को दूर करने वाले परिवर्तन लाने में विफल रहता है, अंतत: उसका उपयोग इनके शोषण में ही होता है ।” स्पष्ट है कि सामाजिक समानता समविकास की योजना का आधार है । इसमें मात्रात्मक विकास के बजाय गुणात्मक विकास पर मुख्य बल दिया गया है ।
iv. सामाजिक परिवर्तन:
समानता के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये परिवर्तन आवश्यक है । परम्परागत लोक प्रशासन यथास्थिति वादी था, नव लोक प्रशासन परिवर्तनवादी है । यह परिवर्तन आक्रामक तेवरों से युक्त है । वह समाज के कमजोर वर्ग की स्थिति में तीव्र सकारात्मक परिवर्तन को अपना आदर्श घोषित करता है ।
शक्तिशाली हित समूहों और उनका संरक्षण करने वाली संस्थाओं के विरूद्ध इनसे शोषित रहे वर्ग को अपनी ताकत प्रदान करता है । वस्तुत: परिवर्तन तब तक नहीं हो सकता जब तक प्रशासन में प्रतिक्रिया की जबर्दस्त इच्छाशक्ति नहीं हो ।
नवलोक प्रशासन ऐसी ही प्रतिक्रिया से युक्त है, जो न सिर्फ सामाजिक परिवर्तनों को स्थायित्व देने के लिये उनका संस्थानीकरण करता है, अपितु समाज को बाध्य करता है कि उन परिवर्तनों को अपनाये । इस कारण नवलोक प्रशासन में सामाजिक परिवर्तन के समायोजन की लोच शीलता और बाध्यकारी परिवर्तन लाने की कठोरता दोनों का सुन्दर समन्वय पाया जाता है । अपने सिद्धान्तों के तीव प्रचार-प्रसार और उनकी व्याख्या करने हेतु इन विद्वानों ने बाद में भी समूहवार बैठकें की ।
मिन्नोब्रुक-1 का मूल्यांकन:
इस सम्मेलन की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें तो मिन्नीब्रुक अपनी समय की परिस्थितियों की उपज जरूर था, लेकिन उसके कुछ मुद्दे आज भी प्रासंगिक बने हुऐ हैं । किन्तु इसमें कुछ ऐसी बातें हुई, जिन्होंने अनेक विरोधाभास भी खड़े किये ।
उदाहरण के लिये लोक प्रशासन का राजनीति से पुन: एकीकरण तो उचित था, लेकिन राजनीति का अतिक्रमण कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकता वह प्रस्तावना भी विशेषीकरण के युग में । फिर इसके मुद्दों में पुनरावृत्ति और अन्तर्निहितताए पायी जाती हैं ।
सामाजिक परिवर्तन और समानता को पृथक नहीं रखा जा सकता । समानता प्राप्त करने के लिये परिवर्तन तो आवश्यक होगा ही । इसी प्रकार ”मूल्य” को मिन्नोब्रुक के चिंतक स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं कर पाएं । यह भी सत्य हैं कि यहाँ के मुद्दों पर समाजवादिओं और मार्क्सवादियों की चिंतन-धाराओं का प्रभाव पड़ा । अत: युवाओं ने अपनी उम्र के प्रभाव से ऐसे आदर्शात्मक नारे लगाये जो बहुत कम व्यवहारिक हैं ।
तीन प्रसिद्ध पुस्तकों का प्रकाशन:
i. नवलोक प्रशासन पर फेंक मेरिनी:
मोशर की पुस्तक में नवलोक प्रशासन की परिस्थितियों का जिक्र अधिक था, उसके स्वरूप का अत्यल्प । फेंक मेरिनी ने ही मिन्नोब्रुक पर मैव्यू केनसन के निष्कर्षो का गहन अध्ययन किया और नव लोक प्रशासन पर पहली प्रसिद्ध पुस्तक का संपादन किया ”नव लोक प्रशासन की ओर-मिन्नोब्रुक परिप्रेक्ष्य” (Towards a New Public Administration- Minnobrook Perspective) । यह पुस्तक नव लोक प्रशासन की गीता है ।
ii. पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन इन ए टाइम आफ टर्बुलेन्स, 1971:
इसी वर्ष नव लोक प्रशासन के जनक डवाइट वाल्डों ने भी संकट के काल में लोक प्रशासन की नयी भूमिका पर प्रसिद्ध पुस्तक ”संकट काल में लोक प्रकाशन” का संपादन किया ।
उक्त दोनों पुस्तकों के प्रकाशन से नव लोक प्रशासन को वैचारिक आधार मिला । लेकिन जहां मेरिनी की पुस्तक में मिन्नीब्रुक के निष्कर्ष मात्र को ही नव लोक प्रशासन माना गया, वही वाल्डों ने लोक प्रशासन की नवीन भूमिका के सन्दर्भ में फिलाडेल्फिया और मिन्नोब्रुक दोनों के विचारों में तालमेल बैठाने की कोशिश की ।
यही नहीं उसने शास्त्रीय संरचना के प्रति भी नरम रूख अपनाया । वाल्डों के अनुसार प्रशासन में औपचारिक और अनौपचारिक दोनों तत्वों का स्थान होना चाहिये क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी नहीं अपितु सम्पूरक है ।
समान्य परिस्थितियों में संगठन औपचारिक तत्वों का और असामान्य परिस्थितियों में अनौपचारिक तत्वों का अनुसरण करें । वाल्डों के स्पष्टीकरण से नव लोक प्रशासन के उत्साह में ठहराव आ गया क्योंकि उसने एक तरह से शास्त्रीय-आधुनिक विचारों के द्वन्द को ही विराम दे दिया था ।
iii. फ्रेडरिक्सन का अवतरण:
1980 में फ्रेडरिक्सन अपनी पुस्तक ”नव लोक प्रशासन” के माध्यम से शांत महासागर में हलचल पैदा करने में सफल रहे । उन्होंने लोक प्रशासन की सामाजिक न्याय की भूमिका पर बल दिया और कहा कि मिन्नीब्रुक की परिस्थितियां वर्तमान में भी मौजूद हैं । उन्हीं के शब्दों में, ”सर्वाधिक उत्पादक समाज भी गरीबी, अन्याय और अवसर की असमानता को कायम रख सकता है ।”
4. मिन्नोब्रुक द्वितीय, सितम्बर 1988 [Minnobroque Conference-II, September 1988)]:
ठीक बीस साल बाद मिन्नोब्रुक (अमेरिका) में प्रशासनिक चिंतक पुन: एकत्रित हुए। इस समय विश्व स्तर पर मगिरट थैचर के ”राज्य संकुचनवाद और बाजार विस्तारवाद” पर बहस तीव्र हो गयी थी । उरूग्वे चक्र के रूप में गेट को नया व्यवहारिक स्वरूप देने की कवायद भी शुरू हो गयी थी । इन परिवर्तनों के प्रशासन पर आने वाले प्रभावों और उनके अनुरूप प्रशासन की नयी संरचनात्मक-कार्यात्मक भूमिका को तय करना जरूरी था ।
डी: मिन्नोब्रुक द्वितीय ने लोक प्रशासन के 4 नये सिद्धान्त सुझाये:
(i) असरकारी करण (डी-ब्यूरोक्रेसी):
सरकारी कार्यों का एक हिस्सा निजी क्षेत्रों को हस्तांतरित कर दिया जाये । प्रशासन न्यूनतम क्षेत्र में कार्य करेगा तो उसकी प्रभावशीलता बढ़ेगी और जनता को प्रतिस्पर्धात्मक आधार पर बेहतर सेवाएं सुलभ होंगी ।
(ii) विनौकरशाही करण (डी-सेन्ट्रेलाइजेशन):
कठोर कायदे-कानूनों का सरलीकरण करना, दकियानूसी और अप्रासंगिक कानूनों को रद्द करना तथा प्रशासनिक कार्यो को पारदर्शी और जवाबदेह बनाना जिससे विकास की गति त्वरित हो सके और प्रशासन में सच्चित्रता का विकास हो ।
(iii) विनिवेशीकरण (डी-इन्वेस्टमेन्ट):
सरकार व्यापारिक-व्यवसायिक और औधोगिक प्रकृति के कार्यों से अपने को बाहर निकाल ले और ये कार्य पूर्णत: बाजार के हवाले कर दिये जाएं । अरूण शौरी कहते हैं, ”उधोग चलाना सरकार का काम नहीं है ।”
(iv) विकेन्द्रीकरण (डी-गवर्नमेन्ट):
सम्मेलन में मिन्नोब्रुक प्रथम के इस सिद्धान्त को महत्वपूर्ण स्थान मिला । सत्ता और कार्य दोनों के विकेन्द्रीकरण को नवीन मांगों के सन्दर्भ में अपरिहार्य माना गया ।
मिन्नोब्रुक-2 में सामाजिक समानता, मूल्योन्मुखी प्रशासन, जवाबदेयता, प्रशासनिक नेतृत्व, लोकतान्त्रिक प्रशासन आदि ऐसे विषयों पर भी गम्भीर चर्चा हुई, जो प्रथम सम्मेलन की मुख्य विषय वस्तु थी । लेकिन इसकी विषय वस्तु अब अधिक व्यापक थी और उन पर अपने समय की परिवर्तित राजनीतिक-आर्थिक विचारधारा का गहरा प्रभाव था । यह लोक प्रशासन की नयी करवट थी । परम्परागत लोक प्रशासन में मितव्ययिता और कार्यकुशलता को ही प्रशासन मान लिया गया था ।
मिन्नोब्रुक प्रथम ने सामाजिक न्याय को प्रशासन का केन्द्रीय मुद्दा बना दिया लेकिन अब मिन्नोब्रुक द्वितीय ने कार्यकुशलता और मितव्ययिता को सामाजिक मूल्यों के साथ महत्वपूर्ण स्थान दिया । मिन्नोब्रुक द्वितीय ने लोक प्रशासन में नेतृत्व और नीति के पूराने मुद्दों के साथ तकनीकी और आर्थिक परिवेश को भी जोड़ा । वस्तुत: प्रथम सम्मेलन जहां युवा चिंतकों का था, द्वितीय सम्मेलन के विचारक विभिन्न विषयों के विद्वान के साथ अधिक परिपक्व उम्रदराज, धैर्यवान और गम्भीर थे ।
अन्य प्रमुख विचार:
(a) काल बेलोन, ” आधुनिक लोक प्रशासन को ऐसे प्रतिमानों और सिद्वांतो की खोज करनी चाहिये जो लोकतांत्रिक प्रशासन के अनुरुप हो । ”
(b) गौरतलब है कि विंसेट ओस्ट्राम ने लोकतांत्रिक प्रशासन शब्दावली प्रयुक्त की थी । राल्फ ने ”बैलेट बाक्स से स्वतंत्र लोकतंत्र” को नव लोक प्रशासन का एक प्रमुख ध्येय निरुपित किया ।
(c) गोलामब्यूस्की के अनुसार नव लोक प्रशासन के तीन प्रतिलक्ष्य और पाच लक्ष्य हैं:
तीन प्रतिलक्ष्य जिन्हें मिटाना है:
1. प्रत्यक्षवाद का विरोधी अर्थात निश्चयवादी, नीति विरोधी और मूल्य रहित प्रशासन की परिभाषा अस्वीकृत ।
2. नौकरशाही और पदसोपान संरचना दोनों एक सीमा तक अस्वीकृत (मामूली तौर पर खारिज)
3. तकनीक का विरोधी ।
पांच लक्ष्य जिन्हें प्राप्त करना है:
1. मानव जाति का अनन्त विकास क्योंकि उसमें संपूर्ण बनने की क्षमता है ।
2. सामाजिक परिवर्तन ।
3. मूल्य और नैतिकता ।
4. ग्राहक अभिमुखता अर्थात जनता से पूछना कि उसे क्या, कब, कहां चाहिए ।
5. प्रचलित समस्याओं से सरोकार रखना ।
गोलम्बयुस्की द्वारा निर्धारित 5 लक्ष्य और 3 प्रतिलक्ष्य:
राबर्ट टी. गोलम्बयूस्की ने नव लोक प्रशासन के 5 लक्ष्य तो निर्धारित किये ही, जिन्हें यह प्रशासन प्राप्त करना चाहता है, अपितु 3 ऐसे प्रति लक्ष्यों को भी बताया जिन्हें नव लोक प्रशासन हटाना चाहता है ।
पाँच लक्ष्य:
(I) इसके दृष्टिकोण में मानजाति में सम्पूर्ण पु की क्षमता है और व्यक्ति इस दिशा में प्रगति की ओर अग्रसर है । इस प्रकार यांत्रिक दृष्टिकोण के इस विचार से नव लोक प्रशासन असहमत है कि व्यक्ति उत्पादन का स्थिर घटक है ।
(II) समसामयिक और प्रांसगिकता इसके केन्द्रीय तत्व हैं । यह व्यैक्तिक और संगठनिक मूल्यों (नौतिकता) की केन्द्रीय भूमिका पर बल देता है ।
(III) मानव विकास को निर्देशित करने के रूप में ”सामाजिक समता” को प्रमुख चालक तत्व मानता है ।
4. शासत्रीय विचारधारा जहां संगठन और उसकी आंतरिक प्रक्रिया पर बल देती है, नव लोक प्रशासन का उपागम सम्बन्धों पर बल देता है ।
5. नवाचार और परिवर्तन पर निश्यतात्मक बल देता है ।
तीन प्रतिलक्ष्य:
1. नवीन लोक प्रशासन का साहित्य निश्चयात्मकता का विरोधी है । इससे आशय है कि –
(क) लोक प्रशासन की मूल्यरहित परिभाषाओं को अस्वीकार करता है ।
(ख) मानव जाति से संबंधित तार्किक और निश्यात्मक दृष्टिकोण को खारिज करता है ।
(ग) लोक प्रशासन की उन परिभाषाओं को भी खारिज करता है जो लोक प्रशासन को नीति निर्माण से पृथक मानती है ।
2. यह तकनीक विरोधी है अर्थात भाषणात्मक-सृजनात्मक मानव को मशीन और व्यवस्था पर कुर्बान करने की भत्सर्ना करता है ।
3. यह कम-अधिक मात्रा में नौकरशाही और पदसौपानिक संरचना दोंनो का विरोधी है ।
गोलम्बयुस्की के अनुसार- “निश्चयवादी प्रकार के मूल्य स्वतन्त्र दृष्टिकोण का विरोध नवलोक प्रशासन के प्रवर्तकों का केन्द्रीय मुद्दा रहा है ।”
विशेषताएं और मान्यताएं (Characteristics of NPA):
मिन्नोबुक निष्कर्षों से नव लोक प्रशासन की अधोलिखित विशेषताएं प्रकट होती हैं:
1. समाकलित या एकीकृत प्रशासन:
यह राजनीति-प्रशासन, नीति निर्माण-नीति क्रियान्वयन, संरचनात्मक और कार्यात्मक प्रशासन, प्रबन्धकीय कार्य और सामाजिक न्याय, सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक समायोजन आदि का एकीकृत स्वरूप है ।
2. राजनीति-प्रशासन की द्विभाजकता अस्वीकार्य:
परम्परागत लोक प्रशासन में चली आ रही राजनीति-प्रशासन की पृथकता को नव लोक प्रशासन में चुनौती दी गयी । कहा गया कि प्रशासन को नीति निर्माण में भी एक सीमा तक भाग लेना चाहिये, तभी उनका क्रियान्वयन प्रभावी होगा ।
यह स्वीकार्य तथ्य है कि प्रशासकगण विभिन्न नीतियों के निर्माण में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से भाग लेते भी है । एपिलबी ने उथल-पुथल के काल में ही कहा था कि हमारे समय में प्रशासनिक प्रश्न राजनीतिक प्रश्न भी होते हैं । उनके अनुसार शासन के प्रभावी संचालन में राज्य और प्रशासन दोनों ही परस्पर हस्तक्षेप करते हैं ।
गोलम्बयुस्की ने तो प्रशासन को राजनीति पर वरीयता देते हुऐ कहा कि, ”महत्वपूर्ण कार्यों में प्रशासन राजनीति को प्रवर्तित कर सकता है लेकिन राजनीति प्रशासन को नहीं ।” एस. आर. माहेश्वरी के शब्दों में, ”नीति विज्ञान ने राजनीति-प्रशासन के भेद को समाप्त कर दिया है ।”
3. अन्तर्विषयक दृष्टिकोण:
वस्तुत: प्रशासन को ”नीति विज्ञान” मानने से ही उसकी प्रकृति अन्तर्वषियक हो जाती है । सरकारी या सार्वजनिक नीति का सम्बन्ध अर्थ, समाज, राजनीति आदि सभी से होता है और जब लोक प्रशासन को लोकनीति से संबंधित कर दिया गया, तो वह भी बहुविषयक या अन्तविर्षयक हो गया ।
इकबाल नारायण के अनुसार लोक प्रशासन वह योजक है जो सरकार का जनता के साथ जोड़ता है और वह बकसुआ है, जो प्रत्येक क्षेत्र में राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था को एक साथ जोड़ता है । इस दृष्टिकोण ने लोक प्रशासन को राजनीति के साथ अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास, भूगोल, मानवशास्त्र, प्रबन्ध, अंकगणित आदि से संबंधित कर दिया ।
इस प्रकार नवीन लोक प्रशासन ने प्रशासनिक उप व्यवस्था को अन्य आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, संस्कृतिक, कानूनी, मनोवैज्ञानिक आदि सभी उपव्यवस्थाओं के साथ संबंधित कर दिया है । स्पष्ट है कि लोक प्रशासन पर विचार करते समय हमें अन्य विषयों के विकास को ध्यान में रखना होगा । नूरजहां बावा ने तो नव लोक प्रशासन के सिद्धान्तों के सन्दर्भ में लोक प्रशासन को ”सामाजिक विज्ञानों का सामाजिक विज्ञान” (The Social Science of Social Sciences) तक कह डाला ।
4. पदसौपानिक अवधारणा का विरोध:
नव लोक प्रशासन पारंपरिक संगठन की पदसौपनिक-संरचना को कार्य कुशलता और उद्देश्य-प्राप्ति में बाधक मानता है । इसकी मान्यता है कि पदसौपानिक ढाँचा सला-उम्मुखी होता है, कार्योन्मुखी नहीं अर्थात उच्च स्तर अधिकारों की दृष्टि से प्रभावी रहता है, कार्य समपादन की दृष्टि से नहीं ।
पदसौपान सत्ता के केन्द्रीकरण कर पक्षधर है, जिससे अधीनस्थों की प्रतिभा का इस्तेमाल नहीं हो पाता । साथ ही इससे क्रियान्वयन और संचार में बाधा उत्पन्न होती है, नियमबद्धता आदि का विकास होता है और अन्तत: कार्यों में विलम्ब उत्पन्न होता है । इसके अनुसार वास्तविक परिवर्तन के वाहक तो निम्नस्तरीय कार्यकर्ता ही होते हैं । अत: यह पदसौपानिक कठोर ढाँचे के स्थान पर छोटे-छोटे लचिले ढाँचों की वकालत करता है ।
5. विकेन्द्रीकरण और प्रत्यायोजन:
पदसौपान का विरोध (नव लोक प्रशासन में) विकेन्द्रीकरण और प्रत्यायोजन के लाभकारी तकी के आधार पर भी किया जाता है । प्रशासन में केन्द्रीकरण जिस जटिलता को जन्म देता है, उसे विकेन्द्रीकरण द्वारा कम किया जाता है । विकेन्द्रीत संस्थाए अधिक कार्यदक्ष, जनोन्मुख और लचीली होती हैं । अधीनस्थ स्तरों पर अधिकारों का प्रत्यायोजन कार्य की गति को बढा देता है और सबसे अधिक उनमें पहलपन की भावना का विकास करता है, जो संगठन की प्रभावशीलता के लिए अत्यन्त जरूरी है ।
6. मुल्योन्यूखी आदर्शात्मक प्रशासन:
परम्परागत लौ.प्र मूल्य निरपेक्ष था । उसमें कार्यकुशलता और मितव्ययिता पर अधिक जोर दिया जाता रहा, लेकिन नवलोक प्रशासन ने इनके ऊपर मूल्यों, नैतिकता, आदर्शों को वरीयता दी । फ्रेडरिक्सन के अनुसार सामाजिक समता वह मुख्य संकल्पना है जिसे नव लोक प्रशासनवादी महत्वपूर्ण प्रशासनिक मूल्य के रूप में स्वीकारते हैं ।
नव लों. प्र. एक ऐसी आदर्शात्मक सीमाजिक स्थिति प्राप्त करने पर बल देता है, जहां कोई शोषित नहीं रहे, सभी को जीवन के समान अवसर और साधन सुलभ हों और ऐसी स्थिति लाने के लिये प्रशासन वंचित-तबकों के प्रति प्रतिबद्ध हो ।
यह सामाजिक न्याय से जुड़े हुऐ मुद्दे हैं । इनका सम्बन्ध मूल्यों के चयन के साथ उनकी पूर्ति हेतु संरचनात्मक माडल और प्रबंधकीय पद्धति के निर्धारण से भी है । निग्रों के शब्दों में, ”नवीन लोक प्रशासन ने मूल्य और नैतिकता को लोक प्रशासन की मुख्य विषयवस्तु बना दिया है ।”
7. ग्राहकोन्मुखी प्रशासन:
जनता को केन्द्र में रखकर प्रशासन अपनी सेवाओं का संचालन करें यह विशेषता नव लोक प्रशासन को जनोन्मुख और जन नियंत्रित प्रशासन बना देती है । प्रशासन को जनता से उसकी प्राथमिकताएं, ईच्छाएं, अपेक्षाएं आदि पूछनी चाहिये और उसके अनुरूप सेवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिये । जनता जिस माध्यम से इन सेवाओं को चाहती है, वैसी संस्थाओं का निर्माण नवलोक प्रशासन को करना चाहिये ।