विकासशील देशों में बेरोजगारी की समस्या | Problem of Unemployment in Developing Countries!

Read this article in Hindi to learn about:- 1. विकासशील देशों में बेरोजगारी का प्रारम्भ (Introduction to Unemployment) 2. विकासशील देशों में बेरोजगारी की प्रवृत्ति (Nature of Unemployment in Developing Countries) and Other Details.

विकासशील देशों में बेरोजगारी का प्रारम्भ (Introduction to Unemployment):

विकासशील देशों में श्रम शक्ति की सतत् व नियमित वृद्धि वस्तुतः जनसंख्या में होने वाली तीव्र वृद्धि का परिणाम रही है । इन देशों में कार्यशील जनशक्ति में विस्तार हुआ है लेकिन इसके साथ ही जनशक्ति का एक बहुत बड़ा भाग अपने लिए कार्य के अवसर प्राप्त कर पाने में असमर्थ रहा है ।

फलस्वरूप बेरोजगारी की समस्या विकराल होती जा रही है । सैद्धान्तिक रूप से रोजगार के समय उत्पादकता एवं आय पर आधारित विश्लेषण एक देश में बेरोजगारी की प्रवृत्तियों को परिभाषित करने में समर्थ है ।

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समस्या तो यह है कि विद्यमान एवं बढ़ती हुई श्रमशक्ति को अवशोषित करने के लिए रोजगार का सृजन करना विनियोग कार्यक्रमों को अत्यधिक कुशलता के साथ क्रियान्वित करने की रणनीति की अपेक्षा करता है । यह भी आवश्यक हो जाता है कि जनवृद्धि को न्यून करने के हर सम्भव प्रयास किये जाएँ ।

विकासशील देशों में बेरोजगारी की प्रवृत्ति (Nature of Unemployment in Developing Countries):

बेरोजगारी से अभिप्राय है कि कोई व्यक्ति जिसमें कार्य करने की क्षमता है व जो कार्य करने का इच्छुक है पर उसे वर्तमान मजदूरी दर पर रोजगार प्राप्त नहीं होता । विकसित एवं कम विकसित अर्थव्यवस्थाओं में बेरोजगारी की प्रवृत्ति पाई जाती है लेकिन इनमें भिन्नता होती है ।

विकसित देशों में बेरोजगारी की प्रवृत्ति स्पष्ट करते हुए यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रतिष्ठित विचारकों ने विकसित अर्थव्यवस्था को हमेशा पूर्ण रोजगार की दशा की ओर उन्मुख होता बताया ।

यह एक ऐसी दशा है कि जिसमें अनैच्छिक बेकारी विद्यमान नहीं होती । रोजगार का प्रतिष्ठित मॉडल सरल है । यह पूर्ण प्रतियोगिता एवं मजदूरी दर की लोचशीलता की संकल्पना लेता है जो विकासशील देशों में व्यावहारिक नहीं ।

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वास्तव में इन देशों में साधन अगतिशीलता, कीमत दृढ़ता, बाजार दशाओं की अज्ञानता व दृढ़ सामाजिक संरचना विद्यमान होती है । इस स्थिति में विकासशील देशों में रोजगार का प्रतिष्ठित विश्लेषण प्रासंगिक नहीं बन पाता ।

विलियम बेवरिज के अनुसार पूर्ण रोजगार का अर्थ है बेकार व्यक्तियों की तुलना अधिक स्थान रिक्त होना अर्थात् उचित मजदूरी पर नौकरी उपलब्ध है तथा वह इस प्रकार एवं ऐसे स्थानों पर उपलब्ध है कि बेकार व्यक्ति इसे सरलता से प्राप्त करने की आशा कर सकता है । कीन्ज के अनुसार पूर्ण रोजगार एक ऐसी स्थिति है जिसमें कुछ रोजगार उत्पादन की प्रभावशाली माँग में वृद्धि होने पर भी बेलोच हो ।

कीन्स ने पूर्ण रोजगार विश्लेषण में गुणक सिद्धान्त को अधिक महत्व दिया लेकिन वी. के. आर. वी. राव, के अनुसार गुणक विश्लेषण विकासशील देशों में व्यावहारिक नहीं हो पाता क्योंकि उपभोक्ता वस्तु उद्योगों में अतिरिक्त पूर्ति विद्यमान नहीं होती तथा बढ़ते हुए विनियोग के लिए चाही जाने वाली कार्यकारी पूँजी के तुलनात्मक रूप से लोचदार पूर्ति वक्र विद्यमान नहीं होते जैसा कीन्ज ने बतलाया था ।

यह ध्यान रखना आवश्यक है कि विकासशील देशों में सरकारी व्यय में होने वाला विस्तार समग्र माँग में वृद्धि करता है जिससे रोजगार के स्तर में अपेक्षित वृद्धि नहीं होती परन्तु मुद्रा प्रसारिक दबाव बढ़ जाता है । कारण यह है कि बढ़ी हुई माँग के प्रत्युत्तर में पूर्ति में समरूपी वृद्धि नहीं होती ।

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पूर्ति पक्ष को कई संस्थागत व संरचनात्मक बाधाएँ प्रभावित करती हैं जिनमें पूँजी, कच्चा माल, मध्यवर्ती वस्तु कुशल श्रम, यातायात व संवादवहन की सीमित व हीन दशाएँ, बाजार की अपूर्णता तथा पूँजी एवं मुद्रा बाजार का अविकसित होना है । विकासशील देशों में दिखायी देने वाली मुद्रा प्रसारिक प्रवृत्तियों वस्तुतः सरकारी व्ययों की वृद्धि के साथ हुई माँग का कारण है जिसके अनुरूप पूर्ति में वृद्धि नहीं हो पाती ।

डॉ. वी. के. आर. वी. राव के अनुसार विकास एवं रोजगार के मध्य के सम्बन्ध को ऐतिहासिक अवलोकन के आधार पर निम्न घटकों के द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है:

(1) रोजगार में होने वाली वृद्धि श्रम शक्ति की वृद्धि के साथ चलती है ।

(2) रोजगार की उत्पादकता में होने वाली वृद्धि से प्रति व्यक्ति आय एवं जीवन-स्तर में वृद्धि होती है ।

(3) पेशेगत संरचना में होने वाले अचानक परिवर्तन से कृषि क्षेत्र में श्रम शक्ति की मात्रा घटती है तथा औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार की सम्भावना बढ़ती है ।

(4) श्रम शक्ति में मजदूरी प्राप्त कर्ताओं के अनुपात में होने वाली भारी वृद्धि के साथ स्वरोजगार में लगे व्यक्तियों के अनुपात में कमी देखी जाती है ।

विकसित देशों में रोजगार एवं विकास के मध्य सम्बन्धों की प्रवृत्ति कम विकसित देशों के संदर्भ में सत्य नही पाई जाती । कम विकसित देशों में बेकारी समर्थ माँग की कमी से उत्पन्न न होकर पूँजी की न्यूनता का परिणाम है । सेल्सो फरटाडो के अनुसार अर्द्धविकसित क्षेत्रों में ज्ञात तकनीकों की सीमाओं के मध्य उत्पादन के साथ साधनों में अर्द्धरोजगार दिखाई देता है ।

ऐसा अर्द्धविकास आवश्यक रूप से विद्यमान साधनों के गलत संयोग से उत्पन्न न होकर पूंजी की दुर्लभता से उत्पन्न होता है । श्रम इस कारण गतिशील नहीं होने पाता, क्योंकि पूँजी का अभाव विद्यमान होता है ।

विकासशील देशों में बेरोजगारी के स्वरूप तथा प्रकृति का अध्ययन करते हुए निम्न बिन्दु उल्लेखनीय हैं:

(1) कृषि क्षेत्र में अर्द्धरोजगार की समस्या इस कारण उत्पन्न होती है, क्योंकि सापेक्षिक रूप से स्थिर कृषि भूमि सीमित होती है । परम्परागत तथा अपरिवर्तित उत्पादन विधियों को अपनाया जाता है जिससे उत्पादन में वृद्धि दरें न्यून स्तर पर बनी रहती हैं । जनसंख्या में होने वाली वृद्धि दरें कहीं अधिक होती हैं ।

विकासशील देशों में आधुनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसर धीमी गति से बढ़ते हैं । अत: कृषि क्षेत्र द्वारा ही जब तक अतिरेक श्रम का अवशोषण किया जाता रहेगा तब तक श्रम का सीमान्त मूल्य उत्पाद बहुत अल्प, शून्य या ऋणात्मक न हो जाए । विकासशील देशों में कृषि के अर्द्धरोजगार की समस्या के निवारण हेतु जनसंख्या वृद्धि की नियन्त्रित किया जाना आवश्यक है ।

साथ ही कृषि में उच्च उत्पादकता प्राप्त करने के लिए श्रम गहन एवं भूमि परिष्कृत तकनीक को अपनाया जाना चाहिए जिससे श्रम की प्रति इकाई उपज में वृद्धि सम्भव हो तथा श्रम का पूर्ण उपयोग किया जा सके । कृषि उत्पादन के बढ़ने से औद्योगिक क्षेत्र को आदाओं की प्राप्ति होती है जिससे यह क्षेत्र अधिक उत्पादन के लिए अधिक श्रमिकों को कार्य देते हैं ।

(2) विकासशील देशों में शहरी बेकारी व अर्द्धरोजगार की समस्या इस कारण उत्पन्न होती है, क्योंकि शहरी श्रम शक्ति में 5 या 6 प्रतिशत वार्षिक या इससे अधिक वृद्धि होती है, जबकि आधुनिक शहरी क्षेत्र में श्रम की माँग इस वृद्धि के एक-चौथाई भाग का ही अवशोषण कर पाती है ।

ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर श्रमिकों का प्रवास जारी रहता है । इसका कारण मात्र शहरी जीवन का आकर्षण ही नहीं बल्कि रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त होने की सम्भावना भी है जिनमें कृषि क्षेत्र से उच्च मजदूरी प्राप्त हो सके ।

यद्यपि उच्च मजदूरी प्राप्त होने की सम्भावना शहरों में सीमित ही होती है, क्योंकि श्रम माँग के सापेक्ष पूर्ति अधिक होती है फिर भी गाँव से शहर की ओर प्रवास जारी रहता है व बढ़ता ही जाता है ।

दूसरी मुख्य बात यह है उच्च बेकारी व अर्द्धरोजगार की दशाओं में शहरी आधुनिक क्षेत्र में मजदूरी सापेक्षिक रूप से तीव्र गति बढ़ती है । कारण यह है कि आधुनिक क्षेत्र में ट्रेड यूनियन के दबाव अधिक प्रबल होते हैं उनका प्रयास रहता है कि मजदूरी की दरों में अनुकूल वृद्धि होती रहे ।

अधिकांश उद्योग घरेलू क्षेत्र में एकाधिकारी शक्ति रखते हैं तथा विदेशी मतिस्पर्द्धा से बचे रहते हैं । उच्च श्रम लागतों को वह उच्च कीमतों के रूप में उपभोक्ताओं से वसूल लेते हैं । आधुनिक शहरी क्षेत्र में सापेक्षिक रूप से उन व बढ़ती हुई मजदूरी पूंजी गहन उत्पादन तकनीक के प्रयोग को प्रोत्साहित करती है जिससे श्रम का अवशोषण नहीं हो पाता ।

रोस्टोव ने स्पष्ट किया कि शहरी व ग्रामीण क्षेत्र की मजदूरी में 30 प्रतिशत से अधिक का अन्तर विद्यमान होता है जिससे गाँव से शहर की ओर प्रवास जारी रहता है तथा शहरी बेकारी व अर्द्धरोजगार की समस्या प्रबल होती रहती है ।

तेजी से बढ़ती शहरी बेकारी व अर्द्धरोजगार की समस्या को दूर करने के लिए जनसंख्या वृद्धि की दर का नियन्त्रण मुख्य आवश्यकता है । ग्रामीण क्षेत्रों में शहर की ओर हुए प्रवास को कम करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में श्रम गहन विधियों व मध्यवर्ती तकनीक पर आधारित रहते हुए ग्रामीण विकास के कार्यक्रम अपनाए जाने चाहिए । आधुनिक निर्माण उद्योगों में श्रम के अवशोषण को बढ़ाने के प्रयास होने चाहिए ।

विकासशील देशों में अदृश्य या प्रच्छन्न बेकारी (Disguised Unemployment in Developing Countries):

विकासशील देशों में छद्म, अदृश्य, छुपी हुई या प्रच्छन्न बेकारी को अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न अर्थों में परिभाषित किया है:

श्रीमती जोन रोबिन्सन ने प्रच्छन्न बेकारी को ऐसी स्थिति के द्वारा स्पष्ट किया जिसमें श्रमिकों में निहित कौशल के अंश को पूर्ण उपयोग करने वाले कार्य की कमी होती है । यह एक अस्थायी अर्द्धरोजगार की स्थिति है जिसमें सापेक्षिक रूप से कम पुरस्कार वाले कार्य को करने के लिए बाध्य होना पड़ता है ।

प्रतिसार की अवस्था में प्रभावपूर्ण मांग का अभाव होता है । अत: श्रमिकों को उनकी कुशलता व योग्यता के अनुकूल कार्य नहीं मिल पाता तथा उन्हें कम महत्वपूर्ण या निकृष्ट कार्य करने पर बाध्य होना पड़ता है ।

श्रीमती जोन रोबिन्सन ने प्रच्छन्न बेकारी को विकसित अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में विश्लेषित किया तथा इसकी व्याख्या चक्रीय उच्चावचनों या व्यापार चक्रों से सम्बन्धित की ।

विकासशील देशों में इसकी प्रवृत्ति चक्रीय न होकर दीर्घकालीन होती है अर्थात् इसका कारण प्रभावपूर्ण माँग में होने वाली कमी नहीं बल्कि पूरक साधनों की अल्पता है । एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में प्रच्छन्न बेकारी को संरचनात्मक बेकारी के रूप में भी देखा जा सकता है ।

रागनर नर्क्से के अनुसार अदृश्य बेकारी से अभिप्राय है कि तकनीक एवं उत्पादन साधनों के दिए होने पर अधिक जनसंख्या वाले अल्पविकसित देशों के कृषि क्षेत्र में श्रम की सीमान्त उत्पादकता शून्य होती है अंत: कृषि उत्पादन में कोई कमी किए बिना कृषि में संलग्न जनसंख्या के एक बड़े भाग को हटाने पर भी कृषि उत्पादन में कोई कमी नहीं होनी ।

ऐसे कृषि प्रधान देश जहाँ जनसंख्या अधिक है वहाँ बेरोजगारी का होना आवश्यक नहीं । सामान्यतः कृषि कार्यों में परिवार लगा होता है मात्र व्यक्ति नहीं । जनसंख्या के बढने पर परिवार का आकार भी बढ़ता है तथा वह अपनी सीमित भूमि में ही कार्यरत रहता है ।

यदि परिवार के कुछ व्यक्तियों को कृषि कार्य से हटाकर किसी अन्य कार्य में लगा दिया जाये तो भी कृषि से प्राप्त कुल उपज में कोई कमी नहीं दिखाई देती । स्पष्ट है कि श्रमिकों की कम संख्या द्वारा भी उत्पादन के पूर्व स्तर को प्राप्त किया जा सकता है ।

नर्क्से ने कहा कि ऐसे श्रमिक जिनकी सीमान्त उत्पादकता शून्य है, को कृषि कार्य से हटा लेने पर भी कुल उत्पादन में कोई कमी नहीं होगी । यह बात परिवार के सन्दर्भ में लागू होती है जहाँ परिवार के सदस्यों द्वारा सामूहिक रूप से उत्पादन किया जा रहा है तथा इसका उपभोग सभी सदस्यों द्वारा किया जाता है ।

प्रच्छन्न बेकारी को सामान्य रूप से कृषि से सम्बन्धित किया गया लेकिन इसे अन्य सभी आकस्मिक पेशों में भी देखा जा सकता है । प्रच्छन्न बेकारी की दशा को सामान्यतः ऐसी दशा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है जब श्रम की सीमान्त उत्पादकता शून्य होने की प्रवृति दिखा रही हो ।

तात्पर्य यह है कि जनसंख्या में होने वाली वृद्धि उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं करती । चित्र 39.1 में यदि x-अक्ष में श्रम व y-अक्ष में उत्पादन को प्रदर्शित किया जाये तब वक्र MPL एक व्यापक सीमा में श्रम की सीमान्त उत्पादकता को स्थिर या शून्य प्रदर्शित करता है । चित्र से स्पष्ट है कि श्रम की OL1 व OL2 मात्रा के मध्य श्रम की सीमान्त उत्पादकता MPL शून्य है ।

संक्षेप में अदृश्य या प्रच्छन्न बेकारी की मात्रा को रोजगार हेतु उपलब्ध श्रमिकों की वास्तविक मात्रा व रोजगार के स्तर के उस अन्तर द्वारा ज्ञात किया जा सकता है जहाँ श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता शून्य हो जाती है ।

प्रो॰ ए॰ के॰ सेन ने प्रच्छन बेकारी की मात्रा को मापने का प्रयास किया । उनके अनुसार श्रम की सीमान्त उत्पादकता शून्य नहीं होती, ऐसा होने पर इस श्रम को रोजगार पर नहीं लगाया जाएगा । सेन के अनुसार यह विवाद वस्तुत: श्रम व श्रम समय के मध्य भेद स्पष्ट न होने के कारण उत्पन्न होता है ।

प्रच्छन्न बेकारी को सेन प्रति व्यक्ति कार्य के कम घण्टों द्वारा अभिव्यक्त करते है । संक्षेप में प्रच्छन्न बेकारी श्रम की सीमान्त उत्पादकता से सम्बन्धित न होकर प्रति श्रमिक दैनिक कार्य के घण्टों की संलग्नता से होता है ।

प्रो॰ सेन की व्याख्या को चित्र 39.2 की सहायता से स्पष्ट किया गया है इसके x-अक्ष में श्रम घण्टे तथा y-अक्ष में कुल उत्पादन व ऋणात्मक y-अक्ष में श्रमिकों की संख्या को सूचित किया गया है । चित्र से स्पष्ट है कि श्रमिकों की OL मात्रा लगाने तक कुल उत्पादन में वृद्धि होती है । इससे अधिक श्रमिक लगाने पर कुल उत्पादन स्थिर ही रहता है । OL घण्टा श्रम समय Ol2 श्रमिक संख्या द्वारा प्राप्त होता है ।

यदि श्रमिकों की संख्या को Ol2 से घटाकर Ol1 कर दिया जाये तब भी उपलब्ध श्रम के घण्टे पूर्ववत् अर्थात् OL रहते हैं । अत: Ol2 – Ol1 = l1l2 श्रमिक अतिरेक श्रम को सूचित करते है तथा इस सीमा में श्रम की सीमान्त उत्पादकता MP’L शून्य के बराबर है ।

संक्षेप में प्रच्छन्न बेकारी वह स्थिति है जब श्रम शक्ति में वृद्धि होने के बाद भी कुल उत्पादन में कोई वृद्धि न दिखाई दे । यह भी सम्भव है कि श्रम की सीमान्त उत्पादकता ऋणात्मक हो जाये ।

वास्तव में प्रच्छन्न बेकारी में होने वाली वृद्धि दो मुख्य घटकों पर आश्रित है:

(1) जनसंख्या में होने वाली वृद्धि दर, तथा

(2) पूंजीगत स्टाक की वृद्धि दर ।

जनसंख्या में होने वाली वृद्धि से भूमि की धारक क्षमता कम होने लगती है । परिवार का आकार बढ़ने एवं कृषि द्वारा प्राप्त उत्पादन के स्थिर रहने के कारण उपभोग के स्तर में कमी होती है । अर्द्धविकसित देश का कृषि क्षेत्र परिवर्ती तकनीकी गुणांकों की दशा को सूचित करता है ।

कृषि उत्पादन श्रम गहन तकनीकी द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है । दूसरी ओर आधुनिक क्षेत्र में उत्पादन के तकनीकी गुणांक स्थिर होते है उत्पादन की प्रकृति पूंजी गहन होती है । अतः बड़ी हुई श्रम शक्ति का अवशोषण सम्भव नहीं होता ।

प्रच्छन्न बेरोजगारी एवं बचत सम्भाव्यता (Disguised Unemployment and Saving Potential):

पिछड़े हुए देशों में अपार जनशक्ति व्यापक रूप से बेकार होती है जिसे अदृश्य, गुप्त या छद्‌म बेकारी कहा जा सकता है । प्रायः कृषि कार्यों में संयुक्त परिवार प्रणाली विद्यमान होती है जिसमें आय अर्जित करने वाले व्यक्ति परिवार के उन सदस्यों का भी पोषण करते हैं जो निष्क्रिय है या आशिक रूप से ही कार्य कर पा रहे हैं । यदि इस निष्क्रिय अथवा अतिरेक श्रम शक्ति को कृषि क्षेत्र से हटाकर अन्य उत्पादक कार्यों में लगा दिया जाये तब बेरोजगारी का समाधान सम्भव है ।

नर्क्से के अनुसार छदम या प्रच्छन्न बेकारी में बचत सम्भाव्यता छुपी होती रोजगार के वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध कराकर ही पूंजी निर्माण सम्भव है । उत्पादन की विद्यमान तकनीक को बनाए रखते हुए एवं उत्पादन में किसी भी प्रकार की कमी किए बिना कृषि क्षेत्र से काफी अधिक श्रमशक्ति को अन्य क्षेत्रों में स्थानान्तरित किया जाना सम्भव है ।

अदृश्य रूप से बेकार श्रम शक्ति को विभिन्न पूंजीगत परियोजनाओं, जैसे-सड़क निर्माण, सिंचाई हेतु नहर निर्माण, भवन निर्माण, सामुदायिक विकास कार्यों में लगाया जा सकता है । इससे कृषि पर दबाव कम होगा तथा श्रमिकों को रोजगार प्राप्त होने से उत्पादकता के स्तर में वृद्धि होगी ।

अतिरिक्त श्रम शक्ति को बचत सम्भावना के रूप में रूपान्तरित करने में दो मुख्य समस्याएं सामने आती है:

(1) कृषि क्षेत्र से स्थानान्तरित अतिरिक्त श्रम शक्ति का भरण-पोषण

(2) अतिरिक्त श्रमिकों को कार्य करने हेतु यन्त्र व उपकरण प्रदान करना

(1) कृषि क्षेत्र से स्थानान्तरित अतिरिक्त श्रम शक्ति का भरण-पोषण:

नर्क्से का विचार था कि जो श्रमिक कृषि क्षेत्र से स्थानान्तरित किए जाते हैं उनका भरण-पोषण उन श्रमिकों द्वारा किया जा सकता है जो कृषि क्षेत्र में कार्यरत है । यदि स्थानान्तरित श्रम शक्ति को अपने क्षेत्र से काफी दूर काम मिले तब उपभोग योग्य बचत द्वारा इनका भरण-पोषण किया जा सकता है ।

दूसरी बात यह कि जब स्थानान्तरित श्रम शक्ति उत्पादक परियोजनाओं में रोजगार के अवसर प्राप्त कर लेती है तब इनके भरण-पोषण की समस्या विद्यमान नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं आय प्राप्त करने में समर्थ है ।

मौरिस डाब के अनुसार जब गाँव से बाहर नये विनिर्माण स्थलों की ओर काम करने वाले हाथ पहुँचेंगे तो उनके साथ मुँह भी जाएँगे एवं गाँव में खाने वाले मुँह कम रह जाएँगे । इससे गाँव में खाद्य सामग्री के बाजार जाने की सम्भावना होगी ।

अतः गाँव में रहने वाले व्यक्तियों के उपभोग में कमी जाए बिना नवीन निर्माण कार्यों में संलग्न श्रमिकों की बढ़ती हुई फौज की आवश्यकता पूर्ति की जानी सम्भव होगी ।

यह समस्या मात्र तब हल हो सकती है, जब- (a) कृषि क्षेत्र में संलग्न श्रमिकों द्वारा अपने उपभोग स्तर में परिवर्तन किया जाये । (b) जिन श्रमिकों को कृषि क्षेत्र से स्थानान्तरित किया गया है । उनके लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था की जाये ।

(2) अतिरिक्त श्रमिकों को कार्य हेतु यंत्र व उपकरण प्रदान करना:

नर्क्से ने स्पष्ट किया कि कृषि क्षेत्र के अतिरेक श्रम को पूंजीगत परियोजनाओं में रोजगार प्रदान करते हुए यह समस्या उत्पन्न होती है कि उन्हें कार्य हेतु आवश्यक उपकरण रख यन्त्र कहाँ से उपलब्ध कराए जाएँ ।

इसके समाधान हेतु यह सुझाव दिया गया कि उत्पादन में यथा सम्भव कृषि प्रधान तकनीक का प्रयोग किया जाये व साथ ही भूमि जोतों के अल्प व बिखरे होने की स्थिति में काफी अधिक उपकरणों का समुचित प्रयोग नहीं हो पाता अतः इनका अन्य उत्पादक क्षेत्रों में उपयोग किया जाना चाहिए । साथ ही चकबन्दी व सहकारी कृषि द्वारा उत्पादकता को बढ़ाने के प्रयास किए जा सकते हैं ।

सम्भाव्य बचत में रिसाव (Leakages in Potential Savings):

नर्क्से ने प्रच्छन्न बेकारी को बचत सम्भावित के रूप में स्वीकार किया । सम्भाव्य बचत द्वारा पूंजी निर्माण करने के लिए रिसाव पर रोक लगानी आवश्यक है । रिसाव इस कारण उत्पन्न होता है, क्योंकि कृषि क्षेत्र में कृषकों के उपभोग स्तर में वृद्धि होती है, क्योंकि कृषि क्षेत्र से अतिरेक जनसंख्या के हट जाने पर आश्रितों का भार कम हो जाता है ।

इसी प्रकार कृषि क्षेत्र से स्थानान्तरित श्रमिक औद्योगिक क्षेत्र में कार्य के अवसर प्राप्त करते है तथा उनका आय व उपभोग स्तर बढता है । नर्क्से के अनुसार रिसाव को रोकने के लिए सरकार द्वारा अतिरिक्त उपज की अनिवार्य वसूली, कृषकों द्वारा क्रय की जा रही वस्तुओं पर करारोपण, उचित राशन व्यवस्था व लगाने में वृद्धि की जानी चाहिए ।

इसके बाद यदि रिसाव कम न हो तब अन्य क्षेत्रों द्वारा प्राप्त बचतों या पूरक बचतों का आश्रय लिया जाना चाहिए । संक्षेप में सरकार सार्वजनिक नीति के द्वारा बचत का अधिकाधिक भाग प्राप्त करने में सफल हो सकती है जिससे पूंजी निर्माण सम्भव बनाता है ।

यदि आन्तरिक सामन अपर्याप्त ही तब अनाज सम्बन्धी माँग को आयात द्वारा पूर्ण किया जा सकता है । अनाज सम्बन्धी माँग की पूर्ति करने के लिए पूरक बचतों के रूप में विदेशी सहायता का प्रयोग किया जा सकता है । पूरक बचत जब विदेशी सहायता के रूप में उपलब्ध ही तब इससे समुचित लाभ प्राप्त करने के लिए विदेशों से अनाज व उपकरणों का आयात किया जा सकता है । ऐसे श्रमिक जिन्हें पूंजीगत क्षेत्र में स्थानान्तरित किया गया है, आयातित अनाज का प्रयोग करेंगे ।

नर्क्से के सिद्धान्त का आलोचनात्मक परीक्षण (Critical Evaluation of Nurkse’s Theory):

नर्क्से के सिद्धान्त का समर्थन करते हुए प्रो॰ ब्रह्मानन्द एवं वकील ने कहा कि अल्पविकसित देशों में कृषि व असंगठित क्षेत्रों में अदृश्य बेकारी के रूप में बचत सम्भाविता विद्यमान होती है जिसके द्वारा निर्धनता के दुश्चक्र का निवारण किया जा सकता है । प्रच्छन्न बेकारी को पूंजी निर्माण के महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में विश्लेषित करते हुए नर्क्से ने इस कार्यप्रणाली को स्वत: वित्त प्राप्त करने वाली बतलाया ।

प्रच्छन्न बेकारी को कृषि में पूंजी निर्माण की भाँति देखते हुए इस व्याख्या को निम्न बिन्दुओं के आधार पर आलोचना की जाती है:

(1) कृषि क्षेत्र में अतिरेक श्रम की पर्याप्त मात्रा विद्यमान होती है जो कुल उत्पादन में निपेक्ष रूप से कोई योगदान नहीं करती । संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट के अनुसार भारत के कई क्षेत्रों में अतिरेक ग्रामीण श्रम कृषि से संलग्न कुल व्यक्तियों के 20 से 25 प्रतिशत से कम नहीं है ।

यहाँ अतिरेक ग्रामीण जनसंख्या को ऐसी स्थिति के द्वारा व्याख्यायित किया गया है जिसमें कृषि श्रम का सीमान्त उत्पादन शून्य होता है । थियोडोर शूल्ज के अनुसार निर्धन देशों में कार्यकारी जन शक्ति के एक भाग की सीमान्त उत्पादकता का विचार एक गलत धारणा है ।

आलोचकों के अनुसार खेती के व्यस्त समय में कृषि श्रमिकों की कमी का अनुभव किया जाता है । ऐसे में यदि तथाकथित कृषि श्रम को कृषि क्षेत्र से हटाया जाये तो कुल उत्पादन में निश्चित कमी हो जाएगी ।

(2) नयी पूंजीगत परियोजनाओं में लगाए गए श्रमिकों के जीवन-निर्वाह हेतु कृषि क्षेत्र से खाद्य अतिरेक किस प्रकार एकत्र किया जाये एवं इसका वितरण किस प्रकार हो जैसी समस्याओं पर विचार नहीं किया गया ।

कृषि क्षेत्र में विद्यमान अतिरेक श्रम को अन्य क्षेत्रों में स्थानान्तरित करना सरल नहीं है । नयी पूंजीगत परियोजनाएं हमेशा उन ग्रामीण क्षेत्रों के समीप नहीं होतीं जहाँ अतिरेक श्रम प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है । सामान्य रूप से ग्रामीण जन अपने परिवार एवं भूमि से मोह रखते हैं तथा आसानी से अन्य दूरस्थ इलाकों में जाना पसन्द नहीं करते ।

निकोलस कालडोर का मत है कि अल्पविकसित देशों में कृषक आत्मनिर्भरता के लिए उत्पादन करते हैं न कि लाभ के लिए । अत: यह आवश्यक नहीं कि कृषि क्षेत्र से बेकार श्रम शक्ति को स्थानान्तरित कर विपणन योग्य अतिरेक में वृद्धि हो ही जाये ।

(3) बेंजामिन हिगिन्स नर्क्से द्वारा प्रस्तावित पूंजीगत परियोजनाओं की उत्पादक उपयोगिता पर संशय व्यक्त करते हैं । अतिरिक्त कृषि श्रमिकों के द्वारा देखी पूंजीगत परियोजनाएँ सामान्य उपकरणों द्वारा चलाई तो जा सकती हैं लेकिन क्या यह अर्थव्यवस्था की उस जड़ता को समाप्त कर पाएँगी जो शताब्दियों से इन देशों में विद्यमान हैं ।

(4) नर्क्से ने माना कि कृषि क्षेत्र में कार्य कर रहे व्यक्तियों एवं पूंजीगत परियोजना में स्थानान्तरित थम शक्ति की उपभोग प्रवृति पूर्ववत् रहेगी । कुरिहारा के अनुसार अर्थव्यवस्था में उपभोग प्रवृति तब बढ जाती है जब अदृश्य रूप से बेकार श्रम शक्ति पूंजीगत वस्तु क्षेत्र की ओर हस्तान्तरित होती है ।

(5) कुरिहारा के अनुसार विकासशील देशों में स्थिर पूंजी की दुर्लभता से भी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं । अतिरेक श्रम के द्वारा यथेष्ट स्थिर पूंजी के अभाव में सरल यन्त्र व उपकरणों के द्वारा कार्य किये जाने पर भी इसका पूंजीगत परियोजनाओं के सृजन में सीमित योगदान होता है ।

छद्‌म बेकारी को श्रम गहन प्रकृति की परियोजनाओं में रोजगार प्रदान करने में किसी विशिष्ट कौशल या यंत्रों की आवश्यकता नहीं होती लेकिन इससे यह आशा नहीं की जा सकती कि स्थिर पूंजी की समुचित मात्रा एवं गुणवत्ता जिसकी औद्योगीकरण हेतु आवश्यकता है को तुरन्त उत्पादित किया जा सके ।

(6) हर्षमैन ने नर्क्से की आलोचना करते हुए कहा कि आर्थिक विकास हेतु जो घटक आवश्यक है उन्हें Permissive घटक एवं Compulsive घटकों में बाँटा जा सकता है । अतिरेक कृषि श्रम जो पूंजी परियोजना में लगे है आर्थिक विकास हेतु Compulsive घटक को ही उत्पादित कर सकते है लेकिन यह लोहा इस्पात या भारी इंजीनियर के समान को उत्पादित नहीं कर सकता जो आर्थिक विकास हेतु घटक का रूप ले ।

हर्षमैन के अनुसार नर्क्से द्वारा वर्णित ग्रामीण अतिरेक श्रमिकों पूंजी निर्माण का साधन बनाना केवल सामाजिक उपरिमद पूंजी (SOC) के सन्दर्भ में प्रासंगिक है न कि प्रत्यक्ष उत्पादक गतिविधि (DPA) के रूप में जो आर्थिक विकास की दृष्टि से अधिक उपयोगी होता है ।

(7) नर्क्से का कथन है कि पूंजीगत परियोजना में लगे श्रमिकों हेतु मजदूरी के भुगतान की समस्या नहीं होती, क्योंकि पूंजी निर्माण की सम्पूर्ण प्रक्रिया की प्रकृति स्वयं वित्त प्राप्त करने वाली होती है । आर्थर लेविस के अनुसार बिना मजदूरी प्रदान किए श्रमिक पूंजीगत परियोजनाओं की ओर आकृष्ट नहीं होंगे ।

(8) लेविस ने स्पष्ट किया कि अतिरेक श्रम के प्रयोग में बाधा स्थिर पूंजी के कारण नहीं बल्कि कार्यशील पूंजी के कारण होती है । कार्यशील पूंजी होने पर भी अतिरेक श्रम का उपयोग होने पर अर्थव्यवस्था में स्फीतिक दबाव उत्पन्न होंगे ।

जब भी श्रमिकों को मजदूरी प्राप्त होती है तब उनकी आय बढती है लेकिन उत्पादन इस अनुपात में बढ़ पाना आवश्यक नहीं बल्कि इससे कीमतों में वृद्धि होती है । यदि माँग की जा रही उपभोग वस्तुओं का आयात किया जा रहा हो तब इससे व्यापार सन्तुलन के विपरीत होने की सम्भावना भी उत्पन्न होती है ।

(9) सम्भावित बचत का उपयोग करने के लिए प्रशासनिक संरचना पर आश्रित रहना पड़ता है । विकासशील देशों में कुशल प्रशासकों व प्रबन्धकों का अभाव होने से बचत के उपयोग में प्रशासनिक बाधाओं का अनुभव किया जाता है ।

(10) नर्क्से ने अपनी व्याख्या में तकनीकी निष्क्रियता की मान्यता ली, जबकि पूंजी क्षेत्र में निरन्तर श्रम बचत उपयोग को अपनाया जाता है जिससे इस क्षेत्र में श्रमिकों का अवशोषण सम्भव नहीं हो पाता ।

(11) अतिरेक श्रम को पूंजी निर्माण के रूप में बदलने की क्रिया लम्बे समय तक नहीं चल पाती । यदि पूंजी निर्माण में तेजी से वृद्धि होने लगे तथा जनसंख्या वृद्धि की दर उस तेजी से न बड़े कि श्रम का अतिरेक प्राप्त हो तब यह प्रक्रिया रुक जायेगी ।

वास्तविक मजदूरी में होने वाली वृद्धि भी पूंजीपति के अतिरेक को कम कर देती है । वास्तविक मजदूरी में तेजी से तब वृद्धि होती है जब पूंजीवादी क्षेत्र जीवन-निर्वाह क्षेत्र के सापेक्ष अधिक बड़े । ऐसे में व्यापार की रातें पूंजीवादी क्षेत्र के विपरीत होने लगेंगी तथा इस क्षेत्र के द्वारा प्राप्त लाभ का अधिक भाग श्रमिक द्वारा प्राप्त किया जायेगा ।

यह सम्भावना विद्यमान होती है कि आधुनिक तकनीकों के प्रयोग द्वारा जीवन-निर्वाह क्षेत्र अधिक उत्पादन करने में समर्थ बनें । जीवन-निर्वाह क्षेत्र में उत्पादकता के बढ़ने से पूंजीगत क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी बढ़ेगी । अत: पूंजीपति का अतिरेक संकुचित हो गया जिससे पूंजी निर्माण की दर भी कम होगी ।

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