Here is a list of top eight women development goals in Hindi language.

भारतीय जनसंख्या का लगभग आधा हिस्सा महिलाओं द्वारा संघटित होता है फिर भी उनकी हैसियत निराशापूर्ण रूप से निम्नस्थ पाई जाती है । उन्हें सशक्त किए जाने की अत्यावश्यक जरूरत है जिससे कि उनकी रचनात्मकता, नवाचार को उनके परिवारों के, समुदायों के, तथा अगली पीढी के अच्छे भविष्य के लिए भी, जीवन की गुणवत्ता को सुधारने के लिए प्रयुक्त किया जा सके ।

इस तरह, महिला सशक्तीकरण तथा स्थिर विकास करीबी रूप से जुडे हैं और यह माना जाता है कि लैंगिक अंतराल को क्षमताओं संसाधनों तथा अवसरों तक पहुँच के मामले में काफी संकुचित किया जाना चाहिये और हिंसा तथा संघर्ष के प्रति उनकी भेद्यता को रोका जाना चाहिए ।

लैंगिक समानताएँ (MDGs No-3) इस प्रकार गहराई से एमडीजी के अन्य सात लक्ष्यों को प्राप्त करने में जुडी हैं जो समग्र सतत विकास पर ध्यान केंद्रित करती हैं । यह लेख एमडीजी के लक्ष्य को प्राप्त करने में भारत के बढते रहने का अवलोकन करता है ।

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भगवान ने हम सभी को बराबर बनाया है फिर क्यों ? जनसंख्या का एक भाग विलासिता तथा प्रचुरता में आराम से पडा हुआ है, जबकि दूसरा भाग घोर गरीबी तथा दुर्गति के अधीन करा रहा है । इसका जवाब यह है कि यह स्थिति मानव निर्मित है ।

किसी न किसी बहाने से, कुछ लोगों ने बाकी लोगों के अधिकारों तथा सम्पत्तियों को हडप लिया है । वास्तव में, मानव इतिहास महत्वाकांक्षा की कहानियों, सभी प्रकार की शक्तियों के लिए अतृप्त लोलुपता, व्यापक पैमाने पर शोषण के लिए जिम्मेदार किंचित का संचय, दमन, बचना, भेदभाव, अमानवीकरण और ‘सम्पन्न’ तथा ”विपन्न’ के (सैद्धांतिक रूप से) दो भागों में मोटे तौर पर दुनिया को विभाजित करते हुए अनगिनत लोगों की अवनति की कहानियों से भरा हुआ है ।

”विपन्न” लोग शिक्षा, स्वास्थ्य, लाभकारी रोजगार, चुनाव की स्वतंत्रता तथा उनकी प्रतिभा और क्षमता को बाहर निकलने देने के लिए आवश्यक न्याय जैसे ”जीवन के हक” के प्रति अपनी पहुँच को गम्भीर रूप से सीमित पाते हैं । अन्यायपूर्ण समाज तथा विभाजित मानवता मानव समाज के यथार्थ अस्तित्व को अनिष्ट की आशंका देते हुए विश्व-शान्ति तथा समृद्धि के लिए समस्याएँ खडी कर रही है ।

यह केवल उन पुरुषों में ही नहीं हे जो बाध्य असमानता के अपराधियों के रूपांकन के शिकार हैं बल्कि महिलाओं की लगभग पूरी आबादी (जनसंख्या का लगभग 47 प्रतिशत का गठन करने वाली) किसी के द्वारा यह टिप्पणी पाते हुए बेतरह दु:ख भोग रही हे कि महिलायें शोषण के दीर्घ मार्ग के इतिहास की आखिरी अवस्था को गठित करती हैं ।

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यथा-तथ्य रूप में, महिलाओं की कहानी अधिकारच्युति, घरेलूकरण, सभी प्रकार के सशक्त शोषण तथा विषयाश्रितकिरण के आसपास् घूमती है जो उन्हें अवमानवीय श्रेणी में नीचे ला देती है । इसका परिणाम यह है कि महिलाओं की हेसियत भयानक रूप से निम्न रहती है लैंगिक असमानता की स्थिति ने प्रकट किया कि अभी भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की साक्षरता स्तर में काफी बडा अन्तर है और प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में लैंगिक असमानता 2015 तक खत्म होने की संभावना है ।

महिलायें दुनिया के काम का 86 प्रतिशत पूरा करती है और अन्न के 50 प्रतिशत का उत्पादन करती हैं किन्तु वे दुनिया की कुल आय का मात्र 10 प्रतिशत ही अर्जित करतीं हैं और संपत्ति का मुश्किल से 01 प्रतिशत ही स्वामित्व में रख पातीं हैं ।

चयनात्मक गर्भपात, कन्या-शिशु की उच्च मृत्यु दर, बेटों को वरीयता, लडकियों तथा लडकों के उपचार में असमानतायें महिलाओं की स्वास्थ-समस्या के मूल कारण हैं और सामाजिक रूप से रचित लैंगिक भूमिकाएँ उन्हें कम उम्र में माँ तथा पत्नी बनने के लिए विवश करती हैं जो उनकी आशाओं तथा आकांक्षाओं को गम्भीर रूप से क्षति पहुँचाती है ।

कम उम्र में शादी तथा इससे पहले कि उनका शरीर गर्भधारण के लिए तैयार हो और प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक प्रतिबंधित पहुँच उन्हें पहले ही मातृ मृत्यु दर में योगदान देने के लिए विवश करती है ओर उन्हें प्रसूति नालव्रण जैसी बीमारी के लिए अति संवेदनशील बना देती है । बूढे लोगों के साथ किए गए उनके जबरन विवाह उनको एचआईवी/एड्‌स के संक्रमण के प्रति सुगम्य करते है ।

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किशोर वय की माताओं के बच्चे प्रायः जन्म के समय कम वजन, कुपोषण, रक्ताल्पता, विकलांगता की एक किस्म से पीड़ित रहते है और प्रतिभा तथा क्षमता के साथ एक पृथक व्यक्ति के रूप में काम करने वाले कम संभावना के साथ स्कूल जाने के लिए उस समय अल्प संभावना रखते है जब वे बडे होते है ।

इसके अलवा, महिलाएँ हिंसा, यौन शोषण तथा मानव-तस्करी के कारण बुरी तरह से अरक्षित रहती हैं । यह पिछले कुछ दशकों में हुआ है कि एक उत्तरोत्तर बढती हुई स्वीकारोक्ति पाई गई है कि सतत विकास के लिए, मानव संसाधन, भौतिक संसाधनों की तुलना में भी अधिक महत्वपूर्ण है ।

अमहत्वपूर्ण लोगों की रचनात्मकता तथा नवीनता का उपयोग करके, न केवल भौतिक संसाधनों की कमी पूरी की जा सकती है बल्कि मानव पूंजी में निवेश भी गरीबी को आस्तियों में बदल सकता है जैसा कि चीन, जापान, कोरिया तथा कई अन्य देशों में देखा गया ।

इसने इस सबक को भी समझाया है कि अमहत्वपूर्ण तथा अब तक वशीभूत लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य, लाभकारी रोजगार के साथ ही विकल्प व न्याय की स्वतन्त्रता प्रदान करने के द्वारा असमानता को काफी हद तक घटाया जाना चाहिए ।

यह संसाधनों व अवसरों के मामलों में लैंगिक असमानता को बढावा देने के द्वारा महिलाओं की हैसियत में सुधार लाने के लिए और गरीबी में कमी लाने के लिए जोरदार माँग करता है । महिलाओं के अधिकार अब मानव-अधिकार एजेंडा का हिस्सा हैं और प्रगामी विकास के लिए महिलाये अपरिहार्य रूप में अधिकाधिक पहचानी जाती है ।

यह अब माना जाता है कि सशक्त महिलाएँ रचनात्मक होने के लिए अधिक स्वतन्त्र हैं (प्रतिभा के साझे स्रोत को अत्यधिक रूप से बढाने में) और अपने परिवारों के तथा अपने समुदायों के विकास में योगदान करने के लिए सक्षम हैं । ऐसी सशक्त महिलाएँ अगली पीढी की संभावनाओं में सुधार करने के लिए आबद्ध हैं ।

इस तरह विकास का वह मॉडल जो पहले मानव-केन्द्रित बना था, अब महिला-केन्द्रित बन चुका है और लैंगिक समानता व निष्यक्षता को बढावा देने के लिए वैश्विक प्रयास हो रहे है जो सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों या डक्ठ्ठे का अभिन्न हिस्सा हैं ।

सितम्बर, 2000 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा अंगीकृत सहस्त्राब्दि घोषणा ने भूख, लैंगिक असमानता, शिशु एवं मातृ मृत्यु दर, बीमारी तथा पर्यावरण क्षरण के विरुद्ध एक युद्ध शुरू करने के द्वारा विकास, शांति, सुरक्षा व लैंगिक समानता से लेकर गरीबी के कई आयामों के उन्मुलन के लिए तथा समग्र सतत विकास के अधिकार के लिए अपनी प्रतिबद्धताओं की फिर से पुष्टि की ।

यह आठ लक्ष्यों का तथा विश्व के सबसे गरीब नागरिक के लिए वैश्वीकरण के लाभ को बढाने के लिए 18 समयबद्ध लक्ष्यों का एकीकृत समूह है । यूएनडीपी की रिपोर्ट के अनुसार- ”यह लक्ष्य विकसित देशों द्वारा सामना किए जा रहे सबसे अहम मुद्दों-जैसे कि गरीबी, भूख, अपर्याप्त शिक्षा, लैंगिक असमानता, शिशु एवं मातृ मृत्यु दर, एच.आई.वी./एड्‌स तथा पर्यावरण क्षरण से निपटने के लिए 2015 तक की प्रगति को प्रोत्साहित करने के लिए है ।”

यूएनडीपी MDGs पर केन्द्रित लैंगिक विकास कार्य-योजना को तैयार करने में देशों की मदद करता है और की कार्यवाही के विवरण को उनके प्रति राष्ट्रीय प्रगति का लेखा-चित्र बनाता है । अतः यह के लिए बहुत मायने रखता है । विकासशील देशों म महत्वपूर्ण लैंगिक असमानता है जो के लक्ष्यों को प्राप्त करने में एक बडी चुनौती का गठन करती है ।

क्षमताओं, संसाधनों व अवसरों तक पहुंच तथा हिंसा व विचारों की भिन्नता के प्रति अति संवेदनशील होने वाले मामलों में लैंगिक अंतराल को संकुचित किया जा सकता है । यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लैंगिक समानता समग्र सतत विकास पर ध्यान केंद्रित कर रहे अन्य सात सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए गहराई से जुडी हुई है ।

वर्ष 2005 के लिए प्रथम भारतीय सहस्त्राब्दि लक्ष्य (8) भारत देश की रिपोर्ट में सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के तत्कालीन राज्य-मर्त्री श्री जी॰ के॰ वासन द्वारा 13 फरवरी 2006 को घोषित की गई थी । प्रथम कंट्री रिपोर्ट ने लक्ष्यों तथा उद्देश्यों के संदर्भ में डक्ठ्ठे की चुनौतियों तथा नीतियों की तुलना में भारत की उपलब्धियों को चिन्हित किया था और पिछले कुछ वर्षों में लोगों के जीवन में काफी सुधार को उजागर किया था । यह हमारे राष्ट्र की जटिल समस्या तथा विविधताओं के बावजूद समुचित विकास रणनीतियों तथा कार्यक्रमों के आयोजनानुसार कार्यान्वयन के कारण संभव हुआ है ।

विभिन्न लक्ष्यों के संदर्भ में भारत की स्थिति इस प्रकार हैं:

1. चरम गरीबी और भूख का उन्मूलन (लक्ष्य-1):

2015 तक भारत को गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों की संख्या को 1990 के 37.5 प्रतिशत से घटाकर लगभग 18.75 प्रतिशत तक लाना चाहिए । 1990-2000 के गरीबी-आंकडों ने प्रकट किया था कि 5.2 प्रतिशत की गरीबी की खाई के अनुपात के साथ गरीबी की गणना द्वारा प्राप्त संख्या का अनुपात 26.1 प्रतिशत था ।

भारतीय योजना आयोग द्वारा प्रयुक्त मापदंड के अनुसार, 2004-05 में जनसंख्या का 27.5 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे रह रहा था । केंद्र सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम का शुभारंभ किया कि गरीबी का अनुपात आगे चल कर कम होगा और उक्त लक्ष्य 2015 तक प्राप्त कर लिया जाएगा । 2010 तक महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम ने 46 लाख परिवारों को लाभान्वित किया है ।

तथापि, 2010 में सचिव, सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन द्वारा यथा की गई MDGs पर भारत की प्रगति ने प्रकट किया था कि 2015 तक बिहार, यू॰पी॰, छत्तीसगढ, झारखण्ड, मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा तथा उत्तराखण्ड जैसे आठ प्रदेशों द्वारा प्राप्त किए जाने वाले लक्ष्यों निर्भर करते हुए गरीबी को आधा किया जाना सम्भव होगा यह अनुमानित किया गया है कि 2015 तक गरीबों की संख्या 279,000,000 होने की संभावना है ।

इस स्थिति का मुकाबला करने के लिए, निधि के प्रवाह को व्यवस्थित बनाने के लिए तथा अलभ्य तक पहुँचने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग व रिसाव को रोकने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय सरकार को सत्ता सौंपना आवश्यक होगा ।

डक्ठ्ठे की 2010 की मूल्यांकन रिपोर्ट ने भी देश में सतत भूख, कुपोषण तथा स्वास्थ्य के मुद्दों पर चिंता व्यक्त की । भारत विश्व की क्षुधा के 50 प्रतिशत का उत्तरदायी है । 46 प्रतिशत से अधिक भारतीय बच्चे न्यूनपोषित है ।

2. सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा को उपार्जित करना (लक्ष्य-2):

1991-92 में 41.96 प्रतिशत के सापेक्ष 2015 तक प्राथमिक स्कूल में नामांकन दर को 100 प्रतिशत तक बढाया जाना तथा स्कूल छोड कर जाने वालों की संख्या को समाप्त करना इसका लक्ष्य है । 1992-93 से लेकर 2002-03 तक प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में लडकों का सकल नामांकन अनुपात लडकों के लिए लगभग 100 प्रतिशत रहा था और लडकियों के लिए 93 प्रतिशत रहा ।

सर्व शिक्षा अभियान की सरकार की योजना के तहत 2008-09 के लिए भारत में प्राथमिक शिक्षा के आँकडों से पता चला था कि प्राथमिक विद्यालयों की संख्या वर्ष 2002-03 में 856301 से 2008-09 में 1285576 तक बढी थी और उच्च प्राथमिक स्कूल से लेकर प्राथमिक विद्यालयों का अनुपात, जो 2003-04 में 2.87 था 2008-09 में 2.27 तक नीचे आया ।

प्राथमिक स्तर (6-11 वर्षों वाली जनसंख्या) पर जीईआर 2004-05 के 89.93 प्रतिशत से 2008-09 के 115.31 प्रतिशत तक बढा । एनईआर 2008-09 में 92.75 प्रतिशत से 98.59 तक बढा और 6-11 वर्ष की कुल स्कूल जाने वाली आबादी में लडकियों का दाखिला 2003-04 के 47.47 प्रतिशत से 48.38 प्रतिशत हुआ । 2003-04 की प्रतिधारण दर 58.11 प्रतिशत से बढकर 2008-09 में 74.92 प्रतिशत हो गई । प्राथमिक शिक्षा में लडकियों के दाखिले, प्रतिधारण तथा उपलब्धि स्तर पर पर्याप्त सुधार हुआ है ।

माध्यमिक शिक्षा के मामले में वर्ष 1990-91 के दौरान पुरुष-महिला अनुपात ने माध्यमिक शिक्षा पर सरकार के जोर के कारण 2000-01 में 49:100 से लेकर 63:100 तक की ऊर्ध्वगामी प्रवृत्ति को दर्शाया । सभी के लिये सरकार की माध्यमिक शिक्षा की नई योजना मध्यमिक शिक्षा में लैंगिक समानता को प्राप्त करने का लक्ष्य रखती है ।

उच्च शिक्षा में महिला की भागीदारी भी बढ रही है । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की रिपोर्ट के आधार पर SES 2004-05 के अनुसार 2007-08 में उच्च शिक्षा में जीईआर 18-23 वर्ष वालों की आबादी का 111 प्रतिशत था जो कि 2011-12 में 11वीं योजना अवधि के अंत के दौरान 15.5 प्रतिशत की वृद्धि की संभावना रखता है ।

उक्त रिपोर्ट ने यह भी प्रकट किया कि 2003 के दौरान उच्चतर तथा तकनीकी शिक्षा में कुल सफल स्नातक स्तर की संख्या 2052197 थी जिसमें से 1235444 पुरुष थे तथा 816753 महिलाएँ थी जिनका पुरुष-महिला का अनुपात 1.5:1 ओर स्नातकोत्तर स्तर पर वही अनुपात 1.42:1 था ।

विश्वविद्यालयों, तकनीकी कॉलेजों, पॉलिटेक्यिक आदि के प्रस्तावित विस्तार को महिलाओं की वर्धित सहभागिता के साथ देश में उच्च शिक्षा को और अधिक प्रोत्साहन दिया जायेगा । कुल साक्षरता अभियान तथा सतत शिक्षा कार्यक्रम भी महिलाओं की अनौपचारिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं ।

3. लैंगिक समानता को बढावा देना तथा महिलाओं को सशक्त करना (लक्ष्य-3):

अग्रांकित कानूनों के एक समूह को प्रस्तुत करने के द्वारा लैंगिक रूढिबद्धता में परिवर्तन को पेश करने के अलावा सुरक्षा, गरिमा, लैंगिक समानता को बढावा देने के लिये तथा भेदभावपूर्ण व्यवहार, उत्पीडन व लैंगिक पक्षपात को काफी हद तक नियंत्रित करने के लिये राष्ट्रीय सरकार द्वारा कई कदम उठाए गए हे और वे कानून इस तरह हैं – दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, बाल विवाह निरोधक (संशोधन) अधिनियम, 1979, घरेलू हिंसा में महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2005, सती-प्रथा निवारण अधिनियम आयोग, 1987, महिलाओं का अश्लील निरूपण (निषेध) अधिनियम 1986, अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम, पूर्व-गर्भाधान एवं प्रसवोत्तर निदान तकनीक अधिनियम, 1994, गर्भधारण का चिकित्सीय अवसान अधिनियम, 1971 कार्य-स्थल पर यौन उत्पीडन की रोकथाम पर उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देश (1977), समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976, मातृत्व अधिनियम, 1961 तथा राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम ।

चूँकि महिलाएँ गरीबी रेखा में रहने वाली आबादी के आधिक्य के अंतर्गत आती हैं और प्रायः वे अत्यधिक गरीबी की स्थिति में रहती हैं, अतः ऐसी महिलाओं की समस्याओं का समाधान करने के लिये गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम बनाए गए हैं ।

महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण के लिये आर्थिक उपायों का एक वर्ग बनाया गया है जैसे कि माइक्रो क्रेडिट तंत्र द्वारा ऋण लेने के लिये महिलाओं की पहुँच को बढाना, मेक्रो-आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों के रूपांकन तथा कार्यान्वयन में महिलाओं के दृष्टिकोण का अंतर्वेशन, वैश्वीकरण के आलोक में रोजगार तथा रोजगार की गुणवत्ता तक पहुंच के लिये नीतियों का पुनर्गठन करना, कृषि क्षेत्र में लगी महिलाओं के लिए प्रशिक्षण, विस्तार तथा विभिन्न कार्यक्रम के लाभ को पहुँचाना, इलेक्ट्रॉनिक्स, सूचना प्रौद्योगिकी, खाद्य प्रसंस्करण, कृषि उद्योग तथा वस्त्र उद्योग जैसे औद्योगिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को मजबूत बनाना ।

सामाजिक सशक्तिकरण के लिए कन्या-शिक्षा, (जैसी ऊपर चर्चा की गई है) महिलाओं के स्वास्थ्य, पोषण, पेयजल और स्वच्छता पर जोर दिया गया है । 73वें एवं 74वें संवैधानिक संशोधन पंचायत तथा नगर-पालिका निकायों में महिलाओं के लिये पद आरक्षित करने के द्वारा महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण का लक्ष्य रखते हैं और राज्य सभा ने पहले ही संसद तथा राज्य विधायिका में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण के लिए महिला आरक्षण विधेयक को पारित कर दिया था ।

भारत के पास 30-40 प्रतिशत तक निर्वाचित प्रतिनिधित्व के रूप में महिलाओं की भागीदारी के लिए स्थापित कोटा है । डब्ल्यू एवं सीडी की लैंगिक समानता पर नीति महिलाओं के सशक्तिकरण पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता के कार्यान्वयन को लक्ष्य करती है जैसे कि महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव पर सम्मेलन [Convention on all Forms of Discrimination against Women (CFDAW)], महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रीय सहयोग, (International Regional Co-Operation towards Empowerment of Women) ।

MDGs के 2010 के मूल्यांकन ने प्रकट किया था कि सरकार अधिकार आधारित विविध कानूनों के लिए प्रतिबद्ध है और पर्याप्त भोजन तथा आय, बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, साफ पानी, स्वच्छता तथा महिलाओं के सशक्तिकरण की तरह सुविधाओं के लिए अति-महत्वपूर्ण कार्यक्रमों तक पहुँच प्रदान करने के द्वारा नागरिकों के जीवन में सुधार किया है ।

कन्या-शिशु के विरुद्ध भेदभाव पैतृक लिंग चयन, कन्या भ्रूण हत्या, कन्या शिशु हत्या, बाल विवाह, बाल उत्पीडन एवं बाल वेश्यावृति के खिलाफ कार्रवाई करने वाले कानूनों को कडाई से लागू करने के द्वारा रोका जा रहा है ।

4. लक्ष्य-4:

1988-2000 में प्रति एक हजार जीवन-जन्म में से 125 मौतों की तुलना में 2015 में 42 मौतों तक से पाँच मृत्यु दर के तहत कम करने के लक्ष्य को रखता है । U5MR 1988-2000 में जीवन-जन्म की प्रति एक हजार में से 98(13) तक कमी आई है । 2010 में U5MR 69 प्रति हजार जीवन जन्म तक नीचे आ गया है । शिशु मृत्यु दर 2003 में 60 प्रति हजार की तुलना में 2010 में 49.13 प्रतिशत तक घट गई है । 2010 में एक वर्षीय बच्चों का 43.5 प्रतिशत पूरी तरह से प्रमुख बीमारियों के खिलाफ प्रतिरक्षित किया गया था ।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, आईसीडीएस, संपूर्ण स्वच्छता अभियान पूरी तरह से प्रजनन शिशु स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने में लगे हुए हैं जो विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं तथा झुग्गी बस्तियों में रहने वाली महिलाओं को लक्ष्य बनाए हुए हैं और यह आशा की जाती है कि भारत 2015 तक लक्ष्य संख्या 4 प्राप्त करने में समर्थ होगा ।

5. लक्ष्य-5:

2015 तक मातृ मृत्यु दर में कमी लाने से सबन्धित है । 2006 में मातृ मृत्यु दर 254 प्रति हजार जन्म तक दर्ज की गई थी और कुशल स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा इस कार्य पर ध्यान देने से जन्म के अनुपात को बढाने के लिए ठोस प्रयास किए जा रहे है जिनकी संख्या लगातार बढ रही है ।

आईसीडीएस 0.5 वर्षीय बच्चों को स्कूल पूर्व सेवाओं, स्वास्थ्य, पोषण, टीकाकरण के एक सेट के अलावा गर्भवती तथा स्तनपान कराने वाली माताओं को उपयोगी सेवाएं प्रदान कर रहा है । तथापि, 2010 में के मूल्यांकन ने इंगित किया था कि भारत में कुशल देखभाल के साथ प्रसव का प्रतिशत 1990 के 33 प्रतिशत से 2007-08 में 52 प्रतिशत तक बढ गया लेकिन यह अभी भी विकासशील दुनिया के 68 प्रतिशत के औसत से कम है ।

6. लक्ष्य-6:

एचआईवी/एड्‌स का मुकाबला करने से संबंधित है । भारत में अन्य विकासशील देशों की तुलना में गर्भवती महिलाओं में एचआईवी की कम प्रबलता है, फिर भी एचआईवी संक्रमण 2002 के 0.77 प्रति हजार महिलाओं से 2003 में 0.66 तक बढ़ गया है ।

राष्ट्रीय एड्‌स नियंत्रण संगठन ने हाल ही में भारत के कुछ भागों में एचआईवी मामलों के प्रसार में वृद्धि की सूचना दी है । उक्त संगठन यह मुकाबला करने के लिए पर्याप्त उपाय करने में लगा हुआ है । मलेरिया तथा क्षय-रोग के साथ जुडी मृत्यु दर तेजी से नीचे आ रही है और इन बीमारियों के सफलतापूर्वक इलाज से रोगियों का अनुपात 2003 के 86 प्रतिशत से 2010 में 90 प्रतिशत से अधिक हो गया है ।

7. लक्ष्य-7:

पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करने का उद्देश्य रखता है । 2003 में किए गए आँकलन के अनुसार, वन आवरण किंचित युक्तियों की वृहद संख्या अपनाने से सरकार के कारण 20.64 प्रतिशत हुआ था, वे युक्तियीं इस तरह हैं- पेडों की कटाई पर विधि / विनियम, परियोजनाओं आदि के लिए वन संरक्षण तथा पर्यावरण के लिए मंजूरी ।

जैव विविधता बनाए रखने के लिये आरक्षित एवं संरक्षित वन भूमि क्षेत्र के 19 प्रतिशत का ध्यान रखा जाता है और समुदाय वानिकी तथा अन्य वन संबंधी कार्यक्रमों के माध्यम से वन आवरण को बढाए जाने के लिये लगातार प्रयास किए जा रहे हैं । रु 1000/- मूल्य के योग्य सकल घरेलू उत्पाद के उत्पादन के लिये उपयोग में आने वाली ऊर्जा निरन्तर घट रही है और स्चच्छ ऊर्जा के स्रोतों को सक्रिय किया जा रहा है ।

सुरक्षित पेय-जल तक के लिये पहुंच ‘स्वजल’ तथा अन्य पेय जल संबंधी परियोजनाओं के संचालन के साथ वांछित गति से बढ रही है । हालाँकि, ग्लोबल वार्मिंग के कारण बदलते हुए जलवायु पैटर्न, पर्यावरण प्रदूषण, भूजल स्तर में गिरावट प्रमुख पर्यावरणीय खतरों का गठन कर रहे हैं ।

8. लक्ष्य-8:

विकास के लिये वैश्विक भागीदारी से संबंधित है । भारत सरकार विकसित देशों के साथ कुछ मुद्दों को आरंभ कर रही है जो इस सम्बन्ध में हैं – लघुतम विकसित देशों द्वारा सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने द्वारा विकास के लिये अतिरिक्त संसाधन, अंतरराष्ट्रीय सहमति होने पर आधारित विकास सहायता के रूप में इसके सकल घरेलू उत्पाद के 0.7 प्रतिशत के खर्च को सुनिश्चित करना और बेतरह ऋणी निर्धन देशों आदि के लिए इसके उचित वितरण, मूल राशि, ऋण-राहत को सुनिश्चित करना ।

इस प्रकार पाते हैं कि भारत लैंगिक समानता तथा सशक्तिकरण के मुख्य मुद्दे को संबोधित करने के द्वारा के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आगे बढ रहा है । सरकार ने राजनीतिक प्रक्रिया तथा सार्वजनिक जीवन में सभी स्तरों पर महिलाओं की सहभागिता तथा समान प्रतिनिधित्व के लिए आवश्यक तंत्र विकसित करके और कन्याओं के लिए विस्तीर्ण शिक्षा प्रदान करने के द्वारा महिला-समानता, विकास तथा सशक्तिकरण के लिए पर्याप्त कदम उठाए हैं ।

युक्तियों की एक बडी संख्या का शुभारंभ महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल विकास को बढावा देने के लिए किया गया है और उसी समय पर उन प्रथाओं के सभी रूपों को नष्ट करने के लिए काम किया गया है जो महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करते हैं ।

नीतियों तथा कार्य-योजना का एक समुच्चय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा महिलाओं के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए तैयार किया गया है । तथापि, सर्वोत्तम इरादों के बावजूद, MDGs पर भारत की प्रगति कुछ-कुछ सुस्त है विशेष रूप से गरीबी न्यूनीकरण, सतत भूख, कुपोषण और महिला तथा बाल स्वास्थ्य के क्षेत्र में ।

कार्यक्रम के कार्यान्वयन में सुधार की जरूरत है और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए शक्ति विकसित करने के द्वारा, निधि-राशि के उपयोग को व्यवस्थित बनाने के द्वारा, कार्यक्रमों की प्रभावी निगरानी के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग द्वारा प्रशासन के प्रत्येक सोपान को लोगों के प्रति जवाबदेह बनाये जाने की जरूरत है और हितधारकों द्वारा सभी स्तरों पर इन लक्ष्यों को एकीकृत करने की जरूरत है जैसा कि सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन, भारत सरकार के सचिव द्वारा यथेष्ट रूप से कहा गया था ।

इसके अतिरिक्त, इस कार्यक्रम के कार्यान्वयन में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए पर्याप्त तंत्र विकसित करने की जरूरत है । प्रक्रिया शुरू हो गई है और यह सही दिशा में जा रही है, सिर्फ कार्यान्वयन की ही गति में सुधार होना है और इन प्रक्रियाओं को उल्टा करने के लिए कोशिश कर रहे व्यापक लैंगिक भेद-भाव पर निरंतर चौकसी रखने की जरूरत है ।